Wednesday, 25 September 2013

जाति न पूछो साधु के बरक्स आलोचना के लोचन का संकट ऊर्फ़ वीरेंद्र यादव का यादव हो जाना !

दयानंद पांडेय 

वैचारिकी से पलटी 
[लेख-संग्रह]
लेखक- दयानंद पांडेय
पृष्ठ- 232 मूल्य- 550
प्रकाशक- सजल पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स  503-L , गली नं.2 विश्वास नगर दिल्ली-110032


लाभ (सम्मान) जब थूकता है तो उसे हथेली पर लेना पड़ता है।
-परसाई

बहुत पहले यह पढ़ा था, अब साक्षात देख रहा हूं। आप भी ज़रा इस का ज़ायका और ज़ायज़ा दोनों लेना चाहें तो गौर फ़रमाइए। और आनंद लीजिए परसाई के इस कथन के आलोक में।

अब की बार उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा दिए गए पुरस्कारों के लिए एक योग्यता यादव होना भी निर्धारित की गई थी। रचना नहीं तो क्या यादव तो हैं, ऐसा अब भी कहा जा रहा है।

यह एक टिप्पणी मैं ने फ़ेसबुक पर चुहुल में लगाई थी। किसी का नाम नहीं लिया था। लेकिन ध्यान में चौथी राम यादव का नाम ज़रुर था। वीरेंद्र यादव के बाबत तो मैं इस तरह सोच भी नहीं रहा था। क्यों कि अभी तक मैं मानता रहा था कि वीरेंद्र यादव जाति-पाति से ऊपर उठ चुके लोगों में से हैं। और कि सिर्फ़ यादव होने के बूते ही उन्हें उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने साहित्य भू्षण से नहीं नवाज़ा होगा। आखिर वह पढ़े-लिखे लोगों में अपने को शुमार करते रहे हैं। पर इस पोस्ट के थोड़ी देर बाद ही उन का यह संदेश मेरे इनबाक्स में आया।


Virendra Yadav
दयानंद जी , निंदा चाहे जितनी कीजिए ,लेकिन तथ्यों से आँखें मत मूंदिये . वह कौन सा पुरस्कृत यादव है जिसके पास रचना नहीं है सिर्फ यादव होने की योग्यता है . चाहें तो अपनी टिप्पणी पर पुनर्विचार करें .

मैं तो हतप्रभ रह गया। यह पढ़ कर। सोचा कि अग्रज हैं, उतावलेपन में जवाब देने के बजाय आराम से कल जवाब दे दूंगा। फ़ेसबुक पर ही या फ़ोन कर के। पर दूसरे दिन जब नेट खोला और फ़ेसबुक पर भी आया तो उस पोस्ट पर आई तमाम लाइक और टिप्पणियों में यह एक टिप्पणी वीरेंद्र यादव की यह भी थी: अब आप इसे भी पढ़िए:

Virendra Yadav अनिल जी , दयानंद जी खोजी पत्रकार हैं .दरअसल हिन्दी संस्थान के इतिहास में अब तक द्विज लेखक ही पुरस्कृत होते रहे हैं शूद्र और दलित लेखक उस सूची से हमेशा नदारद रहे हैं .यह अकारण नही है कि राजेंद्र यादव तक इसमें शामिल नहीं किये गए हैं .यह मुद्दा विचारणीय है कि आखिर क्यों पिछले वर्षों में किसी शूद्र ,दलित या मुस्लिम को हिन्दी संस्थान के उच्च पुरस्कारों से नहीं सम्मानित किया गया. क्या राही मासूम रजा ,शानी, असगर वजाहत .अब्दुल बिस्मिलाह इसके योग्य नहीं थे/हैं . ओम प्रकाश बाल्मीकि एकमात्र अपवाद हैं वह भी मायावती शासन काल में . जिस संस्थान में पुरस्कारों के लिए एकमात्र अर्हता द्विज होना हो वहां यदि 112 लेखकों में दो शूद्र पृष्ठभूमि के लेखकों को सम्मानित किया जाता है तो जरूर उसके इतर कारण होंगें और दयानंद पांडे अनुसार वह यादव होने की शर्त है . वैसे दयानंद पांडे स्वयं इस बार पुरस्कृत हुए हैं इसके पूर्व भी दो बार हिन्दी संस्थान से पुरस्कृत हो चुके हैं . और इस बार भी अन्य खोजी पत्रकारों की सूचना के अनुसार उनके लिए उस 'साहित्य भूषण ' संस्थान के लिए एक दर्जन से अधिक संस्तुतियां थी जिसकी उम्र की अर्हता साठ वर्ष है जो उनकी नहीं है . जाहिर है सुयोग्य लेखक हैं अर्हता न होने पर भी संस्तुतियां हो ही सकती हैं .संजीव , शिवमूर्ति जैसे शूद्र पृष्ठभूमि के लेखक अयोग्य न होते तो उनकी संस्तुतियां क्यों न होती ? जिन शूद्र पृष्ठभूमि के लेखकों को मिल गया उनकी रचना भी कैसे हो सकती है .क्योंकि इसका अधिकार तो द्विज को ही है . यह सब लिखना मेरे लिए अशोभन है लेकिन दुष्प्रचार की भी हद होती है ! ...

अब मेरा माथा ठनका। और सोचा कि वीरेंद्र यादव को यह क्या हो गया है? सोचा कई बार कि कमलेश ने जो कथादेश के सितंबर, २०१३ के अंक में एक फ़तवा जारी किया है कि, 'वीरेंद्र यादव प्रतिवाद झूठ और अज्ञान से उत्तपन्न दुस्साहस का नमूना है।' को मान ही लूं क्या? फिर यह शेर याद आ गया।

ज़फ़ा के नाम पे तुम क्यों संभल के बैठ गए
बात कुछ तुम्हारी नहीं बात है ज़माने की।

लेकिन फिर मैं यह सब सोच कर रह गया । प्रति-उत्तर नहीं दे पाया। एक पत्रकार मित्र को देखने दिल्ली जाना पड़ गया। उन्हें लकवा मार गया है। तो उन्हें देख कर अब दिल्ली से वापस लौटा हूं तो सोचा कि अपने अग्रज वीरेंद्र यादव जी से अपने मन की बात तो कह ही दूं। नहीं वह जाने क्या-क्या सोच रहे होंगे। सो इस बहाने कुछ ज़रुरी सवाल भी उन से कर ही लूं।

मेरी एक छोटी सी चुहुल से वीरेंद्र यादव आप इस तरह प्रश्नाहत हो गए और ऐसा लगा जैसे आप यादवों के प्रवक्ता हो गए हों। और किसी ने आप की दुखती रग को बेदर्दी से दबा दिया हो। जब हिंदी संस्थान के पुरस्कारों की घोषणा हुई तब मैं ने आप को व्यक्तिगत रुप से फ़ोन कर के बधाई दी थी, समारोह में भी। यह भी आप भूल गए? हां, मैं ने इस टिप्पणी में चौथीराम यादव को ज़रुर याद करने की कोशिश की। रचनाकार को याद उस की शक्लोसूरत से नहीं किया जाता, उस की रचनाएं उस की याद दिलाती हैं। मुंशी प्रेमचंद का नाम आते ही गबन, गोदान, रंगभूमि और उन की कहानियां सामने आ कर खड़ी हो जाती हैं। गुलेरी जी का नाम याद आते ही उस ने कहा था ही नहीं, लहना सिंह भी सामने आ खड़ा होता है। मुझ मतिमंद ने बहुत याद करने की कोशिश की कि चौथी राम यादव को याद करुं तो उन की कोई रचना या आलोचना मेरी स्मृति-पटल पर अंकित हो जाए पर नहीं हुई। आप चूंकि लखनऊ में बरास्ता नामवर मौखिक ही मौलिक है के नाते छोटे नामवर माने जाते हैं इस लिए आप के बारे में मुतमइन था कि आप को यह मरतबा कोई यूं ही सेंत-मेंत में तो मिल नहीं गया होगा। ज़रुर आप की बड़ी स्पृहणीय और उल्लेखनीय साहित्यिक उपलब्धियां भी होंगी। तो जब चौथीराम यादव की किसी रचना को याद नहीं कर सका तो खामोश हो कर बैठ गया यह मान कर कि मेरी अज्ञानता का अर्थ यह कैसे लगा लिया जाए मैं नहीं जानता हूं तो इस लिए यह चीज़ है ही नहीं। पर उस दिन पुरस्कार वितरण समारोह में वितरित हुई विवरणिका देख कर फिर जिज्ञासा जगी कि चौथीराम यादव के बारे में कुछ जान ही लूं। विवरणिका देख कर मुझे गहरा सदमा सा लगा कि हिंदी संस्थान महाविद्यालयों के विद्यार्थियों के लिए कुंजियां लिखने वालों को कब से सम्मानित करने लगा, वह भी लोहिया सम्मान जैसे सम्मान से। जिसे निर्मल वर्मा, श्रीलाल शुक्ल, शिव प्रसाद सिंह, कुंवर नारायन, कन्हैयालाल नंदन, शैलेष मटियानी, रवींद्र कालिया जैसे लोग पा चुके हैं। ऐसे में यादव होना योग्यता के तौर पर मेरे या और भी लोगों के मन में बात आ ही गई तो कुछ अस्वाभाविक नहीं माना जाना चाहिए। खैर अब फ़ेसबुक पर आई आप की अब इस अयाचित टिप्पणी के क्रम में आप का भी पन्ना खुला परिचय का तो पाया कि आप के खाते में भी ऐसा तो कुछ रचनात्मक और स्मरणीय नहीं दर्ज है । और एक बड़ी दिक्कत यह भी है सामने है कि यह किन के हाथों सम्मानित हो कर आप फूले नहीं समा रहे हैं। आप तो हमेशा सत्ता विरोध में मुट्ठियां कसे की मुद्रा अख्तियार किए रहते हैं। कंवल भारती की गिरफ़्तारी और मुज़फ़्फ़र नगर के दंगे पर्याप्त कारण थे आप के सामने अभी भी मुट्ठियां कसे की मुद्रा अख्तियार करने के लिए। खैर यह आप की अपनी सुविधा का चयन था और है। इस पर मुझे कुछ बहुत नहीं कहना।

इस लिए भी कि अभी कुछ दिन पहले फ़ेसबुक पर ही आप को जनसत्ता संपादक ओम थानवी से कुतर्क करते देख चुका था। इसी फ़ेसबुक पर कमलेश जी को सी.आई.ए. का आप का फ़तवा भी देख चुका था। प्रेमचंद को ले कर भी आप के एकाधिकारवादी रवैए को देख चुका था। और अब आप के यदुवंशी होने की हुंकार को दर्ज कर रहा हूं। आप के द्विज विरोध और आप की द्विज-नफ़रत को देख कर हैरत में हूं। पहले भी कई बार यह देखा है। एक बार चंचल जी की वाल पर भी एक प्रतिक्रिया पढ़ी थी कि मोची को चाय की दुकान पर बिठा दीजिए और पंडित जी को मोची की दुकान पर। तब मैं भी आऊंगा चाय पीने आप के गांव। गोया चंचल न हों औरंगज़ेब हों कि जिस को अपने गांव में जब जहां चाहें, जिस काम पर लगा दें। अजब सनक है द्विज दंश और नफ़रत की। खैर बात बीत गई। पर अब फिर यह टिप्पणी सामने आ गई। तो सोचा कि जिस व्यक्ति को मैं पढ़ा लिखा मान कर चल रहा था वह तो साक्षरों की तरह व्यवहार करने पर आमादा हो गया। एक मामूली सी चुहुल पर इतना आहत और इस कदर आक्रामक हो गया? कि द्विज दंश में इतना आकुल हो गया। भूल गया अपनी आलोचना का सारा लोचन। एक शेर याद आ गया :

कितने कमज़र्फ़ हैं ये गुब्बारे
चंद सांसों में फूल जाते हैं।

द्विज विरोध की सनक में आप यह भी भू्ल गए कि एक द्विज श्रीलाल शुक्ल के चलते ही आप आलोचक होने की भंगिमा पा सके । कि उसी द्विज के आशीर्वाद से आप की किताब छपी और देवी शंकर अवस्थी पुरस्कार भी मिला। लेकिन इस द्विज दंश की आग में जल कर आप इतने कुपित हो गए कि यादव से शूद्र तक बन गए। मायावती की ज़ुबान बोलने लगे ! द्विजों ने आप का, आप की जाति का और उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का इतना नुकसान कर दिया कि कोई हिसाब नहीं है। यह सब यह कहते हुए आप यह भी भूल गए कि बीते ढाई दशक से भी ज़्यादा समय से मुलायम और उन का कुनबा तथा मायावती या कल्याण सिंह ही राज कर रहे हैं। यह लोग भी तो आप की परिभाषा में दबे-कुचले शूद्र लोग ही हैं। बीच में राजनाथ सिंह और रामप्रकाश गुप्त भी ज़रा-ज़रा समय के लिए आए। लेकिन सामाजिक न्याय की शब्दावली में ही जो कहें तो दबे-कुचले, निचले तबकों का ही राज चल रहा है उत्तर प्रदेश में। केंद्र में भी देवगौड़ा से लगायत मनमोहन सिंह तक दबे-कुचले लोग ही हैं। इतना ही नहीं उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान में इस बीच कार्यकारी अध्यक्ष भी यही दबे-कुचले लोग रहे। सोम ठाकुर, शंभु नाथ, प्रेमशंकर और अब उदय प्रताप सिंह जैसे लोग इसी दबे कुचले तबके से आते हैं जिन पर वीरेंद्र यादव के शब्दों में द्विजों ने अत्याचार किए हैं और कि करते जा रहे हैं। तो क्यों नहीं इन दबे कुचले लोगों ने जो कि राज भी कर रहे थे, वीरेंद्र यादव जैसे शूद्रों को भारत भारती या और ऐसे पुरस्कारों से लाद दिया? कम से कम २५ भारत भारती या इस के समकक्ष बाकी दर्जनों पुरस्कार तो द्विजों के दांत से खींच कर निकाल ही सकते थे। मैं तो कहता हूं वीरेंद्र यादव जी अब इस मुद्दे पर एक बार हो ही जाए लाल सलाम ! एक श्वेत पत्र तो कम से कम जारी हो ही जाए।

यह भी अजब है कि जो अगर आप को किसी की बात नहीं पसंद आए तो उसे भाजपाई करार दे दीजिए, इस से भी काम नहीं चल पाए तो आप सी.आई.ए. एजेंट बता दीजिए। यह तो अजब फ़ासिज़्म है भाई ! आप फ़ासिस्टों से लड़ने की दुहाई देते-देते खुद फ़ासिस्ट बन बैठे ! यह तो गुड बात नहीं है।

वीरेंद्र यादव इसी टिप्पणी में लिखते हैं:

वैसे दयानंद पांडे स्वयं इस बार पुरस्कृत हुए हैं इसके पूर्व भी दो बार हिन्दी संस्थान से पुरस्कृत हो चुके हैं . और इस बार भी अन्य खोजी पत्रकारों की सूचना के अनुसार उनके लिए उस 'साहित्य भूषण ' संस्थान के लिए एक दर्जन से अधिक संस्तुतियां थी जिसकी उम्र की अर्हता साठ वर्ष है जो उनकी नहीं है . जाहिर है सुयोग्य लेखक हैं अर्हता न होने पर भी संस्तुतियां हो ही सकती हैं ।

यह भी अजब दुख है। अगर कोई साहित्य भूषण के लिए मेरी संस्तुति कर देता है तो इस में भी मेरा ही कुसूर? हां यह सही है कि इस बार कोई आधा दर्जन कुछ बड़े लेखकों, आलोचकों ने मेरे लिए संस्तुति की थी। यह मुझे बाद में पता चला। बड़ी विनम्रता से मुझे यह कहते हुए भी अच्छा लगता है कि हां, मेरे पास रचना भी है। और विपुल पाठक संसार भी। अपने इन पाठकों पर मुझे बहुत नाज़ भी है। कहानी-उपन्यास आदि की कोई २४ प्रकाशित पुस्तकें हैं। एक ब्लाग सरोकारनामा है। जिसे दुनिया भर में लोग पढ़ते हैं। दूर-दूर से लोग फ़ोन करते हैं, चिट्ठी-पत्री भी। रोज ही। किसी को यकीन न हो तो ब्लाग की हिट देख कर तसल्ली कर सकता है। मेरे उपन्यास लोक कवि अब गाते नहीं का नायक पिछड़ी जाति का ही है। वे जो हारे हुए उपन्यास में जो वीरेंद्र यादव के शब्द उधार ले कर कहूं तो 'रिस्क' ज़ोन में भी मैं गया हूं। इस रिस्क ज़ोन के चलते मुझे माफ़िया से ले कर महंत तक की धमकियां मिली हैं। पर मैं ने इन धमकियों को कभी जान बूझ कर सार्वजनिक नहीं होने दिया। उपन्यास बांसगांव की मुनमुन और हारमोनियम के हज़ार टुकड़े को ले कर भी मैं ने दबाव झेले हैं। उपन्यास अपने अपने युद्ध को ले कर मैं ने कंटेम्प्ट आफ़ कोर्ट भी भुगता है लखनऊ हाई कोर्ट में। यह तो सार्वजनिक है। राजेंद्र यादव ने अपने अपने युद्ध के इस मामले को ले कर हंस में तब चार पन्ने का संपादकीय भी लिखा था। केशव कहि न जाए क्या कहिए शीर्षक से। राजकिशोर ने जनसत्ता में आधा पेज लिखा था। और भी बहुतेरी जगहों पर इस को लेकर लिखा गया। कहानी घोड़े वाले बाऊ साहब पर भी खूब धमकियां मिलीं। घर में बम मार देने तक की। पर इन सूचनाओं को भी मेरी आत्म-मुग्धता नहीं मात्र सूचना ही समझा जाए। लेकिन आयु की अर्हता के नाते मुझे हिंदी संस्थान का यह साहित्य भूषण नहीं मिला यह वीरेंद्र यादव की नई सूचना है मेरे लिए। हालां कि शैलेष मटियानी और ओम प्रकाश बाल्मिकी आदि लेखकों को मेरी आयु में ही साहित्य भूषण मिल चुका है। हां, यह भी सही है कि मुझे एक बार हिंदी संस्थान का प्रेमचंद पुरस्कार और एक बार यशपाल पुरस्कार मिल चुका है। अब की बार भी सर्जना पुरस्कार दिया गया है। बहरहाल यह विषयांतर है। विषय पर आते हैं।

पर वीरेंद्र जी यह भी हैरत की बात है मेरे लिए कि मेरी एक चुहुल से आप इतने प्रश्नाहत हो बैठे कि यादवों और शूद्रों के प्रवक्ता बन बैठे। खोजी पत्रकारों की मदद लेने लगे? यह मेरे लिए ही नहीं बहुतों के लिए चिंता का विषय है। चिंता का विषय है आप का यह नया रुप ! इस लिए भी कि आप को कम से कम मैं पढ़े लिखों में न सिर्फ़ शुमार करता रहा हूं बल्कि आप के विशद अध्ययन का कायल भी हूं। लखनऊ में मुद्राराक्षस और आप दोनों ही पढ़ाकू लोगों में से हैं। एक समय श्रीलाल शुक्ल भी सब से ज़्यादा पढ़े लिखों में माने जाते थे। ठीक वैसे ही जैसे एक समय मनोहर श्याम जोशी और राजेंद्र यादव दिल्ली में माने जाते थे। पर अब न जोशी जी रहे न श्रीलाल जी। रह गए राजेंद्र यादव, मुद्रा जी और आप। पर मुद्रा जी अपने अध्ययन का जितना अधिक से अधिक दुरुपयोग अब कुतर्क रचने में करने लगे हैं कि उस का अब कोई हिसाब नहीं रह गया है। डर लग रहा है कि कहीं अब आप भी तो मुद्रा मार्ग पर नहीं अग्रसर हो गए हैं? अगर खुदा न खास्ता ऐसा हो रहा है तो यकीनन खुदा खैर करे !

खैर थोड़ा हिंदी संस्थान के द्विजों की भी चर्चा कर ली जाए फिर बात आगे बढाएं। जनवरी, १९७७ से अब तक के हिंदी संस्थान की आयु में द्विज नामधारी सिर्फ़ तीन लोग ही कार्यकारी अध्यक्ष या कार्यकारी उपाध्यक्ष के तौर पर रहे हैं। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, अमृतलाल नागर और शरण बिहारी गोस्वामी। अब बताइए कि हजारी प्रसाद द्विवेदी और अमृतलाल नागर को भी आप द्विज मान लेते हैं। और बता देते हैं कि हिन्दी संस्थान के इतिहास में अब तक द्विज लेखक ही पुरस्कृत होते रहे हैं शूद्र और दलित लेखक उस सूची से हमेशा नदारद रहे हैं .यह अकारण नहीं है कि राजेंद्र यादव तक इसमें शामिल नहीं किये गए हैं .यह मुद्दा विचारणीय है कि आखिर क्यों पिछले वर्षों में किसी शूद्र ,दलित या मुस्लिम को हिन्दी संस्थान के उच्च पुरस्कारों से नहीं सम्मानित किया गया. क्या राही मासूम रजा ,शानी, असगर वजाहत .अब्दुल बिस्मिलाह इसके योग्य नहीं थे/हैं ।

अदभुत है यह आरोप भी।

वीरेंद्र यादव जैसे पढ़े लिखे लोग जब यह भाषा बोलते हैं तो लगता है गोया वह सपा या बसपा के कार्यकर्ता बन कर बोल रहे हैं। भूल गए हैं अपनी साहित्य आलोचना के सारे औज़ार भी। तथ्यों को भी तोड़-मरोड़ कर ऐसे प्रस्तुत करते हैं गोया किसी राजनीतिक पार्टी के बेशर्म प्रवक्ता हों। बताइए कि अब्दुल बिस्मिल्लाह तो दो बार हिंदी संस्थान से पुरस्कृत हो चुके हैं। यह बात अभी लखनऊ में वह खुद बता गए हैं। यह बात अलग है कि उस में भी वह झूठ की तिरुपन लगा कर बता गए हैं। बताया कि जब हिंदी संस्थान के पुरस्कार उन्हें मिले तो उन्हें जाने कैसे मिल गए। यह तथ्य तो सभी जानते ही हैं कि बिना पुस्तक जमा किए या बिना अप्लाई किए हिंदी संस्थान कभी किसी को पुरस्कृत नहीं करता। पर अब्दुल बिस्मिल्लाह बोलने की रौ में ऐसे कई सारे झूठ धकाधक ठोंकते गए थे तब अपनी लखनऊ की यात्रा में। जैसे कि अपने गांव के अखंड रामायण के ज़िक्र में तो वह नमक में दाल मिलाते हुए बोले कि अकेले एक पंडित जी रामायण पढ़ रहे थे। पेशाब जाना था तो मुझ को बु्ला कर बैठा दिया कि पढ़ो अभी आता हूं। जनेऊ लपेट कर गए। और वापस आ कर जब जाना कि मैं मुसलमान हूं तो मार कर भगा दिया। बताइए कि भला एक पंडित या कोई एक व्यक्ति कहीं अखंड रामायण का पाठ करता है? इतना ही नहीं उन्हें पटना में मार्क्सवादियों ने भी रामायण पर बोलने के लिए बुला लिया। ऐसा क्या सपने में भी संभव है? पर यह और ऐसे तमाम झूठ वह फेंकते गए और हमारे जैसे लोग उसे लपेटते गए। तो अब्दुल तो कहानीकार हैं सच में झूठ मिला कर कहानी लिखते-लिखते बोलने भी लग गए। पर अपने आलोचक प्रवर आप?

आप का क्या करें?

आप भी द्विज दंश में बहुत सारे तथ्यों पर पानी फेरने की कसरत में लीन हैं। सब जानते हैं कि नब्बे के दशक में जब मुलायम मुख्यमंत्री थे तब राजेंद्र यादव को हिंदी संस्थान ने साहित्य भूषण देने की घोषणा की थी जिसे राजेंद्र यादव ने ठुकरा दिया था। तब के दिनों साहित्य भूषण कुछ हज़ार रुपए का ही था। तो भी राजेंद्र यादव ने यह शर्त रख दी थी कि पुरस्कार राशि हंस के नाम दिया जाए तभी लूंगा। यह संभव नहीं बना और उन्हों ने इसे ठुकरा दिया। ठीक इसी तरह जब वर्ष २००३ के लिए भारत भारती पुरस्कार बरास्ता कन्हैयालाल नंदन राजेंद्र यादव को दिए जाने की बात हुई तो प्रस्ताव स्तर पर ही राजेंद्र यादव ने फिर वही शर्त रख दी कि धनराशि हंस के नाम दी जाए। जो मुमकिन नहीं हुआ। फिर रामदरश मिश्र को भारत भारती दिया गया। और यह सारी बातें आन रिकार्ड राजेंद्र यादव कथाक्रम, लखनऊ के एक भाषण में खुद कह गए हैं। अभी वर्ष २००९ का भारत भारती महीप सिंह को दिया गया और महीप सिंह दलित हैं यह आप दर्ज कर लीजिए। महीप सिंह को पहले भी हिंदी संस्थान बड़े पुरस्कार दे चुका है। न सिर्फ़ महीप सिंह श्योराज सिंह बचैन, श्याम सिंह शशि जैसे भी तमाम दलित लेखक समय-समय पर पुरस्कृत होते रहे हैं। सब का नाम देना यहां बहुत विस्तार हो जाएगा। कहिएगा तो अलग से पूरी सूची दे दूंगा। बहरहाल अब आप द्विजों के अत्याचार से वशीभूत चाहते हैं कि साहित्य में भी आरक्षण लागू हो जाए, साहित्य के पुरस्कारों में तो कम से कम आप की यह मंशा साफ दिखती है।

आप को दुख है कि संजीव या शिवमूर्ति जैसे शूद्र पृष्ठभूमि के लेखकों को अभी तक हिंदी संस्थान ने पुरस्कृत नहीं किया। तो शायद इस लिए कि संस्थान में इन या ऐसे कुछ और लेखकों ने अप्लाई नहीं किया है। यह बात अभी जल्दी ही शिवमूर्ति ने अपने एक लेख में लिख कर कहा है और पूरे दम से कहा है कि उन्हों ने अभी तक न किसी पुरस्कार के लिए कहीं अप्लाई किया न कभी करेंगे ! यह कहने का साहस कितने लेखकों में है भला आज की तारीख में? शिवमूर्ति ने जो लिखा है उस पर गौर करें:

पिछले दिनो हर साल की तरह सरकारी साहित्यिक पुरस्कारों की घोषणा हुई। पुरस्कृत लोगों का नाम पढक़र लोग पूछने लगे कि ए लोग कौन हैं? दो एक नाम छोडक़र कभी किसी का नाम सुना नही गया। जबकि परिचय में बताया गया है कि किसी ने दस किताबें लिखी हैं किसी ने बीस। जिन्हें मुख्य धारा के लेखक कवि कहा जाता है, चाहे माक्र्सवादी हों चाहे कलावादी या कोई और वादी, उनमें क्षोभ व्याप्त है- भाई, यह क्या हो रहा है। पिछली बार भी ऐसा ही हुआ था। पब्लिक मनी अपात्रों में क्यों बाँटी जा रही है?

पुरस्कार देने के जो नियम कायदे उन्होंने बनाए हैं, उनके रहते कोई भी स्वाभिमानी लेखक कवि पुरस्कृत कैसे हो सकता है? कुछ अपवाद जानें दे तो पुरस्कार पाने के लिए लेखक को बाकायदा दरख्वास्त देनी पड़ेगी। अपनी किताब सबमिट करना पड़ेगा। भिखारी भिक्षा मांगता है। गरीब छात्र वजीफा मांगता है। बेरोजगार नौकरी मांगता है। यहाँ तक तो ठीक है। लेकिन पुरस्कार भी चिरौरी करने से मिले। उसके लिए भी दरख्वास्त लगानी पड़े। लाइन लगानी पड़े। यह तो ठीक नही भाई। अप्रैल 2012 में तदभव की गोष्ठी में डा. नामवर सिंह लखनऊ में कह गये कि साहित्यकार सत्ता की चेरी या दासी होता है। तो जो अपने को चेरी या दासी मानते हों वे इनाम इकराम माँगे। वे दरख्वास्त लगावे। मैने तो आज तक न अपनी कोई किताब कहीं 'सबमिटÓ की या दरख्वास्त लगाया न आगे कभी ऐसा करना चाहूँगा। मैं इस काम को साहित्यकार की गरिमा का हनन मानता हूँ। पुरस्कार के लिये किसी से अपने नाम की संस्तुति करने की चिरौरी करना तो डूब मरने जैसा है। वे तो चाहते ही हैं साहित्यकार उनके दरबार में आवै, लाइन लगावैं। आड़े ओंटे विरुदावली भी गावैं और हम उन्हें उपकृत करके जनता में गुणग्राहक कहावैं। जो दरख्वास्त लगा कर ले रहे हैं उन्हें लेने दीजिए। ऐसा तो सनातन से होता आया है।

शिव मूर्ति इस लेख के आखिर में एक उपकथा को खत्म करते हुए लिखते हैं:

-एप्लिकेशन मांग लेते है जहाँपनाह। उससे सेलेक्शन में आसानी होगी। उसी में वे लोग यह भी बताएँ कि वे पुरस्कार के अधिकारी किस प्रकार है। हम लोगों को इतनी फुरसत कहां है कि बैठकर उनकी किताबे पढ़े।

-राइट। राइट। मुँह फैलाकर राजा बोला।

तब से एप्लिकेशन देने का सिस्टम चल पड़ा जो आज तक चला आ रहा है।

पब्लिक मनी सुपात्रों में जाय, इसके लिए आवाज उठाना अच्छी बात है। लेकिन आवाज उठाने के लिए तो अन्य बहुत से ज्यादा जरूरी पब्लिक इन्टरेस्ट के मुद्दे आप का इन्तजार कर रहे हैं। उनसे जुडि़ए। लम्बी मार कबीर की चित से देहु उतारि। जब जनहित के बहुत जरूरी जरूरी मुद्दे आप चित से उतार चुके हैं तो पुरस्कार का मुद्दा चित पर चढ़ाने का क्या मतलब?

खैर छोड़िए भी शिवमूर्ति और उन की बात को यह आप के लिए ज़रा नहीं ज़्यादा असुविधाजनक है। लेकिन जैसा कि आप अपनी प्रतिक्रिया में लिखे हुए हैं तो उसी बिना पर आप से यह पूछना भी क्या असुविधाजनक ही रहेगा कि आप ने कितने संजीव या कितने शिवमूर्ति जैसे शूद्र पृष्ठभूमि वाले लेखकों की रचना पर आलोचना लिखी है? यह भी कि शूद्र को विषय बना कर लिखने और बोलने वाले लखनऊ में ही रह रहे मुद्राराक्षस की रचनाओं पर या अन्य दलित लेखकों की कितनी रचनाओं पर आलोचना लिखी है आप ने? कामतानाथ के काल कथा में क्या दबे कुचलों की अनकथ कथा नहीं है? लिखा आप ने क्या काल कथा पर भी? अब हमारे जैसे लोग यह जानना ही चाहते हैं। और कि यह भी कि पचास साल पुरानी अंगरेजी आलोचना में डुबकी मार कर आखिर कब तक उसे हिंदी की धूप में सुखाते रहेंगे आप या आप जैसे हिंदी के तमाम आलोचक प्रवर। जैसे कि बहुत सारे अंगरेजी के अंधभक्त रैपिडेक्स पढ़ कर जहां तहां अंगरेजी आज़माते रहते हैं। वैसे ही इन दिनों कुछ आलोचक प्रवर भी अंगरेजी आलोचना में गोता मार-मार कर हिंदी में उसे आज़माने में अपनी शान समझ लेते हैं। हिंदी में सोचना-समझना उन्हें अपनी हेठी लगती है।

खैर, फ़तवे जारी करना और लिखना दोनों दो बात है। फुटकर लेखों की दो-चार किताबों का संग्रह भर कब से आलोचना का प्रतिमान बन गया भाई? नामवर सिंह जो आज मौखिक ही मौलिक पर आए हैं तो कितना सारा लिख कर आए हैं यह भी हम सब जानते ही हैं। और तो और उन के मौखिक पर आधारित भी कई खंड अब तो आ गए हैं। राम विलास शर्मा ने तो इतना लिख दिया है कि हमारे जैसे मतिमंद को उसे पढ़ने के लिए भी एक पूरी उम्र चाहिए। रामचंद्र शुक्ल, महावीर प्रसाद द्विवेदी और हजारी प्रसाद द्विवेदी की आलोचना का नाखून भी कितने लोग छू पाए हैं, यह आज भी एक सवाल है। सवाल तो और भी बहुतेरे हैं। लेकिन उन्हें अभी किसी और मौके के लिए मुल्तवी करते हैं। आखिर वाद-विवाद-संवाद एक दो दिन का तो है नहीं न !

पर सवाल यह भी एक अबूझ है कि आखिर सबाल्टर्न की आड़ में हिंदी साहित्य की आलोचना का आखेट किन के लिए और किस लिए भला? अंगरेजी शब्दों, विशेषणों और मुहावरों से आक्रांत करने का चलन चलेगा कितने दिन भला? कि ज़मीनी बात नहीं हो सकती? हिंदी के अपने विशेषण, अपने मुहावरे , अपनी शब्दावलियां क्या इस कदर चुक गई हैं? यह तो हिंदी फ़िल्मों वाली बात हो गई कि फ़िल्म हिंदी में पर सारी बातचीत, व्यवहार अंगरेजी में। क्या तो जब सब कुछ अंगरेजी फ़िल्मों से ही उड़ाया जाएगा तो हिंदी सूझेगी भी कैसे भला? यह तो हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट वाली बात हो गई कि जिस का मुकदमा है वही नहीं जानता कि आखिर अंगरेजी में यह जज और वकील क्या गिटपिट-गिटपिट कर रहे हैं? इस अंगरेजी की छाया में आक्रांत आलोचना को अबूझ बनाते-बनाते, आलोचना नाम की संस्था को समाप्त कर देने की यह कौन सी दुरभिसंधि है यादवाचार्य? सच तो यह है वीरेंद्र यादव कि अगर हिंदी वाले अंगरेजी वाले उन लेखों या उन का अनुवाद ही सही पढ़ लें तो आप की यह सबाल्टर्न स्थापना भी नष्ट हो जाएगी। पर दिक्कत यही है कि अधिकांश हिंदी वाले अंगरेजी नहीं जानते और कि बहुत ज़्यादा पढ़ते भी नहीं। गणेश पांडेय ने एक जगह लिखा है कि , 'क्या आलोचना किसी कृति को देखना और उस के मर्म तक पहुंचने की रचनात्मक प्रक्रिया नहीं है?' वह बताते हैं कि, 'आलोचक में जिन चीज़ों को खासतौर से रेखांकित किया गया है उन में बहुपठित होना तो है लेकिन तीक्ष्ण अन्वीक्ष्ण बुद्धि के साथ-साथ मर्मग्रहिणी प्रज्ञा का होना भी बेहद ज़रुरी है।' एक दिक्कत और भी इन दिनों सामने है। मीडिया का मीडियाकर बन कर भी लोग आलोचक बनने का ढोंग कर ले रहे हैं। यह और खतरनाक है।

लेकिन वीरेंद्र यादव यह सवाल क्या और ज़रुरी नहीं है कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल, राम विलास शर्मा की आलोचना से आंख मिलाए बिना उन से बड़ी रेखा खींचे बिना हिंदी आलोचना की कौन सी पगडंडी या कौन सा राजमार्ग बनाना चाहते हैं आप या आप जैसे लोग? यह द्विज विरोधी आलोचना का राजमार्ग आखिर अपना पड़ाव कहां और कब तय करेगा? कहीं तो डेरा डालेगा ही। एक काम करिए न कि हिंदी में आप के हिसाब से जितने शूद्र लेखक हैं उन की एक फ़ेहरिश्त ही बना दीजिए। और बता दीजिए दुनिया को कि अब यही लेखक हैं और यही अब से पु्रस्कृत होंगे।

सबाल्टर्न की माया कोई समझे न समझे आप की बला से ! जिसे समझना ही होगा उसे अभय दुबे जैसे लोग हैं, समझा देंगे। आप इस की चिंता छोड़िए। पर जब इस तरह राजनीतिक पार्टियों और साहित्य में एक जैसा लोकतंत्र हो जाएगा फिर तो सभी दबे कुचलों के साथ इंसाफ़ हो ही जाएगा ! आने दीजिए सामजिक न्याय की छाया साहित्य में भी। लगभग आ ही चुका है। साहित्य के द्विजों के फ़न को कुचलने में आसानी भी हो जाएगी। हिंदी साहित्य का इतिहास एक बार फिर से लिखा जाएगा और बताया जाएगा कि हिंदी साहित्य के यह सारे द्विज तुलसीदास से लगायत श्रीलाल शुक्ल, शेखर जोशी, रमेश उपाध्याय, मैत्रेयी पुष्पा आदि तक ने हिंदी साहित्य का बड़ा बुरा किया है, इन सब को हिंदी साहित्य से बाहर किया जाता है। और वीरेंद्र यादव जी, द्विजों से इस तरह छुट्टी मिल जाएगी। बस आप शूद्र आदि लेखकों की फ़ेहरिश्त बनाने में जुट जाइए और इन पर धड़ाधड़ आलोचना के लोचन की कृपा बरसाने लगिए। निर्मल बाबा की दुकान फेल हो जाएगी, आप की निकल पड़ेगी। ज़मीन बन चुकी है बस ज़रुरत है तो बस हल्ला बोल देने की। यकीन न हो तो फ़ेसबुक पर ही कहानीकार रमेश उपाध्याय की एक ताज़ा टिप्पणी का ज़ायज़ा लीजिए न :

"आपके पुराने मित्र मधुकर सिंह का जन-सम्मान हुआ, उसमें आप नहीं गये?"
"किसी ने बुलाया ही नहीं! मुझे तो फेसबुक से ही उसके बारे में पता चला."
"और आज फेसबुक पर उसे लेकर जो जातिवादी बहस चल रही है, उसके बारे में आपका क्या कहना है?"
"उसके बारे में मुझे कुछ नहीं कहना."
"और उनके सम्मान के बारे में?"
"मधुकर सिंह का सम्मान मेरे लिए ख़ुशी की बात है. लेकिन यह जो जातिवादी बहस चल रही है, मुझे बहुत खल रही है. मैंने मधुकर सिंह को मित्र बनाते समय उनकी जाति नहीं पूछी और वे भी यह जानते हुए भी कि मैं ब्राह्मण हूँ, मुझे ब्राह्मणवादी नहीं मानते थे. वे दिल्ली आने पर अक्सर मेरे घर ठहरते थे, साथ खाते-पीते थे. एक बार वे अपने साथ मिट्टी की सुराही लाये थे और जाते समय उसे ले जाना भूल गये थे. हम सारी गर्मियाँ उससे ठंडा पानी पीते रहे थे."
"तो फिर?"
"ज्यों ही मैं समांतर कहानी के आंदोलन से अलग होकर जनवादी कहानी के आंदोलन में शामिल हुआ, मैं उनके लिए मित्र से शत्रु ही नहीं, ब्राह्मणवादी भी हो गया."
"अच्छा?"
"जी! अब ये जातिवादी बहस चलने वाले बतायें कि इसकी व्याख्या किस आधार पर की जा सकती है?"

और देखिए आबूधाबी में रह रहे कहानीकार कृष्णबिहारी भी फ़ेसबुक पर लिख रहे हैं:

दलित लेखक इस बात को पहचानें कि वे मेरे मित्र हैं या दलित ? अगर वे अपने को केवल दलित मानते हैं तो किस आधार पर मेरे मित्र हैं ? मैंने तो कभी उन्हें दलित नहीं माना . वे अपने दलित मित्रों में मेरा व्यक्तित्व स्पष्ट करें अन्यथा मैं तो यही समझूंगा कि मेरा इंसान होना इन सबके ही नहीं बल्कि समूची मानवता के खिलाफ गया ...

अजब है यह सब ! रमेश उपाध्याय, कृष्णबिहारी या इन के जैसों की इस यातना पर कोई गौर करेगा भला? मतलब जब तक आप को शूट करें तब तक साथी हैं, मित्र हैं, नहीं ब्राह्मण हैं। ब्राह्मण होना इतना बड़ा पाप है, इतनी बड़ी गाली है? आप ब्रह्मणवादी व्यवस्था का विरोध करते-करते कब स्वार्थानुभूति में जातिवादी हो जाते हैं, आप को पता ही नहीं चलता। आप की मनोग्रंथि कब आप को मार्क्सवादी से जातिवादी गड्ढे में ढकेल देती है आप जान ही नहीं पाते? मार्क्सवाद का सारा ककहरा भैंस चराने निकल जाता है।

एक समाजवादी नेता थे जनेश्वर मिश्र। बहुतेरे लोग उन्हें छोटे लोहिया भी कहते थे। एक बार कहने लगे कि बताइए कि जब अपने गांव रिश्तेदार आदि के यहां जाता हूं तो लोग कहते हैं कि तुम तो अछूत हो, कुजात हो। छोटी जातियों के साथ उठते-बैठते हो, खाते-पीते हो ! और जब इन छोटी जाति कहे जाने वाले लोगों के साथ बैठता हूं तो यह लोग कहते हैं और तो सब ठीक है लेकिन आप हैं तो आखिर पंडित ही ! अजब घालमेल है। क्या साहित्य, क्या राजनीति ! लोहिया कहते थे जाति तोड़ो ! पर अब हमारे समाजवादी, मार्क्सवादी विचार में कुछ और व्यवहार में कुछ हो जाते हैं। कहते हैं कि जाति ही हमारी थाती है। स्वार्थों की यह समझौता एक्सप्रेस बड़ी तेज़ दौड़ रही है।

तुलसी दास ने अकबर का नवरत्न बनने से कैसे इंकार कर दिया था, यह कथा मैं ने कई बार इसी सरोकारनामा पर परोसी है। संदीप पांडेय ने मैग्सेसे ठुकरा दिया यह भी हम सब जानते ही हैं। ऐसे कई किस्से और कई सिलसिले हैं। स्वतंत्रता सेनानी रहे हरे कृष्ण अवस्थी जो कभी लखनऊ विश्वविद्यालय के कुलपति और विधान परिषद सदस्य भी रहे हैं, अपने भाषणों में कई बार कहते थे कि आप लोग कहते हैं कि ब्राह्मणों ने देश पर हज़ारों साल राज किया। हालां कि यह झूठ है। तो भी चलिए कि मान लिया आप का यह कुतर्क भी पर पंद्रह अगस्त, १९४७ से पहले एक भी ब्राह्मण करोड़पति की हैसियत में दिखा या बता दीजिए। परशुराम को लोग ब्राह्मण अस्मिता का प्रतीक तो बताते हैं पर यह नहीं बताते कि भीलों के दम पर ही, भीलों को ही सिखा-पढ़ा कर परशुराम ने एक सब से ताकतवर राजवंश सह्स्रार्जुन को नेस्तनाबूद कर दिया था। चाणक्य ने ही पहली बार पिछड़ी जाति के चंद्र्गुप्त को राजा बना कर खुद कुटिया में रहना स्वीकार किया था। ऐसी कथाओं का अंत नहीं है।

सो आइए उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान की तरफ एक बार फिर लौटते हैं और पुरस्कार और द्विजों की चर्चा पर एक बार फिर गौर करते हैं। आचार्य किशोरीदास वाजपेयी को संस्थान का सर्वोच्च सम्मान दिया जा रहा था लखनऊ के रवींद्रालय में। तब भारत-भारती नहीं दिया जाता था। बाद में इसी सम्मान का नाम भारत-भारती रखा गया। तब के दिनों यह सम्मान देने प्रधानमंत्री आया करते थे जैसे महादेवी वर्मा को इंदिरा गांधी यह सम्मान देने आई थीं। खैर तो तब के प्रधानमंत्री मोरार जी देसाई आए हुए थे। आचार्य किशोरीदास वाजपेयी का नाम पुकारा गया। पर वह मंच पर उपस्थित नहीं हुए। एक बार से दो बार, तीन बार पुकारा गया, वह मंच पर नहीं गए। मोरार जी ने पूछा कि वह आए भी हैं? उन्हें बताया गया कि आए हैं और वह सामने बैठे भी हैं। मोरार जी देसाई गांधीवादी थे, बात समझ गए। वह तुरंत मंच से उतर कर किशोरीदास वाजपेयी के पास आए और उन्हें उन के आसन पर ही संस्थान के सर्वोच्च सम्मान से सम्मानित किया। यह घटना तब चर्चा का सबब बन गई। रघुवीर सहाय ने तब के दिनों दिनमान में इस विषय पर संपादकीय लिखी थी। लिखा था कि यह पहली बार है कि फ़ोटो में सम्मान लेने वाले का चेहरा दिखा है और देने वाले की पीठ। असल में तब के दिनों में अब के दिनों की तरह सम्मान लेते समय बेशर्मी से चेहरा घुमा कर कैमरे में घुस कर फ़ोटो खिंचवाने की तलब कहिए, परंपरा कहिए, नहीं थी। सो अमूमन सम्मान लेने वाले की पीठ और देने वाले का चेहरा ही दिखता था। अब तो सम्मान लेना नहीं, समूचे अपमान के साथ फ़ोटो सेशन होता है।

१९८६ में पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी को हिंदी संस्थान द्वारा भारत-भारती से सम्मानित करने की घोषणा की गई। लेकिन श्रीनारायण चतुर्वेदी ने उर्दू को दूसरी राजभाषा बनाए जाने के विरोध में यह सम्मान लेने से इंकार कर दिया। तब यह पुरस्कार कोई एक लाख रुपए का होता था। उन्हों ने कहा भी कि मैं ने अपने जीवन में कभी एक लाख रुपया एक साथ नहीं देखा है। फिर भी मैं इस पुरस्कार को लेने से इंकार कर रहा हूं। यह आसान फ़ैसला नहीं था। लेकिन गलत या सही विरोध था तो था। और देखिए कि इस बार से उन्हीं पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी के नाम से हिंदी संस्थान का एक लखटकिया पुरस्कार शुरु करने की घोषणा मुख्यमंत्री ने कर दी है। बहरहाल इसी तरह २००८ का भारत भारती पुरस्कार जो तब ढाई लाख का था, अशोक वाजपेयी ने सिर्फ़ इस लिए लेने से इंकार कर दिया था कि मायावती ने तब हिंदी संस्थान के कई सारे पुरस्कार बंद कर दिए थे। अशोक वाजपेयी ने साफ कहा कि अगर सारे पुरस्कार बहाल किए जाएं तभी मैं यह पुरस्कार लूंगा और नहीं लिया। जब कि उन के साथ के अन्य पुरस्कृत लोगों ने पुरस्कार चुपचाप ले लिए। इसी तरह एक बार हमारे और आप के साथी इप्टा के राकेश ने नामित पुरस्कार यह कहते हुए नहीं लिया कि वह भाजपा की सरकार से यह पुरस्कार नहीं ले सकते। यह संभवत: १९९८ की बात है। इस बार आप के सामने भी यह पुरस्कार ठुकराने का सुनहरी मौका था। कंवल भारती मुद्दे पर आप फ़ेसबुक पर लगातार विरोध दर्ज करते रहे थे, कंवल भारती की गिरफ़्तारी के विरोध में जारी प्रस्ताव पर भी आप ने दस्तखत किए थे। पर जब इस पुरस्कार को लेने के बाद आप से पूछा गया तो आप यह कह कर किनारे से निकल गए कि यह तो स्थानीय मामला था, रामपुर में आज़म खान से विरोध का मामला था। जैसे आज़म खान और सरकार दोनों दो बातें हैं। और कि कंवल भारती को आज़म के निजी सुरक्षा कर्मियों ने जेल भेज दिया हो। मुज़फ़्फ़र नगर का दंगा और मुज़फ़्फ़र नगर किसी और देश या प्रदेश का हिस्सा हो। चौथी राम यादव तो और होशियार निकले । कहने लगे विचारधारा का इस से क्या लेना देना? यह तो उत्सव है। और कि पुरस्कार मिलने से प्रेरणा मिलती है। यह तो अजब था !

अच्छा आप ही बताइए वीरेंद्र यादव कि चौथीराम यादव के पास रचना क्या है? आलोचना के नाम पर कुछ कुंजी टाइप किताबें हैं। अध्यापकीय विमर्श वाली। कुछ शोध प्रबंध करवाए हैं उन्हों ने, ऐसा उन के परिचय में कहा गया है। और बताइए कि उन्हें भारत-भारती के समकक्ष लोहिया पुरस्कार दे दिया गया। वह चौथी राम यादव जो रचना में निरंतर शून्य हैं। और वह लोहिया पुरस्कार जो निर्मल वर्मा जैसे लेखकों को दिया गया है, शिव प्रसाद सिंह जैसे लेखकों को दिया गया है, चौथीराम यादव को भी दे दिया जाता है। तो मैं ने पता किया कि कैसे यह संभव बना? तो पता चला कि यादव होना ही उन की एकमात्र योग्यता है। तो मैं ने चुहुल में लिख दिया कि :

अब की बार उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा दिए गए पुरस्कारों के लिए एक योग्यता यादव होना भी निर्धारित की गई थी। रचना नहीं तो क्या यादव तो हैं, ऐसा अब भी कहा जा रहा है।
और यह देखिए कि आप भड़क गए। पिल पड़े द्विज दंश का दर्द ले कर। व्यक्तिगत जीवन में कम से कम मैं ने तो वीरेंद्र यादव को जातिवादी होते नहीं पाया है। लेकिन क्या वीरेंद्र यादव का वैचारिक जीवन अलग है, और व्यक्तिगत जीवन अलग? कि जो व्यक्ति व्यक्तिगत जीवन में जातिवादी नहीं है, वैचारिक जीवन में बार-बार जातिवादी हो जाता है। सारी हदें पार करता हुआ। द्विज दंश की आह बड़ी से बड़ी होती जाती है, जब-तब छलकती रहती है। बिना तर्क-वितर्क सोचे। कुछ न मिले, कोई तर्क न मिले, कोई बात न मिले तो उसे ब्राह्मण के खाते में डाल कर ढोल बजाने की यह अति वैचारिकी, वैचारिक जीवन में तो और खतरनाक है। यह तो परमाणु बम से भी आगे रासायनिक हथियार की तरह खतरनाक है। प्रेमचंद कहते थे कि साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है। पर आप या आप जैसे लोगों ने चाहे-अनचाहे मान लिया है कि साहित्य तो राजनीति के पीछे चलने वाली गुलाम मशाल है। यह प्रवृत्ति बहुत खतरनाक है। आप रमेश उपाध्याय के प्रशंसकों में से हैं, फ़ेसबुक पर मधुकर सिंह के संदर्भ में लिखी उन की टिप्पणी के ताप को समझिए। वह कह दे रहे हैं, हम कह ही रहे हैं बहुत लोग चाह कर भी चुप हैं, नहीं कह रहे हैं पर रचना और रचनाकार को जाति के थर्मामीटर में मापना आलोचना के स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं है। अच्छा तुलसी दास तो ब्राह्मण थे पर क्या उन्हों ने राम चरित मानस लिखते समय यह खयाल भी किया क्या कि रावण भी ब्राह्मण है, चलो उस के खल चरित्र को थोड़ा ढांप कर लिखें? प्रेमचंद के तमाम खल पात्र ब्राह्मण ही हैं तो क्या इस आधार पर रामचंद्र शुक्ल ने क्या प्रेमचंद को खारिज़ कर दिया? उलटे प्रेमचंद को स्वीकार किया और करवाया। राम विलास शर्मा ने भी प्रेमचंद के अवदान को न सिर्फ़ स्वीकार किया उन्हें प्रतिष्ठित भी किया। अच्छा निराला को भी क्या राम विलास शर्मा ने सिर्फ़ इस लिए प्रतिष्ठित कर दिया क्यों कि वह ब्राह्मण थे। निराला के पास रचना नहीं थी? जैसे कि अभी तमाम लोग निराला को तो अच्छा कवि मान लेते हैं, पर निराला की एक बेहतरीन कविता राम की शक्ति पूजा को दरकिनार कर देते हैं। तो यह क्या है? सार्वभौमिक सच तो यह है कि रचना और आलोचना जाति-पाति देख कर नहीं होती। द्विज विरोध और द्विज की हुंकार में रचना नहीं, राजनीति होती है। तो जनाबे आली भाजपा के आडवाणियों की तरह व्यवहार मत कीजिए कि वह लोग व्यक्तिगत जीवन में तो हिंदू-मुसलमान नहीं देखते पर राजनीतिक जीवन में इसी नफ़रत का कारोबार करते हैं। रचना जगत को रचनामय ही रहने दीजिए। राजनीतिज्ञों की राह पर मत ले जाइए। और जो आप को लगता है कि मेरी वह टिप्पणी गलत है चौथीराम यादव के संदर्भ में तो आप चौथीराम यादव की रचनाओं पर, आलोचना पर एक बढ़िया और लंबी टिप्पणी या कोई लेख या किताब लिख दीजिए, मैं अपना आरोप वापस ले लूंगा और मुझे जो सज़ा तज़वीज़ कर दीजिएगा, उसे स्वीकार कर लूंगा। सहर्ष ! लेकिन मैं जानता हूं कि मेरी वह टिप्पणी सौ फ़ीसदी सही है। और कि मैं ने उसे रचना में जाति-पाति के विरोध में ही दर्ज किया है , किसी द्विज होने की सनक में नहीं। किसी यादव को आहत करने के लिए नहीं। अच्छा तो यह बताइए कि राजेंद्र यादव को हिंदी जगत या और लोग भी क्या उन के यादव होने के नाते जानते हैं? सच यह है कि राजेंद्र यादव एक मिथ हैं, उन की आप चाहे जितनी आलोचना कर लीजिए पर उन को यादव के खाने में नहीं डाल सकते। इस लिए भी कि राजेंद्र यादव होना आसान नहीं है। अच्छा तो यह भी बता दीजिए कि कृष्ण पर तमाम द्विज कवियों ने लिखा है तो क्या सिर्फ़ इस लिए कि वह यदुवंशी थे? कि किसी अन्य कारण से? वह कर्मयोगी न होते तो भी क्या कोई उन्हें इस तरह गाता? रानी हो कर भी राज-पाट छोड़ कर भी मीरा ने क्यों कृष्ण ही को चुना आखिर? ठीक है कि राम और कृष्ण जैसे मिथक आप की विचारधारा कहिए, मनोधारा कहिए में फिट नहीं पड़ते। चलिए छोड़ देते हैं इन्हें। तो फिर यह यादव और द्विज का वर्गीकरण कहां से समा जाता है आप की मनोधारा में? अच्छा इसे भी अप्रिय मान कर छोड़ देते हैं। पर कबीर तो कहीं न कहीं से आप की मनोधारा में फिट होते ही होंगे? आप के चित्त में समाते ही होंगे? कि उन्हें भी दो द्विजों आचार्य परशुराम चतुर्वेदी और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने प्रतिष्ठित किया है हिंदी में तो उन्हें भी बिसार दीजिएगा? या कि जो वह कह गए हैं कि गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागूं पांव ! इस आधार पर भी बिसार दीजिएगा। प्लीज़ मत बिसारिए इस आधार पर भी। इस लिए भी कि कबीर ठीक कह ही गए हैं:

जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान
मोल करो तलवार का, पड़ी रहन दो म्यान।

तो द्विज दंश की म्यान से बाहर निकलिए। ग्लासनोस्त में जीना सीखिए। यह दुनिया बड़ी सुंदर है।

एक और तल्ख बात कहने की हिमाकत कर रहा हूं, अन्यथा हरगिज़ मत लीजिएगा। पर है कटु सत्य। दुनिया के किसी कोने में चले जाइए, अगर भूले-भटके किसी साहित्यकार की मूर्ति जो कहीं किसी चौराहे, किसी जगह मिलेगी तो वह किसी रचनाकार की ही होगी, किसी आलोचक की नहीं। तुलसी, कबीर, टालस्टाय, टैगोर, शेक्सपीयर,निराला, प्रेमचंद, गोर्की आदि तमाम लोगों की लंबी फ़ेहरिश्त है जिन की मूर्तियां मिल जाती हैं सार्वजनिक जगहों पर। गरज यह कि रचना है तो आलोचना है।आलोचक किसी लेखक को बड़ा नहीं बनाता, उस के बड़प्पन को स्वीकार करता, करवाता है। अब निराला को ही लीजिए। निराला को उस दौर के आलोचकों ने नहीं माना था। पर आलोचक गलत साबित हुए और निराला बड़े हो गए। अब आलोचकों को इस आलोक में अपने खुदा होने का भ्रम अपने आप तोड़ लेना चाहिए कि आलोचक कोई खुदा नहीं हैं। और जो कहीं किसी रचनाकार ने आलोचकों को खुदा मान लिया है तो साफ जान लीजिए कि उस की रचना में खोट है सो तात्कालिकता के मोह में वह आलोचक को खुदा मान कर नमाज़ अदा कर रहा है। पर हकीकत जुदा है। किसी रचनाकार का सचमुच कोई खुदा जो है तो वह उस का पाठक ही है। और इस खुदा तक ले जाने का सिर्फ़ और सिर्फ़ एक रास्ता है, वह है रचना। कोई आलोचक- फालोचक नहीं। पर मज़ाज़ का एक शेर भी यहां बांचने का मन करता है :

समझता हूं कि तुम बेदादगर हो
मगर फिर दाद लेनी है तुम्हीं से।

यह भी एक हकीकत है।

एक समय डाक्टर नागेंद्र की बहुत चलती थी। एक तरह से तूती बोलती थी। इतनी कि तब के केंद्रीय शिक्षा मंत्री नुरुल हसन चाहते थे कि नामवर सिंह दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में पढ़ाएं। पर डाक्टर नागेंद्र ने नामवर सिंह को दिल्ली विश्वविद्यालय में नहीं आने दिया। इसी तरह उन्हों ने रामविलास शर्मा के लिए भी दम ठोंक कर कह दिया था कि दिल्ली विश्वविद्यालय में घुसने नहीं दूंगा। हालां कि राम विलास शर्मा अंगरेजी के अध्यापक थे। लेकिन वह हिंदी के लेखक थे और हिंदी में व्याख्यान भी देते थे। इतिहास पर भी उन की कई मानीखेज़ पुस्तकें हैं। तो भी। पर अजय तिवारी ने एक जगह लिखा है कि एक बार राम विलास जी दिल्ली विश्वविद्यालय में आए व्याख्यान देने इतिहास विभाग में। डाक्टर नागेंद्र को जब यह पता चला तो वह राम विलास शर्मा का स्वागत करने के लिए अपने तमाम सहयोगियों के साथ विश्वविद्यालय के गेट पर समय से पहले ही पहुंच गए थे। और राम विलास शर्मा जब आए तो वह उन से ऐसे लपक कर गले मिले, ऐसा गरम जोशी से उन का स्वागत किया कि बस पूछिए मत। और राम विलास शर्मा भी उन से उसी गरमजोशी से मिले। कि लोग देख कर चकित थे। इतना ही नहीं जब तक राम विलास शर्मा दिल्ली विश्वविद्यालय परिसर में रहे डाक्टर नागेंद्र उन के साथ डटे रहे। और उन्हें सी आफ़ कर के ही वह घर लौटे। यह और ऐसे तमाम किस्से बहुत सारे लोगों के हैं। जिन सब का विस्तार यहां संभव नहीं। पर बात मुख्य यही है कि तो भेद-मतभेद, वाद-विवाद-संवाद अपनी जगह है, सामान्य शिष्टाचार और मान-सम्मान अपनी जगह है। यह बने रहना चाहिए। और जान लेना चाहिए कि जाति-पाति जहर है, सांप्रदायिकता से भी ज़्यादा खतरनाक। कबीर को इसी लिए याद रखना ज़रुरी है।

जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान
मोल करो तलवार का, पड़ी रहन दो म्यान।

साहित्य सचमुच में सहिष्णुता का हामीदार है। कैसा भी, किसी भी भाषा का साहित्य हो। यहां जाति पूछने का चलन नहीं है। साहित्य भी साधु की भाषा है, बुद्ध की भाषा है। कुछ अच्छा पढ़िए तो साधु, साधु का ही बोध मन में ठाट मारता है। यानी मन में सुंदरता का हिरन कुलांचे मारता है। वह क्रांतिकारी साहित्य ही क्यों न हो। आप तो उपन्यास पर अपने को अथारिटी मानते हैं और कि हैं भी। तो आप देखिए न कि टालस्टाय का वार एंड पीस भी जो दुनिया के शीर्षतम उपन्यास में शुमार है, सहिष्णुता का सागर परोसता है, युद्ध का नहीं। तो ज़रुरत इसी सहिष्णुता के सागर की है साहित्य में भी और समाज में भी। जाति-पाति में कुछ नहीं रखा है। द्विज दंश से छुट्टी लीजिए, कबीर की मानिए और उसे म्यान में ही रहने दीजिए।

वैसे मुक्तिबोध मार्क्सवाद को ईमानवाद से जोड़ने की बात भी क्यों कर गए हैं यह भी एक गौरतलब और बहसतलब मसला है। और फिर इसे और मानीखेज़ मानते हुए पूछ ले रहा हूं आखिर वीरेंद्र यादव आप से कि , पार्टनर तुम्हारी पालिटिक्स क्या है ! तो बताना चाहेंगे क्या आप? आमीन !

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18 comments:

  1. ये हो क्या रहा है... पिछले दिनों राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी द्वारा घोषित पुरस्कारों को भी कुछ व्यक्तिगत दुराग्रहों के कारण जातिवादी आरोपों में घसीटने की कोशिशें की गई और अब यहां भी वही दंश दिखायी दे रहे हैं क्या शब्दकारों की दुनिया भी कुत्सित राजनेताओं की सोचवाली धारा में बहने लगी है? अगर यह सच है तो बहुत ही पीड़ाजनक और चिंता की बात है, फ़िर हम काहे के बुध्दिजीवी हैं और काहे के प्रगतिशील?

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  2. http://beech-bahas.blogspot.in/2013/08/blog-post_20.html

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  3. Dayanand Pandey ji ke es aalekh ko dobar padh gaya vese aapke aalekh may vishesh roop se padhata hoo vah esliye ki enke gyan ka may kayal hoo... tmam esi jankariya milati he . jinse may anbhigya raha hoo. es aalekh ko padhkar lagata he enhone kafi kuch satya likha he .balki bebaki se byan darj kiya he...satya pthar ki tarah khurdara hota he ... ataha chot to karega hi aab dekhne vali baat yah he ki es aalekh ko kis tarah se liya jata he ...

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  4. priya dayanand bhai,aaj kolkata me apka blog padha . blog se jo kuchh maloom hua,woh bada hi dukhad hai. hindi shityikaron ke samaaj kaa chintan kis tarah rajniti ke dhuen se pradushit ho raha hai, yah dekhkar chakit hun. banaras ke do puraskrit chauthiram ji aur jitendra nath ji ki arhata par samaroh me bhi patrakaron ki dirgha me sawal uth rahe the. achhi baat yah hai ki aap jaise kuchh buddhijivi poori nishtha se is manasik gandagi ko saaf karne me lage hain. isilie mujhe udaar manavata ke bhavishya ke prati dridh astha hai.

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  5. Bhai Dayanand Ji AAj apka blog padhkar dukh hua. Virendra Yadav Ji gyani sahityakaar hain aur main unki leftist vichardhara hote huye bhi bahut izzatkarta hoon. AApki tippani par unka reaction anavashyak tha. Shayad us samay unaki man:sthiti kuchh aur rahi ho. Ve bahut samvedansheel aur goorh vyaktitv ke vyakti hain. Anil Rastogi

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  6. बेहद संतुलित लेख है...आईना दिखाता हुआ, हर उस साहित्यकार को जो तथाकथित है. किसी खूंटे से बंध ही गए तो काहे के साहित्यकार ? साधुवाद आपको श्री दयानंद जी आपको इस लेख के लिए.

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  7. विवादास्पद होना ही चर्चित होना है तो होने दो तैत्तिरीयम -चर्चित चर्वण चरणार्विन्दम चंचरीक जुगुप्सित वीभत्स पंक मर्दन

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  8. hmmmmmmmmmmmmm..............

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  9. लगता है वीरेन्द्र यादव आपसे परिचित नहीं थे वरना आपसे इस तरह पंगा नहीं लेते. आप ने तो उनकी बधिया एसी उखेड़ कर रख दी है कि शायद ही कोई रफूगर मिलेगा जो उसे रफू कर पाए.

    साहित्यकारों की संवेदनशीलता से मैं इतना भयभीत रहता हूं कि उन पर कोई टिप्पणी करते डरता हूं.

    कबीर ने जब लिखा हो तब लिखा हो अब तो यही सही हे कि

    जाति ही पूछो साधू की मत पूछो उसका ज्ञान.

    जाति से देश चलता है, राजनीति चलती है, भठियरपन चलता है भला इसे कोई कैसे छोड़ सकता है?

    आपका,
    ओम

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  10. कुछ अच्छा नही लगा पढ़कर ..............

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  11. Aapne to ek soodra ko mahasoodra bana diya..
    maha sodra veerendra yadav...
    iseeliye ye ab tak pichhde hai.......
    aur aage badh bi nai sakte......shodra kahi ke....inki to $#@$#@^/&**$@@@

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  12. Bhai Dayanand ji, Aapke vichar mein bachao aur gherao ke tark hain. Fence ke is par aur uspar ke jatiywadiyon aur jatipriyon ko uttejit aur tarkonmukh bhi karenge, kintu yah bhi utna hi sahi hai ki purashkar ki bhi apni rajniti to hoti hi hai. Shasak ka prabhav purshkaron par padta hi hai. Nahin to Dalit CM to Dalit Racnakar Aur Yadav CM to Yadav Rachnakar (nahi - nahin aalochak) ko purashkrit kiya jana kya mahaj sanyog hai? Yah baat Savarnon par bhi lagu hoti hai. Darasal hamari kathit pragatishil hindi aalochna rajnitik aagrahon se is qadar aakrant rahi hai ki rachna ki samvedna hi usse chhut-chhut jati rahi hai. Sahitya mein jan, jan-man, parivesh adi ke sahare rachna ke hriday/marm tak pahunchna hota hai jabki hamare alochak Marxism ya Leninism ke chashme se sahity ko dekhte hain. Bhala ho Achary shikl, Achary Dwivedi,Achary Parshuram Chaturvedi adi ka ki unhone Rachna ki smvedna ko desh ki hawa -pani mein dekh-parakhkar sahity ke pathakon ka hit kiya varna hamare party alochak to 'sahity ki rajniti path' hi likhte rahe hain.To bhaiya, Sahity mein rajniti karani hai tab to kya kahna !

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  13. Achary Shikl ki jagah Achary Shukl aur Sahitya ki rajniti path ko "Sahitya ka rajniti path" padhen.

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  14. यदाववाद से ग्रसित वर्तमान नौजवानों के इस बीमारी के मूल कारणों को अब जान पाया।

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  16. बरक्स का अर्थ क्या होता है ?

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