Friday 26 July 2013

मम अरण्य : राम कथा का अमृत-पान तो है ही भाषा का अमृत-पान भी है

- दयानंद पांडेय

हर किसी का अपना अरण्य होता है। सुधाकर अदीब का भी अपना अरण्य है। फ़र्क बस इतना है कि उन्हों ने अपना अरण्य लक्ष्मण बन कर रचा है। और सच यह भी यही है कि लक्ष्मण से ज़्यादा अरण्य जानता भी कौन है? राम भी नहीं। असली वनवासी तो लक्ष्मण ही थे। लेकिन लक्ष्मण भी यहां राम कथा ही कह रहे हैं। बिलकुल नए अंदाज़ और नए अर्थ में। राम कथा बहुतों ने कही है लेकिन सुधाकर अदीब जो लक्ष्मण बन कर मम अरण्य में जिस तरह कहते हैं किसी ने नहीं कही। लगता ही नहीं कि हम राम कथा पढ़ रहे हैं। लगता है जैसे सब कुछ हमारी आंखों के सामने ही घट रहा है। दृष्य दर दृष्य। ऐसे जैसे सिनेमा की कोई रील चल रही हो। कथा भले जानी पहचानी है पर उसे पढ़ने का चाव कम इस लिए नहीं होता क्यों कि इस में सुधाकर अदीब ने लक्ष्मण का राम के प्रति आदर का वह पाग मिला दिया है और साथ ही राम का लक्ष्मण के प्रति स्नेह का बंधन सहेज दिया है और इस तरह उसे परोस दिया है कि यह कथा अनूठी हो जाती है। इतना ही नहीं लक्ष्मण की ही तरह हनुमान को भी राम के अनुज की तरह लक्ष्मण के सखा की तरह पेश कर सुधाकर अदीब राम कथा का जो अमृत बरसाते हैं वह मन में अमृत ही की तरह संचित होता जाता है।

सुधाकर अदीब का मम अरण्य पढ़ते हुए कई बार त्रिलोचन की एक बात रह-रह कर याद आती रही। त्रिलोचन एक जगह लिखते हैं कि यदि तुम एक आम के वृक्ष को देख रहे हो तो उसे बहुत ध्यान से देखो। इसे कालिदास ने भी देखा, निराला ने भी। अब तुम्हारी बारी है। तुम इसे देखते रहो जब तक तुम्हें यह विश्वास न हो जाए कि तुम ने इस में ऐसा कुछ देख लिया जो पहले कोई और नहीं देख पाया। इस के बाद ही तुम्हें उस पर लिखने का अधिकार है। सचमुच सुधाकर अदीब ने त्रिलोचन के इस कहे की कसौटी पर आ कर ही राम कथा को मम अरण्य में बांचा है। बिलकुल तन्मय हो कर। ऐसे जैसे चैतन्य कृष्ण को गा रहे हों। सुधाकर अदीब के इस कथा-अमृत में मीरा का भाव भी पुलकित होता है और तुलसी का वह अनूठा चाव भी अब लौ नसानी अब ना नसैहों ! तुलसी की तपस्या भी आलोड़ित दिखती है बारंबार मम अरण्य में। तुलसी का विनय भी सुधाकर के सौमित्र में वास करते-करते अनायास ही उन की भाषा में भी सुगठित हो कर सुगंध की तरह मन हुलसित करता मिलता है। एक जगह वर्णन देखें:

'श्रीराम अपना लंबा धनुष संभालते हुए उसी शिलाखंड पर बैठ गए। उन्हों ने अपना तरकश उतार कर कुछ देर को उसी शिलाखंड पर अपने बराबर में रख लिया। वह सामने गिरते निर्झर की सुषमा को अनिमेष निहारने लगे। उधर वह प्राकृतिक सौंदर्य। उस पर इधर से टिके हुए दो कमलनयन। हनुमान मेरे साथ श्रीराम की अदभुत मुखछवि का रसपान करने लगे। मेरे भइया थे ही ऐसे कि कोई भी उन के श्याम सुंदर मुख की भव्यता पर मुग्ध हो जाए।'

कई बार तो लगता है वीरवर लक्ष्मण सु्धाकर अदीब की कलम खुद ही आ कर समा गए है। जो भी कुछ हम पढ़ रहे हैं वह सुधाकर अदीब लिख नहीं रहे हैं बल्कि लक्ष्मण ही उसे नैरेट कर रहे हैं। किसी कमेंटेटर की तरह। वैसे भी लक्ष्मण पर लिखने वालों की नज़र कम ही गई है। इस लिए भी कि लक्ष्मण को लिखना आसान नहीं है। लक्ष्मण आसान चरित्र हैं भी नहीं। राम पर लिखना आसान है। सीता पर लिखना आसान है। पर लक्ष्मण और उर्मिला पर लिखना आसान नहीं है। हजारी प्रसाद द्विवेदी एक जगह लिखते हैं कि लक्ष्मण हमारे साहित्य में सेवा और त्याग के आदर्श हैं। उन की बुद्धि सहज और दृष्टि ल्क्ष्य भेदिनी है। वीरता, साहस और कभी-कभी अधीरता की सीमा तक पहुंछ जाने वाली निर्भीकता उन के चरित्र में पाई जाती है। परंपरा से वे लोक हृदय में अपनी अकुंठ सेवा, अकातर त्याग, अदृष्टपूर्ण ब्रह्मचर्य और अकुलांभय वीरता के प्रतीक रहे हैं। संयोग से यह जितने भी गुण हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लक्ष्मण के बताए हैं सुधाकर अदीब के मम अरण्य के लक्ष्मण में यह सारे रंग मम अरण्य में यत्र-तत्र ऐसे उपस्थित हैं। एक बानगी देखें :

एक बेचैनी-सी मेरे मन में उसी क्षण घर कर गई थी। नीति-अनीति के द्वंद्व में जनहित के प्रसंगों को भी नहीं घसीटा जाना चाहिए। ये सारा ज्ञान, ये सारा प्रशिक्षण, यह सारा दायित्व आखिर हमारे किस काम का? यदि समय पर हम उस का उपयोग न कर सकें। दूसरों के संसार को उजाड़ कर अपनी उदरपूर्ति का अधिकार किसी को नहीं है। सही मानें तो यही नीति है। और उस नीति की सही शिक्षा यह कि ऐसे घोर आत्मकेंद्रित और असामाजिक प्राणी को जितने शीघ्र दंड दिया जा सके, वही सर्वहितकारी है।

मम अरण्य न सिर्फ़ राम कथा के रुप में हमारे सम्मुख उपस्थित है बल्कि नीति-अनीति और राजनीति, सुशासन की सुसंगत पहल के रुप में भी उपस्थित है। लक्ष्मण चिंतित हैं ताड़का वध के लिए और वही सोच रहे हैं । अपने ही से तर्क-वितर्क करते हुए। मम अरण्य की एक बड़ी खासियत इस की सरल और मोहित करने वाली भाषा तो है ही, कई उप-शीर्षकों में बंटी इस की सहजता भी है। जो कथा में न सिर्फ़ मिश्री घोलती है वरन पाठक में निरंतर पढ़ते रहने का चाव और और विश्राम भी देती है। एक निरंतर ललक जगाए रहते हैं इस मम अरण्य के उप शीर्षक। मैं अनुयायी अग्रज से लगायत मेरी माटी मेरा चंदन तक। धन्य हुआ मैं परिचय पा कर, होगा अब अभियान भयंकर, अग्नि परीक्षा क्यों दें माता जैसे उप-शीर्षक मन में उत्सुकता की घंटी बजाते ही रहते हैं। कौन अहेरी आया है यह, यह मेरी रक्षा रेखा है, क्या तुमने मां को देखा है जैसे उप-शीर्षक से कब कौन सी कथा पढ़नी है का भान भी कराते चलते हैं।

हालां कि समूची कथा लक्ष्मण के एक संवाद में क्यों कि मै अनुज हू। अपने अग्रज की छाया हूं। में ही पगी पड़ी है। क्यों कि यह कथा लक्ष्मण के बहाने राम ही की है, राक्षसों के नाश की है, अनीति पर नीति के विजय की है लेकिन जो भी है अग्रज की छाया ही तले है। जैसे कोई भोजन आग में पके वैसे ही यह कथा भी अग्रज की छाया में ही पकी हुई है। सुधाकर अदीब ने कैसे लक्ष्मण बन कर इस कथा को पकाया है, अग्रज की छाया में, इस की अनुभूति इस कथा का स्वाद लिए बिना जानना मुश्किल है।

हनुमान जी राम जी के चरणों के निकट दूब घास की प्राकृतिक बिछावन पर बैठ गए। मैं भी वज्रासन में उन के निकट अपना धनुष धरती पर रख कर बैठ गया। किंतु मेरा बाणों से बोझिल तरकश मेरे कांधे पर ही टिका रहा।

ऐसी मनोहारी भाषा ही असल में मम अरण्य की थाती है। लेकिन राम की छाया लक्ष्मण कहीं-कहीं जब राम भी अनीति करते हैं तब चीत्कार उठती है। प्रसंग सीता की अग्नि-परीक्षा का है:

मेरा मन भी अब भीतर से हाहाकार कर उठा। पहली बार मुझे मेरे राम भइया आज एक विरुप खलनायक-से दिखे। उन का ऐसा व्यवहार भाभी मां के प्रति लंकाभियान की सफलता के पश्चात मैं देखूंगा इस की मैंने कभी स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी। जो व्यक्ति गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या के उद्धार के समय इतना उदार था आज अपनी स्वयं की पत्नी के विपत्तिमोचन के समय एकाएक इतना निष्ठुर और इतनी गर्हित सोच वाला कैसे हो गया?

हालां कि कहीं-कहीं कथा में गति देने और उस को लालित्य देने के लिए सुधाकर अदीब पद्य का भी सहारा लेते हैं। लेकिन सच यह है कि समूचा मम अरण्य ही पद्यात्मक है। उन के गद्य में भी पद्य का निरंतर वास मिलता है। मम अरण्य को पढ़ना इसी लिए राम कथा का अमृत-पान तो है ही भाषा का अमृत-पान भी है। ज्यों सोने पर सुहागा शायद इसी को कहते हैं।

समीक्ष्य पुस्तक: मम अरण्य
उपन्यासकार- सुधाकर अदीब
प्रकाशक- लोकभारती प्रकाशनपहली मंज़िल, दरबारी बिल्डिंग, महात्मा गांधी मार्ग, इलाहाबाद
मूल्य-४२५ रुपए
पृष्ठ- ३५६


1 comment:

  1. आपकी समीक्षा पढ़कर पढ़ने की उत्सुकता जगी।...आभार।

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