Sunday 2 June 2019

बांसुरी और तैराकी के वो दिन

विद्यार्थी जीवन में मैं भी बजाता था बांसुरी। पूरी तन्मयता के साथ। पूरी सरगम बजा लेना सीख लिया था । पर अब सोच भी नहीं सकता। अभ्यास ही नहीं रहा। सब कुछ ध स ध प ग रे स हो गया है। तो भी आंख मूंद कर हरिप्रसाद चौरसिया को अब भी सुनता रहता हूं जब-तब। खैर , यही हाल तैरने का है। लेकिन तैरना अभी भी आता है। चार-पांच तरह से। जैसे लोग बांसुरी में डूब जाते हैं , मैं डूब कर भी तैर लेता हूं और लेट कर भी। अब भी। कुछ समय पहले ही बनारस की गंगा में तैर कर लौटा हूं। एक समय गोरखपुर में राप्ती नदी तैर कर आर-पार कर लेता था। रोज ही। जैसे इस के बिना रह ही नहीं पाता था तब। तैराकी सांस बन गई थी। दिसंबर , जनवरी की सर्दियों में भी नदी में कूद पड़ता था । बीच नदी में नाव से झम से कूद पड़ता था। हरिद्वार में हरकी पैड़ी पर जहां से तेज़ धारा गिरती है , कूद पड़ता था उस तेज़ धारा में। लगता था कि अब मरा कि तब मरा। लेकिन लौट कर फिर कूद जाता था।

एक बार बनारस में गंगा पार करने की कोशिश की थी। तैरते-तैरते बीच नदी में हार गया था। बहने लगा तेज़ धारा में। संयोग से एक नाव के नाविक ने बचा लिया। ऐसे ही एक बार गोरखपुर की राप्ती नदी की तेज़ धार में भी बहा था। लेकिन खुद को किसी तरह बचा लिया था। लेकिन बहुत दूर तक बह गया था। एक बार तो बीच नदी में भरी नाव डूब गई थी। मैं भी इसी नाव में था। तब तैरना भी नहीं आता था। मल्लाहों ने जान पर खेल कर बचाया था। तब 11-12 बरस का रहा हूंगा। इसी के बाद तैरना सीखा। एक बार नाव से कूदने के चक्कर में एक कील अंगुली को चीर गई। लेकिन मैं बहुत गहरे पानी में डूब चुका था। लगा कि सांप ने काट लिया है। लेकिन सांप ने काटा था। किसी तरह पानी के ऊपर आया तो फिर नाविक ने नाव पर से हाथ दे कर खींच लिया। खून ही खून थी अंगुली। वहां पानी लाल हो चला।

किसी तरह नदी से लौटा अंगुली दाबे। मुहल्ले में एक कंपाऊंडर थे , जिन्हें डाक्टर कल्लन कहते थे , उन के पास गया। उन्हों ने ड्रेसिंग कर दवा दी। फिर पूछा कि कहा,कि कहां से छुरेबाजी कर के आ रहे हो। छुरेबाजी की कल्पना न तब कर सकता था ,न अब। पर डाक्टर कल्लन ने घर आ कर पिता जी को बता दिया कि छुरेबाजी कर के आया है यह । खूब पिटाई हुई। वह पिटाई अभी तक याद है। दाएं हाथ की उस अंगुली में वह चीरे का निशान भी आज तक बना है। मिटा नहीं। एक समय दौड़ कर चार , पांच फीट की दीवार कूद जाता था। अब सोच भी नहीं सकता। कोई नाली भी सोच समझ कर पार करता हूं। जिंदगी से जैसे बांसुरी ही नहीं छूटी , उस का सुर भी छूटता जा रहा है। तबला भी आजमाया था कभी । नहीं सीख पाया। बहुत कुछ नहीं सीख पाया। वह शैलेंद्र का लिखा गाना है न , सब कुछ सीखा हम ने , न सीखी होशियारी। होशियारी तो कभी सीखने की सोची भी नहीं। मीर का एक शेर है न :

अपन मस्त हो के देखा इस में मज़ा नहीं है
हुसियारी के बराबर कोई नशा नही है।

सोचिए कि मीर ने कितनी यातना के बाद यह शेर लिखा होगा। और कि अब फ़िराक की यातना देखिए :

जो कामयाब हैं दुनिया में उन की क्या कहिए
है भले आदमी की इस से बढं कर क्या तौहीन।

अब एक नज़र शमशेर की मुश्किल पर :

ऐसे-ऐसे लोग कैसे-कैसे हो गए
कैसे-कैसे लोग ऐसे-वैसे हो गए।

कुछ कहना अब भी बाकी रह गया है क्या?

2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (04-06-2019) को “प्रीत का व्याकरण” तथा “टूटते अनुबन्ध” का विमोचन" (चर्चा अंक- 3356) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. समय बदलता है और समय के साथ-साथ सब कुछ...

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