Wednesday, 13 September 2023

बीच विपश्यना में दारिया नाम की लड़की के प्रेम के दरिया में डूबा विनय

शन्नो अग्रवाल

'विपश्यना' उपन्यास के लेखक दयानंद पांडेय जी की सरस, सरल और रोचक भाषा शैली के सभी कायल हैं। वह अपने लेखन में जीवन के तमाम बिंदुओं को अपने काल्पनिक किरदारों के माध्यम से उतारने की अद्भुत क्षमता रखते हैं।

इस उपन्यास को भी उन्होंने अपनी उसी रोचक भाषा-शैली का लिबास पहनाया है। जिसे पढ़ते हुये पाठक अंत तक ऊबता नहीं। इसके कथानक में मुख्य किरदार हैं विनय बाबू जो अपने गृहस्थ जीवन से दुखी होकर कुछ दिनों के लिये मानसिक शांति की खोज में चिंतन करने एक शिविर में आते हैं। लेकिन बाद में उन्हें पता लगता है कि वह जिस तरह के आश्रम की कल्पना करके आये थे वह माहौल यहाँ नहीं है। यहाँ तो चारों तरफ हर समय मौन ही मौन पसरा था। और उनसे चिंतन नहीं हो पाता था। मौन रहना उन्हें खलने लगा क्योंकि उनके अंदर का शोर बंद होने का नाम ही नहीं ले रहा था। न जाने वह कैसा शोर था कि उसके बारे में वह खुद भी नहीं जानते थे।  

आश्रम के नियमों के अनुसार आने वाले लोगों पर शारीरिक, मानसिक हर तरह के सुखों पर प्रतिबंध थे। मनोरंजन का कोई साधन नहीं, नमकीन, मिठाई, बिस्किट आदि सभी चीजें खाना मना था। सात्विक भोजन ही खाने को मिलता था। बाहर जाने पर प्रतिबंध था और न ही आश्रम में किसी से मिल-जुल कर बतिया सकते थे। लेकिन उन्हें एक खास तरह की बेचैनी है जिसे वह खुद ही नहीं समझ पाते हैं। उनके मन में एक अजीब शोर है जिसे वह शांत करने में असमर्थ हैं। आचार्य जी से अपनी चिंता बताते हैं तो वह बस उन्हें टके सा जबाब दे देते हैं कि 'मौन साधते रहो। समय के साथ एक दिन यह शोर बंद हो जायेगा' हर बार यही जबाब देकर गुरु जी उन्हें टरका कर मौन हो जाते हैं।

खैर, उस शोर को बंद करने की जब सारी उम्मीदें टूट जाती हैं तो अचानक एक दिन उनकी तकदीर पलटा खाती है। 'बिल्ली के भाग छींका टूटा' वाली बात हो जाती है। एक दिन शिविर में ही मौन साधने के दौरान एक विदेशी लड़की से आँखें चार हो जाती हैं। 'नयन लड़ि जइहैं तो मनवा में कसक हुइवे करी'....और बस उसी पल से विनय के मन में जैसे सावन की रिमझिम होने लगती है। उनकी जिंदगी में उस मौन के पतझर में भी बहार आ जाती है। 

एक दिन बाग में घूमने के दौरान दोनों फिर टकरा जाते हैं एक दूसरे से। और बस वहीं से उनका प्रेम प्रसंग शुरू हो जाता है। सतर्कता बरतते हुये रोज ही चोरी छिपे दोनों मिलने लगते हैं। अब विनय के मन का शोर भी कम होने लगता है और मौन साधना में भी चित्त लगने लगता है। जैसे कोई चमत्कार हो गया हो। 

दारिया नाम की उस लड़की के प्रेम के दरिया में वह इतना डूब जाते हैं कि उन्हें अपना होश नहीं रहता। आगे के परिणाम के बारे में कुछ नहीं सोचना चाहते। उन दोनों के बीच भाषा थोड़ी बाधक बनती है। किंतु उस जंजीर को तोड़कर, आश्रम के  नियमों के विरुद्ध, आचार्य जी व अन्य लोगों की आँखों में धूल झोंक कर उन दोनों की वासना की पैगें बढ़ती रहती हैं। उनका मिशन सफल रहता है। और फिर एक दिन आश्रम में रहने की अवधि समाप्त होते ही सब एक दूसरे से विदा लेते हैं।

विनय के जीवन में क्या उथल-पुथल होने वाली है इस बात से वह अनजान हैं। और कुछ महीनों बाद ही उन दोनों के कर्मों का परिणाम उन्हें सुनने को मिलता है....विपश्यना। जिसने दारिया की कोख से जन्म लिया है। दारिया फोन करके विनय को बताती है कि बेटे का नाम वह विपश्यना रखने जा रही है। जिसका बीज आश्रम की विपश्यना के दौरान पड़ा था। और अब वह बच्चा उन दोनों को जीवन भर उस विपश्यना की याद दिलाता रहेगा जिसके लिये वह आश्रम गये थे। रिश्तों की यह कैसी विडंबना है? 

आश्रम जैसी जगह में आचार्य जी की नाक के नीचे दोनों इस तरह का कांड करते रहे। जैसे बिल्ली आँख मूँदकर दूध पीती रहती है कि कोई उसे देख नहीं रहा....वैसा ही उनका हाल था। विनय को इस बात का कोई अंदेशा नहीं था कि दारिया शादी-शुदा होते हुये भी सिर्फ माँ बनने के लिये उसका इस्तेमाल कर रही थी। क्योंकि उसका पति उसे माँ बनने का सुख देने में असमर्थ था। आश्चर्य तो इस बात से होता है कि वह भी उसी आश्रम में रहते हुये इन दोनों की प्रेमलीला से बेख़बर था। 

यह उपन्यास आजकल के उन लोगों की तरफ इंगित करता है जो शिविरों में अपने मन की शांति खोजने आते हैं। पर मन चंचल होने से वह आश्रम के सख्त नियमों की परवाह न करके किसी तरह सबकी आँखों में धूल झोंक कर अपनी मनमानी करने में समर्थ हो जाते हैं। इस उपन्यास का नायक विनय भी ऐसा ही है। 

उपन्यास में दयानंद जी की पैनी दृष्टि ने समाज के ऐसे ही विकृत मानसिकता के लोगों की झाँकी दिखाई है। कुछ लोग तो छुट्टी मनाने के उद्देश्य से आश्रम में दाखिल हो जाते हैं। उनका इरादा वहाँ साधना करना नहीं बल्कि आश्रम के शांत वातावरण में रहकर कुछ दिन बिताने का होता है। किसके मन में क्या है किसी को पता नहीं चलता। ऐसे लोग 'मन में राम बगल में ईंटे' लेकर आश्रम जैसी पवित्र जगह में मन की शांति ढूँढने आते हैं। लेकिन वहाँ भी वासना की भावना उनका पीछा करती रहती है। शांत वातावरण में भी उनका चित्त स्थिर नहीं रहता। 

यही बात आजकल के साधु, संतों और महंतों के बारे में भी कही जा सकती है। उनके दुराचारों की कहानियाँ भी अक्सर सुनी जाती हैं। गेरुआ वसन के पीछे की असलियत पता चलने पर भी लोगों का ऐसे लोगों के प्रति सम्मान व अंधविश्वास बना रहता है। आश्रम की दीवारें कितने भेद छिपाये हुये हैं इसका खुलासा अक्सर होता रहता है। इस तरह के साधु-संतों की ढकोसलेबाजी अब जनता जानने लगी है। 

'पर्दे में रहने दो, पर्दा न उठाओ

पर्दा जो उठ गया तो राज खुल जायेगा

अल्लाह मेरी तोबा, अल्लाह मेरी तोबा....'

लेकिन....कभी न कभी, कहीं न कहीं, कोई न कोई तो पर्दाफाश कर ही देता है। और तब उनकी अच्छी मलामत होती है।

उपन्यासकार दयानंद जी के इस निर्भीक लेखन ने आश्रमों की जो तसवीर उकेरी है उसके लिये उन्हें बहुत बधाई। शुभकामनाओं के साथ.....

[ शन्नो अग्रवाल जी , लंदन में रहती हैं। ]


विपश्यना में प्रेम उपन्यास पढ़ने के लिए इस लिंक को क्लिक कीजिए 


विपश्यना में विलाप 


समीक्ष्य पुस्तक :



विपश्यना में प्रेम 

लेखक : दयानंद पांडेय 

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन 

4695 , 21 - ए , दरियागंज , नई दिल्ली - 110002 

आवरण पेंटिंग : अवधेश मिश्र 

हार्ड बाऊंड : 499 रुपए 

पेपरबैक : 299 रुपए 

पृष्ठ : 106 

अमेज़न (भारत)
हार्डकवर : https://amzn.eu/d/g20hNDl

 

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