क्या आज़ादी सिर्फ़ तीन थके हुए रंगों का नाम है
जिन्हें एक पहिया ढोता है
या इसका कोई खास मतलब होता है?
इसी उधेड़बुन और ऐसे ही सवालों में उलझते उलझाते दुष्यंत कुमार भी सामने आ खड़े हुए । वह कह रहे थे :
कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं
गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो
ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं
जुलूस , लाठी और नारेबाजी के दिन अंतत: बीते । तालाब का पानी भी बदल गया । कंवल के फूल अब फिर खिलने लगे । इमरजेंसी की काली रात बीत गई । चुनाव का ऐलान भी हो गया । जनता पार्टी बन गई । चुनावी रैलियां शुरु हो गईं । बड़े-बड़े नेताओं का जमघट । कभी चरण सिंह , चंद्रशेखर , हेमवती नंदन बहुगुणा , नंदिनी सतपथी , तो कभी जगजीवन राम , अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेता आए दिन शहर में आने लगे । हम उन्हें घंटों इंतजार कर के सुनते । जैसे कोई जश्न चल रहा था , शहर में भी , हमारी ज़िंदगी में भी । हमारे शहर गोरखपुर में हरिकेश प्रताप बहादुर सिंह जनता पार्टी के उम्मीदवार थे । हालां कि इस के पहले जनसंघ धड़े के हरीशचंद्र श्रीवास्तव उम्मीदवार घोषित हुए थे । लेकिन चूंकि हरिकेश बहादुर सिंह हेमवती नंदन बहुगुणा धड़े से थे , बहुगुणा के साथ ही कांग्रेस को लात मार कर जनता पार्टी में आए थे सो बहुगुणा ने वीटो लगाया । हरिकेश जी , उम्मीदवार हो गए । हरिकेश बहादुर सिंह युवा थे । उत्तर प्रदेश युवक कांग्रेस के अध्यक्ष रहे थे , बनारस हिंदू विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष रहे थे , एम टेक टापर थे । ईमानदार और सरल राजनीति के पक्षधर थे । और इस सब से बड़ी बात यह थी कि एक समय हमारे निकट पड़ोसी रहे थे । एक ही कैम्पस में हम लोग अगल बगल रहे थे । बतौर किरायेदार । बरसों । इलाहीबाग के जमींदार साहब के हाता में । ख़ूब बड़ा सा हाता । बड़ा सा मकान । हम उन्हें जब बाबू साहब कहते तो वह टोकते और नाम से पुकारने की बात कहते । हम उन्हें हरिकेश बाबू कहते । भोजपुरी ही हमारी बतियाने की भाषा थी । वह हम से आठ-दस साल बड़े थे लेकिन फिर भी हम साथ खेले थे । बतौर जूनियर गोल । वह सीनियर गोल के थे । रस्सी कूद को हम लोग तब उबहन कूद कहते । उबहन मतलब कुंए से पानी निकालने वाली रस्सी । कोई और रस्सी तब सुलभ नहीं होती थी । तो दो उबहन आपस में बांध कर लंबी रस्सी बनाई जाती । दो लोग , दोनों किनारों पर उसे पकड़ कर खड़े होते । बाक़ी लोग कूदते । जूनियर गोल के लिए अलग ऊंचाई और सीनियर गोल के लिए अलग । उन दिनों सेवन टाइम्स भी हम लोग बहुत खेलते । खपड़े के सात बराबर-बराबर टुकड़े बटोर कर ऊपर नीचे जोड़ कर सात टुकड़े खड़े किए जाते और एक निश्चित दूरी से उसे रबर की गेंद से निशाना साध कर मार गिराना होता था ।
और यह देखिए हरिकेश बहादुर उबहनकूद भी कूद गए । बहुत ऊंची कूद । गोरखपुर संसदीय सीट से जनता पार्टी के अधिकृत उम्मीदवार घोषित हो गए । हालां कि इस के पहले जनसंघ धड़े के हरीशचंद्र श्रीवास्तव को उम्मीदवार घोषित किया गया था । लेकिन हरिकेश के लिए बहुगुणा ने एड़ी चोटी एक कर दी । सो हरीशचंद्र श्रीवास्तव का टिकट रद्द कर हरिकेश का नाम घोषित किया गया । पूरे गोरखपुर में हर्ष की लहर छा गई । ख़ास कर इलाहीबाग में तो ज़बरदस्त । लगता था कि हरिकेश नहीं , इलाहीबाग ही चुनाव लड़ रहा था । लेकिन इधर हरिकेश का नाम जनता पार्टी से घोषित हुआ उधर उन के चचेरे भाई रामप्रताप बहादुर सिंह को दिल का दौरा पड़ गया । जाने यह संयोग था , बीमारी थी या हरिकेश से जलन जो भी हो कहना मुश्किल था , तब भी आज भी । लेकिन रामप्रताप बहादुर सिंह गोरखपुर शहर कांग्रेस के कई बार सचिव , मंत्री जैसे पदों पर रहे थे । कई बार विधान सभा चुनाव में टिकट के लिए भी वह जद्दोजहद कर चुके थे पर असफल रहे थे । और अब उन का छोटा चचेरा भाई जनता पार्टी का उम्मीदवार घोषित था गोरखपुर संसदीय सीट से । जनता पार्टी का टिकट मतलब सांसद होना निश्चित । जो हो रामप्रताप बहादुर सिंह के हार्ट अटैक को तब इसी तरह देखा गया था । हरिकेश बहादुर और डॉक्टरों की तमाम कोशिशों के बावजूद रामप्रताप बहादुर सिंह को आख़िर बचाया नहीं जा सका । 1977 में क्या आज भी गोरखपुर में हार्ट पेशेंट का कोई इलाज नहीं है , न कोई कायदे का डॉक्टर । तो वह बचते भी भला तो कैसे ? ले दे कर उन दिनों एक सिविल हॉस्पिटल ही था । जहां खांसी , जुकाम , फोड़ा , फुंसी से लगायत हार्ट पेशेंट सभी का आधा-अधूरा इलाज ही था , आज भी यही आलम है । खैर तब कहने वालों ने कहा भी कि भाई की लाश पर हरिकेश चुनाव लड़ रहे हैं । तब तक रामप्रताप बहादुर सिंह इलाहीबाग छोड़ कर बेतियाहाता में आवास विकास कालोनी में शिफ्ट हो चुके थे । ज़िक्र ज़रुरी है कि कभी कांग्रेसी रहे वर्तमान में भाजपा के सांसद और पूर्व मंत्री जगदंबिका पाल के सगे जीजा थे रामप्रताप बहादुर सिंह । बाद के दिनों में रामप्रताप बहादुर सिंह के इकलौते बेटे को पढ़ाने के लिए जगदंबिका पाल लखनऊ ले आए । सेंट फ्रांसिस जैसे स्कूल में नाम लिखवाया । रामप्रताप बहादुर सिंह का यह बेटा और जगदंबिका पाल का भांजा पढ़-लिख कर आई ए एस बना । पिता की असफलता को धो दिया । हरिकेश की उंगली पकड़ कर जगदंबिका पाल भी राजनीति में आ चुके थे युवक कांग्रेस में । अलग बात है अब राजनीति में हरिकेश बहादुर को लोग भूल चुके हैं , जगदंबिका पाल को ज़रुर जानते हैं । हरिकेश अभी भी कांग्रेस में सिद्धांत की राजनीति की धुन में हाशिए से भी बाहर हैं । दो बार सांसद रहने के बावजूद ।
बहरहाल , हरिकेश तब जनता पार्टी के टिकट पर सवार थे । और जनता पार्टी पूरे देश पर सवार थी । मोरार जी देसाई , चरण सिंह , चंद्रशेखर , हेमवती नंदन बहुगुणा , नंदिनी सतपथी , तो कभी जगजीवन राम , अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेताओं के भाषण सुन-सुन कर हम उत्साहित और ऊर्ज्वसित हो रहे थे । पुलिस की लाठियों के घाव को सुखा रहे थे । तब हमारे पास साईकिल भी नहीं थी सो छह सात किलोमीटर पैदल जा-जा कर भाषण सुनते फिर पैदल ही लौटते । दो-दो , तीन-तीन , चार-चार घंटे इंतज़ार भी करते खड़े-खड़े । बिना कुछ खाए-पिए । चंद्रशेखर , चरण सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी के तब के भाषणों की जो गहरी छाप मन पर पड़ी वह आज भी ताज़ादम है । बिना चीख़े-चिल्लाए जिस तरह यह लोग इमरजेंसी की ज़्यादतियों को तरतीब देते , मंत्रमुग्ध हो हम सुनते । भारी भीड़ होती । पुलिस बहुत-बहुत कम । लेकिन कहीं कोई अराजकता नहीं । कोई भगदड़ नहीं । हम जैसे युवा भी मंच से सट कर खड़े होते । तब न फ़ोटो खिंचवाने के लिए फ़ोटोग्राफ़र उपलब्ध थे , न मोबाईल था , न सेल्फी कल्चर । न नेताओं के पास सिक्योरिटी का तामझाम , न अहंकार , न दिखावा । सो कई बार तो मंच पर चढ़ कर भी इन नेताओं को करीब से देखा । चंद्रशेखर और जगजीवन राम जैसे नेताओं को मंच पर आपसी बातचीत में भोजपुरी में बतियाते देखा हरिकेश जी से । का हो ! कह कर इन से , उन से भी । इस के पहले इमरजेंसी के पहले इसी सहजता से भाषण देते और बतियाते जय प्रकाश नारायण को भी बहुत करीब से देख चुका था । लेकिन तब लोगों में गुस्सा था लेकिन सुरुर भी । और अब गुस्सा ग़ायब था , ख़ुशी तारी थी मय सुरुर के ।
भाषण सुनने के अलावा हम लोग कभी-कभी जुलूस भी निकालते , नारे लगाते । झंडा लिए , बिल्ला लगाए । जिन पर हल लिए किसान छपा होता था । जनता पार्टी का चुनाव निशान 1977 में यही था । इस के पहले के चुनाव में भी हम बच्चे थे ज़रुर लेकिन मुहल्ले के चुनाव कार्यालयों में जा कर लाईन लगा कर बिल्ले लेने का शौक था । पार्टी कोई भी हो बस उस के बिल्ले से मतलब था । बिल्लों का ख़ासा संग्रह करते थे हम मुहल्ले के बच्चे । पर अब हम बच्चे नहीं थे , किशोर थे , युवा हो रहे थे । इमरजेंसी से इंदिरा गांधी से टकराने का एक जूनून था साथ में । कह सकते हैं एक मकसद था साथ में । एक भावना थी । यह वही इंदिरा गांधी थीं जिन को हम लोग कभी सैल्यूट करते नहीं थकते थे । तब नौवीं में पढ़ते थे और पंडित रुप नारायण त्रिपाठी का लिखा गीत गाते-फिरते थे , आमार दीदी , तोमार दीदी , इंदिरा दीदी ज़िंदाबाद ! सड़कों पर विजय जुलूस निकालते थे । इंदिरा गांधी ज़िंदाबाद , मानेक शा ज़िंदाबाद के नारे लगाते थे । यह 1971 का दिसंबर था । हम एक गाना और गाते थे और झूम कर गाते थे , सोलह दिसंबर आया ले के जवानी सोलह साल की ! गो कि हम तब तेरह साल के ही थे । और सोचते थे कि जल्दी ही से सोलह के हम भी हो जाएं । और गज़ब यह कि जब सोलह के हुए तो यह ज़ज़्बा बदल रहा था । इमरजेंसी बस लगना ही चाहती ही थी । बेताब थी जैसे । जे पी आंदोलन अपने चरम पर था । कि जस्टिस जगमोहन सिनहा का फ़ैसला आ गया । राजनारायन की याचिका पर इंदिरा गांधी का रायबरेली से चुनाव अवैध घोषित हो गई थी । फ़ौरन इमरजेंसी लग गई । और हम पुलिस और पिता की लाठियां खाने लगे थे । पुलिस कहती , घर भाग जाओ ! पिता कहते थे , जुलूस में गए ही क्यों थे और जो गए ही थे तो घर क्यों आए ? अब पुलिस घर आ गई तो ? सरकारी नौकरी का डर था । कहीं नौकरी पर बन आई तो ? पिता का बड़ा ऐतराज यह भी था कि पढ़ने-लिखने की उम्र में यह सब ठीक नहीं । अभी बच्चे हो । पढ़-लिख कर जो चाहो करो । यही बात और ऐतराज वह कविता लिखने और कवि गोष्ठियों में जाने को ले कर भी करते । यह ऐतराज किसी भी पिता का हो सकता है , था । ख़ास कर पारंपरिक पिता का । लेकिन मैं तब पिता नहीं , पुत्र था । बग़ावती पुत्र ।
लेकिन अब देख रहा था कि आपातकाल हटने के बाद पिता बदल रहे थे । उन के ऐतराज अब कम होते जा रहे थे । ख़ास कर जब किसी नेता की रैली से देर में वापस आने पर । कई बार रात के दस भी बज गए लौटने में । तो भी । तो इस में एक तो इमरजेंसी के डर का समाप्त हो जाना तो था ही इस से भी बड़ा फैक्टर हरिकेश प्रताप बहादुर सिंह का इलाहीबाग में रहा होना भी था । यह हर्ष भी था । बहरहाल चुनाव का दिन आ गया । अब हम न तो तब वोटर लिस्ट में थे न बालिग़ थे । उम्र अभी उन्नीस साल की ही थी । तब इक्कीस साल पर लोग बालिग़ माने जाते थे क़ानूनी तौर पर । बालिग़ होने पर ही वोटर लिस्ट में नाम चढ़ता था । तो क्या करते ? जो करना था , कर चुके थे । लेकिन सुबह के नौ बजे तक एक काम मिल गया । एक रिक्शा दिया गया । जनता पार्टी का झंडा लगा हुआ । मुहल्ले के फला-फला को बारी-बारी पोलिंग बूथ से रिक्शे पर बिठा कर लिवा लाने के लिए । उन दिनों रिक्शे की सवारी भी रौब की सवारी मानी जाती थी । सीना तान कर रिक्शे पर बैठ कर निकल पड़ा । मुहल्ले के और भी कुछ लड़कों को यह काम सौंपा गया । कुछ लोग मिले , कुछ लोगों के घर पर ताला लगा था । वह लोग अपने-अपने गांव जा चुके थे । कोई वोट डालने , कोई छुट्टी मनाने । अब यह एक काम और मिला कि किस-किस घर में ताला लगा है , उस की लिस्ट बनाने का । रिक्शा की शाही सवारी साथ थी ही । अब मुहल्ले से दस प्रतिशत से ज़्यादा मतदाता नदारद थे । अब सोचना शुरु किया गया कि इन के वोट भी बरबाद होने से कैसे रोका जाए । तय हुआ कि जो लोग वोटर लिस्ट में नहीं हैं , उन से इन नदारद लोगों के वोट डलवा दिया जाए । कुछ लोग तैयार हुए । वोट डाले भी इक्का-दुक्का लोगों ने । लेकिन ज़्यादातर लोग तैयार नहीं हुए । यह सरकारी नौकरियों में बाबू लोग थे । डरपोक लोग थे । नैतिकता और शुचिता वाले लोग भी थे । यह लोग किसी भी किस्म का रिस्क लेने को राजी नहीं थे । फिर तय हुआ कि बालिग़ होने की राह पर खड़े हम जैसे नौजवानों का उपयोग किया जाए । और हम नौजवान कैसा भी कोई भी रिश्क लेने को तैयार थे । लिया भी । ढेरों फर्जी वोट तो अकेले मैं ने ही डाले । कोई बीस वोट । सत्रह बरस का हो कर भी । पचास-पचपन बरस के लोगों के वोट । पोलिंग बूथ पर बैठे कांग्रेस के लोगों ने भी एक पैसे का ऐतराज नहीं किया । न वहां तैनात सरकारी बाबूओं ने । बस किसी के नाम की परची हाथ में होनी चाहिए । और अंगुली पर स्याही का निशान नहीं होना चाहिए था । स्याही हम बैलेट पेपर पाते ही मिटा देते थे। तब के दिनों वोटर आई डी नहीं थी । न किसी पहचान पात्र की दरकार थी । चुनाव आयोग भी तब सख़्त नहीं था । बाबू लोग पहचान भी लेते एकाध बार और हंसते हुए पूछते , अरे , तुम फिर आ गए ? अच्छा चलो , बस मुहर मारने में गलती मत करना । उन का इशारा होता कि हल लिए किसान पर ही वोट करना । मैं ने देखा कि सरकारी बाबू लोग इमरजेंसी से उतना नाराज नहीं थे , जितना नसबंदी और नसबंदी के टारगेट से नाराज थे । वह लोग खुल कर कहते कि बहुत कटवाई है संजय गांधी ने , सो अब इस की काट देना बहुत ज़रुरी है । वह लंबी-लंबी लाइनें मुझे अभी तक याद हैं । सुबह से शाम हो गई थी , लाइन नहीं खत्म हो रही थी । कोई थक नहीं रहा था । हर कोई उत्साह और उत्सव से भरा हुआ । मैं ने बहुत से चुनाव देखे हैं पर वैसा उत्सव जैसा चुनाव फिर कभी नहीं देखा । जश्ने चुनाव ही था वह । वैसी ख़ुशी , वैसी खनक और वैसी चहक किसी और चुनाव में फिर नहीं देखा । फर्जी वोट भी डाल रहे हैं , बार-बार डाल रहे हैं और पूरी ठसक से डाल रहे हैं । गरज यह कि चोरी भी पूरी सीनाजोरी से कर रहे हैं । क्या तो यह आपद धर्म है । ऐसा तो न भूतो , न भविष्यति !
हालां कि अब जब पीछे मुड़ कर देखता हूं तो अपनी उस फर्जी वोटिंग को सोच कर शर्म से गड़ जाता हूं । एक गहरे अपराधबोध से घिर जाता हूं । मैं ने जीवन में और भी कई गलतियां की हैं । लेकिन यह तो लोकतंत्र के नाम पर पाप किया है । भले तब उम्र कम थी , समझ विकसित नहीं थी लेकिन इस बिना पर मैं अपने को माफ़ नहीं कर पाता । कभी नहीं कर पाऊंगा । बाद में तो सभी जानते हैं , हमारे हरिकेश प्रताप बहादुर सिंह भारी मतों से जीत गए थे । शेष कांग्रेस सहित सभी प्रत्याशियों की ज़मानत ज़ब्त हो गई थी । कांग्रेस गोरखपुर से ही नहीं , पूरे देश से लगभग साफ हो गई थी । यह बात तो सभी लोग जानते हैं । लेकिन कांग्रेस को इस तरह साफ करने में नाबालिग होते हुए भी फर्जी वोट डालने वालों में एक अपराधी मैं भी था यह बात कम लोग जानते हैं । लेकिन जो होना था , हो चुका था । एक अख़बार में तब एक फ़ोटो छपी थी जिस में एक सफाई कर्मी झाड़ू लगा रहा है और इंदिरा गांधी की फ़ोटो वाला एक पोस्टर कूड़े में जा रहा था । यह रघु राय की खिंची हुई फ़ोटो थी ।
लेकिन इंदिरा गांधी कूड़े में सचमुच नहीं गईं । किसी पोस्टर के कूड़े में चले जाने से कोई कूड़े में नहीं चला जाता। यह इंदिरा गांधी ने अपनी दुबारा वापसी से साबित किया था । रघु राय की उस फ़ोटो का सच बदल गया था । या यह कहिए कि जनता पार्टी की आपसी कलह ने इंदिरा गांधी को सत्ता में वापसी करवा दी थी । ढाई साल में ही । लोहिया के कहे मुताबिक जनता ने तब पांच साल इंतज़ार नहीं किया था । हां एक बात ज़रुर यह कहना चाहूंगा कि हरिकेश प्रताप बहादुर सिंह जैसा विनयशील , विवेकवान , ईमानदार , सादगी पसंद , योग्य और शालीन सांसद गोरखपुर को फिर दुबारा नहीं मिला । अब आगे भी क्या मिलेगा । उन के जैसा पार्लियामेंटेरियन भी नहीं । संसद की बहसों में वह युवा होते हुए भी एक मानक थे । दिखावा , अहंकार और हिप्पोक्रेसी से वह बहुत दूर रहते रहे । वह बिना किसी तामझाम के अकेले रिक्शे से भी शहर में निकल लेते थे । एक बार तो वह दिल्ली से आए । गोरखपुर स्टेशन पर उतरे । ट्रेन बिफोर टाइम थी । कोई उन्हें रिसीव करने वाला भी नहीं था । वह चुपचाप रिक्शा पकड़ कर घर चले गए । उन की पार्टी के लोग आए तो वह नहीं मिले तो लोग घबराए । पर घर जाने पर वह मिल गए । 23 मीना बाग़ , नई दिल्ली में वह बतौर सांसद रहते थे। संसद जाने के लिए भी वह संसद ले जाने वाली बस का उपयोग करते थे । हरिकेश जी की ऐसी तमाम कहानियां हैं । मेरा एक उपन्यास है वे जो हारे हुए । 2011 में छपा था । इस में हरिकेश जी भी एक पात्र के रुप में उपस्थित हैं और विस्तार से । प्रभात ख़बर के प्रधान संपादक रहे और अब राज्य सभा के सदस्य हरिवंश , [ अब राज्यसभा के उपसभापति ] ने जब यह उपन्यास पढ़ा तो मुझ से फ़ोन कर के पूछा कि यह चरित्र कहीं हरिकेश बहादुर तो नहीं हैं ? मैं ने पूछा कि आप ने कैसे जान लिया तो वह बताने लगे कि उस वक़्त बी एच यू में मैं भी पढ़ता था । देखा है इसी तरह उन्हें । फिर वह बताने लगे कि कैसे कांग्रेस में झारखंड का जो प्रभारी होता है , वह भी करोड़ो-अरबो रुपए कुछ ही दिन में कमा लेता है लेकिन हरिकेश भी प्रभारी रहे और तब कांग्रेस की सरकार थी यहां लेकिन एक पैसा नहीं छुआ उन्हों ने । यह आसान बात नहीं है । सोचिए कि हरिकेश एक समय उत्तर प्रदेश कांग्रेस में प्रदेश उपाध्यक्ष थे । प्रदेश कार्यालय में किसी महिला से दुराचार की ख़बर अख़बारों में छपी । बाहरी लोग पकड़े गए । पर हरिकेश बहादुर सिंह ने तब उपाध्यक्ष पद से नैतिक आधार पर इस्तीफ़ा दे दिया । तब जब कि उस समय वह लखनऊ नहीं , दिल्ली में थे । आज की तारीख़ में ऐसे राजनीतिज्ञ तो सपना ही हैं ।
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 17.11.2016 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2529 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
सार्थक प्रस्तुति....
ReplyDeleteदयानंद पांडेय जी को जन्मदिन की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनाएं
दयानन्द जी
ReplyDeleteआपको जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं
ईश्वर की कृपा से आप सदैव स्वस्थ रहें
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