Wednesday, 7 November 2018

नदी किनारे लाखों दियों की नदी थी कि तुम थी



ग़ज़ल / दयानंद पांडेय 

पटाखे सी छूटती यह दीपावली थी कि तुम थी 
नदी किनारे लाखों दियों की नदी थी कि तुम थी 

रोशनी की नदी थी कि हमारे प्रेम की सदी 
मनुहार की नदी में नहाया मैं था कि तुम थी

डूब गया था बीच धार बच गया जाने कैसे 
लोग थे नाव थी पतवार थी कि तुम थी 

मिलना अकुलाना अकुला कर मचल जाना  
परछाई में मचलती मछली थी कि तुम थी 

जगमग प्रेम की रोशनी थी सरयू का किनारा 
नदी की धार में लचकती लहर थी कि तुम थी 

राम के स्वागत में नाचती गाती अयोध्या है 
सीता के सम्मान में डूबी रामधुन थी कि तुम थी 

अमावस थी आकाश भी ओट में चांद भी
सुबह के सूर्य में चमकती ओस थी कि तुम थी 


[ 7 नवंबर , 2018 ]


1 comment:

  1. वाह ! दीपावली के मधुरिम प्रकाश में भीगी हुई पंक्तियाँ..

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