Thursday, 31 January 2013

हमारे गांव का गोबर तुम्हारे लखनऊ में है

काजू भुनी प्लेट में, व्हिस्की गिलास में/ राम राज्य आया है विधायक निवास में, जैसे शेर लिखने वाले अदम गोंडवी वास्तव में दुष्यंत कुमार की गजल परंपरा को आगे बढ़ाने वाले शायर हैं। हालां कि दुष्यंत की मुलायमियत अदम के यहां से खारिज है पर तेवर और तमक वही है। दुष्यंत की तरह अदम बिंब या रूपक भी नहीं रचते-रोपते या परोसते पर तल्खी, तुर्शी और तनाव वह वही भरते हैं जो कभी दुष्यंत कुमार के शेरों में तिरता था। दरअसल अदम गोंडवी दुष्यंत की गजल परंपरा और कबीर का सा खुरदुरापन एक साथ दोनों ही जीते हैं। तभी तो वह कहते हैं, ‘तुम्हारी फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है/ मगर ये आकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है।’ या फिर, ‘आप कहते हैं सरापा गुलमुहर है ज़िंदगी हम गरीबों की नजर में इक कहर है ज़िंदगी।’ अदम गोंडवी की ज़िंदगी और शायरी दोनों की ही रंग बिल्कुल सादा है। फक्कड़ई बेलाग हो कर उन की ज़िंदगी और शायरी दोनों ही में हवा पानी की तरह बहती है,‘आइए महसूस करिए ज़िंदगी के ताप को/ मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आप को।’ अदम गोंडवी वास्तव में ज़िंदगी की खदबदाहट को बिल्कुल खर-खर ढंग से कहने के आदी हैं, ‘कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएं नहीं/ हुक्म जब तक मैं न दूं, कोई कहीं जाए नहीं।’ वह राजनीतिक सचाईयों की भी नस छूते ही रहते हैं, ‘कहती है सरकार कि आपस में मिल-जुल कर रहो/ सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो।’ राजनीतिक, सामाजिक नासूरों की नस ही भर वह नहीं छूते बल्कि पूरा का पूर एक माहौल ही बुनते हैं, ‘हाथ मूछों पर गए, माहौल भी सन्ना गया/या क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था।’ जुल्म और जद्दोजहद की सिफत यह कि, ‘तेजतर रखिए मुसलसल जुल्म के अहसास को /भूल जाए आदमी चंगेज के इतिहास को।’ अदम के शेरों में विवशता जैसे छलकती है और सच बन जाती है, ‘नंगी पीठ हो जाती है जब हम पेट ढकते हैं / मेरे हिस्से की आज़ादी भिखारी के कब्र सी है/ कभी तकरीर की गरमी से चूल्हा जल नहीं सकता/ यहां वादों के जंगल में सियासत बेहया सी है/ हमारे गांव का गोबर तुम्हारे लखनऊ में है/ जवाबी खून से लिखना किस मुहल्ले का निवासी है।’ वह जैसे समय की सच्चाइयों से सनकाते हैं वैसे ही हवाबाजी से कतराते भी हैं, ‘आसमानी बाप से जब प्यार कर सकते नहीं/इस जमीं के ही किसी किरदार की बातें करो।’

अदम गोंडवी को जनकवि कहा जाता है पर वह वास्तव में पहरुआ कवि हैं,‘भुखमरी की जर में है या शेर के साए में है/ अहले हिंदुस्तान अब तलवार के साए में है/ बेबसी का इक समंदर दूर तक फैला हुआ/ और कश्ती कागजी पतवार के साए में है।’ ऐसी बेबाक और बेहतरीन गज़लें कहने वाले अदम गोंडवी की पांच गज़लें यहां हाजिर करता हूं:

एक

वेद में जिनका हवाला हाशिये पर भी नहीं
वे अभागे आस्था, विश्वास ले कर क्या करें
लोकरंजन हो जहां शम्बूक- वध की आड़ में
उस व्यवस्था का घृणित इतिहास लेकर क्या करें
गर्म रोटी की महक पागल बना देती मुझे
पारलौकिक प्यार का मधुमास ले कर क्या करें
देखने को दें उन्हें अल्लाह कम्प्यूटर की आंख
सोचने को कोई बाबा बाल्टी वाला रहे
एक जनसेवक को दुनियों में ‘अदम’ क्या चाहिए
चार छह चमचे रहें, माइक रहे, माला रहे

दो

सौ में सत्तर आदमी फ़िलहाल जब नाशाद है
दिल पे रख के हाथ कहिए देश क्या आज़ाद है
कोठियों से मुल्क के मेआर को मत आंकिए
असली हिंदुस्तान तो फुटपाथ पे आबाद है
जिस शहर में मुंतजिम अंधे हो जल्वागाह के
उस शहर में रोशनी की बात बेबुनियाद है
ये नई पीढ़ी पे मबनी है वहीं जज्मेंट दे
फल्सफा गांधी का मौजूं है कि नक्सलवाद है
यह गजल मरहूम मंटों की नजर है, दोस्तों
जिसके अफसाने में ‘ठंडे गोश्त’ की रुदाद है

तीन

जितने हरामखोर थे कुर्बो-ज्वार में
परधान बन के आ गए अगली कतार में
दीवार फाँदने में यूं जिनका रिकार्ड था
वे चौधरी बनें हैं उमर के उतार में
फौरन खजूर छाप के परवान चढ़ गई
जो भी जमीन के पट्टे में जो दे रहे आप
यो रोटी का टुकड़ा है मियादी बुखार में
जब दस मिनट की पूजा में घंटों गुजार दैं
समझों कोई गरीब फंसा है शिकार में

चार

भूख वो मुद्दा है जिसकी चोट के मारे हुए
कितने युसुफ बेकफन अल्लाह के प्यारे हुए
हुस्न की मासूमियत की जद में रोटी आ गई
चांदनी की छांव में भी फूल अंगारे हुए
मां की ममता बाप की शफ्कत गरानी खा गई
इसके चलते दो दिलों के बीच बंटवारे हुए
बाहरी रिश्तों में अब वो प्यार की खुशबू नहीं
तल्खियों से ज़िंदगी के हाशिए खारे हुए
जीस्त का हासिल यही हक के लिए लड़ते रहो
खुदकुशी मंजिल नहीं ऐ जीस्त से हारे हुए

पांच

जिस तरफ डालो नजर सैलाब का संत्रास है
बाढ़ में डूबे शजर हैं नीलगूँ आकाश है
सामने की झाड़ियों से जो उलझ कर रह गई
वह किसी डूबे हुए इंसान की इक लाश है
साँप लिपटे हैं बबूलों की कटीली शाख से
सिरफिरों को ज़िंदगी में किस कदर विश्वास है
कितनी वहशतनाक है सरजू की पाकीजा कछार
मीटरों लहरें उछलतीं हश्र का आभास है
आम चर्चा है बशर ने दी है कुदरत को शिकस्त
कूवते इंसानियत का राज इस जा फाश है


3 comments:

  1. हंगामों के बल कहां कब कौन जीता है जहां में
    हर दरिया के सीने में एक आग जलनी चाहिए

    कल तलक बैठे थे जो लाश बनकर अपने घर में
    उन लाशों के सीने में भी अब हलचल होनी चाहिए

    आज नहीं कोई दुष्यंत यहां झकझोरने को गजलों से
    कर हकीकत गजल को उन्हें तो इज्जत देनी चाहिए

    अदम भी तो रहे नहीं अब कौन कहे हमारी पीड़ा
    आक्रोश में ही सही अदम की आवाज होनी चाहिए

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  2. matra ki samasya

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  3. बेहतरीन प्रस्तुति।अदम गौंडवी हमारे समय की पीड़ा और त्रासदी को जिस दमदारी से स्वर देते हैं,वो तो केवल और केवल कबीर की याद दिलाती है।पूरे आदर के साथ कहना चाहूंगा कि अपनी रचनाओं से पाठकों के दिलों में चुभन पैदा करने के मामले में बाबा नागार्जुन अदम गौंडवी से कुछ पीछपीछे रह जाते हैं।आपका आभार कि इतनी सुंदररचनाएं साझा कीं।

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