Friday 8 December 2023

विश्वास के प्यास की परवाज़ में डूबी सम्मान और समानता का एकांश ढूंढती कविताएं

दयानंद पांडेय 



एक ख़त तुम्हारे नाम में कुछ ख़त हैं। इन ख़तों में तहरीरें हैं। तहरीरें अलग-अलग हैं। पर ख़ता एक ही है : मुहब्बत। ख़त जैसे किसी रेगिस्तान में भटकते हुए जल-जल जाते हैं। पर ख़त की तहरीर नहीं जलती। कभी नहीं जलती। लेकिन मुहब्बत का कोई मुहूर्त फिर भी नहीं है। न इब्तिदा है , न अंजाम। बस प्यार का जाम है। प्यार के पैमाने में छलकते टेढ़े-मेढ़े रास्ते और उलझे हालात हैं। रिश्तों के फ़ैसलों से उपजे फ़ासले हैं। कम से ज़्यादा , ज़्यादा से कम की शरारत और शराफ़त के कंट्रास्ट में डूबा नेह है। नेह की सिलवट में सनी सांस के उच्छवास में लथपथ खिड़की पर चाय की दो प्याली बीच में रख कर मौन की भाषा की पतवार है। कैक्टस को कुचल-कुचल कर कागज़ की सतह पर रातरानी उगाती हुई। हर्फ़-हर्फ़ में महबूब की मुहब्बत को महकाती हुई। आध्यात्मिकता की हद तक जाती प्यार की पुरवाई में बहती माशूक़ा राधा और मीरा का रूपक रचती हुई पहचान लिए जाने की अकुलाहट में अफनाई हुई इन तहरीरों की कोई तरतीब नहीं है। बेतरतीबी की अजीब सी शिनाख़्त है। उबाल है। बदहवासी है। इसी लिए एक ख़त तुम्हारे नाम में सत्या सिंह की यह कविताएं विश्वास के प्यास की परवाज़ में डूबी सम्मान और समानता का एकांश ढूंढती कविताएं हैं। प्रेम की ऊष्मा में आत्मीयता की तलाश करती कविताएं हैं। इन कविताओं में ऊष्मा भी बहुत है। ऊर्जा भी बहुत। बिजली जैसी चमक लिए। सागर जैसी तड़प लिए। बारिश की प्रतीक्षा में विकल ऐसे जैसे कोई धरती हो। 

ख़तनुमा इन कविताओं में समाई प्यास दरअसल चातक की प्यास नहीं है। एक ठगी और लुटी हुई स्त्री की प्यास है। रेगिस्तान में जल की तलाश में भटकती हुई स्त्री की प्यास। रेत पर मचलती सूखी लहरों  को देख यह कविताएं जल तलाशती हुई अहसास कराती हैं कि जल यहीं कहीं हैं। भूल जाती हैं यह कविताएं कि रेत पर लहरें सिर्फ़ जल की ही नहीं , वायु की भी होती हैं। हवाएं भी रेत पर लहरें बनाती-मिटाती रहती हैं। हालां कि हवाएं भी जल लिए हुए होती हैं। पर प्यार है कि मानता ही नहीं। मानता है कि रेत है तो ज़रुर कहीं आस-पास जल भी है। मृगतृष्णा इसे ही तो कहते हैं। प्यार इसे ही तो कहते हैं। सत्या सिंह लिखती हैं :

तुम अभी अपनी 

छत पर आओ ना....

मैं भी अपनी छत पर हूं 

आज शायद पूर्णिमा है 

पूरा चांद नज़र आ रहा है 

चलो साथ में 

चांद देखते हैं 

तुम अपने शहर से 

मैं अपने शहर से 

एक ख़त तुम्हारे नाम की कविताओं में प्रेम की पूर्णमासी ऐसे ही उतरती मिलती रहती है। भरीपुरी। शहर भले अलग-अलग हों पर प्रेम की छत का संयोग बनता रहता है। यह कहती हुई :

मैं तुम्हारे साथ 

दौड़ तो नहीं सकती 

हां 

मगर 

तुम्हारी यादों के सहारे 

ज़रूर चलूंगी 

इश्क़ का नाम एहसास रखती आभास की बारिश में डूबी सत्या की कविताएं बेपरवाही की डोर में सम्मान की सुई से माला गूंथती हुई संतोष के सागर में जैसे डूबने के लिए अभिशप्त हैं। यादों की गुफ़्तगू में मिलने की आरजू में दिल खोल कर बात करने को आतुर मिलती हैं। मृगतृष्णा की मारी हिरनी सी उछाल मारती यह कविताएं बिना किसी वादे , बिना किसी कसम के सिर उठा कर स्वाभिमान से चलने की तहरीर लिखती चलती हैं। 

कविता में ख़त है कि ख़त में कविता। ठीक वैसे ही जैसे भूषण ने लिखा है : "सारी बीच नारी है कि नारी बीच सारी है। नारी ही की सारी है कि सारी ही कि नारी है।" भूषण के यहां यह संदेह अलंकार है पर सत्या सिंह के यहां अगर कहूं कि प्रेम अलंकार है तो अतिश्योक्ति न होगी। प्रेम पाग में पगी कविताएं ख़त में ऐसे खनकती मिलती चलती हैं गोया किसी स्त्री के हाथ में कांच की चूड़ियां हों। किसी स्त्री के दबे पांव में सहसा बज गई पायल हों। अलग बात है कि पायल के गुम होने और चूड़ियों के टूटते रहने का पता भी देती चलती हैं सत्या सिंह की यह कविताएं। ताबीज़ के मानिंद आयतों से बंधी और ज़मीर के ज़ेवर पहने मिलन और विरह से परे एक नया ही वातायन बुनती हैं। 

ऐसे जैसे कोई स्त्री किसी सपने में स्वेटर बुने किसी दुधमुंहे के लिए। और जागने पर न स्वेटर मिले , न दुधमुंहा। अजीब कश्मकश है। अजीब गरमाहट है। अजीब आस और अजीब प्यास है यह। मछली की तरह नहीं , मन की तरह छटपटाती सत्या सिंह की यह कविताएं ख़त की ख़ैरियत में भले हैं पर किसी ख़ैरियत का बयान नहीं बांचतीं।  बल्कि बेकली का गान गाती आंसुओं की आह में काजल बहाती किसी की प्रतीक्षा का आख्यान रचती हैं। प्रतीक्षा इन कविताओं में बहुत प्रबल है। गो कि इस प्रतीक्षा का हासिल फिर भी सिफर है। इसी लिए स्त्री अपने नदी होने की यातना बांचती है कि सागर नहीं थी , सारा दर्द समेटती कैसे ? अमलताश जैसी रंगीन ज़िंदगी की आस में यादों की गुल्लक फोड़ती सत्या सिंह की यह कविताएं प्रेम के इस अंतिम सत्य पर आ कर ठहर जाती हैं : 

बस एक तुम मिले 

और ज़िंदगी 

मुहब्बत बन गईं 

ऐसे जैसे ख़त के जल जाने के बावजूद , न जलने वाली तहरीर की यही इंतिहा है। ख़त के तहरीर की तहरीक़ यही है। सम्मान और समानता का एकांश यही है। एक ख़त तुम्हारे नाम की कविताओं का पैग़ाम यही है। सत्या सिंह की कविताओं का कुलनाम और अंजाम यही है। प्रेम , प्रेम , सिर्फ़ प्रेम। दौड़ नहीं सकने की लाचारी के बावजूद प्रेम। अथाह प्रेम में डूबी यह कविताएं ख़त नहीं , ख़िताब हैं मनुष्यता का।

  

[ सौभाग्य प्रकाशन , दिल्ली द्वारा प्रकाशित सत्या सिंह के कविता-संग्रह एक ख़त तुम्हारे नाम की भूमिका। ]

2 comments:

  1. कविता की पुस्तक की सुंदर काव्यात्मक भूमिका !

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  2. बहुत सुन्दर

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