Thursday 3 October 2013

आईने पर इल्ज़ाम लगाना फ़िज़ूल है, सच मान लीजिए, चेहरे पर धूल है

दयानंद पांडेय 

यह सब देख कर मन तो करता है कि एक नया दर्पण फिर से पेश कर दूं?

बचपन से सुनता और पढ़ता आया हूं कि कींचड़ में पत्थर फेंकने से बचना चाहिए, क्यों कि कीचड़ के छींटे अपने कपड़ों पर भी आते हैं। आज पुस्तक मेले में एक मित्र यही बात मुझ से कहने लगे। तो मैं ने उन से पूछ ही लिया कि, 'आखिर आप यह बात मुझे क्यों याद दिला रहे हैं? मैं ने कीचड़ में कोई पत्थर फेंक दिया है क्या?' वह बोले, 'लगता तो यही है।' मैं ने उन्हें दुष्यंत कुमार का शेर सुना दिया :

कौन कहता है आकाश में सुराख नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो ।

लेकिन मैं ने हंसते हुए उन्हें तुरंत बता दिया कि आकाश में, कीचड़ में या कहीं भी पत्थर फेंकने का मैं आदी नहीं हूं। क्रांतिकारी भी नहीं हूं। मैं तो शांत प्रकृति का आदमी हूं। दाल रोटी के संघर्ष में दिन रात जीने वाला एक साधारण आदमी हूं। हां एक कमज़ोरी ज़रुर है मुझ में। अपने साथ एक आईना रखता हूं। खुद का चेहरा देखने के लिए। और जो कोई बहुत समझदार दिखने की या समझदार के साथ खड़े होने का स्वांग करता है तो वह आईना बड़ी शालीनता से उस के सामने भी रख देता हूं। अब जो आईना देख कर कोई खुश होता है तो मुझे भी खुशी होती है, कोई दुखी होता है तो उसे कंधा भी दे देता हूं। सुस्ताने के लिए। और फिर उसे एक बिन मांगी सलाह भी दे देता हूं अंजुम रहबर का एक शेर पढ़ कर :

आईने पर इल्ज़ाम लगाना फ़िज़ूल है
सच मान लीजिए, चेहरे पर धूल है।

जो दोस्त सचमुच शरीफ़ और समझदार होते हैं चेहरा साफ कर, हाथ मिला कर, गले मिल कर आगे बढ़ जाते हैं। लेकिन ऐसे दोस्तों की संख्या जंगल के शेरों के अनुपात में भी बहुत कम है। ज़्यादातर मित्र आईने को ही फोड़ने और कुतर्क रचने में लग जाते हैं। उन से भी ज़्यादा उन के चेले-चपाटे हल्ला बोल और फ़र्जी हवा बनाने में लग जाते हैं। अब इन मित्रों को भी फिर बिन मांगी सलाह दे देता हूं कि दोस्त, कितने दर्पण तोड़ोगे? खुद टूट जाओगे, दर्पण नहीं खत्म होंगे। बेहतर है कि अपनी और अपने आका की शकल दुरुस्त कर लो। लेकिन बेकल उत्साही का वो एक शेर है ना कि :

हटाए थे जो राह से दोस्तों की
वो पत्थर मेरे घर में आने लगे हैं।

गो कि मैं दर्पण के बरक्स हूं, कीचड़ के नहीं। और कि मित्रो, दर्पण को तोड़ कर देखिए या दर्पण को सोने के फ़्रेम में कैद कर के देखिए यह तो आप के विवेक पर है। लेकिन एक बात तो तय है कि दर्पण झूठ तो हर्गिज़ न बोलेगा। जब भी बोलेगा तो सच ही बोलेगा। वह चाहे टूटा हुआ हो या सोने के फ़्रेम में। हां, अगर आदत बिगड़ी हुई है तो इस बात को, इस सच को तस्लीम करने में वक्त तो लगता ही है। अपने जगजीत सिंह गा भी गए हैं:

प्यार का पहला खत लिखने में वक्त तो लगता है
नए परिंदों को उड़ने में वक्त तो लगता है।

ज़िस्म की बात नहीं थी उन के, दिल तक जाना था
लंबी दूरी तय करने में वक्त तो लगता है।

गांठ अगर लग जाए तो फिर रिश्ते हों या दूरी
लाख करे कोशिश खुलने में वक्त तो लगता है।

हमने इलाजे ज़ख्म दिल तो ढूंढ लिया लेकिन
गहरे ज़ख्मों को भरने में वक्त तो लगता है।

और खास कर जो ज़ख्म दर्पण देखने से लगा हो उस में तो और भी मुश्किल होती है। कोई ऐंटी-बायोटिक भी बेअसर होती जाती है। चेले-चपाटों-चमचों का हल्ला-बोल थोड़ा सुकून तो देता है तात्कालिक रुप से। लेकिन अंतत: ज़ख्म और गहरा कर जाता है यह हल्ला-बोल भी। क्यों कि एक बार कैंसर और एड्स का भी इलाज है लेकिन दो चीज़ों का इलाज तो हकीम लुकमान के भी पास नहीं है। एक कुर्सी काटे का, दूजे दर्पण में अपना सच देख कर घायल हो जाने का। और मेरे पास तो मित्रों की इनायत इतनी है कि उन के पत्थरों से घायल टूटे हुए दर्पण भी सच बोलते बैठे रहते हैं। अब दर्पण तो दर्पण ठहरा। करे बिचारा तो क्या करे। शायद दर्पण की यह तासीर देख कर ही यह मुहावरा गढ़ा गया कि साहित्य समाज का दर्पण है। बावजूद इस के दर्पण का सच स्वीकार करने की जगह पत्थरबाज़ी पर उतर आना नादानी तो है ही इस के खतरे बहुत है मित्रों। यकीन न हो तो एक लोक कथा सुनाता हूं, जो बचपन में सुनी थी कभी। भोजपुरी में। यहां उस लोक कथा को हिंदी में सुनाता हूं। आप भी गौर कीजिए :

एक राजा था। [अब किस जाति का था यह मत पूछिए। क्यों कि राजा की कोई जाति नहीं होती। वह तो किसी भी जाति का हो, राजा बनते ही निरंकुश हो जाता है। फ़ासिस्ट हो जाता है। हर सच बात उसे अप्रिय लगने लगती है।] तो उस राजा को भी सच न सुनने की असाध्य बीमारी थी। अप्रिय लगता था हर सच उसे। सो उस ने राज्य के सारे दर्पण भी तुड़वा दिए। मारे डर के प्रजा राजा के खिलाफ़ कुछ कहने से कतरा जाती थी। बल्कि राजा का खौफ़ इतना था कि लोग सच के बारे में सोचते भी नहीं थे। और फिर चेले-चपाटों-चाटुकारों का कहना ही क्या था। अगर राजा कह देता था कि रात है तो मंत्री भी कह देता था कि रात है। फिर सभी एक सुर से कहने लग जाते क्या राजा, क्या मंत्री, क्या प्रजा, कि रात है, रात है ! रात है का कोलाहल पूरे राज्य में फैल जाता। भले ही यह सुबह-सुबह की बात हो ! लेकिन जब सब के सब सुबह-सुबह भी रात-रात करते होते तो एक गौरैया सारा गड़बड़ कर देती और कहने लगती कि सुबह है, सुबह है ! राजा बहुत नाराज होता। ऐसे ही राजा की किसी भी गलत या झूठ बात पर गौरैया निरंतर प्रतिवाद करती, फुदकती फिरती। राजा को बहुत गुस्सा आता। अंतत: राजा ने अपने मंत्री को निर्देश दे कर कुछ बहेलियों को लगवाया कि इस गौरैया को गिरफ़्तार कर मेरे सामने पेश किया जाए। बहेलियों ने गौरैया के लिए जाल बिछाया और पकड़ लिया। अब राजा ने गौरैया को पिंजड़े में कैद करवा दिया। भूखों रखा उसे। अपने चमचों को लगाया कि इस गौरैया का ब्रेन वाश करो। ताकि यह मेरे पक्ष में बोले, मेरी आलोचना न करे। मुझे झूठा न साबित करे। भले सुबह हो लेकिन अगर मैं रात कह रहा हूं तो स्वीकार कर ले कि रात है। चमचों ने अनथक परिश्रम किया। एक चमचे को कबीर बना कर खड़ा किया और सुनवाया कि घट-घट में पंक्षी बोलता ! और कहा कि ठीक इसी तरह तुम भी गाओ कि घट-घट में राजा बोलता ! और जो बोलता, सच ही बोलता ! कुछ अंड-बंड भी कहा। लेकिन गौरैया नकली कबीर के धौंस में नहीं आई, झांसे में भी नहीं आई। नकली कबीर कहता, घट-घट में राजा बोलता ! गौरैया कहती, खुद ही डंडी, खुद ही तराजू, खुद ही बैठा तोलता! नकली कबीर फिर कहता, घट-घट में राजा बोलता ! गौरैया कहती, खुद ही माली, खुद ही बगिया, खुद ही कलियां तोड़ता ! नकली कबीर अपनी दाल न गलती देख फिर लंठई पर उतर आया। पर उस की लंठई भी काम न आई। क्यों कि गौरैया जानती थी कबीर तो सच, निर्दोष और मासूम होते हैं। फ़ासिस्ट नहीं, न फ़ासिस्टों की चमचई में अतिरेक करते हैं। वह असली कबीर को जानती थी। आखिर गौरैया थी, घूमती फिरती थी, जग , जहान जानती थी। सो गौरैया नहीं मानी, सच बोलती रही। निरंतर सच बोलती रही। राजा तबाह हो गया इस गौरैया के फेर में और गौरैया के सच से। और अंतत: जब कोई तरकीब काम नहीं आई तो राजा ने गौरैया की हत्या का हुक्म दे दिया। तय दिन-मुकाम के मुताबिक राजा के फ़रमान के मुताबिक गौरैया की हत्या कर दी गई। लेकिन यह देखिए कि गौरैया तो अब भी शांत नहीं हुई। वह फिर भी बोलती रही। राजा ने कहा कि अब गौरैया का मांस पका दो, फिर देखता हूं कैसे बोलती है। गौरैया का मांस पकाया गया। वह फिर भी बोलती रही। राजा का दुख और अफ़सोस बढ़ता जा रहा था। राजा ने कहा कि अब मैं इसे खा जाता हूं। फिर देखता हूं कि कैसे बोलती है। और राजा ने गौरैया का पका मांस खा लिया। लेकिन अब और आफ़त ! गौरैया तो अब राजा के पेट में बैठी-बैठी बोल रही थी। राजा का गुस्सा अब सातवें आसमान पर। चमचों, चेलों-चपाटों को उस ने डपटा और कहा कि तुम लोगों ने गौरैया की ठीक से हत्या नहीं की, ठीक से मारा नहीं। इसी लिए वह लगातार चू-चपड़ कर रही है। अब इस को मैं अपनी तलवार से सबक सिखाता हूं, तब देखना ! अब सुबह हुई। राजा नित्य क्रिया में भी तलवार ले कर बैठा। बल्कि तलवार साध कर बैठा। और ज्यों गौरैया बाहर निकली उस ने तलवार से भरपूर वार किया। गैरैया तो निकल कर फुर्र हो गई। लेकिन राजा की तलवार का भरपूर वार उस की खुद की पिछाड़ी काट गया था। अब गौरैया उड़ती हुई बोली, 'अपने चलत राजा गंड़ियो कटवलैं लोय-लाय !'
तो मित्रो, कहने का कुल मतलब यह है कि सुबह को रात कहने का अभ्यास बंद होना चाहिए। किसी निरंकुश और फ़ासिस्ट राजा की हां में हां मिलाने का अभ्यास खुद के लिए तो खतरनाक है ही, राजा के हित में भी नहीं है। बल्कि राजा के लिए ज़्यादा तकलीफ़देह और नुकसानदेह है। और जो राजा समझदार न हो तो उस के मंत्रियों का कर्तव्य बनता है कि अपने राजा को सही सलाह दें ताकि सही विमर्श हो सके। और कि उस की पिछाड़ी भी सही सलामत रहे।

अब देखिए कि अकबर-वीरबल का एक प्रसंग भी यहां याद आ गया है। ज़रा गौर कीजिए।

एक बार बीरबल ने अकबर को महाभारत पढ़ने के लिए दिया। अकबर ने पढ़ा और बहुत खुश हुए। दरबार लगाया और बताया कि, 'बीरबल ने मुझे महाभारत पढ़ने के लिए दिया था। मैं ने पढ़ा और मुझे बहुत पसंद आई है महाभारत। अब मैं चाहता हूं कि मुझे केंद्र में रख कर अब मेरे लिए भी एक महाभारत लिखी जाए।' अब दरबार का आलम था। सो सारे दरबारी, 'वाह, वाह ! बहुत सुंदर, बहुत बढ़िया !' में डूब गए। लेकिन इस सारे शोरो-गुल में बीरबल खामोश थे। अकबर हैरान हुआ। उस ने बीरबल से कहा कि, 'बीरबल तुम ने ही मुझे महाभारत दी पढ़ने के लिए और तुम ही खामोश हो? कुछ बोलते क्यों नहीं? तुम भी कुछ कहो !' बीरबल ने कहा कि, 'बादशाह हुजूर, कुछ कहने के पहले मैं रानी से एक सवाल पूछने की इज़ाज़त चाहता हूं।'

'इज़ाज़त है !' अकबर ने कहा।

'क्या आप अपने पांच पति पसंद करेंगी रानी साहिबा !' बीरबल ने पूछा तो रानी बिगड़ गईं। बोलीं,'यह क्या बेहूदा सवाल है?' अकबर भी बिगड़े, ' बीरबल यह क्या बदतमीजी है ?'

'हुजूर, इसी लिए इज़ाज़त ले कर पूछा था। गुस्ताखी माफ़ हो !' बीरबल ने कहा और चुप हो गए। अकबर होशियार आदमी था। सब समझ गया। समझ गया कि महाभारत की तो बुनियाद ही है द्रौपदी और उस के पांच पति। सो अकबर ने ऐलान कर दिया कि हमारे लिए कभी कोई महाभारत नहीं लिखी जाएगी।

पर दुर्भाग्य है कि हमारे समय के अकबरों में न इतनी सलाहियत है न बीरबलों में इतना नैतिक साहस ! होता तो दर्पण देख कर उसे पत्थर फेंक कर तोड़ने में नहीं लगते। साहिर लुधियानवी का लिखा, रवि के संगीत में आशा भोसले का गाया वह गाना गाते, 'तोरा मन दर्पण कहलाए !' और उस में जोड़ते चलते, 'भले-बुरे सारे कर्मों को देखे और दिखाए !'

पर क्या कीजिएगा मित्र लोग सारी एकजुटता दर्पण तोड़ने में खर्च किए जा रहे हैं। बिचारे ! सवालों से टकराने के बजाय कतरा रहे हैं, तर्कों से बात करने के बजाय दर्पण से टकरा रहे हैं। बात करनी है आम की तो बबूल में फंसने-फंसाने पर उतारु हैं। फ़ेसबुक की भाषा में हा-हा करुं तो कैसा रहे ?

यह सब देख कर मन तो करता है कि एक नया दर्पण फिर से पेश कर दूं?

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6 comments:

  1. yah aalekh bhi mujhe lagata he aapke pahle aalekh ka hi poorak he . bhojpuri lokkatha may chhipe sandesh ko thathakathit rajao ko hi kya un sabhi ko samjhana chahiye jo es mugalte may rahte he ki vahi sarvesarva he ..aapke vividhatha purn lekh gyanvardhak to hote hi he ek sandesh bhi dete he jo chot bhi karte he per kahi n kahi darpan ka karya bhi karte he rahbar ji ka sher to es mamle may kabile tareef he aapko sadhuvad

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  2. क्यों कि गौरैया जानती थी कबीर तो सच, निर्दोष और मासूम होते है.…

    क्या बात कही है भाई जी। … आप ने चूंकि दर्पण के माध्यम से अपनी बात बहुत ही सटीक तरीके से कही तो मैं आपके लिए कहना चाहूँगा की आप अंधो के शहर में आइना बेचने का काम कर रहे है.

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  3. बहुत सुन्दर प्रस्तुति.. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉग समूह में सामिल की गयी और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा कल - रविवार - 06/10/2013 को
    वोट / पात्रता - हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः30 पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया पधारें, सादर .... Darshan jangra


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  4. आपकी कलम को सलाम, यह कलम ऐसी ही चलती रहे और हम लोगों कोनया-नया और खरा-खरा पढ़ने को मिलता रहे।

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  5. Ek sachche insaan ke liye yeh sab kabul hai,
    Per kuchh ghatiya soach walo ke liye sirf ek junuj hai.

    Thank you Pande ji, Very good & very nice write-up. Im fully agree with you. again thanks

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