शबाहत हुसैन विजेता
दयानंद पांडेय का उपन्यास विपश्यना में प्रेम पढ़ा। पढ़ना शुरू किया तो पढ़ता ही चला गया। लगा जैसे नदी के बहाव के साथ बगैर मेहनत के बहता चला जा रहा हूं। चुप की राजधानी और जहां सांसें दहक रही थीं। जैसे शब्द शिल्प का बहाव हो वहां कहानी की गति कम कैसे हो सकती है।
दयानंद पांडेय के लेखन की खासियत यह है कि वह ज़िंदा शब्द गढ़ते हैं। उपन्यास कहानी के साथ फ़िल्म सा चलता है। हर शब्द के साथ एक चित्र भी पिरोते चलना उन्हें भीड़ से अलग खड़ा करता है। वो मूलतः पत्रकार हैं इस लिए चाहे वो लेखक के रूप में हों, उपन्यासकार के रूप में हों या फिर कवि के रूप में उन के भीतर का पत्रकार माहौल को कुरेद कर उस के भीतर से कुछ नया निकालने में लगा रहता है।
विपश्यना में प्रेम का नायक विनय पारिवारिक कलह से ऊब कर घर से भागता है। आबादी से दूर एक ऐसे आश्रम को वह अपना ठिकाना बनाता है जहां न मोबाइल है, न बाज़ार है न दोस्त हैं। वह चुप की राजधानी है, जहां ख़ामोशी की चादर ज़िंदगी को यंत्रवत चलाती है, जहां औरत-मर्द के मिलने की मनाही है, जहां न कोई सुख बांटने वाला है, न दुःख पर बात करने वाला है, जहां भीतर के शोर से अकेले ही लड़ते रहना पड़ता है।
इस आश्रम में ढेर सारे विनय हैं। कोई रूस का है, कोई फ्रांस का है, कोई भारत का। सभी को शांति की तलाश है। राजधानी चुप की है तो भाषाई समस्या नहीं है , सिर्फ़ चेहरे पढ़े जा सकते हैं। मतलब साफ है कि जाति, वंश, भाषा, रंग और सीमाओं से परे है मन की अशांति। हर कोई शांति की खोज में बेताब।
बारह- बारह घंटे के ध्यान के बावजूद मन में शांति का प्रवेश नहीं हो पाता। जिस शांति की तलाश में घर छोड़ा वह तो वापस मिली ही नहीं, मन की उथल-पुथल तो जैसी की तैसी।
इसी शांति की तलाश में ही तो बुद्ध ने घर छोड़ा था। बुद्ध तो राजकुमार थे, यशोधरा जैसी खूबसूरत पत्नी और राहुल जैसा बेटा था। शानदार भविष्य बाहें पसारे इंतज़ार कर रहा था, लेकिन मन में जो कोलाहल था वह दूर न हो पाए तो राजा बन कर भी क्या हासिल हो सकता है।
विनय भी शांति की तलाश में घर से भागा था। लगातार ध्यान की कक्षाओं के बावजूद वह साधू नहीं बन पाया। वह देखता था कि उसी की तरह दूसरे भी लगातार एक ही मुद्रा में बैठने से त्रस्त हैं। उस की तरह दूसरों के शरीर भी टूट रहे हैं। वह भी रशियन पुरुष की तरह दीवार से टिक कर बैठना चाहता धा। उस का ध्यान भी लड़कियों की वेशभूषा पर जाकर टिक जाता था। वह भी आकर्षण के मोहपाश से मुक्त नहीं हो पा रहा था। एक रशियन युवती के शरीर को वह किसी मूर्ति की खूबसूरती सा तकने लगा था।
ध्यान के बाद टहलते वक्त भी वह रशियन युवती पर ही लट्टू रहता। आग उधर भी लगी थी बराबर सी। दोनों पास आते गए-आते गए। कब एक हो गए पता भी न चला। न नाम जानते थे न शहर, लेकिन मौन की भाषा ने प्रेम पर विजय पा ली थी। दोनों शरीर से भी एक हो गए थे।
आश्रम ने साधना पूरी होने की घोषणा की। आश्रम छोड़ कर जाने का समय तय किया। विनय को फिर घर से निकलना था। पिछली बार पारिवारिक कलह की वजह से घर छोड़ा था, इस बार उस प्रेम को छोड़ कर निकलना था जिस का न नाम पता था , न मोबाइल नंबर , रूस में शहर कौन सा यह भी नहीं पता था।
वह हंसते हुए विदा हो गई। वह फिर टूटा सा वापस लौट पड़ा अपने उस घर की तरफ जहां कलह थी। वह सोच रहा था कि उस की यशोधरा उस के बिना कैसे रह रही होगी, उसके राहुल की ज़रूरतें कैसे पूरी हो रही होंगी। वह तो बुद्ध भी नहीं था जो परिवार के साथ राजपाट छोड़ कर आया हो।
घर लौटते में उस ने देखा कि साधना के लिए आए उस के साथी एक दूसरे से परिचय हासिल कर रहे थे। अपने विजिटिंग कार्ड दे कर अपने बिजनेस के बारे में बता रहे थे। फ़ायदे और नुकसान गिना रहे थे। सामने वाले को ठग लेने पर आमादा थे। वो महसूस कर रहा था था कि ध्यान के बावजूद मनोवृत्तियां बदलना आसान नहीं होता। यहां तो साधना भी साधन की तरह इस्तेमाल हो गई थी।
आश्रम में उसे सिर्फ़ वो रूसी युवती मिली थी जिस ने उसे भरपूर प्यार और तृप्ति दी थी। उस से बार-बार मिलना चाहता था मगर इतनी बड़ी दुनिया में अपनी खुशी कहां तलाशने जाए, इस सवाल का जवाब नहीं था।
विनय परिवार में लौट गया। उस के लौटने से उस के परिवार में फिर से खुशियां लौट आईं। धीरे-धीरे आश्रम की यादें भी धुंधली होती गईं। याद थी तो सिर्फ़ वह रूसी युवती जो अचानक से ढेर सारा सुख दे गयी थी। एक दिन उस के मोबाइल की घंटी बजी। रूसी युवती का फ़ोन था। वह मां बन गई थी, विनय के बच्चे की मां। उस ने बताया कि दीवार से टिक कर बैठने वाला रशियन पुरुष उस का पति है, उस की कमर में समस्या है, वह सीधा नहीं बैठ सकता। पति-पत्नी में बहुत प्यार है मगर वह मां नहीं बन पाई। बहुत इलाज कराया, आईवीएफ तक कोशिश कर डाली, सब फेल हो गया। विनय तुम्हें देखा तो सोचा तुम्हें भी ट्राई कर लूं। तुम्हें ट्राई किया तो कामयाबी मिल गई। नाक नक्श तुम्हारे ही जैसे हैं कद रूसियों का है। उस का नाम विपश्यता रखा है। कभी मास्को आओगे तो मिलवाऊंगी। फ़ोन कट गया था।
जड़वत विनय, तो सिर्फ़ साधना को साधन ही नहीं बनाया गया बल्कि प्रेम में भी ट्राई कर लिया गया। वह समझ पाने की स्थिति में नहीं है कि रिश्तों की सौदागरी यही दुनिया में विश्वास का अस्तित्व है भी या नहीं...।
मन को छू लेने वाले उपन्यास को वाणी प्रकाशन , दिल्ली ने प्रकाशित किया है। इस उपन्यास में शेक्सपियर जैसी काबलियत और पंडित शिवकुमार शर्मा के संतूर जैसी मिठास वाला संगीत हासिल होता है। मन की खिड़कियां खोलना है तो दयानंद पांडेय के इस उपन्यास का दरवाज़ा खटखटाना ही पड़ेगा।
विपश्यना में प्रेम उपन्यास पढ़ने के लिए इस लिंक को क्लिक कीजिए
समीक्ष्य पुस्तक :
विपश्यना में प्रेम
लेखक : दयानंद पांडेय
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
4695 , 21 - ए , दरियागंज , नई दिल्ली - 110002
आवरण पेंटिंग : अवधेश मिश्र
हार्ड बाऊंड : 499 रुपए
पेपरबैक : 299 रुपए
पृष्ठ : 106
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