Sunday, 20 October 2013

कुछ मुलाकातें, कुछ बातें : सवाल रूपी मशाल जलाती बातें-मुलाकातें

डॉ. मुकेश मिश्रा

एक होनहार और विद्वान पत्रकार अपने पत्रकारिता काल में हर दिन कुछ न कुछ लिखता है। उस कुछ में से बहुत ‘कुछ’ वह ऐसा लिखता है जो लंबे समय तक न केवल चर्चित रहता है बल्कि प्रासंगिक भी बना रहता है। पत्रकार के तौर पर सदा के लिए प्रासंगिक लिखना बेहद मुश्किल काम है लेकिन ऐसा लेखन ही एक पत्रकार की विशिष्टता का द्योतक बनता है। उसे भीड़ से अलग करता है। न जाने कितनी रोजमर्रा की खबरें एक रिपोर्टर हर दिन लिखता है और रोज छपता भी है। लेकिन उस में से विरले ही कोई स्टोरी स्थाई रूप से प्रासंगिक बनी रह पाती है। आज तो पत्रकारिता के बड़े-बड़े और महंगे स्कूल चल रहे हैं। बीते कुछ सालों में ही पत्रकारिता की पौध तैयार करने वाली तथाकिथत नर्सरियों ने कमोvevवेश हर गली- शहर में अपने अड्डे खोले हैं। फिर भी बड़े दुख के साथ कहने में हिचक बिलकुल नहीं होती कि वे सभी शायद ही कोई कलमकार पैदा कर रहे हैं। या फिर व्यवस्था के खिलाफ सवाल खड़ा करने वालों का उत्पादन कर रहे हैं। जिस के कलम की गूंज, जिस के सवालों की हनक दूर तलक सुनाई देती हो।
दरअसल आज पत्रकारिता का स्कूली अड्डा चलाने वालों को कलमकार नहीं, कर्मकार चाहिए। लिहाजा वे पत्रकार नहीं मैनेजर बनाने की कोशिश में नई पीढ़ी की कलम तोड़ने में लगे हैं। मशालों को बुझाने में लगे हैं। हालांकि जो पुरानी पीढ़ी के पत्रकार हैं, कलम तो उन की भी तोड़ी जा रही है, उन से न लिखवा कर। यही वज़ह है कि वर्तमान दौर में किसी पत्रकार के कलम से मशाल जलाने को चिनगारी नहीं निकलती। हां भेड़िये सी गुर्राहट का शोर ज़रूर बढ़ गया है। आज अधिकांश पत्रकारों द्वारा पूछे जाने वाले प्रश्नों में मिमियाने की धुन पहले ही सुनाई दे देती है।
खुशनुमा यह है कि इस माहौल में भी कुछ ऐसे पत्रकार हैं जो कलमकार भी हैं। जिन के लिखे हुए लेख, साक्षात्कार, खबरें और रिपोर्टें हर दौर में प्रासंगिक हैं। और न केवल प्रासंगिक हैं बल्कि संदर्भ के तौर पर इस्तेमाल के योग्य भी हैं। साथ ही वे अंधेरे में रोशनी लाने में भी सक्षम हैं।
दयानंद पांडेय भी उन्हीं कलमकार पत्रकारों की परंपरा के समर्थ हस्ताक्षर हैं जिन के लिखे हुए अनगिनत लेख, खबरें और साक्षात्कार समाज में न केवल प्रासंगिक हैं अपितु नए आयाम गढ़ रहे हैं। एक अच्छा पत्रकार कुशल संकलनकर्ता भी होता है और यह खूबी दयानंद पांडेय में तो है ही। उन्हों ने अपने पत्रकारिता करियर में लिखे उन तमाम बौद्धिक संपदाओं को संकलित कर रखा है जो सदा के लिए उपयोगी हो सकते हैं। उन संकलनों में से वे अकसर आज के सर्वाधिक सशक्त मंच सोशल मीडिया पर साझा करते रहते हैं। उन के ब्लॉग ‘सरोकारनामा’ पर एक से एक पुराने और प्रासंगिक लेख व साक्षात्कार प्रायः पढ़ने को मिलते हैं। इस क्रम में हाल ही में उन्हों ने अपने पत्रकारीय जीवन के दौरान लिए गए उन साक्षात्कारों को एक जगह संकलित करके एक बड़ा श्रमसाध्य काम किया है, जो आज से कोई दस-बीस साल पहले संपन्न किए गए थे।
‘कुछ मुलाकातें, कुछ बातें’ नामक इस पुस्तक में दयानंद पांडेय ने फिल्म, संगीत, थिएटर और साहित्य जगत की कई हस्तियों के स्वयं द्वारा किए गए साक्षात्कारों का संकलन किया है। दरअसल, साक्षात्कारों का यह अर्द्ध शतक है। कुल 50 इंटरव्यू इस किताब में हैं जिन में सदी के महानायक अमिताभ बच्चन, ड्रीम गर्ल हेमा मालिनी से ले कर संगीत में फ़्यूजन को नया आयाम देने वाले शंकर महादेवन तक शामिल हैं। इस किताब में बातों के बहाने मुलाकातों का लंबा सिलसिला है। इस के पहले अध्याय से ही पाठक की भी मुलाकात शख्सियतों से होने लगती है। जिस की शुरुआत कालजयी संगीतकार हृदयनाथ मंगेशकर से होती है। फिर लता मंगेशकर, आशा भोंसले, हेमलता, ऊषा उत्थुप, कुमार शानू, इला अरुण, भोजपुरी लोक गायक बालेश्वर, शारदा सिनहा, ट्रेजडी किंग दिलीप कुमार, महानायक अमिताभ बच्चन, जितेंद्र, श्रीदेवी, पीनाज मसानी, नाटककार ब.व. कारंत, बिरजू महाराज, साहित्यकार जैनेंद्र कुमार, अमृतलाल नागर, चित्रलेखा के महान लेखक भगवती चरण वर्मा, राजेंद्र यादव, नामवर सिंह, मारीशस के तत्कालीन उपराष्ट्रपति घरभरन जैसी हस्तियों से बातें-मुलाकातें होती हुई समाज सेवी नानाजी देशमुख पर जा कर रुकती है। बीच में कई हस्तियां हैं जिन के नाम लिखना इस समीक्षा में संभव नहीं है।
यह पहले ही कहा जा चुका है कि संदर्भित पुस्तक पत्रकारिता के दौरान लिए गए साक्षात्कारों का संकलन है। वर्तमान दौर के 50 सफल लोगों की अनकही कहानी इस की खासियत है। किस को पता है कि हृदयनाथ मंगेशकर संगीतकार थे लेकिन उन्हों ने इस के लिए कोई संघर्ष नहीं किया। जो भी संघर्ष किया रोटी दाल के लिए किया। सुर साम्राज्ञी लता जी दुबारा जन्म नहीं लेना चाहतीं। आशा भोंसले मानती हैं कि उन के साथ घोर अन्याय हुआ है फिर भी वो अगले जन्म में आशा भोंसले ही बनना चाहती हैं। रवींद्र जैन ने हेमलता का कितना शोषण किया? मर्दानी आवाज़ वाली ऊषा उत्थुप को उन का नारी मनोविज्ञान मथता है। अनपढ़ बालेश्वर को मलाल था कि वे पढ़े लिखे होते तो उच्च कोटि के साहित्यकार होते। फाऱूख शेख ‘देवदास’ की भूमिका करना चाहते थे। दलेर मेंहदी अपनी बेटी को ‘पीर’ मानते हैं। फ़िल्मकार मुज़फ़्फ़र अली ‘मोरध्वज’ के वंशज हैं और उन्हें भगवान विष्णु में अगाध आस्था है। दिलीप कुमार को एक्टिंग नहीं आती। अमिताभ बच्चन अगले जन्म में पत्रकार बनना चाहते हैं क्यों कि उस के पास पूछने का अधिकार है। प्रसिद्ध निर्देशिका ऊषा गांगुली पुरुषों को गुड्डा मानती हैं। थिएटर नहीं होता तो अभिनेता मनोहर सिंह ‘जमादार’ होते। बिरजू महाराज को लखनऊ में एक कलाश्रम खोलने के लिए ज़मीन नहीं मिल सकी। अविवाहित नानाजी देशमुख मानते थे कि विवाह किया होता तो जीवन बेहतर होता।
उपरोक्त खुलासे तभी हो सकते हैं जब मुलाकातें हों, कुछ बातें हों, निःसंकोच सवालों के साथ। सार्थक मुलाकातें और बातें ही अनकहे, अनजाने पट खोल सकती हैं। जिन 50 लोगों की मुलाकात और बातचीत को लेखक ने कलमबंद किया है उन के साक्षात्कार और भी बहुत माध्यमों में लिए गए होंगे। लेकिन यहां तो एक पत्रकार के सवालों की उन लोगों से पूरी मुठभेड़ है। कहीं कोई बनावटीपन नहीं। कोई भी सवाल कृत्रिम नहीं। हां, इस में मिले जवाबों का पता नहीं कि वे कितने सही और गलत हैं क्यों कि इस की तस्दीक तो उत्तर देने वाला ही कर सकता है। लेकिन लेखक के सवाल ही इस किताब में संकलित साक्षात्कारों की जान हैं। इस में प्रायः असहज कर देने वाले सवालों से मुज़फ़्फ़र अली, हेमा मालिनी, नागर जी, अमिताभ बच्चन और दिलीप कुमार सहित हर शख्स को गुज़रना पड़ा है। सवालों में कहीं कोई मिमियाहट की झलक तक नहीं। यही कारण है कि बहुत सी अनकही बातें हमारे सामने हैं। बेशक ऐसी हिम्मत एक कलमकार पत्रकार कर सकता है। शुरू में ही किताब के बारे में यह लिख कर लेखक ने यह साफ भी कर दिया है कि वह मशाल का लंबरदार है। लिहाज़ा सवालों के मशाल की रोशनी से सच का दस्तावेज निकल कर पूरी प्रासंगिकता के साथ पुस्तक में उपस्थित होता है। और वह भी उस आईने के साथ जिस में मौजूदा सवालकार (पत्रकार) अपनी हैसियत देख सकते हैं। खास बात यह भी है कि जितने भी इंटरव्यू इस पुस्तक में छपे हैं उस की शैली दिलचस्प है जो शुरू से अंत तक बांधे रहती है। यह पुस्तक नई पीढ़ी के पत्रकारों और इस क्षेत्र के अध्येताओं के लिए सवालों की सीख देती है। आशा है दयानंद पांडेय का यह प्रयास सच का मशाल जलाने वालों के लिए नए वातायन खोलेगा।

समीक्ष्य पुस्तक
कुछ मुलाकातें, कुछ बातें
मूल्य- 450 रुपए पृष्ठ संख्या-240
प्रकाशक-जनवाणी प्रकाशन प्रा.लि. 30/35-36, गली नं. 9, विश्वास नगर दिल्ली-110032

1 comment:

  1. निश्चित ही किताब पढ़ने लायक होगी। समय निकालता हूँ खोजकर पढ़ने के लिए।

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