Wednesday, 30 January 2013

अपने-अपने युद्ध: विसंगतियों का दस्तावेज़

- नवनीत मिश्र



कभी-कभी देखने में आता है कि रातों-रात चर्चित हो जाने की हड़बड़ी में या लेखन में बोल्ड का विश्लेषण पाने के लिए एक लेखक जाति यथार्थ के नाम पर जीवन के उन प्रसंगों को फ़ोटोग्राफ़ की तरह ‘जैसा, जिस हाल में होता है’ की तरह पाठकों के सामने रख देते हैं जिन के कारण किसी सुंदर और महत्वपूर्ण कृति के प्रति एक तरह की ऊब पैदा होने लगती है और पाठक सोचने लगता है कि रचना में ये न होता ते कितना अच्छा होता, या कौन जाने दयानंद पांडेय ने अपनी औपन्यासिक कृति ‘अपने-अपने युद्ध’ के सुंदर चेहरे को नज़र लगने से बचाने के लिए रति-प्रसंग के स्थल डिठौने के रूप में इस्तेमाल किए हों!

उपन्यास में ऐसे एकाधिक प्रसंग हैं जिन में यदि ज़रा सी सांकेतिक और थोड़े संयम से काम लिया जाता तो वही स्थल नायक संजय की मानसिक उथल-पुथल और ‘फ्रस्ट्रेशन’ को व्यक्त करते दीख पड़ते। सेक्स कभी-कभी स्थितियों से पलायन करने के जरिए के रूप में भी हमारे सामने होता है। अकसर तो वह ‘सेफ़्टी-वाल्व’ की तरह काम करता है और उन स्थितियों में वह अत्यंत सहज और स्वाभाविक होता है, लेकिन उपन्यास में वर्णित सेक्स, नायक को लोलुप से अधिक और कुछ नहीं दिखाता,अस्तु।

इस चूक (जो कि निश्चित रूप से चूक नहीं है) के बावजूद ‘अपने-अपने युद्ध’ जीवन के विभिन्न क्षेत्रों की विषम स्थितियों को हमारे सामने उद्घाटित करने में सफल रहता है तो वह इस लिए कि लेखक ने जिन क्षेत्रों को चुना है उन की उस ने गहरी पड़ताल की है। दयानंद पांडेय लक्षणा  और व्यंजना  की पच्चीकारी में पड़ने के बजाय शुद्ध अभिधा में जिन हालात से दो चार कराते हैं, वह किसी भी संवेदनशील और ईमानदार आदमी को तोड़ देने के लिये काफी होते हैं।

उपन्यास का नायक संजय एक पत्रकार है जो विभिन्न क्षेत्रों में संघर्ष कर रहे लोगों की व्यथा-कथा सब के सामने लाना चाहता है। समाचार पत्र प्रतिष्ठानों के अपने बने-बनाए ढर्रे हैं! इस तरह की चीज़ें छापने में उसे अखबारों और पत्रिकाओं से कोई सहयोग नहीं मिलता जिन की अस्मिता और स्वाभिमान अपने-अपने स्वार्थों के कारण न जाने कहां-कहां गिरवी रखा होता है। जिनके पास, ‘एन एस डी’ के छात्र आत्महत्या क्यों कर रहे हैं पर खोज-परक लेख छापने के लिए जगह नहीं होती, लेकिन नॉर्थ एवेन्यू, साउथ एवेन्यू, सेंट्रल हॉल, तुगलक रोड और जनपथ मार्गों के रत्ती भर सच में कुंटल भर गप मिला कर लिखी गई रिपोर्ट छापने के लिए जगह की कोई कमी नहीं होती। पत्रकारिता की दुनिया में वह पाता कि, ‘पराड़कर जैसे लोग सब से बड़े दोषी हैं जो खुशी-खुशी हिंदी पत्रकारिता के पितामह बन कर मर गए और हिंदी पत्रकारिता को कुपोषण, दरिद्रता और हीन भावना के गलियारों में बेमौत मरने के लिए बिना रीढ़ के छोड़ गए।’ पत्रकार संजय, ‘अंग्रेजी अखबारों की जूठन पर पल रही हिंदी पत्रकारिता की दुर्गति’ को और स्पष्ट देख पाता जब उस के द्वारा लिया गया पूर्व प्रधानमंत्री का एक इंटरव्यू मानहानि के डर से नहीं छपता, हालां कि वह जानता है कि, ‘अभी यही आइटम जो कहीं न्यूजवीक या देश के किसी अंग्रेजी अखबार या पत्रिका में छपने गया होता तो कोई डिफरमेशन नहीं होता और पचा लिया जाता।’

दयानंद पांडेय पेशे से पत्रकार हैं, इस लिए वह समाचार पत्रों के भीतरी संसार को पर्त दर पर्त उघेड़ने में खासे सफल रहे हैं, ‘बड़े बड़े उद्योगपति ही अखबारों के मालिक हैं। ये जो बेचना चाहते हैं, जो कूड़ा-करकट जनता को परोसना चाहते हैं वही सब कुछ सच का बाना पहना छपवाते हैं, बेचते हैं...अखबार जब मिशन था तब था अब तो उद्योग है। और उद्योगपति किसी के नहीं होते। वह तो सिर्फ़ अपने हितों को पोसते हैं, अपनी तिजोरी भरते हैं, अखबार की आड़ में पोलिटीशियंस और ब्यूरोक्रेट को डील करते हैं। इस तरह पूरे देश को अपने पैर की जूती बनाए फिरते हैं। पर जनता कहां जानती है यह सब?’ लेकिन संजय पाता कि पत्रकारिता की इस दुरावस्था के लिए केवल अखबार के मालिक ही ज़िम्मेदार नहीं हैं, पत्रकारिता की इस स्थिति के लिए उत्तरदायी अन्य तत्वों पर वह निगाह डालता तो अपने आसपास पाता कि, ‘एक तरफ दलाली करने वाले रिपोर्टरों की फौज थी तो दूसरी तरफ अंग्रेजी से हिंदी में उड़ाने वाले डेस्क वालों की फौज। तीसरी तरफ नेताओं, उद्योगपतियों और दूतावासों को एक साथ साधने और सहलाने वाले संपादकों की टुकड़ी।’ पत्रकारिता के अतिरिक्त उपन्यास में कई ऐसे क्षेत्र जहां अन्याय, शोषण और उत्पीड़न के विरुद्ध खड़े हुए पात्र हमें युद्ध करते दीख पड़ते हैं। कथक के महाराज की कुत्सित चेष्टाओं से युद्ध करती अलका है, दहेज जैसी सामाजिक कुरीति से जूझती चेतना है आत्महत्या तक के लिए विवश करती स्थितियों के बावजूद संघर्ष करते एन एस डी के छात्र हैं और इंदिरा गांधी की प्रेस कांफ्रेस में हिंदी में सवाल पूछने पर अधिकारियों की हिकारत और अपमान तथा अयोग्य संपादक सरोज जी की फटकार का सामना करता खुद संजय है!

उपन्यास के अधिकतर प्रसंग ऐसे हैं जिनमें संजय युद्धों का दृष्टा है, स्वयं युद्ध में जूझता हुआ योद्धा नहीं है। लेकिन खुद संजय के युद्ध में उतरने की स्थिति उपन्यास का अंत आते आते उपस्थित हो जाती है। एक रिपोर्टिंग को जबरन त्रुटिपूर्ण बता कर संजय को कारण बताओ की नोटिस दी जाती है। संजय जिन तथ्यों का उल्लेख करते हुए पलटवार करता है तो उसे निलंबित कर के जांच शुरू कर दी जाती है। साथ देने का दम भरने वाले सहकर्मी किनारा कर लेते हैं। सरोज जी के जाने और एक पुराने परिचित रणवीर राना के संपादक बनने से कुछ उम्मीद बंधती है लेकिन राना संजय के पीछे पड़ जाता है। एकदम अकेला पड़ गया संजय अंतत: इस्तीफ़ा देने के बजाय डिसमिसल लेटर लेना ज़्यादा सम्मान-जनक पाता है। वह समाचार पत्र की ट्रेड यूनियन के दुबे जैसे दोगले नेता से दो चार होता है जो ट्रेड यूनियन को ट्रेड में बदलने का खेल खेल रहा होता है! संजय की इस बात पर कोई कान नहीं देता कि उस का डिसमिसल मैनेजमेंट के लिए एक ट्रायल केस है, अगर आज हम एकजुट हो कर खड़े नहीं हुए तो कल यही मैनेजमेंट न जाने कितनों पर कहर बन कर टूटेगा। और यहां से शुरू होता है वह युद्ध जिस में संजय मात्र दृष्टा नहीं है। अब वह स्वयं योद्धा है, एक पक्ष है, न्याय के कथित मंदिर में पग-पग पर मिलते अन्याय को सहता लाखों लोगों में से एक है।

एक तरफ सर्वशक्तिमान संपन्न मैनेजमेंट और नौकरी के डर से उस के साथ मिल गए कर्मचारियों की अक्षौहणी सेना और दूसरी तरफ अकेला निहत्था संजय! मगर वह एक धर्म युद्ध था जिसे लड़ा ही जाना था और रणभूमि थी-- हाई कोर्ट!

जैसे गज़ल का कोई एक शेर हासिल-ए-गज़ल होता है, वैसे ही उपन्यास का यह भाग, अगर इसी शव्दावली में कहा जाए तो, हासिल-ए-उपन्यास है। हो सकता है कि ऐसा होता हो कि शायर कोई एक बेहतरीन शेर पहले कभी कह जाता हो और फिर उस एक शेर को सामने लाने के लिए रदीफ़-काफ़िया मिलाते हुए पूरी गज़ल कहता हो। और कोई बड़ी बात नहीं कि उस एक शेर के अलावा गज़ल के बाकी शेर भर्ती के होते हों! ‘अपने अपने युद्ध’ में ‘हाईकोर्ट’ के प्रसंग के सामने शेष सारा कुछ भर्ती का सा जान पड़ता है। संदेह होने लगता है कि कौन जाने दयानंद पांडेय ने उपन्यास का ताना-बाना ही ऐसा बुना हो कि उस का नायक कोर्ट की शरण ले और उपन्यास का यह सर्वोत्कृष्ट परिच्छेद पाठकों के सामने आ सके!

‘हाइकोर्ट तो रावणों का घर है। जहां हर जज, हर वकील रावण है। न्याय जहां सीता है और कानून मारीच। जैसे रावण अपने मामा मारीच को आगे कर सीता को हर ले गया ठीक वैसे ही हाईकोर्ट में जज और वकील कानून को मामा मारीच बना कर न्याय की सीता को छलते हैं।’ भारतीय न्याय व्यवस्था पर यह रूपक एक ऐसी हंसी की तरह सामने आता है जो संजय जैसे किसी वादकारी की गहरी निराशा, हताशा और मिले विश्वासघात की पीड़ा से उपजती है।

इस क्रूर न्याय व्यवस्था का संजय अकेला शिकार नहीं है। मुकदमा जीत जाने के बाद भी गुंडों से अपना मकान खाली न करवा पाने वाली गरीब विधवा है जो भरी अदालत में न्यायालय के फैसले के कागज जलाने के बाद खुद भी जल मरने को तैयार हो जाती है और हिरासत में ले ली जाती है! अपनी नौकरी का मुकदमा लड़ रहा राय केवल इसी आस में जीवन के आठ साल गुज़ार आया कि, ‘अगली तारीख पर तो फाइनल हो ही जाएगा।’ पर वही राय केवल एक दिन अदालत की बेंच पर बैठा ही बैठा खुद तारीख बन जाता है! संजय पाता है कि ‘वकीलों की दलाली, अपराधियों के गठजोड़ और धनपशुओं का बोलबाला जैसे हाई कोर्ट का अविभाज्य अंग बन चुका था।’ पाठक सोचता रह जाता है कि क्या यह उसे उसी दुनिया की दास्तान सुनाई जा रही है ‘जहां वादकारी का हित सर्वोपरि’ माना जाता है? उपन्यास का यह अंश बेहद डिप्रेस करने वाला है। वकीलों के दांव-पेंच, तारीखें, बरसों तक खिंचते चले जाते मुकदमें और निर्णय हो जाने के बाद भी आदेशों को लागू करने में बरती जाने वाली उदासीनता हमारी न्याय व्यवस्था के सामने प्रश्नों के जंगल खड़े कर देती है, न्याय की आस में कोई क्यों जाए कोर्ट, ‘जिसके आदेश को कोई आदेश मानने को ही तैयार नहीं होता। बल्कि कई बार तो बिना उस आदेश का अनुपालन किए उस आदेश की वैधता को ही चुनौती दे दी जाती है। इस चुनौती का निपटारा भी जल्दी करने की बजाय न्याय की मूर्तियां मुस्कुरा-मुस्कुरा कर तारीखों की तरतीब में उलझा कर रख देती हैं। फिर झेलिए स्पेशल अपील बरास्ता सिंगिल बेंच, डबल बेंच और फुल बेंच !... आप कहते क्या चिल्लाते रहिए कि देर से मिला न्याय भी अन्याय ही है। पर इन न्यायमूर्तियों की कुर्सियों को यह सब सुनाई नहीं देगा।’

अगर न्याय व्यवस्था के प्रक्रियागत दोषों तक बात होती तब भी गनीमत थी, लेकिन संजय का मुकदमा निर्णय के निकट पहुँच कर जिस तरह अगली तारीख में लुढ़का दिया जाता है, वह किसी साँप-सीढ़ी के खेल जैसा लगता है। एक क्रूर और अमानवीय खेल! इस खेल के बहाने न्याय व्यवस्था के घिनौने चेहरे के दर्शन भी होते हैं, ‘कुछ नहीं ‘रात’ डील हो गई। इन बुड्ढे जजों को चार-पांच लाख रुपए चाहिए और एक सोलह साल की लड़की। ब्रीफकेस और लड़की ले कर सामने होटल में बुला लीजिए, इन जजों से जो चाहिए फ़ैसला लिखवा लीजिए।’

हाई कोर्ट से न्याय न मिलने पर संजय हर उस दरवाज़े को खटखटाता है जहां से न्याय मिलने की उम्मीद की जा सकती है। चीफ़ जस्टिस, मानवाधिकार आयोग, राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री से ले कर डिप्टी लेबर कमिनश्नर तक वह पाता कि सभी स्थानों पर बैठी हुई हैं निर्जीव मूर्तियां...

ये मूर्तियां जो आदमी की तकलीफों कों महसूस नहीं करतीं, जो जानते-समझते-अन्याय के पक्ष में खड़ी होती हैं और न्याय की आस में तिल-तिल मरते वादकारी की उन्हें कोई परवाह नहीं होती. हो सकता है कि नपुंसक न्याय व्यवस्था से निराश हो चुके संजय द्वारा रात में कोर्ट-रूम खुलवाने और न्यायमूर्ति की कुर्सी के सामने पेशाब करने के प्रसंग कुछ अतिश्योक्ति पूर्ण लगें, लेकिन पूरा परिच्छेद पढ़ चुकने के बाद अपना आक्रोश व्यक्त करने के लिए संजय के सामने और कोई विकल्प भी नहीं था, ऐसा विचार पाठकों का भी बन सकता है।

उपन्यास की इस ‘सचमुच बोल्डनेस’ के लिए दयानंद पांडेय बधाई के पात्र हैं लेकिन देह को भी एक युद्ध के रूप में चित्रित करने के लिए वह जिस‘बोल्डनेस’ पर उतर आए हैं उस में कथ्य की गंभीरता प्रभावित होती है, रसाघात होता है।

रसाघात तो लेखक वहां भी उपस्थित कर बैठता है जहां वह यह नहीं जान पाता कि उसके क्या लिख देने से पाठक, सामने स्पष्ट दीख पड़ रही गंभीर विचार सरणी में प्रवेश करते करते रह जाएगा।

दहेज के कारण एक गांव में सुशीला के जलाए जाने और चेतना नाम की लड़की के इसरार पर अपने पत्रकार होने के प्रभाव को इस्तेमाल कर के गांव में पुलिस और एंबुलेंस ले कर संजय के पहुंचने से ले कर अस्सी प्रतिशत तक जल चुकी सुशीला द्वारा, ‘पति को जेल भिजवा कर ऊपर जा कर भगवान को क्या जवाब दूंगी’ तक के एक सशक्त प्रकरण की सारी गंभीरता समाप्त हो जाती है जब गांव के गुंडे का घूंसा खा कर संजय सोचता है, कि ‘अगर उस के पास पिस्तौल होती तो वह गोली मार देता बिल्कुल अमिताभ बच्चन की तरह’ या जब गुंडे चेतना के साथ गई लड़कियों के ब्लाउज में हाथ डालने से ले कर शीलभंग करने की सीमा तक अभद्रता पर उतर जाते हैं तो वह ‘आक्रोश फ़िल्म के नसीरुद्दीन शाह की तरह कांपता’ दिखाया गया है। एंबुलेंस से डॉक्टर भी उतरता है तो वह संजय को ‘शफी इनामदार जैसा’ नज़र आता है।

फ़िल्मी अभिनेताओं के रूपक बना देने से सारा दृश्य हिंदी फ़िल्मों के उन दृश्यों जैसा बन गया है जिन में हीरो के साथ माफ़िया गिरोह की जीवन-मरण की मार-पीट चल रही होती है और हीरो का कोई साथी, माफ़िया गिरोह के किसी गुण्डे के मुड़े हुए सिर पर चपत लगाता है और फिर फूंक मार कर अपनी हथेली पर आ गई काल्पनिक धूल को उड़ाने का कौतुक करता है। इसी तरह की स्थिति वहां भी उपस्थित होती है जहां इंदिरा गांधी प्रेस कांफ्रेंस में अपने अंग्रेजी बोलने का औचित्य यह कह कर सिद्ध करती हैं कि प्रेस कांफ्रेंस में कई विदेशी पत्रकार भी बैठे हैं। प्रेस कांफ्रेंस के बाद मार्क टुली का ठुमकता हुआ यह वाक्य कि, ‘हम को तो हिंदी आती है !’ राजनेताओं की भाषाई गुलामी को प्रकट करने के लिए एक ज़बरदस्त प्रकरण बन पड़ा था। संजय के लिए कोई ज़रूरी नहीं था कि, ‘उस ने बढ़ कर मार्क टुली का हाथ पकड़ा और झुक कर चूम लिया। बिलकुल राजकपूर स्टाइल में।’ और क्या ही अच्छा होता कि अपनी कलम के जरिए दुनिया भर के अन्याय और शोषण के विरुद्ध जेहाद छेड़ने के लिए छटपटाता संजय एक प्रेमी के रूप में हमारे सामने आता न कि किसी औरतबाज़ के रूप में। जहां कहीं अवसर मिले मांस के पोखर में डूबने को तैयार संजय के संदर्भ में संघर्ष की कथाएं भी अपने आप में किसी विसंगति से कम नहीं लगतीं। संवेदनशील पुरुष अपनी प्रिय स्त्री की देह–गंध को अपने आस-पास महसूस करता है। मगर संजय ने तो घर पहुंच कर रगड़-रगड़ कर नहाया। पर टीना की देह-गंध जैसे उस के अंग-अंग में समा गई थी, निकल ही नहीं रही थी।

किसी लेखक के लिए यह जानना तो ज़रूरी होता ही है कि वह क्या लिखे, यह जानना उस से भी ज़्यादा ज़रूरी होता है कि वह क्या न लिखे। अपने अपने युद्ध, भाग एक अपने अपने युद्ध, भाग दो

समीक्ष्य पुस्तक

अपने अपने युद्ध
पृष्ठ सं.264
मूल्य-250 रुपए

प्रकाशक :
जनवाणी प्रकाशन प्रा. लि.

30/35-36, गली नंबर- 9, विश्वास नगर
दिल्ली- 110032
प्रकाशन वर्ष-2001

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