Friday 8 March 2013

यह उपन्यास पुरुष-प्रधान समाज को एक धक्का है


अनिता गौतम

“पति छोड़ दूंगी पर नौकरी नहीं…” यूं तो पूरा उपन्यास इन चंद शब्दों में ही सिमटा है। नारी की बेचारगी की दास्तां अगर बखान की जाए तो यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि स्त्री की आर्थिक आज़ादी में ही उस की अपनी आज़ादी है। पुरूष पर निर्भरता उस की गुलामी की दास्तान है। भौतिक ज़रूरतें हर किसी की समान होती हैं। और इस के लिए अर्थ ही सहारा बनता। इस पर पुरूष वर्ग का एकाधिपत्य तो नहीं पर सामाजिक व्यवस्था का ताना-बाना कुछ ऐसा है कि नारी और पुरूष के बीच की खाई पटने का नाम नहीं लेती।

मध्य वर्ग , नारी, कस्बा, शिक्षा और गांव इन बिंदुओ पर घूमता दयानंद पांडेय का उपन्यास ‘बांसगाव की मुनमुन’ सामाजिक परिवर्तन की एक व्यवहारिक तस्वीर है। एक पारिवारिक आधार ले कर शुरु होने वाली इस उपन्यास की कहानी पेशे से वकील मुनक्का राय के चार बेटों और तीन बेटियों की ज़िम्मेदारी से बढ़ती हुई पट्टीदार गिरधारी राय के वैमनस्य और प्रतियोगिता की राह पकड़ती है, जो उपन्यास को बहुत ही रोचक बनाता है। गिरधारी राय और मुनक्का की पारिवारिक पृष्टभूमि दिखाते हुए लेखक ने वकालत की दुनिया को भी बड़े ही ज़मीनी तरीके से चित्रित किया है।

इस उपन्यास को रचने में लेखक का व्यवहार-परक दृष्टि बना रहता है। अपने तहसील में वकालत के उतार – चढ़ाव को झेलते हुए मुनक्का बाबू एक पिता के रुप में बहुत ही समर्पित दिखते हैं। लेकिन उन का बड़ा बेटा रमेश उन की गिरधारी राय से प्रतिस्पर्धा के कारण अनचाहे वकालत की दुनिया में खीच लिया जाता है, जो इस पेशे में रम नहीं पाता। एक प्रतिभा वकालती तिकड़म में घुट रही होती है। सामाजिक तिरस्कार और पैसों के अभाव के साथ आगे बढ़ते हुए रमेश के जज बनने की कहानी रोमांचित करती है। इसी तरह उन का एक बेटा सिविल सेवा में चयनित होता है तथा एक बेटे की नौकरी बैंक ऑफिसर के रुप में होती है। एक बेटा एन आर आई हो जाता है। शिक्षा के दम पर उन के बेटों का व्यवस्था में ऊंचा स्थान पाना मघ्यवर्ग की शक्ति का अहसास दिलाता है, वहीं इस वर्ग के मूल्यों को बिखरते हुए भी दिखाया गया है। पद और पैसों के साथ जुड़ कर मुनक्का बाबू के बेटे अपनी दुनिया में माता – पिता और घर को भूल जाते हैं। अपनी छोटी बहन मुनमुन की शादी को एक खानापूर्ति बना देते हैं। सहयोग और जुड़ाव का अंत हो जाता है।

अब मुनक्का राय की बेटी मुनमुन उपन्यास का केंद बनने की ओर कदम बढ़ाती है। अपने अंदाज़ में चहकने वाली मुनमुन गलत हाथ में ब्याह दी जाती है। फिर सामाजिक तानेबाने और पारिवारक तनाव के बीच वह अपनी पहचान बनाती है। यह उपन्यास पुरुष-प्रधान समाज को एक धक्का है। बड़े ओहदों पर बैठे बेटों के होते हुए मुनक्का राय का सहारा बन कर मुनमुन ही उन के साथ खड़ी होती है। अपने पियक्कड़ और आवारा पति की पिटाई करते हुए स्त्री – जाति के बिद्रोह का बिगुल फूंकती है और सामाजिक संस्कार और मान्यता के नाम पर होने वाले शोषण का अंत करती है। साथ ही वह दूसरी औरतों के मदद करने के जज्बे के साथ सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई में भी आगे आती है।

स्वच्छंदता , आवारागर्दी और चरित्रहीनता के नाम पर भी मुनमुन को दबाने की कोशिश की जाती है, जिस के स्वर समाज में ही नहीं अपने घर में भी उठते हैं। लेखक वर्तमान परिवेश में शारीरिक संबंध को एक गौण मुद्दा बनाते हुए मुनमुन की शिक्षा और सुलझे दिमाग की विजय का चित्र प्रस्तुत करता है। अपने भाइयों तक से वैमनस्य ले कर मुनमुन पी.सी.एस. में सेलेक्ट हो कर एस.डी.एम. बनती है और अपने भाइयों की बराबरी में खड़ी होती है। और इस प्रकार आखिरी संदेश भी स्त्री के लिए यही आता कि आर्थिक निर्भरता ही किसी को उस की गुलामी से निजात दिला सकती और सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए भी शिक्षा के दम पर ही समाज में अपने आप को स्थापित किया जा सकता है। इस प्रकार पूरे घटनाक्रम के बाद एक सुखद अंत ले कर मुनमुन की कहानी समाप्ति तक आती है।

लेखक की भाषा सरल और सहज है जो छोटे – छोटे वाक्यों से कहानी को बांधती है। कहानी और उस के पात्रों के विश्लेषण की रोचकता पूरे उपन्यास में बनी हई है। कस्बा और ग्रामीण परिवेश को उकेरने में लेखक पूरी तरह सफल रहे हैं। अपनी कुछ कुछ छोटी-छोटी घटनाओं के अतिश्योक्ति पूर्ण विश्लेषण के बावजूद यह उपन्यास इस युग के बढ़ते और बदलते दौर का स्मृति-चिन्ह है।

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समीक्ष्य पुस्तक:

बांसगांव की मुनमुन
पृष्ठ सं.176
मूल्य-300 रुपए

प्रकाशक
संस्कृति साहित्य
30/35-ए,शाप न.2, गली नंबर- 9, विश्वास नगर
दिल्ली- 110032
प्रकाशन वर्ष-2012

1 comment:

  1. "शिक्षा और सुलझे दिमाग की" सफलता का चित्रांकन ही उपन्यास की महत्ता को दर्शाने हेतु पर्याप्त है।

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