Friday, 25 October 2013

संपूर्ण आंगन है यादों का मधुबन

डॉ. मुकेश मिश्रा

संपूर्ण आंगन यानी घर का वह हिस्सा जिसमें विविध प्रवृत्तियों के लोग एक दूसरे की ज़रूरतों और सरोकारों को जीते हैं। ऐसा आंगन जो एक घर को जीवंत बनाता है। जहां हर सदस्य खुलेपन में स्वछंद सांस लेते हुए कर्तव्य बंधन से बंधा हुआ होता है। आंगन की धूप और छांव दोनों ही सब के लिए होते हैं। इंसान का मन भी एक तरह का आंगन ही है जिस में धूप भी है छांव भी। मन का बोध ही अच्छे बुरे का ज्ञान करा सकता है। मन को ही जो अच्छा लगे वह मनभावन है। जो मनभावन लगता है वह ताज़िंदगी जेहन में घर कर लेता है। मन को भाने वाली हर चीज़ अमिट हो जाती है। अमिट चीज़ें इंसान के साथ ही जाती हैं। यह भी निर्विवाद सत्य है कि यह खूबी प्रकृति ने इंसानों को ही नियामत की है। किसी जानवर में यह खूबी संभव नहीं। एक तोते को पाल कर एक इंसान उस के न रहने पर उस से जुड़ी हर याद को अमिट बना सकता है लेकिन उलट इस के उस तोते की तरफ से ऐसा सोचना भी पागलपन के सिवा कुछ नहीं। तो कितने इंसान हैं जो अपने मन रूपी आंगन में आने वाले मनभावन चीज़ों, लोगों को जीवंत रखते हैं सदा के लिए। या फिर उन स्मृतियों को अमिट बना देते हैं। ऐसा वाकई बहुत कम होता है। कुछ बड़ी हस्तियों के लिए होने वाले सरकारी गैर सरकारी औपचारिकताओं के सिवा यह स्थायित्व नहीं पा सका।
हमारे आस पास, कार्यक्षेत्र हो या घर, प्रायः हर इंसान के जीवन में कुछ न कुछ ऐसा घटित होता है जो उस के स्मृति पटल पर सदा के लिए छाप छोड़ जाता है। सब के जीवन में कोई न कोई स्थान, कोई वस्तु अथवा व्यक्ति की उपस्थिति अंतरमन में होती है जो यादों के आंगन में ऊछल-कूद करता रहता है। बेशक उस का पहलू अच्छा-बुरा दोनों हो सकता है। जो अच्छे होते हैं वे मनभावन होते हैं जो बुरे होते हैं परम विरक्ति का कारण बन जाते हैं। ऐसी स्मृतियां महज व्यक्ति आधारित नहीं होतीं। वह कई बार अतीत और भविष्य का पुल होती हैं। जो भावी पीढ़ी का मार्ग प्रशस्त करती हैं।
ऐसे ही एक पुल का निर्माण करती, भविष्य का मार्ग बताती और एक सम्पूर्ण आंगन का चित्र प्रस्तुत करती कालजयी रचना है ‘यादों का मधुबन’। जो लेखक दयानंद पांडेय की स्मृतियों का गुलदस्ता है। जिसमें हर तरह के गुलफाम हैं। अच्छे लोग, उत्कृष्ट साहित्यकार, बेधड़क पत्रकार, अद्वितीय सम्पादक, लाचार गायक, युगद्रष्टा राजनेता, मौकापरस्त इंसान और अद्भुत स्थान सहित हर पक्ष इस में समाहित हैं। पुस्तक की शुरूआत लेखक के किशोर मन से होती है जब वह अतिउत्साह का शिकार होता है और अपनी कविताओं का प्रकाशन करने के जतन में भटकता है। उस की भटकन उसे तत्कालीन कालजयी साहित्यकार हजारी प्रसाद द्विवेदी के पास खींच ले जाती है। अक्खड़पन से लबरेज किशोर के मन पर द्विवेदी जी के निश्छल मन की छाप इतनी गहरी पड़ी कि उसने लेखन का असली मर्म ही समझ लिया। इस मंत्र के साथ कि ‘किताब अगर छाप कर बेचोगे तो कविता भूल जाओगे’ यानी कि लिखना भूल जाओगे। दयानंद पांडेय ने यहां हजारी प्रसाद द्विवेदी से भेंट, संवाद और उसके निष्कर्ष को जिस भाषा में पिरोया है वह पुस्तक को पूरा पढ़ने को विवश कर देता है। ‘चित्रलेखा’ वाले भगवती चरण वर्मा को स्मरण करते हुए पांडेय जी ने यह रेखांकित किया है कि कैसे चित्रलेखा लिख भर देने से देश-विदेश की चिट्ठियां भगवती बाबू तक पहुंच जाती थीं और आज उन के मुहल्ले में वही चित्रलेखा गुमनाम है। इसमें दो अध्याय अमृत लाल नागर को सन्दर्भित हैं। जिसमें महान उपन्यासकार नागर जी के नितांत निजी पक्ष को उकेरने का कोई प्रयास तो नहीं किया गया है लेकिन उन से लेखक की हुई भेंट का वर्णन एक बड़े लेखक के खालीपन और कसक को अनायास ही सामने ला देता है। ‘अग्निगर्भा’ के रचयिता नागर जी की टूटन का विवरण तमाम पीढ़ी दर पीढ़ी के साहित्यकारों के लिए सबक से कमतर नहीं है। साहित्य के पुरोधा जैनेंद्र जी से लेखक के मिलने की चर्चा के बीच ‘बेदिल’ दिल्ली में भी सरेराह एक साहित्यकार का पता बताने का उल्लेख समय की बेबसी का प्रमाण देने को काफी है। आज किसी साहित्यकार को अगर इंटरनेट पर न लाया जाय तो उस का पता तो ढूंढते रह जाएंगे। विष्णु प्रभाकर का एक युवा लेखक से कंधा मिलाना और लिखते रहने को प्रोत्साहित करने का ज़िक्र प्रभाकर जी के असली कद को जगजाहिर करता है।
दरअसल, लेखक दयानंद पांडेय मूलतः पेशे से पत्रकार हैं। उन की लेखनी व्यवसायिकता को छू भी नहीं सकी है। लिहाज़ा वे बड़ी साफगोई से अपने जीवन में मिलने वाले या साथ काम करने वालों के विषय में लिखने में सफल हुए हैं। ‘हमन इश्क मस्ताना बहुतेरे’ नामक अध्याय में एक तरफ उन्हों ने हिंदी पत्रकारिता के पुरोधा प्रभाष जोशी के विषय में अपने मन की बात लिखी तो एक और अध्याय ‘सफलता का अब एक और नाम है मौकापरस्ती’ में पत्रकार से केंद्र में मंत्री बन चुके राजीव शुक्ला के बहाने आज के पत्रकार पीढ़ी के आदर्श छवियों की पोल खोली है। प्रभाष जोशी जैसे पत्रकार मनीषी की हिंदी सेवा, उन का संपादकीय कौशल और जनसत्ता को शिखर पर ले जाने वाले उनके अवदान को लेखक ने अनुकरणीय ढंग से लिखा है। लेकिन जोशी जी मठाधीशी की जम कर आलोचना भी की है। कई प्रसंग हैं जिन्हें पढ़ कर प्रभाष जोशी के व्यक्तित्व के कई अनसुने पहलुओं का पता चलता है। फिर भी हिंदी की पृथ्वी में जोशी नामक सूर्य की चमक को बिखेरने में अद्भुत सफलता पाया है दयानंद पांडेय ने। पुस्तक में पत्रकारिता से संबंधित एक और अध्याय वीरेंद्र सिंह पर लिखा गया है। हर हाल में सच छापने का माद्दा रखने वाले संपादक वीरेंद्र सिंह के विषय में जानकर यह आभास होता है कि समाज में कृत्रिम चरित्रों के इर्द-गिर्द कोई सच्चा आदमी बन कर रह जाए तो उसे गुमनामी के सिवा कुछ नहीं मिलता।
पुस्तक में अन्य कई साहित्यकारों पर अध्याय हैं। यथा- कमलेश्वर, कन्हैया लाल नंदन, श्री लाल शुक्ल, रघुवीर सहाय, अदम गोंडवी, देवेंद्र कुमार बंगाली, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, परमानंद श्रीवास्तव, राजेश शर्मा, शिवमूर्ति जैसी साहित्यिक हस्तियों से जुड़े अध्याय हैं जिस में इन से संबंधित लेखक के मन की अमिट छापें प्रकाशित होती हैं। इस के अलावा पत्रकार आलोक तोमर, लोकगायक बालेश्वर, राजनेता अटल बिहारी बाजपेयी, नारायण दत्त तिवारी, वीर बहादुर सिंह पर भी काबिले तारीफ स्मृतियां हैं। बालेश्वर पर तीन और नारायण दत्त तिवारी पर दो अध्याय हैं। बहुचर्चित जैविक पिता कांड से संकट में आए तिवारी जी को ले कर पहला अध्याय उस महिला पर केंद्रित है जिस का बेटा तिवारी जी को अपना पिता होने का दावा करता है। दूसरा अध्याय उस तथाकथित बेटे पर है। इन में लेखक की स्मृतियां सराहनीय तो हैं ही वे कई अनछुए पहलुओं का विस्तार भी हैं।
दयानंद पांडेय घुमक्कड़, लिखक्कड़ और मिलक्कड़ प्रवृत्ति के बेहद संजीदा पत्रकार व लेखक हैं। उन की दृष्टि केवल व्यक्तियों तक सीमित नहीं है। वे हर चीज़ को अंर्तमन से महसूस करने में महारथी हैं। उन्हों ने प्रेमचंद के गांव ‘लमही’ की अपनी यात्रा पर दो अध्याय इस पुस्तक में लिखे हैं और उस महान साहित्कार को बेहद अलग अंदाज़ में याद किया है। राजपूतों के देश राजस्थान पर अतुलनीय लेख और बीते साल इलाहाबाद में संपन्न हुए महाकुंभ की यात्रा के बाद ‘त्रिवेणी के विलाप का यह विन्यास’ शीर्षक से एक अविस्मरणीय अध्याय से पुस्तक समाप्त होती है।
बेशक यह संस्मरण अपने उद्देश्य में सफल है। दयानंद पांडेय ने जितने भी लोगों के विषय में लिखा है उनकी स्मृतियों से मन का तादात्म्य स्थापित हो जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि अमुक व्यक्ति हमारे सामने उपस्थित है। क्यों कि दयानंद पांडेय कहीं भी पूर्वाग्रही नहीं हुए हैं। बिलकुल एक निष्पक्ष दृष्टि से जैसा जाना, समझा, वैसा ही लिखा है। यहां तक कि जिस प्रभाष जोशी का नाम लेने में वह गर्व महसूस करते हैं उन के भी नकारात्मक पक्षों को रखने में कोई कोताही नहीं बरती है। दरअसल, दयानंद पांडेय के स्मृति आंगन का हर चेहरा सर्वतोभद्र (हर तरफ से देखा जा सकने वाला) है। साधुवाद...!

समीक्ष्य पुस्तक-
यादों का मधुबन
[संस्मरण]
लेखक- दयानंद पांडेय
पृष्ठ-248 मूल्य-450
प्रकाशक- सर्वोदय प्रकाशन 512-B, गली नं.2 विश्वास नगर दिल्ली-110032
प्रकाशन वर्ष-2013

2 comments:

  1. wah mukesh ji bahut badhiya sameeksha likhi hai.

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  2. Manyaver Dayanand ji ! Aap ko badhai.Maine aap se bahut pahle kaha tha ki hum Gorakhpuriya log Ticket lekar Drama nahi dekha karte hain,Bookstall se khareed kar kitaben nahi parhte hain.Agar mang kar mil jaye to zaroor parhte hain.Ek samay me shayad aap bhi yahi sab kiya karte the.Is liye yadi aap ko apne YADON KE MADHUBAN me mujhe bhi le chalana ho to kripya ek prati parhne ke liye hi sahee de deejiye.Lauta doonga apne pathakiya pratikriya ka saath.Ab vaise bhi retire ho gaya hoon.Sr.Citizan per raham Keejiye.Prafulla.

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