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Monday, 16 September 2013
तो क्या मनीषा कुलश्रेष्ठ को लमही सम्मान लौटा नहीं देना चाहिए !
हिंदी में इन दिनों सम्मान और पुरस्कार को ले कर घमासान मचा हुआ है। बल्कि कहूं कि सम्मान सहित अपमानित होने का जैसे सिलसिला सा चल पड़ा है। अभी तक सरकारी सम्मानों में ही यह अपमान कथा लिखी और पढ़ी या सुनी जाती थी। खास कर साहित्य अकादमी के सम्मान कमोवेश हमेशा ही विवाद में रहे हैं। बाद में ज्ञानपीठ भी विवाद के फंदे में फंस गया। इफ़को द्वारा शुरु किया गया श्रीलाल शुक्ल सम्मान का तो बिस्मिला ही विवाद से हुआ। शरद पवार जैसे भ्रष्ट मंत्री के के हाथ से वामपंथी लेखक विद्यासागर नौटियाल को श्रीलाल शुक्ल सम्मान दिया गया। उसी कार्यक्रम के बाद एक सिख ने शरद पवार को थप्पड़ भी जड़ दिया। दूसरी बार श्रीलाल शुक्ल सम्मान शेखर जोशी को दिया गया उत्तर प्रदेश के एक भ्रष्ट मंत्री शिवपाल सिंह यादव के हाथ से। और कि पूरा का पूरा समारोह शिवपाल यादव के सम्मान समारोह में बदल गया। नाम था शेखर जोशी का, सम्मान हो रहा था, शिवपाल सिंह यादव का। अब यही सम्मान अब की संजीव को दिया गया है। संजीव के साथ क्या सुलूक होता है इस के सम्मान समारोह में देखना बाकी है। लेकिन अभी संजीव ने मनीषा कुलश्रेष्ठ को दिए गए लमही सम्मान पर कड़ा ऐतराज जताया है। साफ कहा है और लिख कर कहा है कि :
'विजय राय ने 'लमही' के माध्यम से अब तक प्रेमचंद के सम्मान की रक्षा की है। इस बार का पुरस्कार मनीषा कुलश्रेष्ठ को कैसे दिया गया, यह बात मेरी समझ में नहीं आई। एक तरफ़ आप शिवमूर्ति को सम्मानित करते हैं और दूसरी तरफ़ मनीषा कुलश्रेष्ठ को। पुरस्कार में 'एजग्रुप' भी तो मायने रखता है। मैं कहूंगा कि यह जल्दबाज़ी में लिया गया है फ़ैसला है। वरिष्ठ और कनिष्ठ का अंतर समझना चाहिए। हिंदी साहित्य में चरम अराजकता फैली हुई है। मनीषा को स्टार बना कर उन की हत्या की जा रही है। सृजन का नाश कर दिया गया। लेखकों के लिए ज़्यादा प्रशंसा ठीक नहीं है। ऐसा न हो कि स्टार लेखिका बता कर पंकज सुबीर मनीषा की हत्या करा दें और इस का भागी 'लमही' बन जाए।'संजीव की यह टिप्पणी लखनऊ से प्रकाशित एक पत्रिका शब्द सत्ता में छपी है। पत्रिका ने विजय राय के साठ वर्ष होने की खुशी में विजय राय पर यह अंक केंद्रित किया है। और उन के साठ साल के होने पर आयोजित कार्यक्रम में इसे बांटा गया है। तो शब्द सत्ता द्वारा संजीव से विजय राय के व्यक्तित्व पर टिप्पणी मांगी गई है और संजीव ने मनीषा कुलश्रेष्ठ को मिले लमही सम्मान पर टिप्पणी दे दी है। हालां कि विजय राय पर केंद्रित शब्द सत्ता का यह अंक कई मामले में बहुत ही कच्चा और निहायत बचकाना है। और खेद के साथ कहना पड़ता है कि विजय राय को शब्द सत्ता के इस अंक के साथ साठ साल का नहीं होना चाहिए था। उन के संजीदा और शांत व्यक्तित्व की गरिमा इस से गिरी है। उस को चोट पहुंची है। जाने विजय राय इस चोट और इस की खरोंच को महसूस कर भी पा रहे हैं कि नहीं, मैं नहीं जानता। हो सकता है अभी तुरंत-तुरंत नहीं, न सही वह बाद में शायद वह इसे भी महसूस करेंगे ही। क्यों कि हुआ यह कि बीते साल जब लमही सम्मान की ज्यूरी की घोषणा का जो विज्ञापन उन्हों ने छापा था, मैं ने उसे देखते ही उन्हें फ़ोन कर अपना गहरा ऐतराज जता दिया था और बता दिया कि चंद्र प्रकाश द्विवेदी के पास इन सब कामों के लिए फ़ुर्सत कहां है? रही बात आलोक मेहता और महेश भारद्वाज की तो यह दोनों लोग अब हद से अधिक बदनाम हो चुके हैं। आलोक मेहता की छवि अब पत्रकारिता में दलाली के लिए जानी जाती है। और कि राजा राम मोहन राय ट्रस्ट की केंद्रीय खरीद समिति के अध्यक्ष होने के नाते वह महेश भारद्वाज के लिए भी दलाली का काम खुल्लमखुल्ला कर रहे हैं। मेरे पास इस के एक नहीं अनेक प्रमाण हैं। मैं ने विजय राय को स्पष्ट रुप से कहा कि आप को इन तत्वों से बचना चाहिए। वह कुछ स्पष्ट बोले नहीं। हूं-हां कर के रह गए। मैं ने तब के दिनों शिवमूर्ति जी से भी इस बात का ज़िक्र किया। और कहा कि विजय राय जी को समझाइए क्यों कि यह तो रैकेट में फंस गए हैं। शायद उन्हों ने भी उन से इस मसले पर बात की। मैं समझता हूं कि और भी लोगों ने विजय राय से इस मसले पर बात की ही होगी। लेकिन वह अपनी ज्यूरी के साथ 'मस्त' रहे। और यह लीजिए मनीषा कुलश्रेष्ठ को लमही सम्मान देने की घोषणा हो गई। अब चार मुंह बहत्तर बातें शुरु हो गईं। बात यहां तक आ गई कि यह सारा मामला प्रियंवद को चिढ़ाने के लिए हुआ है। वगैरह-वगैरह। तमाम ऐसी-वैसी बातें। मनीषा अच्छी रचनाकार हैं कि खराब रचनाकार इस पर कोई चर्चा नहीं। मनीषा को यह लमही सम्मान कैसे मिला इस की एक नहीं अनेक अंतर्कथाएं हवा में घूमने लगीं। महेश भारद्वाज और मनीषा कुलश्रेष्ठ की चर्चाएं जहां-तहां। बिलकुल् मज़ा लेते हुए। जितने मुंह उतनी बातें। जल्दी ही लमही का मनीषा कुलश्रेष्ठ विशेषांक भी सब के सामने था। उस में भी कुछ चीज़ें चर्चा का सबब बनीं। प्रगति मैदान के पुस्तक मेले में लमही का मनीषा कुलश्रेष्ठ विशेषांक खूब बिक रहा है इस का प्रचार भी खूब किया गया। महेश भारद्वाज का एक एस.एम.एस. सब को खूब भेजा गया जो उन्हों ने लमही के इस विशेषांक के अतिथि संपादक सुशील सिद्धार्थ को भेजा कि विजय राय से कहें कि मनीषा कुलश्रेष्ठ विशेषांक की इतनी कापी बिक गई है, इतनी कापी और भेज दें। और यह एस.एम.एस. भी फिर तमाम लेखकों को भेजा गया। मतलब मज़ा देखिए कि लमही का यह विशेषांक हज़ारों में बिक चुका था, हज़ारों बिकने को बेताब था। तिस पर तुर्रा यह कि यह बात भी महेश भारद्वाज सीधे-सीध विजय राय से फ़ोन कर के नहीं कह पा रहे थे जो उन दिनों उसी पुस्तक मेले में उपस्थित थे। वाया-वाया एस.एम.एस. कर रहे थे। गोया एस.एम.एस न हो कबूतर हो। और वह गा रहे हों, 'कबूतर जा, कबूतर जा !' प्रसिद्धि और सस्तेपन के इस टोटके की भी यह हद थी। पर जैसे यह हद भी टूटनी ही थी। अब देखिए कि हर बार की तरह लमही सम्मान का कार्यक्रम लखनऊ में न हो कर इस बार नई दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में आयोजित किया गया। लमही का यह ग्लैमर अप्रत्याशित था। गांव-गंवई के प्रेमचंद और उन की लमही, अब अपना रुप निखार रही थी [खुरदरापन ओढ़े विजय राय भी 'निखर' रहे थे।] और एक विज्ञापन के उस स्लोगन की याद दिला रही थी कि रुप निखर आया है हल्दी और चंदन से। यानी कि लमही के यह नए हल्दी और चंदन थे आलोक मेहता और महेश भारद्वाज। अदभुत था यह। उसी कार्यक्रम में शरीक अशोक वाजपेयी सरीखे लोग दर्शक दीर्घा में थे। और महेश भारद्वाज, आलोक मेहता जैसे लोग मंच पर। लमही का यह कायांतरण गज़ब का था। असगर वज़ाहत और चित्रा मुदगल आदि भी शोभायमान ज़रुर थे पर छाए तो सिर्फ़ और सिर्फ़ आलोक मेहता और महेश भारद्वाज ही थे। हम उस कार्यक्रम में तो नहीं थे, लखनऊ में थे पर जो फ़ोटुएं देखी इधर-उधर इस कार्यक्रम की उन्हीं से पता चला। इसी कार्यक्रम में महेश भारद्वाज ने एक और उदघाटन किया कि वह लेखकों को रायल्टी भी देते हैं। यकीन न हो तो आलोक मेहता जी से पूछ लें। बतर्ज़ हमरी न मानो सिपहिया से पूछो ! आप लोग जानते ही हैं कि तमाम गुणों से संपन्न आलोक मेहता पद्मश्री से भी सुशोभित हैं। पर किस कोटे से क्या यह भी जानते हैं आप लोग? नहीं जानते तो आज से जान लीजिए कि आलोक मेहता बहुत बड़े कहानीकार होने के नाते पद्मश्री से नवाज़े गए हैं। अभी तक आप के सामने उन के दलाल का पत्रकार रुप ही रहा होगा, लेकिन उन का यह भी एक रुप है। और सोचिए कि जब पद्मश्री टाइप लोग, दलाल टाइप लोग किसी पुरस्कार समिति में होते हैं तो क्यों और कैसे फ़ैसले लेते हैं, होते हैं? यह सब कुछ आप सब के सामने उपस्थित है।
खैर हुआ यह कि महेश भारद्वाज के इस बयान के बाद लखनऊ की एक लेखिका ने फ़ेसबुक पर लिखा कि महेश भारद्वाज ने उन की भी किताब छापी है, उन्हें तो रायल्टी नहीं मिली है अब तक। उस पर एक कवि, आलोचक ओम निश्चल ने टिप्पणी भी की। पर अचानक वह पोस्ट उक्त लेखिका ने मिटा दी। अब उन लेखिका को कोई बताए भी कैसे कि आलोक मेहता को महेश भारद्वाज रायल्टी नहीं, दलाली देते हैं, किताब बिकवाने के लिए। रायल्टी का सिर्फ़ चोला होता है। नहीं अगर सचमुच वह रायल्टी जो सभी लेखकों को देते ही हैं तो क्या उस का सार्वजनिक आडिट करवाने का साहस है क्या उन में? या देश के किसी भी हिंदी प्रकाशक में यह साहस है क्या कि वह अपने सभी लेखकों को दिए जाने वाली रायल्टी का सार्वजनिक आडिट करवा दे? मैं जानता हूं यह साहस किसी एक प्रकाशक में नहीं है। किताबें जब सरकारी खरीद में रिश्वत के दम पर बिकती हों तो कोई लेखक क्या जाने कि उस की किताब कहां और कितनी बिकी? इतनी किताबें छपती हैं हर साल लेकिन किताबों की दुकानों पर कितनी किताबें बिकती दिखती हैं भला और कितने प्रकाशकों की? हालत यह है कि बाज़ार से प्रकाशक और किताबें दोनों गायब हैं। हैं तो बस सरकारी खरीद की गुफा में। बड़े से बड़े हिंदी लेखक से पूछ लीजिए कि उस की किताब किस दुकान पर मिलेगी तो वह सीधे मुंह बा देगा। यह कहानी अंतहीन है।
खैर, उसी बीच किसी ने फ़ेसबुक पर ही लिखा था कि महेश भारद्वाज लखनऊ आए और एक लेखिका को फ़ोन किया कि आप हम से मिलने हमारे होटल में आइए जहां मैं ठहरा हूं, आप की किताब छापनी है। लेखिका ने कहा कि, 'आप को मिलना हो तो हमारे घर आइए, मैं होटल नहीं आ पाऊंगी।' और फिर उस लेखिका की किताब छपना मुल्तवी हो गया। जाने इस में कितना सच है, कितना झूठ। लेकिन यह और ऐसी बातें अब खतरे के निशान को पार करती जा रही हैं। कह सकते हैं कि घाघरा खतरे के निशान से ऊपर ! लेकिन लेखक को अब प्रकाशक डिक्टेट करने का गुरुर पाल बैठे हैं। गोया लेखक, लेखक न हो उन का चपरासी हो, अर्दली हो, उन की रखैल हो। और लेखक , लेखिका उन के आगे बिछे जा रहे हैं। पैसे दे कर किताब भी छपवा रहे हैं और उन से समुचित निर्देश भी ले रहे हैं। जैसे राजनीतिक पार्टियों और मीडिया को अब कारपोरेट जगत डिक्टेट कर रहा है, पार्टियों और मीडिया को रखैल और गुलाम की तरह डिक्टेट कर उन से पेश आ रहा है ठीक वही स्थिति प्रकाशकों और लेखकों की हो गई है। प्रकाशक अब लेखकों से जो चाहे करवा सकता है। वह चाहे तो महुआ माझी को स्टार लेखिका बना सकता है पुरस्कार दे सकता है, कोई पुरस्कार मनीषा कुलश्रेष्ठ को दिलवा सकता है। उन के लिए ऐशो-आराम जुटा सकता है। किसी ज्योति कुमारी की किताब दो दिन के भीतर छपवा कर विमोचन करवा सकता है। भले बड़े भाई से विवाद में वह किताब फंसी हो। बड़े-बड़े लेखकों से मनचाहा बयान दिलवा सकता है। एक हज़ार किताब बिकने पर ही आपको बेस्ट सेलर होने के खिताब से नवाज़ कर हज़ारों रुपए बहा कर उसे पांच सितारा तरीके से सेलीब्रेट करवा सकता है। मतलब कुछ भी करवा सकता है। ठीक वैसे ही जैसे पाकिस्तान में बैठा दाऊद। लेखकीय दुनिया अब माफ़िया हो चले प्रकाशकों से बिना रायल्टी पाए भी इस तरह संचालित होने लगी है कि देख-सुन कर तकलीफ होती है। सोचिए कि एक अंगरेजी है कि जिस का एक मामूली लेखक चेतन भगत पूरे ठसक के साथ कहता है कि उसे सात करोड़ सालाना रायल्टी मिलती है। और एक हिंदी का लेखक है कि किसी प्रकाशक के कहने पर अपने ही कहे को पंद्रह दिन में पांच बार बदल देता है। तिस पर शीर्ष पर बैठने का दावा भी। याद कीजिए कि दस्तखत पर मेरे दस्तखत नहीं हैं। और फिर अपना सिर धुनते रहिए। नित नए बयानों को ले कर। बताइए कि एक और प्रतिष्ठित प्रकाशक हैं। अपनी पत्रिका में एक बेहद खराब और बचकानी कहानी को पुरस्कृत कर देते हैं और छाप भी देते हैं। पर जब किताब छापने की बात आती है तो कहानी अश्लील लगने लगती है। वह लेखक नया सही, कहानी उस की खराब सही पर वह अड़ जाता है और कह देता है कि फिर आप हमारी किताब मत छापिए। गौरव सोलंकी को इस उम्र में ही यह नहीं कहने का साहस करने के लिए सलाम किया जाना चाहिए। लेकिन यह रीढ़ ज़्यादातर लेखकों की कहां गिरवी हो जाती है? यह अब शोध का विषय बन चला है। प्रोजक्ट भी बनाया जा सकता है। पर इस को जांचना अब बहुत ज़रुरी हो गया है। इस की तसदीक बहुत ज़रुरी हो गई है।
बहरहाल बात हो रही थी लमही की चैंपियन रहीं मनीषा कुलश्रेष्ठ की। तो अभी कुछ दिन पहले राही मासूम रज़ा अकादमी ने अब्दुल बिस्मिल्ला को राही मासूम रज़ा सम्मान से लखनऊ में सम्मानित किया। सम्मान कार्यक्रम के दूसरे दिन अब्दुल बिस्मिल्ला की लखनऊ के लेखकों के साथ एक बैठकी प्रगतिशील लेखक संघ ने आयोजित की। विजय राय जी वहा मुझे मिल गए। मैं ने उन से अनौपचारिक रुप से पूछ लिया कि महेश भारद्वाज एंड कंपनी के रैकेट से कब बाहर आ रहे हैं? विजय राय छूटते ही बिलकुल बच्चों की तरह घबरा कर बोले, 'मैं बाहर आ गया हूं।' उन के चेहरे पर उन की बीती यातना की इबारत साफ पढ़ी जा सकती थी। मैं ने पूछा कि, ' फंसे ही क्यों?' वह बोले, 'फंस तो गया था लेकिन अब उसे पूरा कर बाहर निकल आया हूं।' वहां बैठे और लोग भी विजय राय की यह धीरे से कही बात भी सुन कर चौंक गए। लेकिन वहां उपस्थित सब ने एक संतोष की सांस ली। बात आई-गई हो गई। लेकिन अभी जब विजय राय ने अपना साठवां साल समारोहपूर्वक मनाया तो जो शब्द सत्ता ने उन पर केंद्रित अंक जो निकाला है उस में मनीषा कुलश्रेष्ठ को लमही सम्मान दिए जाने को ले कर संजीव की जो टिप्पणी है वो तो है ही विजय राय का एक इंटरव्यू भी है इस शब्द सत्ता में । जिस में मनीषा कुलश्रेष्ठ को मिले लमही सम्मान के बाबत भी सवाल है। जिस में विजय राय बिना किसी लाग-लपेट के कह रहे हैं कि मनीषा कुलश्रेष्ठ को दिया गया लमही सम्मान एक चूक है। और कि अब यह चूक दुबारा न हो इस के लिए वह अभी से प्रयत्नशील हैं। इस का क्या मतलब है? इस बाबत पूरा सवाल-जवाब इस तरह है :
सवाल :'लमही सम्मान' ने साहित्यिक सम्मानों के क्षेत्र में एक पहचान बनाई है। किंतु हाल में मनीषा कुलश्रेष्ठ को दिए जाने वाले सम्मान के साथ लोगों में एक संशय पनपा है कि 'लमही' खुद अपनी परंपरा भूल गई है। मनीषा कुलश्रेष्ठ अच्छी कथाकार होते हुए भी प्रेमचंद की परंपरा की कथा चेतना का वहन नहीं करती हैं, ममता कालिया, साज़िद रशीद व शिवमूर्ति जैसी कद्दावर पर्सनालिटिज़ की तुलना में वे अभी क्लासिकी की पायदान पर ठीक से पहुंच भी न सकीं और पुरस्कृत हो गईं। क्या आप अपने तईं संतुष्ट हैं कि आप ने प्रेमचंद की वास्तविक कथा परंपरा को आगे बढ़ाने वास्तविक कथाकार को पुरस्कृत किया है?
जवाब :- इस सिलसिले में मुझे देश भर के तमाम लेखकों के फ़ोन आए सभी ने प्राय: इस चयन पर क्षोभ प्रकट किया है। जाहिर है कि निर्णायक समिति से कहीं चूक हुई होगी तभी तो यह बात निकली है। चूक की पुनरावृत्ति न हो इस के लिए हम 'लमही सम्मान' को और अधिक पारदर्शी और जनतांत्रिक बनाने के लिए हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकारों से विचार विमर्श कर रहे हैं।
अव्वल तो विजय राय को ऐसे लोगों को निर्णायक समिति में रखना नहीं था जो दागी हों। रखा भी तो सतर्क रहना था। उन के प्रलोभनों और तिकड़म में फंसना नहीं था। और खैर जो हुआ सो हुआ, अब इस तरह इस प्रसंग पर बोलना भी नहीं था। इस से सम्मान देने वाले और सम्मान लेने वाले दोनों का अपमान हुआ है। और जिस तरह दिया गया, जैसे लोगों द्वारा दिया गया, वह सब से ज़्यादा गलत हो गया। इसी लिए गांधी जो कहते थे कि साधन और साध्य दोनों ही पवित्र होने चाहिए। तो बेवज़ह नहीं कहते थे। विजय राय ने यही बड़ी गलती की कि उन्हों ने साधन ही गलत चुन लिए। पर अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत!
खैर,अब जो है सो है। पर अब विजय राय के इस बयान के बाद मनीषा कुलश्रेष्ठ को मिले लमही सम्मान का क्या कोई अर्थ रह गया है क्या? विजय राय का यह बयान उन की गरिमा को तो ठेंस लगा ही गया है, बकौल संजीव 'लमही के मार्फ़त प्रेमचंद के सम्मान की रक्षा की है।' उस सम्मान का अब क्या होगा? और इस पूरे मसले पर ज्यूरी के महेश भारद्वाज, आलोक मेहता, चंद्र प्रकाश द्विवेदी, सुशील सिद्धार्थ भी अब तक चुप क्यों हैं? चलिए इन सब की चुप्पी को एक बार नज़रअंदाज़ भी जो कर लें तो मनीषा कुलश्रेष्ठ की चुप्पी का क्या करें? क्या अब भी वह इतने सब के बावजूद लमही सम्मान को अपना सम्मान मान रही हैं? उन को अपने अपमान की ज़रा भी फ़िक्र नहीं है? या वह इतनी नादान हैं कि अपमान और सम्मान का फ़र्क भी भूल गई हैं? या इतनी ढीठ हो गई हैं या बेशर्म हो गई हैं कि मान-अपमान से ऊपर उठ चुकी हैं? आखिर क्या माना जाए?
बीते 9 सितंबर, 2013 को शब्द सत्ता लखनऊ में विजय राय के सम्मान कार्यक्रम में वितरित हुआ। जिस में मनीषा कुलश्रेष्ठ को लमही सम्मान पर विजय राय और संजीव की टिप्पणी विपरीत टिप्पणियां छपी हैं। और जब कोई प्रतिक्रिया दो चार दिन बाद भी नहीं आई तो मैं ने 12 सितंबर, 2013 को फ़ेसबुक पर मनीषा कुलश्रेष्ठ को इन-बाक्स में एक संदेश लिखा :
बीते 9 सितंबर को शब्द सत्ता लखनऊ में विजय राय के सम्मान कार्यक्रम में वितरित हुआ। जिस में मनीषा कुलश्रेष्ठ को लमही सम्मान पर विजय राय और संजीव की टिप्पणी विपरीत टिप्पणियां छपी हैं। और जब कोई प्रतिक्रिया दो चार दिन बाद भी नहीं आई तो मैं ने १२ सितंबर, २००१३ को फ़ेसबुक पर मनीषा कुलश्रेष्ठ को इन-बाक्स में एक संदेश लिखा :नमस्कार मनीषा जी,
आप से हमारी कभी कोई बातचीत नहीं हुई, न ही कोई मुलाकात है फिर भी आप को बिन मांगी एक सलाह देने की गुस्ताखी कर रहा हूं। आप इसे मानें या या मानें यह आप के विवेक पर है। आप को बिना देरी किए लमही सम्मान अब लौटा देना चाहिए। एक रचनाकार की अस्मिता का तकाज़ा कम से कम यही है॥ बाकी आप की मर्जी।
मनीषा जी ने मेरे इस संदेश पर सांस भी नहीं ली। और ऐसा भी नहीं है कि अपने पिता के आपरेशन के बावजूद वह फ़ेसबुक पर लगातार सक्रिय हैं। स्पष्ट है कि मेरे अयाचित संदेश पर भी उन की नज़र गई ही होगी। खैर यह मनीषा कुलश्रेष्ठ का अपना चुनाव है। यह उन के मान-अपमान का विषय है। आप कहेंगे कि हम नाहक ही परेशान हैं। पर क्या करें? अच्छा ऐसा भी नहीं है कि दस बीस लाख का यह पुरस्कार हो, या कि फिर मनीषा बड़ी गरीबी में जी रही हैं कि या कुछ हज़ार रुपए का पुरस्कार लौटा कर वह बेहाल हो जाएंगी। पर बात सम्मान की है। लोगों ने तो बात और आन पर नोबुल और बुकर जैसे पुरस्कार ठुकरा दिए हैं और बार-बार।
पर अब तो जैसे लेखकीय जीवन से मान और अपमान की बात ही खारिज़ होती जा रही है। अभी बीते 14 सितंबर को उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने अपने सालाना पुरस्कार बांटे। इस पुरस्कार समारोह में भी कईयों के मान-अपमान की नदी बह गई। पर किसी के चेहरे पर शिकन तक नहीं आई। मशहूर गीतकार नीरज को सर्वोच्च सम्मान भारत-भारती से नवाज़ा गया। पता चला कि कमेटी तो मन्नू भंडारी को यह सम्मान देना चाहती थी। पर नीरज अड़ गए। कि मुझे ही भारत-भारती चाहिए। बताते हैं कि उन्हें नियमों की दुहाई दी गई और बताया गया कि आप भाषा संस्थान के अध्यक्ष हैं और कि हिंदी संस्थान और भाषा संस्थान दोनों ही भाषा विभाग के अधीन हैं। सो नहीं हो सकता। फिर भी नीरज नहीं माने। अड़ गए और बोले कि मैं मुलायम सिंह यादव से बात करता हूं। और मुलायम ने हस्तक्षेप किया भी और भारत-भारती नीरज को दे दिया गया। मन्नू भंडारी को महात्मा गांधी सम्मान में शिफ़्ट किया गया। नि:संदेह नीरज बहुत बड़े कवि हैं। भारती-भारती उन्हें बहुत पहले मिल जाना चाहिए था। उन्हें जितने भी सम्मान मिलें कम हैं। लेकिन इस तरह तो न ही मिलें तो बेहतर। गनीमत यहीं तक नहीं थी। नीरज ने अपने भाषण में कहा कि एक कविता को छोड़ कर उन को जीवन में जो भी कुछ मिला है सब मुलायम ने दिया है। ज़रुरत क्या थी यह भी कहने की? नीरज जैसे व्यक्ति को यह शोभा नहीं देता। मुलायम तो हो सकता है कल कूड़ेदान के हवाले हो जाएं पर नीरज तो हमेशा सब के मन में महकेंगे। जब तक हिंदी गीत रहेंगे, कविता रहेगी, नीरज जीवित रहेंगे। अब नीरज यह भी भूल गए तो क्या करें?
पुरस्कारों की वैतरणी क्या ऐसी ही होती है?
लेकिन कहा न मान-अपमान की बारीक रेखा जैसे समाप्त सी हो चली है। यह सम्मान समारोह अब लगभग अपमान समारोह में तब्दील हो चले हैं। वैसे भी हिंदी संस्थान के इस पुरस्कार समारोह में वामपंथी लेखकों ने भी जिस निर्लज्जता का प्रदर्शन किया वह बेहद अफ़सोसनाक था। सभी लेखकों और उन में यहां कोई फ़र्क नहीं था। जैसे सभी एक नाव के यात्री थे। विचारधारा वगैरह का साबुन जाने कब का पानी में विलीन हो गया था। विचारधारा की बात पर किसी रिपोर्टर ने अशोक चक्रधर से पूछा तो वह बोले कि उम्र के साथ विचारधाराएं कमज़ोर पड़ जाती हैं। चौथीराम यादव बोले यहां विचारधारा के नाम पर क्या बंटना? यह आयोजन उत्सव का है। तो एक रिपोर्टर ने वीरेंद्र यादव को घेर लिया। कंवल भारती मुद्दे पर उन का बयान उन के फ़ेसबुक पर दिए गए बयान से उलट हो गया। उस अखबार ने तो वीरेंद्र यादव की दोनों बातें ऊपर नीचे रख कर छाप दिया। बात यहीं तक नहीं थी। एक पत्रकार अशोक निगम को मधु लिमए पुरस्कार मिला। वह समाजवादी पार्टी की कार्यालय में कर्मचारी भी हैं इन दिनों। पुरस्कार लेने मंच पर पहुंचे तो पहले घूम कर मुलायम की चरण वंदना की फिर अखिलेश से पुरस्कार लिया। मारा उन्हों ने मधु लिमए का नाम भी डुबो दिया। हर बार होता है कि लेखकों को सम्मान देने के लिए ऐसे पुकारा जाता है गोया मेले में बच्चा खो गया है आ कर उसे ले जाएं। अजब भगदड़ मची रहती है। इस बार भी नज़ारा यही था। पर लेखक भी गाठ बांध कर आए थे कि पैसा ले जाना है, सम्मान की ऐसी तैसी। विसंगतियां-असंगतियां और भी बहुतेरी थीं। लेकिन सामूहिक फ़ोटो सत्र तो ऐसे ही था गोया सामूहिक बलात्कार ! अपमान का जैसे सागर ठाट मार रहा था। मुलायम, अखिलेश, हिंदी साह्त्य के सभी पदाधिकारी कुर्सियों पर विराजमान थे और बड़े-बड़े लेखक उन के पीछे विद्यार्थियों की तरह कतार बांधे खड़े हो गए इस होड़ के साथ कि कौन मुलायम और अखिलेश के पीछे नज़र आ जाए फ़ोटो में। जिस को वहां जगह नहीं मिली, भाग कर नेताओं के आगे आ कर नीचे ही बैठ गया। सब ने मान-सम्मान को ताख पर रख कर खिलखिलाते हुए फ़ोटो खिंचवाई। सिर्फ़ एक कवि बुद्धिनाथ मिश्र जिन को साहित्य भूषण से नवाज़ा गया था, इस तमाशे से छिटक कर मंच से नीचे उतर आए यह कहते हुए कि हमें तो ऐसे फ़ोटो नहीं खिंचवानी ! और तो और एक तमाशा और हुआ। अशोक चक्रधर तो कुर्सी पर विराज गए थे पर सोम ठाकुर और तमाम बाकी महारथी पीछे खिलखिलाते हुए खडे़ रहे। यह सुनना भी अजब था कि चित्रा मुदगल ने जब अखिलेश से सम्मान लिया तो मुलायम से कहा कि आप भी प्लीज़ हाथ लगा दीजिए, मैं धन्य हो जाऊंगी !
सम्मान-अपमान की इस गंगोत्री में दो पुरानी कथाएं भी परोसना चाहता हूं। एक तुलसी की और एक गालिब की। तो लीजिए पहली कथा तुलसी की गौर फ़रमाइए :
हम सब जानते ही हैं कि तुलसीदास अकबर के समय में हुए। बल्कि यह कहना ज़्यादा ठीक होगा कि तुलसीदास के समय में अकबर हुए। खैर आप जैसे चाहें इस बात को समझ लें। पर हुआ यह कि अकबर ने तुलसी दास को संदेश भिजवाया कि आ कर मिलें। संदेश एक से दो बार, तीन बार होते जब कई बार हो गया और तुलसी दास नहीं गए तो अकबर ने उन्हें कैद कर के बुलवाया। तुलसी दरबार में पेश किए गए। अकबर ने पूछा कि, ' इतनी बार आप को संदेश भेजा आप आए क्यों नहीं?' तुलसी दास ने बताया कि, 'मन नहीं हुआ आने को। इस लिए नहीं आया।' अकबर ज़रा नाराज़ हुआ और बोला कि, 'आप को क्यों बार-बार बुलाया आप को मालूम है?' तुलसी दास ने कहा कि, 'हां मालूम है।' अकबर और रुष्ट हुआ और बोला, 'आप को खाक मालूम है !' उस ने जोड़ा कि, 'मैं तो आप को अपना नवरत्न बनाना चाहता हूं, आप को मालूम है?' तुलसी दास ने फिर उसी विनम्रता से जवाब दिया, 'हां, मालूम है।' अब अकबर संशय में पड़ गया। धीरे से बोला, 'लोग यहां नवरत्न बनने के लिए क्या नहीं कर रहे, नाक तक रगड़ रहे हैं और आप हैं कि नवरत्न बनने के लिए इच्छुक ही नहीं दिख रहे? आखिर बात क्या है?'
तुलसी दास ने अकबर से दो टूक कहा कि, 'आप ही बताइए कि जिस ने नारायण की मनसबदारी कर ली हो, वह किसी नर की मनसबदारी कैसे कर सकता है भला?' अकबर निरुत्तर हो गया। और तुलसी दास से कहा कि, 'आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं। अब आप जा सकते हैं।' तुलसी दास चले गए। और यह नवरत्न बनाने का अकबर का यह प्रस्ताव उन्हों ने तब ठुकराया था जब वह अपने भरण-पोषण के लिए भिक्षा पर आश्रित थे। घर-घर घूम-घूम कर दाना-दाना भिक्षा मांगते थे फिर कहीं भोजन करते थे। शायद वह अगर अकबर के दरबारी बन गए होते तो रामचरित मानस जैसी अनमोल और अविरल रचना दुनिया को नहीं दे पाते। सो उन्हों ने दरबारी दासता स्वीकारने के बजाय रचना का आकाश चुना। आज की तारीख में तुलसी को गाली देने वाले, उन की प्रशंसा करने वाले बहुतेरे मिल जाएंगे पर तुलसी का यह साहस किसी एक में नहीं मिलेगा। शायद इसी लिए तुलसी से बड़ा रचनाकार अभी तक दुनिया में कोई एक दूसरा नहीं हुआ। खैर गनीमत थी कि तुलसी दास अकबर के समय में हुए और यह इंकार उन्हों ने अकबर से किया पर खुदा न खास्ता जो कहीं तुलसी दास औरंगज़ेब के समय में वह हुए होते और यही इंकार औरंगज़ेब से किया होता , जो अकबर से किया, अकबर ने तो उन्हें जाने दिया, लेकिन औरंगज़ेब होता तो? निश्चित ही वह सर कलम कर देता तुलसी दास का। सच यही है। एक निर्मम सच यह भी है और कि हमारा दुर्भाग्य भी कि हम सब लोग आज औरंगज़ेब के समय में ही जी रहे हैं। तो सर कलम होने से बचाना भी एक बेबसी है। बेकल उत्साही का एक शेर है :
बेच दे जो तू अपनी जुबां, अपनी अना, अपना ज़मीर
फिर तेरे हाथ में सोने के निवाले होंगे।
सो सोने के निवाले हाथ में लिए लोगों की संख्या बेहिसाब बढ़ गई है, यह हम सभी हाथ बांधे, सांस खींचे देखने को अभिशप्त हैं। अब दूसरा किस्सा गालिब का सुनिए:
गालिब के बाबत बहुत सारे किस्से सुनने और पढ़ने को मिलते हैं। कुछ खट्टे, कुछ मीठे। पर एक किस्सा अभी याद आ रहा है। उन दिनों वह बेरोजगार थे। काम की तलाश थी। किसी जुगाड़ से कि किसी की सिफ़ारिश से उन्हें दिल्ली में ही फ़ारसी पढ़ाने का काम मिल गया। पहुंचे वह पढा़ने के लिए। बाकायदा पालकी में सवार हो कर। स्कूल पहुंच कर वह बड़ी देर तक पालकी में बैठे रहे। यह सोच कर कि जो भी कोई स्कूल का कर्ता-धर्ता होगा आ कर उन का स्वागत करेगा। स्वागत के साथ उन्हें स्कूल परिसर में ले जाएगा। वगैरह-वगैरह। पर जब कोई नहीं आया बड़ी देर तक तो किसी ने उन से आ कर पूछा कि आप पालकी में कब तक बैठे रहेंगे? पालकी से उतर कर स्कूल के भीतर क्यों नहीं जा रहे? तो वह बोले कि भाई कोई लेने तो आए मुझे? कोई खैर-मकदम को तो आए ! तो उन्हें बताया गया कि यह तो मुश्किल है। क्यों कि यहां का प्रिंसिपल अंगरेज है। वह आएगा नहीं। उलटे आप को जा कर उस को सलाम बजाना पड़ेगा। तो गालिब मुस्कुराए। पालकी वाले से बोले कि चलो भाई मुझे यहां से वापस ले चलो। मैं तो समझा था कि नौकरी करने से सम्मान और रुतबा बढेगा। पर यहां तो उलटा है। जिस काम में सम्मान नहीं, अपमान मिलता हो, वह मुझे नहीं करना। और गालिब वहां से चले गए। सोचिए कि यह सब तब है जब गालिब पर शराबी, औरतबाज़, जुआरी , अंगरेजों के पिट्ठू आदि होने के भी आरोप खूब लगे हैं। तब भी वह अपमान और सम्मान का मतलब देखने की हिमाकत तो करते ही थे।
पर अब?
सारा नज़ारा आप सब के सामने है। सो अब एक साथ तीन शेर भी सुनाने का मन है आप सब को। तीन शेर, तीन शायर और तीन समय। मीर का एक शेर है :
अपन मस्त हो के देखा इस में मज़ा नहीं है
हुसियारी के बराबर कोई नशा नही है।
सोचिए कि मीर ने कितनी यातना के बाद यह शेर लिखा होगा। और कि अब फ़िराक की यातना देखिए :
जो कामयाब हैं दुनिया में उन की क्या कहिए
है भले आदमी की इस से बढं कर क्या तौहीन।
अब एक नज़र शमशेर की मुश्किल पर :
ऐसे-ऐसे लोग कैसे-कैसे हो गए
कैसे-कैसे लोग ऐसे-वैसे हो गए।
कुछ कहना अब भी बाकी रह गया है क्या?
उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के पुरस्कारों की घोषणा के बाद एक तीखी टिप्पणी शिवमूर्ति ने लिखी थी। वह बता रहे थे कि बहुत सारे लोग उन से रुष्ट हो गए। असल में उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान में दिए जाने वाले पुरस्कारों की एक हकीकत यह भी है कि बिना मांगे कोई पुरस्कार कभी किसी को मिलता नहीं है। हर किसी छोटे-बड़े को आवेदन देना ही होता है। लोगों से संस्तुतियां लिखवानी ही होती हैं तब जा कर कहीं सम्मान सहित अपमानित होने का सौभाग्य मिलता है। इसी तल्खी को शिवमूर्ति ने अपने लिखे में खंगाल दिया था तो लोग नाराज़ हो गए। इस बात पर भी कि शिवमूर्ति ने खम ठोक कर यह दावा भी ठोंक दिया था कि उन्हों ने अभी तक किसी पुरस्कार के लिए कभी कहीं अप्लाई नहीं किया।
अजब यह भी है कि लेखकों के इधर लखनऊ में ताबड़तोड़ कर्यक्रम पर कार्यक्रम हुए जा रहे हैं। इन कार्यक्रमों में दुनिया भर की चिंता हुई है पर नहीं कहीं भी किसी भी कार्यक्रम में मुज़फ़्फ़रनगर के दंगों का एक लाइन भी ज़िक्र या अफ़सोस नहीं दिखा। बांगला देश तक की सम्स्या उठ गई लेकिन मुज़फ़्फ़र नगर का दंगा और उस की निंदा किसी के मुंह से भूल कर भी नहीं निकली? आखिर किस ज़मीन पर हैं हमारे लेखक, महान लेखक ! यह हवाई सफ़र कब विराम लेगा कोई जानता भी है?
आमीन !
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आपका लेख पढ़कर इनामों के लिये जोड़-तोड़ का हिसाब समझ में आया कुछ-कुछ।
ReplyDeleteपरसाईजी ने लिखा है- लाभ (सम्मान) जब थूकता है तो उसे हथेली पर लेना पड़ता है।
नीरज जी की क्या कहें। चापलूसी के बेताज बादशाह हो गये वे तो।
बाकी सब तो आपने ठीक लिखा है लेकिन ये गौरव सोलंकी की रीढ़ वाली बात समझ नहीं आई. या तो आप पूरे घटनाक्रम से वाकिफ नहीं हैं या फिर उससे खास लगाव रखते हैं. अंदरखाने क्या हुआ यह तो मुझे भी नहीं मालूम लेकिन गौरव ने सार्वजनिक रूप से खुद लिखा है कि वो उस कहानी को हटाने के लिए तैयार हो गए थे लेकिन ज्ञानपीठ फिर भी संग्रह छापने में आनाकानी कर रहा था.
ReplyDeleteगौरव ने ज्ञानपीठ को लिखा पत्र सार्वजनिक किया था. उसका एक अंश नीचे दे रहा हूँ...
"मैं कालिया जी को ईमेल लिखता हूं. वे जवाब में फ़ोन करते हैं और कहते हैं कि चिंता की कोई बात नहीं है, बस एक कहानी 'ग्यारहवीं ए के लड़के' की कुछ लाइनें ज्ञानपीठ की मर्यादा के अनुकूल नहीं है. ठीक है, आपकी मर्यादा तो आप ही तय करेंगे, इसलिए मैं कहता हूं कि मैं उस कहानी को फ़िलहाल इस संग्रह से हटाने को तैयार हूं. वे कहते हैं कि फिर किताब छप जाएगी."
फैज़ साहब का एक शेर शायद कुछ इस तरह से है कि, ‘‘जिस बात का जिक्र पूरे फसाने में न था, वह बात उनको बहुत नागवार गुजरी।’ दयानन्द साहब अब उस बात का जिक्र भी कर ही दीजिए। पाठकों को पूरा सीन समझ में आ जाए।-राजीव शर्मा
Deletebap re , itta tikdam.
ReplyDeleteहम दूर दराज के लोग इस पर अचम्भित ही हो सकते हैं।
ReplyDeleteहरनोट जी हम दिल्ली में रहने वाले लोग भी खासे अचंभित है इस पूरे इनामी प्रकरण से।
Deleteसम्मान से अपमानित होना भी एक कला है भई।
ReplyDeleteबिलकुल सही लिखा है आपने,ये साहित्य और पाठक दोनों का ही अपमान है
ReplyDeleteराजनीती की चकचोंध से मोतियाबिंद के शिकार हो गए है !
Dayanand Pande ji ki kalam ko daad deta hoo ki vah bahut sari jankari sateek shabdo may hamare samane udel deti he... koi bhi samman chota ya bada nahi hota samman samman hota he... per samman pane ke liye yadi tikdam bhidai jay to yah durbhagya poorn he ... mujhe umeed he ki pande ji ki kalam un lekhko ke dard ko bhi bya karegi jo achcha to likh rahe he per tathkathith mathadhiso ke fere se door he...
ReplyDeleteaaj se sau sal baad n ye sahity rhega aur n hi aise jugadoo puruskrit log.
ReplyDeleteha tulsi aur galib jaroor rhenge aur ek main.
'कैसे मंजर सामने आने लगे हैं,गाते—गाते लोग चिल्लाने लगे हैं!'
ReplyDeleteबहरहाल, दयानंद जी, आपको बहुत—बहुत धन्यवाद। बहुत बढ़िया और सटीक प्रहार किया है आपने।
जब शीत—ताप नियंत्रित वातावरण में रहने वाले अमीर अर्ध—अंग्रेज लेखकों को प्रेमचंद पुरस्कार दिया जाएगा तो यही होगा जो आपने उद्घाटित किया है।
श्री विजय राय जितनी जल्दी पंचसितारा होटलों से प्रेमचंद को लमही वापस ले आएं, उतना ही शुभ होगा।
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteनीरज इतने बड़े कवि नही है किंतु मुलायम के विरुद्ध निश्चित ही बहुत बड़े कवि है.
ReplyDeleteयह पूरी तरह शर्मनाक है. हम सब हिंदी के लेखकों के लिए बेहद शर्मनाक. पुरस्कार पाने के लिए हम कुछ भी कर सकते हैं. कहीं भी नाक रगड़ सकते हैं. दुनिया चाहे जो कहे. आपने इस पुरस्कार की सच्चाई को बेबाकी से प्रस्तुत किया उसके लिए आभार. हम इलाहाबाद में रहते हैं लेकिन अभी तक इस होशियारी से अनभिज्ञ थे. होशियारी से परिचित कराने के लिए आपका आभार.
ReplyDeleteमनीषा कुलश्रेष्ठ को अपने विवेक से निर्णय करना चाहिए, लेखक को भी आत्मज्ञान होना चाहिए कि वह कोई पुरस्कार लेने के काबिल है भी या नहीं. वैसे भी अब हिंदी में दिए जाने वाले पुरस्कारों की गरिमा मिटटी में मिल चुकी है. पुरस्कारों पर "बाजारवाद" और "मर्द मानसिकता" की कालिख पुत चुकी हैं. सब कोई जानता है कि अब प्रुस्कार कैसे दिए जाते हैं और कैसे लिए जाते हैं.
ReplyDeleteaisa apmaan samman se badhkar mahatvpoorn ho gayaa hai .. jise samman mile vah vishisht .. ho jata bakii log khar patawaar ..!
ReplyDeleteसाहित्य की दुनिया में इतनी जोड़ -तोड़ !!
ReplyDeleteघोर आश्चर्यम !
भाई दयानंद जी क्या तूफ़ान खड़ा कर दिया आपने।
ReplyDeletewhy this Kolavari ? अरे भाई कलम से पेट तो भरता नहीं। आजकल ना तो साहित्यिक पत्रिकाएँ रह गईं हैं ना ही अखबारों में साहित्य के लिए पन्ने। प्रकाशक अपने लाभ को बढ़ाने के चक्कर में हैं सो अनुवादों पर आधारित स्वयं सहायता वाली विदेशी किताबें को छाप कर काट रहे हैं चाँदी। जो बिकता है उसे ये बड़े बड़े तथाकथित साहित्यकार घटिया बता कर नकार देते हैं और खुद ऐसा लिखते हैं की जनता (कृपया इसे कैसे भी परिभाषित कर लें मतलब फिर भी वही रहेगा) तक बड़ी मुश्किल से पहुँच पाता है। जो थोड़े योग्य हैं वे ऐसा लिखते हैं की आदमी का पहला सफा पड़ते ही सिर दर्द हो जाए। दूसरे हिन्दी साहित्य की आड़ में दुनियाँ भर के आंदोलन चलते है। इन दिनों नया चलन है। बिना कुछ लिखे यही लिखना की "ना लिखने का कारण" क्या है। कथा साहित्य नीरस है और कविता तो खैर है ही नहीं। साहित्य के बीज जहां पड़ने चाहिए यानि बचपन उसके लिए कोई लिखता नहीं - कहीं ठप्पा ना लग जाए। तो भाई जब आप पाठक ही पैदा नहीं करोगे तो ज़मीन बंजर तो रहेगी ही। नीरज जी का जमाना अलग था जब मायानगरी (आज के BAWDY-WOOD का तात्कालिक नाम) में उनके जैसे लेखक खप जया करते थे। आज तो वहाँ भी प्रबन्धन डिग्रीधारक ही गाने लिख गा और बना रहे हैं।तो नीरज जी के सहाय तो मुलायम ही हुये ना ? तो कुल मिला कर बचा क्या - जनता के पास नहीं जाना चाहते - मेहनत और योग्यता चाहिए, किताबें, पत्रिकाएँ हैं नहीं, बच्चों के लिए लिखना नहीं, फिल्मों में पूछ नहीं तो बची राजनीति । पेट के लिए पद चाहिए, पद के लिए सरकार और सरकार को वोट चाहिए , वोट के लिए हर तरह का नाम, बदनाम तो फिर जहां चाह वहाँ राह। सरकार के पुरस्कार फोकट में ? इस हाथ दे उस हाथ ले। ऐसे लेन-देन पर लै - लै , दै , दै मचाना क्यूँ? यह सिस्टम है । इसे हमने बनाया है ---हम सबने जो इस पार है और जो उस पार हैं। सभी इस हाम्मम में नंगे है। तो इस चर्चा को चुप चाप यहीं समाप्त कर दीजिये - हाशिये के लोगों की तरह व्यवहार मत कीजिये वरना मुख्य धारा में कभी नहीं आ पाएंगे। कोशिश कीजिये कोई आका मिल जाए तो अगली बार आप भी फोटू खिचाइएगा बाकी लोग ताली बजाएँगे और अपनी बारी का इंतज़ार करेंगे-----टुकड़े सब को मिलेंगे बहुत हैं।
ReplyDeleteदयानंद जी इस पूरे आलेख में जो शब्दकारों के शब्दों के जो यथार्थ चरित्र सामने आते हैं वे भयावह तो है ही साथ ही दया के पात्र भी..क्या हम वाकई में इतने .. मैथिलीशरण गुप्त की पंक्तियां याद आ रही है..हम कौन थे, क्या हो गये हैं, और क्या होंगे अभी....आओ विचारें आज मिल कर, यह समस्याएं सभी
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