Tuesday 15 October 2013

वीरेंद्र यादव के विमर्श के वितान में आइस-पाइस यानी छुप्पम-छुपाई का खेल

दयानंद पांडेय 

[ इस आलेख को पढ़ने के पूर्व कृपया नोट कर लें कि वामपंथी अवधारणा के तहत वीरेंद्र यादव की नज़र में राम मनोहर लोहिया फ़ासिस्ट हैं। न सिर्फ़ फ़ासिस्ट हैं, नाज़ी हैं, हिटलर के अनुयायी भी हैं लोहिया।]

दुनिया बदल रही है, वीरेंद्र यादव भी बदल रहे हैं। और उन के विमर्श का वितान भी। वह अब कट्टर वामपंथी नहीं रह गए हैं। यह खुलासा उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के हालिया पुरस्कार समारोह में हुआ । उस के पहले भी कुछ कार्यक्रमों में दिखी थी। जैसे टाइम्स आफ़ इंडिया द्वारा प्रायोजित एक कार्यक्रम में जो लखनऊ के गोल्फ़ क्लब में आयोजित किया गया था। कामरेड नूर ज़हीर के बुक रीडिंग में। उस कार्यक्रम में कुछ कामरेड लोगों की उपस्थिति तब भी कई लोगों को चौंका गई थी। वीरेंद्र यादव तो खैर उस कार्यक्रम की अध्यक्षता ही कर रहे थे। और पूरी लचक के साथ। हमारे जैसे उन के कुछ प्रशंसकों को यह अच्छा लगा था। बाद में उन की यह लचक और लोच हिंदी संस्थान के सरकारी कार्यक्रम में और निखरी। इस कार्यक्रम में हनुमान भक्त, रामायण मेला करवाने वाले समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव जो लोहिया के अनुयायी भी हैं, शिष्य भी अपने सुपुत्र और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के साथ मंच पर उपस्थित थे। वही मुलायम सिंह यादव जो पहली बार जब १९७७ में मंत्री बने थे तो जनसंघ धड़े के समर्थन से। कल्याण सिंह उन के साथ ही स्वास्थ्य मंत्री थे। जब मुख्यमंत्री भी बने पहली बार १९८९ में तो भाजपा के समर्थन से हीे अटल बिहारी वाजपेयी के चरण स्पर्श तो हम सब के सामने ही है। और अभी बहुत दिन नहीं बीते जब वह लालकृष्ण आडवाणी की तारीफ़ आन रिकार्ड कर रहे थे। चौरासी कोसी परिक्रमा पर भी विहिप के साथ उन की गलबहियां गौर तलब थीं ही, मुज़फ़्फ़र नगर के दंगे और कंवल भारती की फ़ेसबुकिया टिप्पणी पर गिरफ़्तारी भी दरपेश थी। भारत-भारती से सम्मानित गोपालदास नीरज भी मंच पर विराजमान थे। नीरज आचार्य कहिए भगवान कहिए रजनीश के भक्तों में से हैं। नीरज के कई गीतों पर ओशो ने प्रवचन भी किए हैं। और बहुत सुंदर प्रवचन किए हैं। नीरज ने फ़िल्मी गीत भी खूब लिखे हैं और मंचीय कवि कहे ही जाते हैं। इतना ही नहीं उसी मंच पर कुछ और लोकप्रिय मंचीय कवि उपस्थित थे। हिंदी संस्थान के कार्यकारी अध्यक्ष उदय प्रताप सिंह, गीतकार सोम ठाकुर, बुद्धिनाथ मिश्र, व्यंग्यकार अशोक चक्रधर आदि तो थे ही, दीनदयाल उपाध्याय पुरस्कार से पुरस्कृत बलदेव बंशी भी उसी मंच पर थे। और भी ऐसे तमाम लोग थे जिन को वीरेंद्र यादव जो अपने वामपंथी चश्मे से देखते तो वहां क्षण भर भी नहीं रुकते और चल देते। ऐसा करते वीरेंद्र यादव को एकाधिक बार मैं ने देखा है।


लखनऊ के गोमती नगर पत्रकारपुरम में प्रसिद्ध पत्रकार अखिलेश मिश्र के नाम एक पार्क के नामकरण समारोह का आयोजन था। अखिलेश जी की सुपुत्री वंदना मिश्र, दामाद रमेश दीक्षित ने आयोजित किया था। लखनऊ के मेयर दिनेश शर्मा जो भारतीय जनता पार्टी के हैं, को ही सब कुछ करना था। उन के आने में देरी थी। सो कार्यक्रम शुरु हो गया। वीरेंद्र यादव समेत तमाम वामपंथी मित्र उपस्थित थे। सब ने बढ़िया भाषण किया। अखिलेश मिश्र पर संस्मरण सुनाए, उन के लिखे पर बात की, व्यक्तित्व पर बात की। वीरेंद्र यादव ने भी। इस कार्यक्रम में सभी विचारधारा के लोग, समाजसेवी उपस्थित थे। कार्यक्रम चल ही रहा था कि मेयर दिनेश शर्मा की आमद हुई। कार्यक्रम थोड़ी देर के लिए स्थगित हो गया। ज़्यादातर लोग दिनेश शर्मा की अगुवानी में लग गए। इसी बीच वीरेंद्र यादव ने न सिर्फ़ मंच छोड़ दिया बल्कि कुछ साथियों को आंख के इशारे से वहां से चल देने का इशारा किया। राकेश, शकील सिद्दीकी, रवींद्र वर्मा तुरंत उठ खड़े हुए और कार्यक्रम छोड़ कर चले गए। जब कि एक राजनीतिक वामपंथी अतुल अंजान जो राष्ट्रीय पोलित व्यूरो में भी हैं, मंच पर बैठे रहे। दिनेश शर्मा के साथ उन्हों ने न सिर्फ़ मंच साझा किया बल्कि अखिलेश मिश्र के सरोकार और उन की पत्रकारिता के कई दुर्लभ संस्मरण भी सुनाए। खुद मेयर दिनेश शर्मा ने अखिलेश जी पर बढ़िया भाषण दिया। और कहा कि अखिलेश जी की विचारधारा हमारी विचारधारा से मेल नहीं खाती और कि वह हमारी विचारधारा के खिलाफ़ लिखते थे पर हम उन की कलम की इज़्ज़त करते हैं इस लिए न सिर्फ़ इस पार्क को अखिलेश जी के नाम करने का जब प्रस्ताव आया तो मैं ने उसे सहर्ष स्वीकार कर लिया और इस कार्यक्रम में आने की सहमति भी दी। लगे हाथ दिनेश शर्मा ने यह भी कहा कि मुझ से किसी ने मांग नहीं की है लेकिन मैं मेयर कोटे से इस पार्क में अखिलेश मिश्र की एक मूर्ति लगाने के लिए दो लाख रुपए की संस्तुति करता हूं। हालां कि अखिलेश जी की मूर्ति अभी तक लगी नहीं है। बहरहाल बाद में कार्यक्रम खत्म होने के बाद की गोष्ठी में सब लोग फिर से इकट्ठे हो गए खैर। ज़िक्र ज़रुरी है कि इसी लखनऊ में बीते साल फिर शेखर जोशी को जब श्रीलाल शुक्ल सम्मान दिया गया तो मंच पर समाजवादी पार्टी की सरकार में मंत्री शिवपाल सिंह यादव तो थे ही मेयर दिनेश शर्मा भी थे। शेखर जोशी और राजेंद्र यादव भी। राजेंद्र यादव या शेखर जोशी को भाजपाई मेयर दिनेश शर्मा के मंच पर बैठने से कोई परहेज नहीं हुआ। और हां, इसी मंच से वीरेंद्र यादव ने श्रीलाल शुक्ल पर भाषण भी किया। वीरेंद्र यादव के लिए यह सुविधा जाने-अनजाने ज़रुर हो गई कि उन के बोलने के समय मंच उजड़ गया था। बाद में आयोजकों को याद आया कि वीरेंद्र यादव को भी बुलवाना है।


लखनऊ में ही एक बार कथाक्रम का सालाना कार्यक्रम था। हिंदी संस्थान के यशपाल सभागार में उसी मंच पर। समापन सत्र था। मुद्राराक्षस अध्यक्षता कर रहे थे, सुशील सिद्धार्थ संचालन। वीरेंद्र यादव भी मंच पर उपस्थित थे। राजेंद्र राव भी। एक वक्ता प्रसिद्ध पत्रकार के विक्रम राव भी थे। जाने किसी दबाव में या भूलवश सुशील सिद्धार्थ ने विक्रम राव को जल्दी बुलाया नहीं। बाद में संयोजक शैलेंद्र सागर के हस्तक्षेप पर सुशील सिद्धार्थ ने विक्रम राव को बुलाया। विक्रम राव का मंच पर आना था कि वीरेंद्र यादव भड़क गए। सभाध्यक्ष मुद्राराक्षस थे पर विक्रम राव के मसले पर वीरेंद्र यादव के नेतृत्व में मुद्राराक्षस भी भड़क गए। न सिर्फ़ भड़क गए बल्कि मंच का शिष्टाचार तज कर मंच छोड़ कर मुद्राराक्षस और वीरेंद्र यादव चले गए। क्या तो विक्रम राव गोरखपुर में योगी आदित्यनाथ से मिल कर आए थे और योगी आदित्यनाथ भाजपाई हैं आदि-आदि। गोया वह कथाक्रम का साहित्यिक मंच न हो लोकसभा या विधानसभा हो और बहिर्गमन कर गए। और कि क्या लोकसभा या विधानसभा में भी अगर अध्यक्ष या पीठ पर बैठा हुआ कोई भी इस लिए पीठ छोड़ कर चला जाएगा कि अगला भाजपाई है या भाजपाई से मिल कर आया है। सोचिए कि सोमनाथ चटर्जी तो यू पी ए की पहली सरकार में लोकसभा अध्यक्ष रहे थे और कि जब वाम दलों ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया तब भी उन्हों ने विरोध में वोटिग के लिए स्पीकर पद नहीं छोड़ा। भले पार्टी ने उन्हें निकाल दिया। आखिर लोकसभा अध्यक्ष पद की भी गरिमा होती है। और फिर लोकसभा या विधानसभा में क्या भाजपाई और वामपंथी एक साथ नहीं बैठते? कि यह वामपंथी यह कहते हुए निकल जाते हैं कि यहां तो भाजपाई बैठे हैं, हम जाते हैं ! खैर तब कथाक्रम के उस मंच से मुद्राराक्षस और वीरेंद्र यादव विक्रम राव के विरोध में बच्चों की तरह झल्लाते हुए बहिर्गमन कर गए। बहुतों को यह अच्छा नहीं लगा। खैर नीचे श्रोतागण बैठे रहे, मंच पर भी राजेंद्र राव बैठे रहे, विक्रम राव बोलते रहे।


अब संयोग देखिए कि ठीक वही मंच है उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के यशपाल सभागार का। लोहियावादियों, उन के अनुयायियों और कि वीरेंद्र यादव के शब्दों मे तमाम प्रतिक्रियावादियों से भी अटा पड़ा है। मुलायम सिंह यादव हैं, अखिलेश यादव हैं, मुलायम सिंह यादव के गुरु उदय प्रताप सिंह हैं, नीरज हैं। इतना ही नहीं श्रीनारायण चतुर्वेदी के नाम पर एक लखटकिया पुरस्कार की घोषणा मुख्यमंत्री ने तुरंत-तुरंत किया है वह श्रीनारायण चतुर्वेदी जो वीरेंद्र यादव की राय में एक हिंदुत्ववादी लेखक हैं। और तो और दीन दयाल उपाध्याय के नाम से यहां एक पुरस्कार भी दिया गया है बलदेव बंशी को। लोहिया विशिष्ट पुरस्कार भी चौथीराम यादव को दिया गया है। चौथीराम यादव भी प्रगतिशील कहलवाते हैं अपने को। और लोहिया इन सब की नज़र में फ़ासिस्ट हैं। और कि यह सब बरास्ता नामवर मौखिक ही मौलिक है, नहीं है। वीरेंद्र यादव द्वारा बाकायदा लिखित है। वामपंथियों और लोहिया में पुराना विवाद है। परंपरा सी है एक दूसरे को नापसंद करने की। सो, वीरेंद्र यादव ने कोई नया काम नहीं किया है लोहिया को फ़ासिस्ट कह कर। लोहिया भी वामपंथियों को नहीं पसंद करते थे। उसी कड़ी में मुद्राराक्षस ने आलोचना और पहल में एक लेख छपवाया। और लोहिया को फ़ासिस्ट बताने का पहाड़ा एक बार फिर दुहरा दिया। वह मुद्राराक्षस जो खुद एक समय लोहिया के प्रशंसकों में से रहे हैं। लोहिया की प्रशंसा में निरंतर लिखते रहे हैं। बल्कि मुद्राराक्षस ने तो यहां तक लिखा है कि लोहिया ने ही उन का विवाह तक करवाया है। लोहिया को ले कर उन्हों ने एकाधिक मीठे-मीठे संस्मरण भी लिखे हैं। खैर यह दूसरा प्रसंग है। फ़िलहाल तो मुद्रा ने आलोचना और पहल में लोहिया को फ़ासिस्ट बताते हुए ज़ोरदार लेख लिखा। यह वर्ष २००० की बात है। पत्रकार अरविंद मोहन ने जो तब हिंदुस्तान अखबार में काम कर रहे थे मुद्रा के इस लेख के प्रतिवाद में हिंदुस्तान में ही एक लेख लिखा। लोहिया और वैचारिक फ़ासीवाद। अब अरविंद मोहन के इस लेख के प्रतिवाद में वीरेंद्र यादव ने भी एक लेख लिखा फ़ासीवाद, लोहिया और वामपंथ। इस लेख में वीरेंद्र यादव ने न सिर्फ़ मुद्राराक्षस के लेख की ज़ोरदार पैरवी की बल्कि उत्तर प्रदेश सूचना विभाग द्वारा प्रकाशित लक्ष्मीकात वर्मा द्वारा लिखी जीवनी के कुछ हवाले दिए। इंदुमति केलकर द्वारा लिखी लोहिया की जीवनी से भी कुछ हवाले दिए। और लोहिया के फ़ासिस्ट होने की ताकीद की। ओंकार शरद की जीवनी का भी हवाला दिया है वीरेंद्र यादव ने इस लेख में। और लिखा है कि, 'बाद के दौर में लोहिया का यह कम्युनिस्ट विरोध ही उन्हें आचार्य नरेंद्रदेव सरीखे समाजवादी चिंतकों से दूर ले गया और समाजवादी आंदोलन के बिखराव का कारण बना। विचारणीय यह तथ्य भी है कि समाजवादी चिंतन का जो 'बरगद' आचार्य नरेंद्रदेव को नास्तिकता तक ले गया और १९४८ के विधानसभा उपचुनाव में उन की हार का कारण बना, वही लोहिया के लिए 'रामायण मेला' के आयोजन की प्रेरणा कैसे बन गया?'


वीरेंद्र यादव इसी लेख में आगे लिखते हैं, ' सच यह भी है कि लोहिया इस देश के पहले ऐसे समाजवादी नेता थे जिन्हों ने १९६३ के संसदीय उपचुनाव में जौनपुर से जनसंघ के उम्मीदवार डा. दीनदयाल उपाध्याय के पक्ष में खुला प्रचार कर के जनसंघ को राजनीतिक रुप से अछूत होने के शाप से मुक्त किया था।' फिर उन्हों ने जार्ज, शरद यादव आदि को भी लपेटे में लिया है। विद्यानिवास मिश्र, अशोक वाजपेयी,निर्मल वर्मा आदि तक वीरेंद्र इस आंच को ले जाते हैं। और कहते हैं कि यह लोग सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की हिंदुत्ववादी शक्तियों से नाभिनालबद्ध हैं जैसे डब्लू बी. यीट्स, टी.एस. इलियट, एजरा बाऊंड वाइंढम लेविस व डी.एच.लारेंस आदि यूरोपीय फ़ासीवाद के साथ थे। थर्टीज एंड आफ़्टर के हवाले से वह यह बात कहते हैं। लोहिया को फ़ासिस्ट घोषित करने के लिए वह तमाम उद्धरणों की शरण लेते, हवाले देते,निष्कर्ष देते हुए आखिर में वह इति सिद्धम पर आ जाते हैं। और लिखते हैं कि, 'लोहिया व्यक्ति पूजा के विरोधी थे, क्या लोहिया भक्त व्यक्ति पूजा से मुक्त हो कर लोहिया के बारे में विचार कर सकने की क्षमता खो चुके हैं? यदि हां तो क्या वे हज़रत इकबाल की इस चेतावनी को अनसुनी नहीं कर रहे हैं:


'वतन की फ़िक्र कर नादां
मुसीबत आने वाली है
तेरी बरबादियों के मशविरे हैं आसमानों में
तुम्हारी दास्तान भी न होगी दास्तानों में।'


अरविंद मोहन ने वीरेंद्र यादव के इस लेख की फिर बखिया उधेड़ दी एक दूसरा लेख लिख कर तेरी बरबादियों के मशविरे.... लिख कर। अरविंद मोहन ने लिखा, 'और उम्मीद कुछ थी भी यही कि लोहिया से फ़ासीवाद की शुरुआत गिनाने वाले मुद्राराक्षस या पहल और आलोचना के संपादकों की तरफ़ से कुछ खंडन या पुष्टि आएगी। चूंकि वीरेंद्र यादव ने पूरी मार्क्सवादी धारा के प्रवक्ता वाले अंदाज़ में जवाब दिया है, इस लिए उन के तर्कों और तथ्यों पर राय देनी ज़रुरी है। और इसी बहाने एक बार फिर से हिंदी साहित्य और मार्क्सवादियों की नई पालिटिक्स की चर्चा भी।' अरविंद मोहन ने इसी लेख में लिखा है कि, 'पर वीरेंद्र यादव ने उदाहरण देने में भी अपनी बेइमानी दिखा दी है। नाजी पार्टी की सभा में लड़ाई कर के डा. लोहिया के जाने वाले प्रकरण के ठीक अगला पैरा इसी तरह लड़ झगड़ कर कम्युनिस्ट पार्टी की सभा में जाने का है।पर उस बात को वीरेंद्र जी ने बहुत सुविधा से छुपा कर लक्ष्मीकांत जी को अपने हक में 'इस्तेमाल' कर लिया है।'


यह और ऐसी तमाम बातें जो वीरेंद्र यादव अपने लेख में अपनी 'सुविधा' से रख गए हैं को अरविंद मोहन ने उधेड़ कर रख दिया है। विक्रम राव ने भी अलग लेख इस मुद्दे को ले कर उसी हिंदुस्तान में लिखा। मित्रों की सुविधा के लिए अरविंद मोहन का वह मूल लेख, वीरेंद्र यादव का प्रतिवाद और फिर उस पर अरविंद मोहन का प्रतिवाद, तीनों ही की कटिंग पढ़ने के लिए साथ में यहां प्रस्तुत हैं। मित्र लोग खुद जान समझ लें कि कौन कितने पानी में है।
हां, यह ज़िक्र ज़रुर ज़रुरी है कि बाद के दिनों में मुद्राराक्षस ने तो अखबारों में लेख लिख-लिख कर वामपंथियों को तानाशाह बताना शुरु कर दिया। और वीरेंद्र यादव चुप रहे। बहुत बाद में जब मुद्राराक्षस ने प्रेमचंद को दलित विरोधी होने का फ़तवा देने का अतिरेक कर दिया तो वीरेंद्र यादव ने ज़रुर एक लेख लिख कर मुद्रा की कुतर्क में डूबी कई बातों का कड़ा प्रतिवाद किया। उस लेख को लोगों ने मुद्राराक्षस के व्यक्तित्व को धूमिल करने वाला भी करार दिया। जो कि था नहीं। जो भी हो अब तो मुद्राराक्षस दलित चिंतक के रुप में स्थापित हो कर अपनी ही तमाम पुरानी स्थापनाओं को विस्थापित करने के लिए जाने जाते हैं। लोहिया को उन के द्वारा फ़ासिस्ट कहना भी उसी में से एक है। जिन अमृतलाल नागर से वह कभी डिक्टेशन लेते-लेते लेखक बन गए उन को भी अब वह तृतीय श्रेणी का लेखक बता ही रहे हैं। यह और ऐसी तमाम उलट्बासियों के लिए अब मुद्राराक्षस लोगों में मशहूर हैं।


तो देखिए न कि अपने वीरेंद्र यादव भी कितना बदल गए हैं। हिंदी संस्थान के पुरस्कार समारोह के बाद एक अखबार को दिए गए बयान में अशोक चक्रधर ने कहा भी था कि उम्र के साथ-साथ विचारधारा भी बदल जाती है। तो जिन लोहिया को वीरेंद्र यादव कभी फ़ासिस्ट कहते नहीं थकते थे, अब उन्हीं लोहियावादियों के हाथों हिंदी संस्थान का दो लाख रुपए का साहित्य भूषण पुरस्कार न सिर्फ़ मुसकुरा कर ग्रहण कर लेते हैं बल्कि उन तमाम लोगों के साथ मंच भी शेयर कर लेते हैं। उन के साथ खड़े हो कर सामूहिक फ़ोटो भी खिंचवाते हैं। मुख्यमंत्र्री के घर सब के साथ डिनर भी लेते हैं इसी उपलक्ष्य में। कितना तो बदल गए हैं हमारे अग्रज वीरेंद्र यादव। शायद अब वह वाले कट्टर वामपंथी नहीं रहे। अरविंद मोहन जहां भी कहीं हों इसे फ़ौरन से पेश्तर दर्ज कर लें। कि यह भी एक दर्द है। मीठा-मीठा। वैसे इस मिले-जुले समय में वीरेंद्र यादव से यह पूछना किसी के लिए सुविधाजनक रहेगा कि क्या कि लोहिया उन की राय में अब भी फ़ासिस्ट हैं? मुझ से तो वह इन दिनों जाने क्यों खफ़ा हैं, नमस्कार करता हूं तो या तो आकाश देखने लगते हैं या फिर मुंह मोड़ लेते हैं। चेहरे पर जो भाव आता है उन के उस से लगता है उन्हों ने मुझे नहीं किसी कीड़े-मकोड़े को देख लिया हो। बड़े भाई हैं, यह हक है उन को।
वैसे तो अरविंद मोहन भी मेरे बहुत पुराने मित्र हैं, जनसत्ता के दिनों के साथी हैं हम, जे.एन.यू. के पढ़े-लिखे हैं,वीरेंद्र यादव की तरह खूब पढाकू भी हैं, उन से ही कह रहा हूं कि वह ही इस बारे में तफ़सील से पूछ लें वीरेंद्र यादव से कि क्या लोहिया अब भी फ़ासिस्ट हैं? हिटलर के अनुयायी और नाजी हैं कि नहीं? पता चल जाए तो बता दीजिएगा हमें भी अरविंद जी। क्या पता?


वीरेंद्र यादव की राय सचमुच बदल गई हो। या कि हम बचपन में एक खेल खेलते थे आइस-पाइस। बहुतेरे लोग खेले होंगे। यह खेल ही ऐसा है जो छुप कर खेला जाता है। इसी लिए कई लोग इसे छुप्पम-छुपाई कहते हैं। हो सकता है वीरेंद्र जी ने बचपन में इस खेल को न खेला हो, अब शौक जाग गया हो। आइस-पाइस खेल है ही ऐसा। छुप कर खेलने का क्या मज़ा होता है, छुप कर ही पीछे से किसी के सर पर टिप मार कर डबलिंग कहने का मज़ा ही कुछ और है, यह हमें आज तक याद है। बतर्ज़ चुपके-चुपके रात-दिन आंसू बहाना याद है। हाय रे वो आइस-पाइस और वो ज़माना। ऐसे ही याद आना था भला? यह हम भी कहां जानते थे?




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4 comments:

  1. सरोकार बदल जाते हैं जब सरकार मेहरबान होती है....यह बात अब वीरेंद्र यादव जी समझ गए हैं. इसलिए लोहिया अब फासिस्ट नहीं रहे उनके लिए. ज्ञान हो गया लगता है उनको सत्य का.
    खैर, अद्भुत लेख है, शोधपरक और तर्कसंगत है. साथ ही प्रसंगिक भी. साधुवाद आपको

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  2. Dayanand ji ko sadhuvad esliye ki vay kai jani anjani bato se avagat karate he apne aalekho se . dossre mujhe es aalekh ke prakash may yah bhi kahana he ki Vyakiti ko suvidha bhogi nahi hona chahiye apne sidhanto se kisi keemat per samjhota to katai nahi karana chahiye.. fir bhi yadi hamare samne visham se visham sthiti aa jane per bhi hame apni vichardhara ke sath apane aatmbal ke sath rahana chahiye na ki munch chhodkar hi chala jana chahiye Hindi Sansthan Lucknow may chal rahe katha kram ke ukt karyakram me may bhi tha .. Vese Virendra Yadava ji ka may haradaya se samman karata hoo per unki es pratikirya se mere jese kai log aahat hue the us din aur Sri K Vikarm Rov Hindi ke prati English News Paper ki berukhi ke bare may hi to bol rahe the jo Kathakram ke karyakramo ko apne paper may tavjjo nahi de rahe the. Lekhak ki apani vichardhara hoti he theek he vah uske lekhan may yda kada dikhati bhi he .per doosre ke vicharo ka adar bhi use karna chahiye aur apana mat dete hue apni baat rakhani chahiye na ki apne khol (Kheme) ke bahar har achhi buri chij per aak thoo kar dena chahiye? Mudra ji ne jis tarah Hindi Sansthan ke do adhikariyo ke munch per rahate hue sanyog se dono achhe kathakar bhi he per comment karana aamjan ke samamne kuchh bhi kah dene ka madda rakhana kya darshat he khokhali mansikata nahi? Kya sandesh dena chahate the us din Mudra ji aam jan unke lekh padhkar ya sunkar unke bare may nihayat gandi soch rakahate he gali dete he unhe.? Shivani ji ke bare may Nagar ji ke bare may jo vipreet bol sakta he uska kya bharosha? Kese Dalit chintak kabhi bhoga he en tathakathit dalit chintko ne dalit hone ka dard ... sammpan parivaro may pale badeh, sampann kahi jani vali jati may janm lene vale ye Bhadra purush jan kya darshana chahate he apni sthiti vesi hi to nahi banana chahate he jesi ...kya karo jada likh bhi to nahi sakata hoo kai tarah ki majbooriya hoti he ... kabhi aamna samana hoga to pochhonga jaroor... kai sankaye door karni he mujhe kya achha ho meri sankaye door karne may Dayanand ji bhi upasthit rahen .. unhe pun: sadhuvad ...

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  3. बढिया है। अपने समाज में लेखक को समझ भी किस्तों में मिलती है। एक किस्त के बाद अगली सप्लाई में माल बदल जाता है। यह प्रवृति है। इसमें वीरेन्द्र यादव जी का नाम लेकर उनको काहे को असहज करते हैं ?

    विचारधारायें तो इत्ती छुई-मुई टाइप है कि लोगों को लगता है दूसरी विचारधारा वाले के साथ बैठ लिये तो उनकी विचारधारा अछूत हो जायेगी। यह अपने में बहुत बड़ा पाखण्ड लगता है मुझे।

    चकाचक लेख।

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  4. मैंने बहुत से वामपंथियों को वर्धा प्रवास के दौरान नजदीक से देखा है। उनमें से बहुतेरे पाखंड के ज्वालामुखी लगे। मुद्राराक्षस जी की मेधा तो बेतुकी बयानबाजी और अमर्यादित भाषा गढ़ने में हॊ जाया होती दिखती रही है।

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