दयानंद
पांडेय
जो ज़िंदगी बन के जीवन में
उपस्थित रहा हो , आहिस्ता-आहिस्ता रास्ता बना
कर ज़िंदगी से पूरी तरह बाहर हो जाए तो ? लगता है जैसे कोई दर्पण हो , जिस में आप ख़ुद को देखते रहे हों , वह दर्पण ही झन्न से टूट कर चकनाचूर हो गया हो। अब देखूं तो कैसे देखूं भला
ख़ुद को। समझ नहीं आता। तुम थी ज़िंदगी में तो जैसे लगता था कि ऐसी ख़ूबसूरत ज़िंदगी
कैसे मिल गई मुझे। उस समय के दर्पण में तुम थी , मैं था। किसी हवा की तरह ज़िंदगी में दाख़िल हो कर किसी बेची गई ज़मीन की
मानिंद इस तरह दाख़िल खारिज हो जाओगी , कहां जानता था भला। अब जब तुम ज़िंदगी से दाख़िल खारिज हो कर निकल गई हो तो
बारंबार ख़ुद से पूछता रहता हूं कि तुम ज़िंदगी थी कि कोई सपना। टूट जाने वाला सपना।
किरिच-किरिच टूट कर बिखरती
रहती हो। रिस-रिस कर कर चूती रहती हो यादों में। गोया कोई खपरैल की छत जगह-जगह से
चू रही हो। किसी भारी बारिश में। इतना कि घर में कहीं खड़े होने की जगह भी नहीं
मिले। भीगना लाजमी हो जाता है इस चूते हुए पानी में। याद है , तुम्हें बारिश कितनी पसंद थी। बारिश में मेरे
साथ चिपके रहना कितना पसंद था। बारिश होती थी और बारिश में भीगता हुआ आंगन में वह
दशहरी आम का पेड़ हम देखते रहते और भीगते रहते प्रेम की बारिश में। तुम जानती हो कि
मुझे दशहरी आम बहुत पसंद है। दशहरी आम का चूसना और उस की मिठास में डूब कर ही
स्त्री के प्रेम की मिठास में डूबा जा सकता है। इस स्वाद के क्या कहने। इतना कि
तुम्हारे वक्ष को भी मैं दशहरी कहने लगा था। दशहरी कहते ही तुम पुलक जाती थी और
मुझे भरपूर प्रेम करने लगती थी।
तुम्हारी दशहरी को चूसना , उस की मिठास का भास, एहसास और दशहरी की नशीली खुशबू में तर वह मादक
साथ तुम्हारा आज भी सोचता हूं तो भर जाता हूं , तुम्हारे प्यार से। ऐसे जैसे कोई स्त्री पनघट से गगरी भर कर चल रही हो , वैसे ही हुमक-हुमक कर , ठुमक-ठुमक कर चलने लगता हूं। लगता है जैसे
मदमस्त हो कर नदी के पुल पर , पूर्णमासी
की रात पूरा चांद देखती हुई मेरा हाथ पकड़े तुम अभी भी खड़ी हो। और मैं तुम्हें देख
रहा हूं। कभी नदी , कभी चांद , कभी नदी में चांद को , कभी तुम को। आते-जाते लोग , आस-पास खड़े लोग हमें देख रहे हों। जब यह मंज़र याद
आता है तो यही सोचता हुआ नदी के पुल पर जा कर खड़ा हो जाता हूं। अकेले। पूर्णमासी
हो , न हो। तुम्हारी याद हर रात
पूर्णमासी की रात हो जाती है। तुम्हारा दर्पण , तुम्हारे प्यार का दर्पण टूट गया है पर नदी के जल का दर्पण ? नदी से पूछता हूं। नदी कोई उत्तर नहीं देती।
तुम भी अब उत्तर कहां देती
हो। यू डोंट का ताला लगा दिया है , सो अलग। और मैं तुम्हें दिए वायदे के ताले में बंद हूं। कि यस मी डोंट। सो
नो फ़ोन , नो मेसेज। नो मुलाक़ात। मैं
बहुत डिफरेंट क़िस्म का प्रेमी हूं। दिया हुआ वादा कभी तोड़ता नहीं। घर की शांति को
तोड़ता नहीं। सन्नाटा बुन लेता हूं। कोई आवाज़ नहीं देता। लेकिन पल-प्रतिपल आती
तुम्हारी याद का क्या करुं भला। शुक्र है कि इस पर तो यू डोंट का ताला नहीं लगाया
है तुम ने। तुम्हारी याद क्या आती है , विरह की चिता पर किसी सती की तरह बैठ जाता हूं। धू-धू कर जलने लगता हूं।
विरह की इस चिता से सिर्फ़ तुम ही मुझे निकाल सकती हो। लेकिन नहीं निकालोगी , यह बात भी अच्छी तरह जान गया हूं। पर तुम्हारी
याद ?
आह , यह तुम्हारी याद और विरह की यह चिता।
याद है तुम्हें जब भी कभी तुम
मिलती थी तो बरखा बन कर। और मैं भी बारिश बन कर बरसने लगता था तुम्हारे भीतर।
तुम्हारे भीतर जैसे कोई संगीत बजने लगता था। मद्धम-मद्धम। और मैं किसी जलतरंग की
तरह तुम्हारी देह में उतरता था। धीरे-धीरे। तुम्हारे देह सरोवर में। तुम्हारे देह
सरोवर में मन की देहरी पुलक-पुलक जाती थी। प्रेम की इस बरखा में भीज कर तुम जैसे
वसुंधरा हो जाती थी। भरी-पुरी वसुंधरा। प्रकृति हमें दुलराने लगती थी। सावन की
बरखा की तरह। प्रेम की इस बरखा में नहाई हुई धुत्त तुम्हारी निर्वस्त्र देह जैसे
कोई अलसाई हुई निढाल सांझ बन जाती थी। ऐसे जैसे पूर्ण चंद्रमा , नदी में उतर आता था। डुबकियां मारता हुआ। कभी
डूबता , कभी उतराता। लहरों के बीच
खो-खो जाता है जैसे चांद। तुम कहती थी कभी-कभी कि लहरों पर कभी भरोसा मत करना। मैं
पूछता था क्यों ? तो तुम कहती थी कि लहरें
यहां-वहां छोड़ देती हैं। लहरों का स्वभाव ही है छोड़ देना। लहरों को बस यही आता है।
तो क्या तुम भी कोई लहर ही थी। जो मुझे छोड़ कर चली गई। अनायास। नदियां अपने
किनारों से मिलती रहती हैं। कभी तो नदी बन जाओ और अपने इस किनारे से मिल जाओ। भले
लहर की तरह फिर छोड़ कर चली जाना।
तुम्हारी यादों का एक पूरा
लश्कर है।
याद है तुम जब भी मिलती थी
बाहों में मिलती थी। कभी अवकाश
ही नहीं देती थी तुम कि कभी तो अपने आप से भी मिलूं। महकती मीठी यादों में अब भी मिलती हो। बाहों
में। काश कि महकती मीठी यादों
में समा जाओ हरसिंगार सा
अनगिन रंग और उमंग लिए। आ जाओ। तुम कहां हो। हरी घास पर बिछ गए गुलमोहर के
नरम फूलों पर बैठ कर बतियाना याद आता है। तुम्हारे गुलमोहर से दहकते होठ याद आते हैं। गुलमोहर के शहद में फिर से डूब जाने को मन करता है। तुम्हारे विशाल और सुडौल उरोज , मृदंग जैसे तुम्हारे नितंब , गरदन के पीछे से झांकती तुम्हारी पीठ याद आती है। यू डोंट के तुम्हें दिए गए वादे में बंध
तो गया हूं लेकिन लेकिन लगता
है कुछ छूट गया है वहां तुम्हारे पास। ऐसे कि जैसे ख़ुद ही छूट गया हूं। वहीं तुम्हारे पास ही। जाने
क्या-क्या छोड़ आया हूं।वह धूप, वह बादल , वह बारिश। वह आंखें, वह सपने , वह साज़िश भी। तुम्हें पाने के लिए जिन्हें हज़ार बार तोड़ता रहा। जोड़ता रहा अपने नेह से तुम्हारे भीतर बसे मेह
से। यह नेह , वह मेह और उस की शीतल फुहार। तुम्हारे वक्ष पर कपोल रख कर वह मदमाती मनुहार। यह सब भी तो तुम्हारे पास ही छोड़ आया हूं। तुम देखना मेरी अंगुलियां।वहीं कहीं तो नहीं रह
गईं। तुम्हें
हेरती , तुम्हें सहेजती। तुम्हें थपकी देती। मेरी हथेलियां भी शायद वहीं रह गई हैं। दशहरी को
टटोलती। वह मेरे अधर जिन पर तुम ख़ुद बांसुरी बनती नहीं अघा रही थी। और कहती थी तुम कि ऐसे ही
मद्धम-मद्धम बजना चाहती हूं तुम्हारे भीतर। कि जैसे मालकोश। क्यों कि इस
में ऋषभ और पंचम स्वर नहीं लगते। इसमें गंधार
धैवत और निषाद कोमल लगते हैं। रात्रि के
तीसरे प्रहर राग भैरवी थाट से निकले। इस मालकोश में तुम हरदम निबद्ध होना चाहती थी। मद्धम-मद्धम। हो सके तो इन सब को सहेज , संभाल कर रखना।किसी सुई-धागे की तरह। क्यों कि बहुत कुछ छूट गया है तुम्हारे पास। बेहिसाब इस मालकोश को भी उस के भैरवी
थाट में ही शेष रखना। क्यों कि मैं फिर-फिर आऊंगा। किसी रात्रि के तीसरे प्रहर। तुम्हारे भीतर मद्धम-मद्धम उतरने। उतर कर तुम्हें निबद्ध करने।
देखो फिर से। कुछ छूट गया है। कि कुछ टूट गया है। वहीं तुम्हारे पास ही। कि
टूट गया हूं मैं ही। तुम्हारे पास छूट कर। देखो , मुझे बचा कर रखना। ज़रा देखना तो। कि और क्या-क्या छूटा है वहां। क्यों कि
तुम्हें देखने और तुम से बिछड़ने के द्वंद्व में। कुछ ला नहीं पाया अपने साथ। लाता
भी भला कैसे कुछ। ख़ुद को तोड़ कर छोड़ आया हूं तुम्हारे पास। तुम्हें याद है जब
सर्दियों की धूप में मिलती थी तुम तो तुम्हारे नर्म और गर्म हाथ मेरे हाथ में आ कर
कैसे तो पिघलने लगते थे। हमारी सारी सीमाएं टूट जाती थीं। शुरुआती दिनों में हम जब
किसी रेस्टोरेंट में चोरी-चोरी मिलते थे तो मैं बहुत परेशान हो जाता था। अच्छा जब
एक बार मेट्रो में एकांत पा कर तुम्हें अचानक चूम लिया था , तुम्हें याद है कि तुम सिहर उठी थी। भीड़ के सागर
में चलते-चलते जब कभी तुम्हें छूता था तो तुम चिहुंक जाती थी। चिहुंक कर नितांत
अपरिचित बन जाती थी। बहुत बाद में तुम ने बताया था कि कई बार तुम्हारा भी मन हुआ
मुझे चूम लेने का। लेकिन मारे लाज के स्त्री सुलभ संकोच के कारण सारी इच्छाओं को
दबा लेती थी। और हां उस कोहरे भरी दोपहर में हम जब नदी किनारे हाथ में हाथ लिए
बैठे थे तभी जल में एक मछली निकल कर छपाक से नदी में फिर कूद गई थी और तुम ज़ोर से
चिल्लाई थी , अरे ! और मेरी गोद में गिर गई
थी। ऐसे जैसे कोई दीवार गिर जाए।
बड़ी देर तक मैं तुम्हारी पीठ को थपकी देता रहा।
हाथ जब अनायास पीठ से होते हुए , पहले नितंब
पर थपकी देने लगे और सहसा , अनायास वक्ष की तरफ बढ़ गए तो तुम चिहुंक कर उठ बैठी थी।
और बहुत सख्ती से बोली थी , नो ! थोड़ी देर बाद अपनी शॉल
मुझ से शेयर करती हुई तुम ने धीरे से पूछा था , कोहरे में ठंड नहीं होती क्या। मैं ने धीरे से ही बताया भी था कि नहीं होती। तो तुम बुदबुदाई थी कि हां , जानती हूं कि जब मैं साथ होती हूं तो तुम्हें
ठंड नहीं लगती। फिर पलट कर पूछा था , लेकिन भूख ? क्या भूख भी
नहीं लगती ? जवाब में मैं ने कहा था कि इस
मस्त कोहरे में तुम्हें ठंड और भूख की याद भी कैसे आ गई भला। इस के बाद तुम्हारे मादक स्पर्श
ने मुझे रोमांचित कर दिया था। हम वापस कार में आ गए थे। और बेतहाशा चुंबन की बौछार
कर दी थी मैं ने। तुम ने भी संयम तोड़ दिया था। और हम कार में ही प्यार की
पराकाष्ठा तक पहुंच गए। बाद में अकसर हम लोग कार का इस्तेमाल करने लगे। जिसे बाद
में तुम अकसर कार सेवा कहने लगी। खुल कर कहने लगी , आज कार सेवा के लिए समय निकालते हैं। याद है तुम को मुझ पर घुड़सवारी भी
बहुत पसंद थी तुम को। अकसर तुम फ़ोन करती और कहती कि आज घुड़सवारी का बहुत मन हो रहा
है। आज समय निकाल कर आइए। पहला तो नहीं पर समापन सत्र तुम्हारी घुड़सवारी से ही
होता। संभोग का जैसे स्वाद ही बदल दिया था तुम ने। एक देर शाम जब कोहरा घना हो गया
था और चांदनी नर्म। कोहरा ऐसे
घेर रहा था मुझे जैसे मेरी बांहें तुम्हें घेर लेती हैं और तुम रीझ गई थी। हमारे
भीतर प्रेम की एक नदी बहने लगी और एक दूसरे से जोड़ गई। लगा जैसे तुम को ही नहीं , मैं ख़ुद को भी पा गया हूं। तुम्हें याद है वह ओस
में भीगी हुई सुबह। जब मैं तुम्हारे प्यार की नर्म ओस में भीग गया था। वह ओस आज भी
टटकी है। मेरे मन में। याद है तुम्हें तुम्हारी आंखों और होठों का कोलाज जब तुम्हारे कपोलों पर रच रहा था तभी ओस
की एक बूंद गिरी और मैं नहा गया तुम्हारे प्यार में। यह ओस की बूंद थी कि तुम्हारा
नेह था जो ओस बन कर टपकी थी।
मालूम है तुम्हें जब तुम मिलती थी तो मन जैसे
अमृत से भर जाता था लबालब। अमृत-अमृत
हो जाता था मेरा मन और तुम्हारी देह नदी बन जाती थी। नदी में प्रेम की मछली कुलांचे मारती रहती। तुम मिलती थी तो मन पृथ्वी बन जाता था। इच्छाओं
के पल-छिन में अनगिन फूल खिल उठते थे। एक आग सी सुलग जाती थी हमारी प्रेम की झोपड़ी
में। तुम मिलती थी तो मन नील गगन बन जाता था। प्यार पक्षी। सांझ जल्दी
हो जाती थी। उड़ती हुई
चिड़िया ठहर जाती थी। झुंड की झुंड चिड़िया किसी तार पर बैठी दिखतीं तो तुम चल देती थी अचानक। प्रेम की इस बेला में घड़ी
की सुई जैसे ठहर जाती थी। नदी जैसे
विकल हो जाती थी। तापमान शून्य हो जाता था। तापमान का यह शून्य तोड़ देता था मेरे मन को। प्रेम की बहती नदी बर्फ़ बन
जाती थी। बिछोह बन
जाता था ग्लेशियर का टुकड़ा। ठिठुर कर सुन्न हो जाता था हमारे प्रेम का गीत। तुम फिर कब मिलोगी। पूछता था आहिस्ता से। तुम
कुछ बोलती नहीं थी। बर्फ़ के पिघलने की प्रतीक्षा में प्रेम जैसे अवकाश ले लेता।
फूल की तरह फिर खिलने की प्रतीक्षा में। प्रतीक्षारत हो जाता हमारा प्रेम। प्रेम जो अमृत हो जाना चाहता था।
यही वह दिन थे जब है अपना दिल तो आवारा , न जाने किस पे आएगा। हर ग़म फिसल जाए , जब तुम साथ हो। मौसम ये रूठने मनाने का है। अपने
दामन की ख़ुशबू बना ले मुझे। अलग-अलग समय के यह तीनों फ़िल्मी गाने एक साथ गाने लगा
था। सुनने लगा था। यह कौन सा
मनोविज्ञान था भला। न जाने क्यों , न जाने क्यों। गाने बहुत
हैं हमारे जीवन में। लेकिन तुम से बड़ा गाना कभी नहीं मिला जीवन में। गाता रहता हूं
अब भी तुम्हें। देखता रहता हूं। तुम्हारी
यादों में जीता रहता हूं। ऐसे जैसे कोई एबस्ट्रेक्ट पेंटिंग देख रहा होऊं। अभी हवा में ढूंढ रहा था तुन्हें। तो
बादल मिल गया तो उसी से
तुम्हारा पता पूछ लिया। बादल बोला , पता तो मुझे मालूम है। पर बहुत जल्दी में हूं सो पता बता पाना मुश्किल है।
बरस सकते हो तो बरसो मेरे साथ। पता ख़ुद-ब-ख़ुद मिल जाएगा। पहुंच जाओगे उस के पास
अनायास। जिस का पता पूछ रहे हो। सो अब बादल नहीं , मैं बरस रहा हूं। तुम तक पहुंचने के लिए।
बारिश का मौसम है इन दिनों शहर में। जब बारिश
में शहर झील बन जाता है तो इस विपदा में भी तुम्हारी आंखें याद आती हैं। आते जाते
देखता हूं तो तुम्हारी आंखें झील सी नज़र आती हैं। सॉरी , शहर की सारी झील तुम्हारी आंखें बन जाती हैं। तो क्या मैं बारिश बन जाता हूं। तो क्या मेरी
यादों की बारिश से तुम्हारी आंखें झील बन जाती हैं।बारिश जब ज़्यादा हो जाती है तो
शहर में बाढ़ आ जाती है। आबादी बाढ़ में डूब जाती है तो क्या मैं ज़्यादा बरसने लगा
हूं। तुम डूब गई हो। प्यार की बाढ़ में। शहरों का तो बिगड़ गया है। प्यार में भी पर्यावरण संतुलन बिगड़ता है क्या।
बिगड़ता है तो और बिगड़ जाने दो। जैसे गिरती है धरती पर ओस। तुम मेरी गोद में गिरो।
जैसे अंधेरे में दिखती है कोई रोशनी। तुम मेरी आंख में दिखो। किसी कौतुहल की तरह।
जैसे चांदनी में बहती है कोई नदी। चलती है उस में नांव। जलता है कोई दीप। नदी के
किसी द्वीप पर किसी नाविक के उम्मीद की तरह। ऐसे ही मेरे मन में बहो। चलो नाव की
तरह मंथर-मंथर। और जलो दीप बन कर। किसी उम्मीद की तरह। मैं नदी का वही नाविक हूं।
मुझे राह दो प्यार की। दुलार की वह सांझ दो। मनुहार का वह मान भी। जो देती है धरती
, सूर्य की पहली किरन को। मैं
मिट्टी हूं , मुझे गढ़ो। किसी मूर्तिकार की
तरह। अपने प्यार के पानी में सान कर। किसी कुम्हार की तरह मुझे रुंधो। तरसो नहीं , बरसो। मुझे प्यार के पानी से भरो। किसी तालाब की
तरह। सिंघाड़े की लतर की तरह फैल जाओ मेरे सर्वस्व पर। मैं ऐसा ही चाहता हूं। याद
है तुम्हें कि कभी यही तुम्हारी आंखें मेरा नगर हुआ करती थीं। इस नगर की नदी में
नहा कर गंगा नहा लेता था। तुम्हारी सी बी आई जैसी आंखों में कभी कुछ छुप नहीं पाता
था। मुझ को सब कुछ बता देती थीं। तुम्हारी
समुद्र सी गहरी आंखों की सिलवट देख कर पूर्णिमा की चांदनी मन में उतर जाती थी।
कहीं बहुत गहरे।
पर अब कहां ? तुम तो अब मिलती ही नहीं। बतियाती तक नहीं। भूल गई हो कि तुम्हारी आंख के
नगर का एक निवासी मैं भी हूं। निवासी हूं कि प्रवासी। कि तुम्हारी आंखों की नदी ने
संन्यास ले लिया है ?
और तुम्हारे अधर और तुम्हारी वह खिलखिलाती हंसी। एक बार तम्हारे होठ चूसते हुआ
कहा था तुम से कि यह अधर हैं
या बनारसी पान की गिलौरी। मन करता है गप्प से इन्हें खा जाऊं। किसी गोलगप्पे की
तरह। और कूंच -कूंच कर खाऊं पान की तरह। फिर तुम्हें बांसुरी की तरह बजाऊं।
तुम्हारे अधर की बांसुरी बजे। मैं तुम्हारे अधर के आकाश में खो जाऊं। यह सुन कर
किसी षोडशी की तरह तुम पुलक गई थी। पर करता भी क्या। तुम्हारे होठ किसी बांसुरी की
धुन से भी ज़्यादा मीठे हैं। किसी फूल से भी ज़्यादा मादक यह तुम्हारे रसीले होठ , ज़्यादा मोहक, ज़्यादा दिलकश और शहद से
भी ज़्यादा मिठास घोले तुम्हारे यह होठ मेरी सर्वदा कमज़ोरी रहे। इन होठों में जादू जगा कर जब तुम हंसती थी तो इन
होठों में कितने तो गुलाब , एक साथ खिल पड़ते थे। लगता था कि चंडीगढ़ का रोज गार्डेन हमारे भीतर
उतर आया है। इन की सुगंध में मैं डूब जाता था तब। इन होठों के दरमियां कितने कनेर , कितने कचनार खड़े हो जाते थे तब। याद है कुछ ? तब तो मन में बेला
उमग जाती थी। रातरानी खिल
जाती थी। हरसिंगार का फूल झरने लगता था। मन फागुन , वसंत हो जाता था। ऐसे गोया तुम्हारे नयन फागुन हों , अधर वसंत। इन अधरों के इंद्रधनुष में इतना मोहित रहता था कि सारा दुःख भूल जाता था।
हमारा संसार सुनहरा बन जाता था।
तुम्हें याद करता हूं तो तुम्हारे साथ बिताई
सर्दियां याद आ जाती हैं। थोड़ी लकड़ी , थोड़ी आग। बैठ कर तुम्हारे साथ ली गई कुछ सांस। तुम्हारी बांह में ली गई
उच्छवास याद आ जाती है। इस चांदनी रात में और क्या चाहिए। मन करता है कि तुम से कहूं कि यह मन नहीं , एक धरती है। तुम मेरे मन में पसर जाओ। जैसे
पसरती है धरती पर चांदनी। जैसे पसरता है कोहरा किसी झील पर। फैलती है ख़ुशबू किसी
मधुबन में आधी रात। यह रात नहीं है , रात का रंग है। तुम्हारे कंधे और गरदन के बीच रगड़ खाती मेरी नासिका में फैल
रही सुगंध है। यह तुम्हारा खिल-खिल मन और मौन है। तुम्हारी चूड़ियों की तरह
खिलखिलाता हुआ। समय का कैमरा दर्ज कर ले। इस चांदनी की ख़ुशबू को। इस चांदनी रात
में तुम्हें देखने को। इस चांदनी रात में तुम्हें चीन्ह कर। याद की गठरी में बांध
ले। चांदनी मचल ले ज़रा तुम्हारे रूप जाल में। तुम्हारे घने बाल में , रुको मेरी बांह में। इस सर्द रात में तुम्हारी
आग बहुत ज़रूरी है। जीने के लिए। तब तक रुको। पर कहां भला।
तुम्हें याद है कि कितना तो मन था कि कभी किसी
चांदनी रात को किसी छत पर तुम्हारे साथ रात गुजारुं। ठंडी सफ़ेद चादरों पे जागें
देर तक / तारों को देखते रहें छत पर पड़े हुए , वाला गाना
गुनगुनाते हुए। छत पर पड़े हुए , गाते हुए।
तुम से अकसर कहता रहता। पर पूर्णमासी का चांद तो तुम देखती-दिखाती रहती। कभी नदी
किनारे से। कभी किसी फ़्लैट की बालकनी से। लेकिन कभी कोई चांदनी रात मयस्सर नहीं
हुई किसी छत पर कि तुम्हारी गुदाज देह के साथ निरापद हो कर उस चांदनी में नहाता और
तुम्हें अपने प्यार में नहलाता। पर यह सपना अधूरा रह गया तो अधूरा ही रह गया।
सपनों में तो तुम आज भी मिलती हो। तुम मिलती हो
ऐसे जैसे नदी का जल और छू कर निकल जाती हो। मुझे भी क्यों नहीं साथ बहा ले चलती।
सपने में ही सही तुम्हारे मिलने के रूप भी अजब-गज़ब हैं। कभी किसी नदी में आई बाढ़
सी भरी-भरी हुई। कभी जमुना के पाट की तरह फैली और पसरी हुई। कभी सरयू की तरह घाघरा
को समेटे सीना ताने गीत गाती हुई। कभी तीस्ता की तरह चंचला तो कभी व्यास की तरह
बहकी हुई। कभी झेलम और पद्मा की तरह सरहदों में बंटती और जुड़ती हुई। नर्मदा और
साबरमती की तरह रूठती-मनाती हुई। कभी कुआनो की तरह कुम्हलाई हुई। कभी गोमती की तरह
बेबस। कभी वरुणा की तरह खोई और सोई हुई। कभी गंगा की तरह त्रिवेणी में समाई हुई।
हुगली की तरह मटियाई और घुटती हुई। रोज-रोज ज्वार-भाटा सहती हुई। कभी यह , कभी वह बन कर। छोटी-बड़ी सारी नदियों को अपना बना
कर। सारा दुःख और दर्द अपने में समोए हुई। सागर से मिलने जाती हुई। निरंतर बहती
रहती हो मेरे मन की धरती पर। इतनी हरहराती हो , इतना वेग में बहती हो कि मैं संभाल नहीं पाता , न तुम को , न खुद को। तुम्हारे भीतर उतरता हूं तो जल ही जल में घिरा पाता हूं। जल का
ऐसा घना जाल तुम्हारे भीतर की नदी में ही मिलता है। कभी कूदा
करता था नाव से बीच धार नदी में झम्म से। नदी का जल जैसे स्वप्न लोक में बांध लेता
था। भीतर जल में भी तब सब कुछ साफ दीखता था। बीच धार नदी के जल में धरती तक
पहुंचने का रोमांच ले कर कूदता था। पर कभी पहुंच नहीं पाया जल को चीरते हुए धरती
तक। आकुल जल ऊपर धकेल देता था कि मन अफना जाता था। कि अकेला हो जाता था उस विपुल
जल-राशि में। आज तक जान नहीं पाया। लेकिन पल भर में ही जल के जाल को चीरता हुआ
झटाक से बाहर सर आ जाता था। जल के स्वप्निल जाल से जैसे छूट जाता था। फिर नदी में
तैरता हुआ , धारा से लड़ता हुआ। इस या उस
किनारे आ जाता था। यह मेरा आए दिन का खेल था। कि हमारा और नदी का मेल था। लोग और
नाव का मल्लाह रोकते रह जाते, बरजते रह
जाते।लेकिन स्वप्निल जल जैसे बुला रहा होता मुझे। और मैं नाव से नदी में कूद जाता
था झम्म से , बीच धार। नदी की थाह नहीं
मिलती थी। कोई कहता
पचीस पोरसा पानी है , कोई बीस , कोई पंद्रह। एक पोरसा मतलब एक हाथी बराबर यानी सैकड़ो फीट गहरे पानी में उतरने का रोमांच
था वह। तुम्हारी भी थाह नहीं मिलती। तुम को पा कर भी कहां पा पाया। पर तुम से
जुड़ने का रोमांच तो विरह की इस चिता में जलते हुए भी महसूस करता रहता हूं।
बरसों पहले पहली बार जब हवाई जहाज में बैठा था
तो रोमांचित होते हुए एक सहयात्री ने बताया था कम से कम बीस-पचीस हज़ार फीट ऊंचाई
पर हम लोग हैं। आकाश इतना ऊंचा हो सकता है। और ज़्यादा ऊंचा हो सकता है होता ही है अनंत। पर नदी इतनी गहरी नहीं होती , न इतनी चौड़ी। ब्रह्मपुत्र नद भी नहीं , समुद्र भी नहीं। हेलीकाप्टर ज़रूर ज़्यादा ऊंचा नहीं उड़ता। धरती से जैसे क़दमताल करता उड़ता है।
दोस्ताना निभाता चलता है। सब कुछ साफ-साफ दीखता है। धरती भी , धरती के लोग भी। हरियाली तो जैसे लगता है
अभी-अभी गले लगा लेगी। जैसे तुम्हें देखते ही मैं सोचता हूं कि गले लगा लूं।
समुद्र की लहरों की तरह तुम्हें समेट लूं। लेकिन तुम तो समुद्र की विशालता देख कर
भी डर जाती हो। तुम्हें याद है समंदर के रास्ते में जब हम स्टीमर पर थे। सुबह होना
ही चाहती थी , पौ फट रही थी। तुम ने खिड़की
से बाहर झांक कर देखा था। और लोक-लाज छोड़ मुझ से चिपकते हुए सिहर गई थी। पूछा था
मैं ने मुसकुरा कर कि क्या हुआ। चारो तरफ सिर्फ़ पानी ही पानी है , दूर-दूर तक कहीं कुछ नहीं।
सहमती हुई , अफनाती हुई , आंख बंद करती हुई तुम बोली
थी। ऐसे जैसे तुम नन्ही बच्ची बन गई थी। जाने क्यों प्रेम हो या डर आदमी को बच्चा
बना ही देता है। लेकिन तुम्हारे भीतर उतरने का रोमांच। बार-बार उतरने का रोमांच सैकड़ो या हज़ारो फ़ीट गहरे उतरने का तो है नहीं।
अनंत की तरफ जाने का है जहां कोई माप नहीं। मन के भीतर उतरना होता है। और तुम हो
कि नदी के जल की तरह हौले से छू कर निकल जाती हो। कि इस एक स्पर्श से जैसे मुझे
सुख से भर जाती हो। लगता है कि जैसे मैं फिर से नदी में कूद गया हूं झम्म से।
प्रेम की नदी में। तुम मुझे छू रही हो और मैं डूब रहा हूं। जैसे उगते-डूबते सूरज
की परछाईं नदी में डूब रही है। तुम्हारे भीतर की धरती मुझे छू रही है।
लेकिन इतना सारा प्रेम का अमृत पीते हुए भी हम
जानते थे कि विवाहेतर प्रेमियों की कोई पहचान नहीं होती। इस तथ्य को हम दोनों ही
जानते थे। सो अपने प्रेम की सीमा भी जानते थे। सब के सामने अपरिचय की सुरंग में
छुपना भी जानते थे। परछाईं भी जैसे हम से हमारी आंख चुरा लेती थी। प्रेम का उफान
जैसे रुक जाता था। हमारा प्रेम जैसे डर जाता था। हमारा प्रेमी चोर बन जाता था।
दुःख-सुख में हम साथ होते हुए भी साथ नहीं दीखते थे। लोकलाज की चादर में लजाए रहते
थे। हम मर-मर जाते थे पर न हमारा मरना कोई देख पाता था , न कोई धुआं। तुम तरसती रहती थी। हमारे एक क्षणिक
स्पर्श के लिए सुलगती रहती थी। और एक स्पर्श पाते ही , प्यार भरे क्षणिक स्पर्श में तुम्हारी दुनिया
संवर जाती थी। किसी फूल से भी ज़्यादा खुशबू से भर जाती थी। शहद से भी ज़्यादा मिठास
से भर जाती थी तुम। ख़ूब-खूब ख़ुश हो जाती थी। तुम्हारी इस ख़ुशी की खुशबू में नहा कर
न्यौछावर हो जाता था मैं।
इसी मिठास में जीवन गुज़ार दिया है। जां निसार हूं। पूस के धूप में तुम्हारे रुप पर
न्यौछावर मैं था ही कि अचानक क्या हुआ कि तुम बदलने लगी। प्रेम की नदी का किनारा
और बल खाती लहरों और कूदती उछलती मछलियों की तरह जाने कैसे मुझ से खोने लगीं। लगता
कि बंद मुट्ठी में रेत की तरह मुझ से फिसलती जा रही हो। चैत की चांदनी सा सुख , रातरानी सी गमकती रातों जैसा प्रेम का पाग अब
बिसरता जा रहा है हमारे बीच से। जीवन के जंगल से सट कर बहती हमारे प्रेम की निर्मल
नदी , हमारे नसीब से छूट रही थी। कि
शायद जीवन की सड़क पर प्रेम के ट्रैफिक को हम संभाल नहीं पाए। आज तक नहीं जान पाए।
नहीं वह दिन भी थे कि मैं तुम्हें सुंदर कहता और तुम मगरूर हो जाती थी। तुम्हें
ज़िंदगी और ज़िंदगी का सब से बड़ा अरमान कहता और तुम अकड़ कर चूर हो जाती थी। तुम को
चांद कहता तो तुम चांदनी बन जाती। जान कहता तो तुम मदहोश हो जाती। ज़िंदगी कहता तो
चमक कर शमशीर हो जाती। तुम हमारा नशा बन गई। नदी की किसी धार की तरह , सागर में मिलती किसी नदी की तरह मेरी ज़िंदगी में
समाने लगी क्या समा गई। सुमन और सुगंध की तरह हम एक हो गए। लगा कि हमने प्यार कर
के जग जीत लिया है।
फिर क्या था जब तुम कभी आती झूमती-झामती हुई तो
लगता कि बरखा की पहली बूंद आ रही हो। मस्त हवा की तरह , फूल की खुशबू की तरह आती और किसी अबोध बच्चे की
तरह मेरे गले में दोनों हाथ डाल कर झूम जाती। मन में प्यार का मौसम मचल जाता। तमाम
दुःख मर जाते और मन में रातरानी खिल जाती। गहरी झील में किसी हंसिनी की तरह अपनी
ही छाया में उतरती जाती तुम। गौरैया की तरह फुदकती हुई , औचक सौंदर्य का इंद्रधनुष रचती हुई मुझ पर छा
जाती। प्रेम को पर्वत की तरह जीती हुई , देवदार की तरह सिर उठा कर जीती हुई , अपने देह-सरोवर में मुझे डुबोती हुई , प्रेम की चांदनी खिलाती हुई तुम क्या से क्या हो जाती थी , यह तुम क्या जानो भला। जैसे कोई औरत पकाती है
धीमी आंच पर खाना , वैसे ही तुम चाहती थी कि मैं
तुम से प्यार करुं। यही अंदाज़ प्रेम का मुझे पसंद था तुम्हारे साथ। प्रेम को सिर
उठा कर करना सीखा था तुम ने मेरे साथ। दासी की तरह नहीं। प्रेम में बराबरी बहुत
ज़रुरी है। दासी बना कर स्त्री के साथ न प्रेम हो सकता है , न सफल संभोग। प्रेम और सेक्स का सुख बराबरी में
ही मुमकिन होता है। यह बात कम पुरुष जानते हैं। एकतरफा सेक्स को ही प्रेम मानने की मूर्खता करना पुरुष की आम
प्रवृत्ति है। स्त्रियों को यह पसंद नहीं। लेकिन वह यह कह नहीं पातीं। तुम भी
लोकलाज में फंस कर कभी अपने पति से यह बात नहीं कह पाई। मुझ से लेकिन कहती रहती।
मुझ से यह सब कहने के लिए तुम किसी बंधन में नहीं थी। दासी नहीं , प्रेयसी हो तुम हमारी यह बात जब मुझ से तुम ने
सुनी तो भाव-विह्वल हो गई। लगा कि तुम क्या पाओ , क्या दे दो मुझे। तुम ने मुझे दिया भी। अपना अगाध प्रेम। अविरल और अलौकिक
प्रेम। तुम्हारे पास अगाध प्रेम था मेरे लिए , तुम ने मुझे दिया। तुम नहीं जानती , तुम आज भी भले न मिलो , न बात करो
पर तुम्हारा वह अगाध और निश्छल प्रेम तो है मेरे पास ही। प्रेम के बीज को वृक्ष
में विरूपित इसी भाव और विशवास में ही तो हम ने किया था।
मेरा बराबरी से मिलना तुम्हें भा जाता था।
स्त्री को मैं गुलाम नहीं समझता , यह तुम्हें अच्छा लगता। तुम कहती कि भले मैं ने
प्रेम विवाह किया है पर प्यार तो आप से ही मुझे मिला है। विवाह से मुझे सेक्स सुख
का तो पता चला पर प्रेम का सुख नहीं। बाद में यह सेक्स सुख भी सिर्फ़ पति के ही
हिस्से में रह गया। पति का आदेश , पति की
इच्छा ही सेक्स हो गया। मेरी ज़रुरत क्या है , मेरी भी कोई इच्छा है , पति को आज
तक नहीं पता। मैं औरत नहीं सेक्स का इंस्ट्रूमेंट हूं। सेक्स का खिलौना हूं , पति के लिए। बस। तुम्हारी यह यातना ही शायद
तुम्हें मुझ तक खींच कर ले आई। तुम ने प्यार किया और चली गई। जैसे प्रेम से
तुम्हारा पेट भर गया। लेकिन अपने प्रेम में मुझे क़ैद कर गई। इस प्रेम की क़ैद में
गिरफ़्तार तुम्हारे प्रेम की कचहरी में तुम्हारी पैरवी करता हुआ मैं एक वकील की तरह नहीं एक मुलजिम
की तरह पेश हूं।
बिजली जाती है , आ जाती है। नेटवर्क जाता है , आ जाता है। तुम क्यों नहीं आती।
काश कि इंश्योरेंस एजेंसियां
हेल्थ की तरह प्रेम का भी इंश्योरेंस करती होतीं। और हम कैशलेश क्लेम ले कर अपने
खोए प्रेम को पा जाते। कई बार सोचता हूं कि कहीं ऐसा तो नहीं कि जिसे हम लोग
मोहब्बत कहते हैं , वह महज़ एक ज़रुरत भर है। ज़रुरत
ख़त्म , मोहब्बत ख़त्म। सो सच-सच बताना
प्रिये कि मैं ज़रुरत था कि मोहब्बत। सच बताओगी तो बुरा नहीं लगेगा। क्यों कि जो
स्त्री प्रेम के लिए पिता और पिता का घर सर्वदा के लिए छोड़ सकती है , वह अगर प्रेम में है , तो पति का घर भी तो छोड़ ही सकती है। इतना साहस
तो कर ही सकती है। कि सारा साहस पिता के लिए ही था। तो क्या यह सचमुच मोहब्बत थी ? मोहब्बत थी कि ज़रुरत ? ज़रुरत को लोग मोहब्बत का नाम देते ही क्यों हैं , समझ नहीं आता। ज़रुरत ख़त्म , मोहब्बत ख़त्म। ज़िंदगी का यह अजीब सिलसिला है।
तुम को याद ही होगा कि प्रेम के लिए मुझे तुम ने ही चुना था। तलाश तुम्हीं ने किया
था। शायद संभोग का स्वाद बदलने के लिए। प्रेम की प्यास बुझाने के लिए। जो भी हो , तुम ही जानो। मैं तो बस तुम्हारे प्रेम की नदी
की धार में अनायास ही समा गया था। जैसे नदी कंकड़ , पत्थर , हीरा , मोती सभी कुछ साथ बहा ले जाती है। वैसे ही मैं
भी तुम्हारी प्रेम नदी की धारा में बहता रहा। अब तुम्हारी नदी की कोई लहर किसी
किनारे पर मुझे छोड़ कर आगे बढ़ गई है तो मेरा क्या दोष। प्रेम नदी के किनारे अभी भी
बहने की प्रत्याशा में प्रत्याशी की तरह उपस्थित हूं। मन ही मन बहता जा रहा हूं।
तुम नहीं जानती तो अब से जान
लो प्रेम मां की तरह
होता है। मां का
दुलार कभी खत्म नहीं होता। प्रेम किसी का भी
हो , प्रेम खत्म नहीं होता।
समय-समय पर तुम्हारे साथ मिले वह पक्षी , वह कोयल , वह वृक्ष , वह वनस्पतियां वह किसिम-किसिम के फूल , वह तुलसी का चौरा , वह बारिश , वह पुरवा , वह धूप , वह चांदनी , वह आम्र मंजरियां , वह पल्लव , बारिश में भीगता , आंगन का वह दशहरी का पेड़ , हरी घास पर
बिखरे वह गुलमोहर के फूल भी कभी तुम्हें नहीं भूलेंगे। नहीं भूलेगी वह मछली भी जो
हमें तुम्हें देखते हुए , नदी में छपाक से कूदी थी। वह कोहरा
, वह ओस की बूंद सब की यादों
में तुम ठहरी हुई हो। इन सभी की याद में भी तुम रहोगी। वह नदी भी तुम्हें कहां
भूलेगी भला जहां , जिस पर बने पुल पर खड़े हो कर
हम पूर्णमासी का चांद देखा करते थे। पूर्णमासी के चांद में हम तुम जैसे दर्ज हैं।
सर्वदा के लिए। हम ही नहीं , यह सभी तुम
से प्रेम करते हैं। और प्रेम किसी का भी हो , प्रेम खत्म नहीं होता। कभी नहीं होता।
मेरी मुश्किल देख कर लोगबाग़
पूछते रहते हैं , क्या हुआ ? लोगों को बताता रहता हूं कि एक औरत थी जो मुझे जवान बनाए रखती थी। वह मुझे
छोड़ कर चली गई। लोग
मुझ पर हंसते हुए निकल जाते हैं। याद है तुम्हें पाने की हड़बड़ाहट में कार की लाइट आफ करना भी कई बार भूल जाता था।
वापसी में बैटरी डाऊन हो जाने के कारण कार स्टार्ट नहीं होती तो तुम्हें अकेले
लौटना होता था। झल्लाती हुई लौटती थी तुम। प्यार का सारा हरसिंगार झर कर बिखर जाता
था। ऐसे ही बिखर गया हूं , तुम्हारे बिना। ज़िंदगी की
बैट्री डाऊन हो गई है। प्रेम की मछली तड़प रही है , तुम्हारे प्यार के पानी बिना।
तुम्हारे बिना
पृष्ठ - 144
मूल्य : 375 रुपए
प्रकाशक : अमन प्रकाशन
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