Friday 20 April 2018

सब अयोध्या चले गये

कश्मीरी पंडितों के साथ देश और दुनिया ने अजीब रवैया अपनाया । वामपंथियों , कांग्रेसियों आदि ने उन्हें हिंदू मान कर उन्हें मरने के लिए छोड़ दिया । और हिंदुओं ने ? वह तो भाजपा के नेतृत्व में अयोध्या चले गए । कश्मीरी पंडितों के लिए नहीं । भगवान राम के लिए भी नहीं , अपने राम के राजनीतिक एजेंडे के लिए । गरज यह कि वामपंथी हों या भाजपायी या कांग्रेसी वगैरह , सब के अपने एजेंडे हैं । लेकिन कश्मीरी पंडित किसी के एजेंडे में नहीं हैं । ऐसे कि जैसे वह मनुष्य नहीं हैं । काश कि यह कश्मीरी पंडित भी दलित या मुस्लिम होते । तो इन की बात भी संयुक्त राष्ट्र तक पहुंचती । देश भर में आंदोलन होता । लेकिन कहां ? यह लोग तो कश्मीरी पंडित हैं । सो इन के पास कोई नहीं गया । यह लोग मारे जाते रहे , लूटे जाते रहे , इन के घर जलाए जाते रहे , औरतों के साथ सामूहिक बलात्कार होता रहा । लेकिन इन के पास कोई नहीं गया । कुछ लोग अयोध्या चले गए , कुछ लोग अयोध्या के ख़िलाफ़ चले गए । इन के आंसू पोछने , इन की मदद करने कोई नहीं गया । जाता भी कैसे , जाता तो वह हिंदू हो जाता । फ़िलहाल दिसंबर , 1992 में दिलीप कुमार कौल की लिखी इस कविता के ताप को महसूस कीजिए :

सब अयोध्या चले गये 

दिलीप कुमार कौल


भव्य प्राचीन मन्दिरों में
मूर्तियां टूट रही थीं
मूर्तिपूजक मारे जा रहे थे
पलायन कर रहे थे देवता
सुहागिन की मांग सी बह रही
वितस्ता के किनारों पर
विधवाओं की संख्या बढ़ रही थी
मगर वहां कोई नहीं गया
सब अयोध्या चले गये....

वितस्ता किनारे मेरा घर था
मेरी ज़मीन थी
जो स्वयं शिव पत्नी सती का अवतार थी
उस ज़मीन को शीतल करने के लिए
उन्होंने स्वयं ही
वितस्ता नदी का भी अवतार लिया था
जिसमें फेंके जा रहे थे अब
किनारों पर बने मन्दिरों की
मूर्तियों के टुकड़े
मूर्तियों को बचाने वहां कोई नहीं गया
सब अयोध्या चले गये....

जत्थे के जत्थे बढ़ते चल आए
देश के कोने कोने से
ध्वस्त हो गया विवादित ढांचा
राष्ट्रीय गर्व और राष्ट्रीय शर्म की बहसों के बीच
जो कुछ भी था
अयोध्या था
कहीं कोई स्थान नहीं था,
शहर, क़स्बा या राज्य नहीं था
हर ओर सिर्फ़ अयोध्या था
पर वहां जहां मेरी ज़मीन पर
सुहागिन की मांग सी बहती थी वितस्ता
कोई नहीं गया
सभी अयोध्या चले गये....

विश्वास नहीं होता तो पूछो
कवि अग्निशेखर से
उसके मोहल्ले सत्थू बरबरशाह में
मंदिर में आग लगाई गई
तो मैं उसके साथ था कि नहीं
पूछो?
पूछो कि हम लोग आग क्यों नहीं बुझा सके थे?
मंदिर के साथ ही मिट्टी के तेल का डीपो था
और हम असहाय हो गये थे।
जल कर राख हो गया मंदिर
पर वहां कोई नहीं गया
सब अयोध्या चले गये....

हां कवि अग्निशेखर मेरा गवाह है
कवि ही तो गवाह होता है
अंतरात्मा की नदियों का
मंदिरों का,
ध्वस्त होती मूर्तियों
देवताओं और उनके पलायन का।

ले जाता था मुझे कवि अग्निशेखर
वितस्ता के प्रवाह की विपरीत दिशा में
और जहां निर्मल से भी निर्मल जल होता था
पिलाता था हर बार
वितस्ता का अंजुलि भर जल
कि इतने से जल से ही
कट जाते हैं सभी जन्मों के पाप
और हर बार मेरे भीतर जमी नास्तिकता
धुल कर
आंखों के रास्ते बाहर आ जाती थी....

कवि अग्निशेखर!
काश तुमने पिलाया न होता मुझे
वितस्ता का जल
तो आज वह फूट कर निकलने को न होता
मेरे रोम रोम से
पारे की तरह
नहीं होती यह अमिट यातना

मैं आसानी से भूल जाता कि
सुहागिन की मांग सी बह रही
वितस्ता के किनारों पर जब
भव्य प्राचीन मन्दिरों में
मूर्तियां टूट रही थीं
मूर्तिपूजक मारे जा रहे थे
पलायन कर रहे थे देवता
तो वहां कोई नहीं गया
सब अयोध्या चले गये।

(दिसंबर , 1992)

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