Sunday, 6 April 2014

तो दलित हितों के लिए वह राष्ट्र के खिलाफ़ भी जाएंगे

लखनऊ विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के एक आचार्य हैं कालीचरण स्नेही। जब भी कहीं कुछ बोलते हैं विष-बुझा ही बोलते हैं। राम जाने वह विश्वविद्यालय में छात्रों को पढ़ाते कैसे होंगे? या कि छात्र पढ़ते भी कैसे होंगे इन से?

क्यों कि विषय कोई भी हो वह अपना एक रिकार्ड बजा देते हैं, ब्राह्मण विरोध का। वही मनुस्मृति आदि का पहाड़ा। भरपूर विष बुझी भाषा में लपेट कर। आज पुस्तक मेले में भी वह एक कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे थे और अपना वही रिकार्ड बजाते-बजाते यहां तक बोल गए कि  दलित हितों के लिए वह पत्नी, भाई, बंधु यहां तक कि राष्ट्र के खिलाफ़ भी जाएंगे। बिलकुल बम-बम थे वह और हुंकार भर रहे थे। मंच पर सारे दलित समाज के लोग ही उपस्थित भी थे। अरुणाचल प्रदेश के पूर्व राज्यपाल माता प्रसाद इस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे। कोई पूर्व विधायक राही भी थे। और कि सूचना विभाग में डिप्टी डा्यरेक्टर और उत्तर प्रदेश पत्रिका के संपादक सुरेश उजाला कार्यक्रम का संचालन बिलकुल दलित उबाल में ही धधक कर कर रहे थे। सब के तेवर और तंज एक थे। बस दिक्कत यह भर थी कि जितने लोग मंच पर थे उस से दोगुने लोग ही नीचे श्रोता थे।

खैर यह सब तो पुस्तक मेले के कार्यक्रम और दलितों के भाषण का अनिवार्य हिस्सा है। इस सब में कोई खास बात नहीं। पर दलित हितों के लिए कोई राष्ट्र के खिलाफ़ भी जा सकता है, यह ज़रुर चिंता और विरोध का विषय है। खास कर तब और जब वहां एक पूर्व राज्यपाल भी उपस्थित हो मंच पर, एक सरकारी कर्मचारी मंच का संचालक हो। और एक बार भी इस बात पर वह आपत्ति न दर्ज करे कि भाई और तो सब ठीक है लेकिन यह राष्ट्र के खिलाफ़ जाने की बात तो मत कीजिए। पर कालीचरण स्नेही की इस बात का कि दलित हित के लिए राष्ट्र के खिलाफ़ भी जा सकते हैं का ज़रा भी किसी ने विरोध करने की ज़रुरत नहीं महसूस की। कालीचरण स्नेही ने अपने भाषण में जिस के दस-बीस श्रोता मुश्किल से थे कम से कम बीस बार तो यह बताया ही कि वह लखनऊ विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के अध्यक्ष हैं। यह भी बताया बार-बार कि लखनऊ विश्वविद्यालय में अब जनरल कोटे के विद्यार्थी पी एच डी के लिए इम्तहान ही नहीं पास कर पाते सो सारी सीटों पर आरक्षित वर्ग के विद्यार्थी ही पी एच डी कर रहे हैं। उन का झूठ यहीं नहीं थमा। वह लंदन और अमरीका के जाने कौन शहर घूम कर आए हैं कि उन्हें वहां हर दो तीन किलोमीटर पर लाइब्रेरियां मिलती रहीं।

ब्रिटिश रुल और अंगरेजों की उन्हों ने डट कर तारीफ़ की। स्वामी विवेकानंद को ले कर भी उन्हों ने कई अतार्किक और मनगढ़ंत बातें कहीं। कहा कि बुद्ध के पहले देश मानसिक रुप से दरिद्र था। और कि बुद्ध के बाद ही देश में ज्ञान आया। क्या तो यह देश कृषि प्रधान देश है। सो यहां ऊंट, भैस, गधों का मेला लगता था। अंबेडकर के चलते ही पुस्तक मेले लगने शुरु हुए। काली चरण स्नेही को कोई यह बताने वाला नहीं है कि झूठ और लफ़्फ़ाजी की एक सीमा होती है। मनुस्मृति जो कि ब्राह्मणों ने  लिखी ही नहीं, उस के नाम पर ब्राह्मणों को गरिया कर अपनी जहरीली भाषण बाजी की दुकान चलाना और बात है, सचमुच विद्वतापूर्ण और तार्किक बातें करना दूसरी बात। कुछ वक्ताओं ने मुद्रा राक्षस की किताब धर्म का पुनर्पाठ का ज़िक्र करते हुए उस किताब की तारीफ़ की। तो काली चरण स्नेही इस पर भी भड़क गए। कहने लगे कि धर्म के किसी पाठ की ज़रुरत नहीं है। पुनर्पाठ की भी ज़रुरत नहीं है। न धर्म की न संस्कृति की। उन्हों ने जैसे फ़तवा जारी किया कि संस्कृत और संस्कृति ने देश और समाज का बहुत विनाश किया है। इन को सागर में डुबो देना चाहिए।  दिलचस्प यह कि काली चरण स्नेही बार-बार अंबेडकर का गुणगान भी करते रहे, संविधान की दुहाई भी देते रहे और संविधान और राष्ट्र विरोधी भाषण भी देते रहे। ऐसी बेशर्मी और कुतर्की बातें करना जैसे कालीचरण स्नेही की बीमारी है। इन का मानसिक इलाज और विरोध बहुत ज़रुरी है। इस लिए भी कि काली चरण स्नेही की भाषा विमर्श की भाषा नहीं होती। और कि इस कुतर्क और विष-बुझी बातों को करने वाले काली चरण स्नेही अकेले नहीं हैं। एक पूरी जमात है। काली चरण स्नेही एक प्रवृत्ति हैं। अपवाद नहीं। जो अपनी दुकानदारी चटकाने के लिए देश के खिलाफ़ जाने जैसी जहरीली बातें बेधड़क कर रहे हैं। लोहिया जाति तोड़ो की बात करते थे। पर कालीचरण स्नेही जैसे लोग जाति तोड़ने की जगह जातियों में जहर घोलने का काम कर रहे हैं। तिस पर तुर्रा यह कि यह आचार्य भी हैं !

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