Saturday 2 March 2013

बालेश्वर : जेहन में कबीर, जीवन में आर्केस्ट्रा


दयानंद पांडेय 


जैसे कोई मीठी और नरम ईख हो, जिसे छीलते ही पोर-पोर खुल जाए। बालेश्वर की गायकी की मिठास कुछ-कुछ क्या बिलकुल वैसी ही है। तिस पर कंहरवा धुन। सोने पर सुहागा हो जाता है। वह जब गाते हैं- ‘समधिनियां क पेट जैसे इंडिया क गेट’ या फिर ‘मोर पिया एम.पी. ए.एल.ए से बड़का, दिल्ली-लखनऊवा में वोही क डंका, अरे वोट में बदलि देला वोटर क बक्सा’ या फिर, ‘दुश्मन मिले सबेरे लेकिन मतलबी यार न मिले। हिटलरशाही मिले पर मिली जुली सरकार न मिले, मरदा एक ही मिले हिजड़ा कई हज़ार न मिले। या फिर ‘पूजा करे मंदिर में और ध्यान लगावे जूता का।’ और एक बार तो एक शादी में जयमाल के समय बालेश्वर गाने लगे, केकरे गले में डारूं हार, सिया बउरहिया बनिके’, तो दुल्हन उन की गायकी में ऐसे डूब गई कि जयमाल लिए-लिए ठिठक कर खड़ी हो गई। सखियों ने कोंच कर टोका तो वह दूल्हे की तरफ आगे बढ़ी। तो यह बालेश्वर की गायकी की गमक थी और कुछ और नहीं।

दरअसल भोजपुरी गायकी  में जीते जी किंवदंती बन चले  बालेश्वर अपनी उम्र के सतहत्तर वसंत देख चुकने के बावजूद आज भी उतने ही सक्रिय हैं, जितने जवानी में वह थे। वाद-विवाद उन के पीछे तब भी थे और आज भी हैं। फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि आज उन के साथ एक अंतर्विरोध भी नत्थी हो गया है। उन की सोच, उन की विचारधारा, गायकी और उन की दृष्टि उन्हें कबीर की ओर ले जाती है। पर दिक्कत यह है कि वह जीते कबीर में हैं और गाते आर्केस्ट्रा में हैं। गाते भी क्या हैं- उन के गानों पर लड़कियां नाचती हैं। बालेश्वर से जब बात चली तो उन्हों ने अपना अंतर्विरोध खुद भी स्वीकार किया। कहने लगे, ‘छट्ठी-बरही, शादी-ब्याह, मुंडन जैसे कार्यक्रमों से तो ज़िंदगी कट नहीं सकती। गु्ज़ारा नहीं हो सकता। मैं किसी तरह अपना गुज़ारा चला भी लूं। पर हमारे साथी कलाकारों का काम कैसे चलेगा? यही सब सोच कर ऐसे कार्यक्रमों में जाना पड़ता है। लाचारी है।’

‘आप के कई गानों मे खास कर सामाजिक सरोकार वाले गानों में कबीर की गूंज सुनाई देती है। ऐसा कैसे है?’ पूछने पर बालेश्वर कहते हैं कि, ‘असल में आज समाज को एक कबीर चाहिए ही। पर अब मैं कबीर तो हो नहीं सकता, पर उन को सोच तो सकता ही हूं।’ बीते दिनों रायबरेली में हुए संसदीय उप चुनाव में सोनिया गांधी की जन सभाओं में कार्यक्रम पेश कर के बालेस्वर सुर्खियों में आ गए थे। खास कर इलेक्ट्रानिक चैनलों पर। कहा गया कि सोनिया गांधी भीड़ बटोरने के लिए नाच-गाने का सहारा ले रही हैं। और बालेश्वर भी उन की सभाओं में गाते फिरते, ‘हमहूं कांग्रेसी हो गइलीं, ए ललमुनिया की।’ यह और ऐसे कई गानों की ऑडियो सी.डी. और कैसेट भी रायबरेली में बजते मिले। बालेश्वर इस से पहले समाजवादी पार्टी और बाद में भारतीय जनता पार्टी के लिए भी गा चुके हैं। सच यह भी है कि बालेश्वर सब से पहले कम्युनिस्ट पार्टी के लिए गाते थे। यह पूछने पर कि, ‘आप कम्युनिस्ट पार्टी के लिए गाते-गाते अचानक सपा, भाजपा, कांग्रेस के लिए गाने लगे? बालेश्वर बोले, ‘मैं जनता का आदमी हूं। और अब जब कम्युनिस्ट ही कम्युनिस्ट नहीं रह गए तो मैं गाय की तरह उस खंभे से कैसे बंधा रहता? और जब छट्ठी-बरही, शादी ब्याह में गा सकता हूं तो सपा, भाजपा और कांग्रेस के लिए गाने में क्या रखा है? हम को तो जो बुलाएगा, जहां बुलाएगा जाऊंगा और गाऊंगा। मज़दूर आदमी हूं। मज़दूरी करनी है। गुज़ारा चलाना है।’

दरअसल बालेश्वर की गायकी  की शुरुआत राजनीति से ही हुई। कम्युनिस्ट पार्टी के विधायक झारखंडे राय अपनी चुनावी सभाओं में बालेश्वर से गाना गवाते थे। चुनावी दिनों में जीप में बैठ कर माइक ले कर बालेश्वर गाते घूमते थे। तब वह युवा थे। बाद के दिनों में झारखंडे राय ही उन्हें लखनऊ लिवा लाए। अब बालेश्वर के आगे संघर्ष की एक लंबी राह खड़ी थी। और सफलता उन की बाट जोह रही थी। लखनऊ में बालेश्वर ने मिट्टी ढोने से ले कर कप-प्लेट धोने तक के काम किए। वह कहते हैं, ‘मेहनत मजूरी से अपना पेट पालता था और अपनी गायकी को जिलाए रखता था। अब तो सपा, भाजपा, कांग्रेस सभी हमको बुलाते हैं। पर पर तब लखनऊ में कोई भोजपुरी गाना सुनने को तैयार नहीं था। यही आकाशवाणी वाले फेल कर दिए। कइयों बार। सच भी यही है कि अवध की धरती पर बालेश्वर ने भोजपुरी का जो झंडा गाड़ा है, वह अकथनीय है। आज लखनऊ में भोजपुरी गाने वालों के पचास से अधिक ग्रुप हैं तो इस का श्रेय सिर्फ़ और सिर्फ़ बालेश्वर को जाता है। अधिकांश कलाकार बालेश्वर के शिष्य हैं। इन में बहुत सारे कलाकार तो बालेश्वर के ही गाए गाने जगह-जगह गाते मिल जाते हैं। बिलकुल उन्हीं की धुन, उन्हीं के सुर में। लेकिन यह कलाकार बालेश्वर की गायकी को छू तक नहीं पाते। फिर भी अवधी के गढ़ में भोजपुरी फूल-फल रही है तो यह बड़ी बात है। आसान नहीं है कि लाल जी टंडन जैसे नेताओं को भी चुनाव में बालेश्वर के भोजपुरी गानों में गाए गानों के कैसेट चाहिए होते हैं।

यस इंडियन

बालेश्वर की स्थिति यह है कि आसाम, बिहार, बंगाल, पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र जैसे प्रदेशों से लगायत हालैंड, मारीशस और सूरीनाम जैसे देशों में भी लगातार उन के कार्यक्रम होते रहते हैं। जब भारत महोत्सव मनाया जा रहा था तो तत्कालीन राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा के साथ अमरीकी देशों के दौरे को बालेश्वर अपनी उपलब्धि मानते हैं। अस्सी के दशक से शुरु हुई विदेश यात्राएं अभी भी जारी हैं। ज़िक्र ज़रूरी है कि बालेश्वर अपने गाने भले ही खुद लिखते हैं। पर वह कुछ खास पढ़े लिखे नहीं हैं। यह पूछने पर कि विदेशी दौरों में उन्हें कोई दिक्कत नहीं होती? ‘दिक्कत? अरे बहुत दिक्कत होती है।’ वह बताने लगे कि, ‘धरती से ऊपर (जहाज में) सिर्फ़ दो ही चीज़ चलती है। एक अंगरेजी और दूसरा डालर।’

‘अंगरेजी आप जानते नहीं तो कैसे काम चलता है?’ अपने होठों पर उंगली रखते हुए चुप रहने का संकेत देते हुए कहते हैं कि, ‘चुप रहता हूं। बिलकुल चुप!’

’और डालर?’

’डालर रख लेता हूं। पर जब पहली बार हालैंड जा रहा था तो बड़ा गड़बड़ हो गया। हालैंड में आयोजक के एजेंट ने दिल्ली में जहाज पर बैठा दिया और बताया कि हालैंड एयर पोर्ट पर आयोजक लेने आएंगे। और डालर वगैरह कुछ दिया नहीं। गड़बड़ यह हुई कि रास्ते में जहाज या कि मौसम खराब हो गया। जहाज रूस में उतार दिया गया। दो दिन हम रूस में पड़े रहे। न अंगरेजी आती थी न डालर था। बड़ी परेशानी हुई। यह सोच-सोच कर परेशान था कि अब हवाई जहाज लेट हो गया है। आयोजक पता नहीं एयरपोर्ट पर मिलेगा कि नहीं मिलेगा। नहीं मिलेगा तो क्या करूंगा। आयोजक का पता ठिकाना भी नहीं मालूम था। फिर एक आदमी वहां हिंदी जानने वाला मिला। उसने बताया कि अगर आयोजक नहीं मिलेगा तो हालैंड में किसी भी मंदिर में चले जाना। वहां रहने खाने की व्यवस्था लोग करवा देंगे। पर गनीमत यह हुई कि हालैंड एयरपोर्ट पर आयोजक मिल गया। उस को जहाज की खराबी और लेट का पता चल गया था।’

वह बताने लगे कि, ‘पर हालैंड में एक दूसरी दिक्कत आ गई। कि आज भी उस घटना को सोच कर प्राण सूख जाता है। हुआ यह कि हम सभी कलाकार हालैंड में घूम रहे थे। आयोजक साथ में था। और वह कहीं बिछड़ गया। हम लोग आयोजक को खोजने में परेशान ही थे कि पुलिस ने पकड़ लिया। होम लोगों के होश उड़ गए। कुछ समझ ही नहीं पा रहे थे कि वह पूछ क्या रहा है। और वह गुस्सा होता जा रहा था। अंत में अंगरेजी का दो शब्द हमको मालूम था। एक यस और दूसरा इंडियन। तो बिना कुछ सोचे समझे बोलना शुरु कर दिया-यस इंडियन, यस इंडियन। और धीरे धीरे हमारे सभी साथी यस इंडियन, यस इंडियन कहने लगे। हाथ जोड़ कर यस इंडियन,यस इंडियन, ऐसे जैसे भजन गा रहे हों। पुलिस वाला गुस्से में जाने क्या गिट-पिट, गिट-पिट बोल रहा था। और हम लोग यस इंडियन, यस इंडियन...। गनीमत यह हुई कि थोड़ी देर में ही आयोजक ने हम लोगों को खोज लिया और हम लोग बच गए’।

‘लागता जे फाटि जाई जवानी में झुल्ला’ या फिर कटहर क कोवा तू खइलू, तो हई मोटका मुअड़वा का होई’ या फिर ‘अंखिया बता रही है, लूटी कहीं गई है।’ जैसे द्विअर्थी गाने भी आपने खूब गाए हैं। यहां तक कि निर्गुण में भी आप अश्लीलता की छौंक संकेतों-संकेतों में लगा देते हैं। तो यह सब क्या है? आप के कार्यक्रमों में भी आज कल आप का गाना कम, लड़कियों का डांस ज़्यादा हो गया है। इस पर क्या कहेंगे?’ ‘देखिए इस में हमारा कोई दोष नहीं है। आज की पब्लिक दो ही चीज़ देखती है।’ बालेश्वर बोले, ‘एक क्रिकेट और दूसरा लड़कियों का डांस। बाकी कुछ नहीं। आज कान में उंगली डाल के मैं बिरहा गाऊं तो कितने लोग सुनेंगे? सब भाग खड़े होंगे। आज हालत यह है कि जब लोग प्रोग्राम बुक करने आते हैं तो यह नहीं पूछते कि मैं कितना गाना गाऊंगा। बल्कि यह पूछते हैं कि कार्यक्रम में लड़कियां कितनी हैं? चलिए छोड़िए मैं बहुत छोटा कलाकार हूं। पर बिरजू महाराज तो बहुत बड़े कलाकार हैं। अभी वह लखनऊ आए तो थे तो अखबार में उन का एक इंटरव्यू छपा था। जिस में उन्होंने बड़ी तकलीफ के साथ बताया था कि उन से आयोजक उनके डांस के बारे में नहीं, उनके ग्रुप में कितनी लड़कियां आएंगीं, यह पूछते हैं। तो क्या करिएगा? समाज ही बदल गया है। इस में मैं क्या कर सकता हूं।‘

‘बाबू क मुंह जइसे फैज़ाबादी बंडा, दहेज में मांगे लें हीरो होंडा’ या फिर ‘जब से लइकी लोग साइकिल चलावै लगलीं, तब से लइकन कै रफ़्तार कम हो गइल’ या ‘हार गया चुनाव, लेकिन हार नहीं मानता, घरवा में सब कुछ भरल बा लेकिन चेहरा पर बारह बजल बा।’ या ‘ददरी क मेला’ या ‘फगुनवा में रंग रसे-रसे बरसे’ जैसे तमाम गीत बालेश्वर की खासियत भी है और पहचान भी। कंहरवा धुन उन की थाती है। बालेश्वर के गाए अधिकतर गाने कंहरवा धुन में ही गुंथे हुए हैं। समाज की धड़कन और उस की कसक उन के गीतों में हमेशा कांटों सी चुभती मिलती है। वह तमाम प्रसंगों पर तंज़ करना भी खूब जानते हैं। ‘बीस आना क माला’ या फिर ‘शाहजहां ने मुहब्बत की तो ताजमहल बनवा दिया, और कांशीराम ने मुहब्बत की तो मायावती को मुख्यमंत्री बनवा दिया’ या फिर ‘नाचे न नचावे केहू पइसा नचावेला, पैसा जिसने बनाया दुनिया में लाके छोड़ दिया, दुनिया तो स्वर्ग थी पैसे ने ला कर बोर दिया, पइसा देखा दिया तो घूंघट उठा दिया, पइसा देखा दिया तो परदा हटा दिया, कोई न हटावे हटे, पइसा हटावेला।’ इतना ही नहीं अपने पर भी वह तंज़ करना खूब जानते हैं। उन्हें जब एक दशक पूर्व यश भारती से सम्मानित किया गया तब भी उन्होंने एक गाना लिखा और उसे झूम कर गाया भी, ‘तनी ठुमका लगा द बारी धनिया, कि तोंहके यश भारती दियाइब’।

खाने कमाने दीजिए

ज़ी.टी.वी. के अंत्याक्षरी कार्यक्रम में अन्नू कपूर सरीखे कलाकार बालेश्वर का गाना बिलकुल उन्हीं के अंदाज में रई-रई, रई-रई कह कर गाते दिख जाते हैं। बालेश्वर का एक गीत है ‘फगुनवा में रंग रसे-रसे बरसे!’ अन्नू कपूर बिलकुल बालेश्वर अंदाज़ में पिछली होली में गाने लगे। बस गाने का एक शब्द अनजाने में वह बदल गए कि फगुनवा में अंग अंग रस बरसे। इतना ही नहीं बालेश्वर के गाए कई गाने फ़िल्मों मे चले गए। बिना उन के नाम या अनुमति के। जब से सिपाही से भइलें हवलदार हो नथुनिए पे गोली मारे। मूल गाना बालेश्वर का है। उन के पुराने कैसेटों में है। पर कुछ समय पहले पटना के एक गायक ने इसी गाने को फास्ट करके गा दिया। रातों-रात न सिर्फ़ वह मशहूर हो गया बल्कि यही गाना बदल कर एक फ़िल्म में आ गया- अंखियों से गोली मारे। पर बालेश्वर इन सब चीज़ों पर कभी ऐतराज नहीं करते। कहते हैं, ‘सब का धंधा है। रोजी रोटी है। खाने कमाने दीजिए। अब तो बात यहां तक आ गई है कि बालेश्वर के कई शिष्य ही उन के लिखे और गाए गानों में अपना नाम जोड़ कर गाने लगे हैं। बालेश्वर को फिर भी ऐतराज नहीं होता। कहते हैं, ‘किस-किस को कहां-कहां रोकूं? अरे खाने कमाने दीजिए।’

सेहत का राज़


बालेश्वर अगर सतहत्तर  की उम्र में भी बिलकुल फिट  और खूब सक्रिय दिखते हैं  तो इस के राज सिर्फ़ तीन हैं। एक संतुलित आहार, नियमित व्यायाम और कार्यक्रमों में निरंतर व्यस्तता।

गरीबी, संघर्ष, पिछड़ी जाति और संबंधों का निभाव

बालेश्वर अपनी गरीबी, संघर्ष और अपने पिछड़ी जाति का होने का दंश नहीं भूल पाते हैं। यह दंश उन्हें बराबर सालता  रहता है। वह कहते हैं कि जब जहाज में बैठता हूं और नीचे देखता हूं तो अपनी पुरानी गरीबी याद आ जाती है और रो पड़ता हूं। वह यह भी मानते हैं कि अगर वह पिछड़ी जाति के नहीं होते और कि पढ़े लिखे होते तो गायकी की दुनिया में बहुत आगे गए होते। वह कहते हैं कि आज मनोज तिवारी गायकी में क्यों इतना आगे हैं? क्यों कि वह ब्राह्मण हैं। और कि पढ़े लिखे हैं। गाना बजाना कौन सुनता समझता है? जिस का पेट भरा होता है। तो सवर्ण, सवर्ण को ही ज़्यादा आगे बढ़ाता है।

लखनऊ में आज बालेश्वर के भरोसे कई परिवारों का चूल्हा जलता है पर इसी लखनऊ में  बालेश्वर ने न जाने कितनी  रातें पानी पी-पी कर काटी हैं। भूख और बदहाली से जैसे उन की दोस्ती थी उन दिनों। ‘हम कोइलरी चलि जाइब ए ललमुनिया क माई!’ जैसा गीत उन्हीं दिनों बालेश्वर ने लिखा था। जिस में बेरोजगारी की यातना साफ झलकती है। उन दिनों वह चाह कर भी नहीं भूल पाते। वह उन लोगों को भी नहीं भूल पाते जिन लोगों ने उन के संघर्ष के दिनों में साथ दिया, उन्हें आगे बढ़ने का रास्ता दिया। और वह संबंधों को निभाना जानते हैं सो इन मदद करने वालों की उन के पास न सिर्फ़ एक लंबी सूची है बल्कि उन सब की स्मृतियों को उन्हों ने सहेज भी रखा है।

इन में से कुछ लोग अब इस दुनिया में नहीं हैं। लेकिन  बालेश्वर के दिलों में  हैं। उन की स्मृति स्वरूप उन्हों ने अपने घर में उन लोगों की बड़ी-बड़ी फ़ोटो बनवा कर टांग रखी है। भारत महोत्सव की फ़ोटो में गाते हुए तथा यश भारती से सम्मानित होते तत्कालीन राज्यपाल मोतीलाल बोरा और मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के साथ रंगीन फ़ोटो, कुछ और सम्मान समारोहों की रंगीन फ़ोटुओं के बीच कुछ श्वेत श्याम फ़ोटो भी हैं। विधायक रहे और उन्हें लखनऊ ले आने वाले झारखंडे राय की फ़ोटो सब से पहली है। लखनऊ में उन्हें सब से पहले मंचों पर पेश करने वाले हरवंश जायसवाल की बड़ी फ़ोटो भी है। हरवंश जायसवाल ने न सिर्फ़ उन्हें मंचों पर पेश किया बल्कि उन्हें लखनऊ का सलीका और शऊर भी सिखाया। बालेश्वर का एच.एम.वी. का सब से पहला एल.पी. रिकार्ड भी हरवंश जायसवाल के सहयोग से रिलीज़ हुआ। पत्रकार जय प्रकाश शाही की भी बड़ी सी फ़ोटो बालेश्वर ने टांग रखी है। वह मानते हैं कि उन्हें यश भारती सम्मान दिलाने और मीडिया में उन्हें भरपूर स्थान दिलाने में शाही जी का बड़ा सहयोग रहा। साथ ही उन के एक सहकर्मी रहे और मित्र की पत्नी श्रीमती पांडेय की भी बड़ी फ़ोटो है। वह कहते हैं कि पड़ाइन ने हमारा बड़ा खयाल रखा। अपनी जान भर कभी हम को भूखा नहीं सोने दिया। अब वह नहीं हैं तो भी उन के परिवार से, उन के बच्चों के साथ बालेश्वर का वही अपनापन है, जो पहले था। उमानाथ राय जो चेयरमैन साहब उर्फ़ हड़बोंग नाम से मशहूर थे, टी सीरीज़ वाले गुलशन कुमार, और पूर्व केंद्रीय मंत्री कल्पनाथ राय भी उन की स्मृतियों में उसी तरह ताजा हैं जैसे कोई फूल अभी-अभी खिला हो और वह उन सबसे मिल कर अभी-अभी आए हों।

बालू अड्डा


बालेश्वर जब राज्य संपत्ति  विभाग में चतुर्थ श्रेणी की नौकरी करते थे तब दारुलशफा में उन्हें सरकारी क्वार्टर मिला था। बाद में उन्हों ने एक मकान गोमती नगर में  और एक बालू अड्डा में बनवाया।  रिटायर होने के बाद बालू अड्डा  में उन्हों ने एक और घर बनाया और यहां बालेश्वर संगीत विद्यालय खोला। अब वह इस संगीत विद्यालय में ही रहते भी हैं। बालू अड्डा वाला पहला घर बेटों को दे दिया। गोमती नगर वाला घर छोटे भाई को दे दिया। खुद क्यों नहीं गए गोमती नगर रहने? पूछने पर वह कहते हैं, ‘गोमतीनगर बड़े लोगों की कालोनी है। वहां हमारे समाज की धड़कन नहीं है। मन ऊबता है वहां। कोई किसी को पूछता नहीं। बालू अड्डा मलिन बस्ती है, मज़दूर रहते हैं। यहां हमारा समाज धड़कता है। लोगों का मेला लगा रहता है। जीवन में धड़कन बनी रहती है। दूसरे, यहां हर जगह आने-जाने की सवारी मिल जाती है। कलाकारों को आने जाने में सुविधा रहती है। कई साथी कलाकार तो अब बालू अड्डा में ही रहने लगे हैं। कुछ कलाकारों  ने घर बनवा लिया है तो कुछ किराए पर हैं। तो कलाकारों का भी साथ रहता है। तीसरे भैंसा कुंड भी यहां से सटा हुआ है। मर जाऊंगा तो लोगों को वहां ले जाने में दिक्कत नहीं होगी। सिर्फ़ एक सड़क पार करनी होगी।’

कबीर एक बार फिर उन पर तारी हो जाते हैं।

1 comment:

  1. लोकगायक बालेश्वर को पहली बार इतने करीब से जाना । उनके फन और शख्सियत को जानने समझने के लिए मुक्कमल है यह लेख । बधाई !'

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