डॉ. सुरभि सिंह
हिंदी साहित्य और पत्रकारिता के क्षेत्र में दयानंद पांडेय जी का नाम किसी परिचय की सीमा में नहीं बंधा है। उनके द्वारा लिखी गई समृद्ध रचनाएं उनका परिचय स्वयं दे देती हैं। उन्होंने लगभग सभी विधाओं में लिखा है। उनका लेखन सामाजिक सरोकारों से जुड़ा हुआ है। स्त्री विमर्श और स्त्री मनोविज्ञान से संबंधित उनकी रचनाएं मील का पत्थर बन गई हैं जैसे "बांसगांव की मुनमुन।"
कमोवेश उनकी सभी रचनाओं में नारी विमर्श प्रमुखता के साथ दिखाई देता है। प्रस्तुत संस्मरण पुस्तक "यादों की देहरी" किसी दरिया की तरह कल-कल बहती हुई, किसी पहाड़ी नदी की तरह उछलती हुई है। देहरी शब्द का अर्थ है "दहलीज"। दहलीज वह स्थान होता है जो घर के अंदर और बाहर दोनों की सीमाओं को जोड़ने का कार्य करता है। इसलिए यदि प्रतीकात्मक रूप में देखा जाए तो "यादों की देहरी" लेखक के अंतर्मन के साथ अतीत और वर्तमान को जोड़ने का कार्य कर रही है।
यादों की देहरी नाम से संस्मरण की यह उनकी चौथी किताब है। जिसमें उन्होंने कुछ विशिष्ट व्यक्तियों के साथ साझा किए हुए पलों और अहसासों को सधे और कलात्मक शब्दों में लिखा है। लेखक की भाषा की विशेषता उसके लालित्य में है। जब आप उनकी रचनाएं पढ़ेंगे तो देखेंगे कि उसमें जनजीवन के प्रचलित शब्दों को भी कलात्मकता प्रदान कर दी गई है।
उनके सभी शब्द लोक जीवन से जुड़े हुए जान पड़ते हैं। मानो ढोलक की थाप सुनाई दे रही हो। लेखन के शिल्प के साथ-साथ उसमें भावनात्मकता भी है लेकिन यह भावनात्मकता कहीं भी नाटकीयता का रूप नहीं लेती है। उन्होंने अपनेइन संस्मरणों में व्यावहारिकता पर भावनात्मक पक्ष को हावी नहीं होने दिया है। हालांकि कहीं-कहीं इन्हें पढ़कर स्वतः आंखें भर आती हैं।
प्रत्येक संस्मरण अपने आरंभ से अंत तक पूर्ण है फिर उसके बाद कुछ भी जानने की इच्छा नहीं रह जाती है, जब तक कि अगला संस्मरण पढ़ना न आरंभकिया जाए। संस्मरणों का शीर्षक भी अपने आप में एक अलग तरह का माधुर्य लिए हुए है। सामान्यतः शीर्षक संक्षिप्त होते हैं और पाठकों में एक उत्सुकता उत्पन्न कर के बंद हो जाते हैं, लेकिन इस यादों की देहरी के सभी संस्मरणों के शीर्षक भी उन्हीं की तरह खुले हुए हैं मानो कोई वाक्य कह दिया हो, किसी ने किसी से कुछ बात कह दी हो, उदाहरण के लिए :
"हैंडशेक क्या लेगशेक भी करने को तैयार थे वह, इसी लिए तुरंत इंडिया भेजे गए"
इन संस्मरणों के विषय सीमित नहीं हैं। राजनीति, कला, फिल्म, संगीत और काव्य जगत से जुड़ी हुई अनेक विभूतियों को उन्होंने अपनी यादों में स्थान दिया है। लेखन जब तक "स्वांतः सुखाय" से विकसित होता हुआ सर्वजन तक नहीं पहुंचता है तब तक वह अपने उद्देश्य में पूर्ण नहीं होता है। यानी हम अपनी संतुष्टि के लिए लिखें लेकिन उसकी परिणति लोगों की भलाई या लोगों तक उत्पादक विचारों को पहुंचाने में हो। इस दृष्टि से यह सभी संस्मरण पूरी तरह सफल रहे हैं।
"बेटी की कामयाबी के लिए इतना दीवाना पिता मैंने कहीं नहीं देखा" शीर्षक संस्मरण में उन्होंने एक पिता के संघर्ष और उस के प्रतिफल का वर्णन किया है। यह पिता मालिनी अवस्थी के पिता हैं प्रमथ नाथ अवस्थी। यह संस्मरण एक बेटी के लिए पिता का त्याग, उसका संघर्ष और उसकी लक्ष्य प्राप्ति के लिए अनवरत तपस्या का वर्णन करता है। इसे पढ़ने के उपरांत यह समझ में आता है कि सपना पहले मां-बाप देखते हैं तब बच्चे उसे पूरा करते हैं। निस्संदेह यह एक सार्थक सामाजिक उद्देश्य की पूर्ति करता है।
इसी प्रकार कैफ़ी आज़मी जी के जीवन से जुड़े संस्मरण में अपने गांव को विकसित करने की ललक मन में एक संतोष उत्पन्न करती है कि शायद आने वाली पीढ़ियों में अपने माता-पिता की जड़ों के प्रति लगाव बना रहे। ऐसा नहीं है कि इन संस्मरणों में सिर्फ सुंदर और सकारात्मक पक्षों की ही बात की गई है बल्कि विद्रूपताओं को भी उभरा गया है। क्योंकि जब तक हम कुरूपता और विद्रूपता की बात नहीं करेंगे तब तक उन्हें दूर करने के प्रयास सामने नहीं आएंगे और उन्हें दूर करने के बाद ही हम सुंदरता का प्रारंभ कर सकते हैं। अनेक संस्मरण हृदय की गहराइयों तक पहुंच जाते हैं इन में उनकी भावनात्मकता अपने चरम पर है।
योगेश प्रवीन जी से जुड़ा संस्मरण, नरेंद्र कोहली जी पर लिखा गया संस्मरण, कृष्ण बिहारी जी पर लिखा गया संस्मरण और संजय त्रिपाठी जी के जीवन संघर्षों पर लिखा गया संस्मरण, आंखों में नमी ला देता है। इनमें मार्मिक भाव व्यक्त हुए हैं। कुछ हल्के-फुल्के संस्मरण भी हैं जो संतुलन बनाए रखते हैं। कोई चाहे तो इन संस्मरणों पर पूरी एक कथा या उपन्यास भी लिख सकता है लेकिन उनकी मौलिकता को बनाए रखते हुए लेखक ने उन्हें इस रूप में रहने दिया है।
ऐसा लगता है मानो कोई पत्तियों पर पड़ी हुई ओस को सहेज कर बस निहारता रहे। तपती धरती पर पड़ने वाली बारिश की बूंदें एक महक और सोंधापन लिए होती हैं। यही अहसास इन संस्मरणों को पढ़ने के बाद होता है। लगता है बारिश में देर तक भीग चुके हों या किसी अमराई से निकल रहे हों, आगे पीछे कोई नहीं। एक ऐसी यात्रा जो आरंभ से लेकर अंत तक बिना किसी बाधा के पूर्ण होती जाए और हम उस की पूर्णता को अनुभव करते चल रहे हों वैसे भी लेखन स्वयं में एक यात्रा ही है, एक आंतरिक संतुष्टि, एक आंतरिक तलाश जिसमें लेखक दयानंद पांडेय जी भी निकल पड़े हैं।
किसी भी लेखक के लेखन में पैनापन और धार तभी सामने आती है जब उसमें निर्भीकता हो। निर्भीकता का तात्पर्य है जब लेखक स्वयं आलोचकों से अपनी समीक्षा करने के लिए कहता है और ललकारता है "जो चाहो, वो लिखो" तब इसका सीधा-सा स्पष्ट अर्थ यही होता है कि उसे स्वयं पर पूर्ण विश्वास है। यह विश्वास दयानंद पांडेय जी की सभी साहित्यिक कृतियों में दिखाई देता है और यही शिवम का सृजन करता है। साहित्य में सत्यम शिवम सुंदरम तीनों का होना
अनिवार्य है और यह अनिवार्यता उनकी सभी रचनाओं में मिलती है।
हिंदी साहित्य में संस्मरण लेखन की परंपरा नई नहीं है इसके पहले भी अनेक लेखकों ने संस्मरण संबंधी पुस्तकें लिखी हैं जिसमें उन्होंने मार्मिक भावभीव्यंजना के साथ अपने अनुभव और भावों को व्यक्त किया है। लेखक दयानंद पांडेय जी ने इससे पहले संस्मरण संबंधी अनेक पुस्तकें लिखी हैं जिनमें यादों का मधुबन, हम पत्ता, तुम ओस, और नीलकंठ विषपायी अम्मा प्रमुख हैं। संस्मरणों की उनकी और भी किताबें आने वाली हैं।
संस्मरणों की सबसे बड़ी सार्थकता यह होती है कि कम समय में अधिक लोगों से जुड़ने का अवसर प्राप्त हो जाता है। क्योंकि साहित्यकार हमें जोड़ने का कार्य करता है जैसा कि लेखक ने अपनी रचना का शीर्षक भी दिया है। यहां देहरी के रूप में भी वह स्वयं है। वह अपने पाठकों को अपने जीवन में आने वाले उन लोगों के साथ परिचित कराता है जिन्होंने कहीं-न-कहीं उसपर अपना प्रभाव छोड़ा है।
मैं यहां पर संस्मरणों के विषय में अधिक नहीं बताऊंगी क्योंकि इससे रचनाधर्मिता और उसकी उत्सुकता प्रभावित होती है। रचना का औत्सुक्य बना रहना चाहिए। इसलिए आप स्वयं सभी संस्मरणों को पढ़ें और उनके विषय में जानें। एक बार जब पुस्तक उठा ली जाती है तो फिर उसे रखने का मन नहीं होता निरंतर आगे बढ़ते जाने का मन होता है कि अगली प्रस्तुति में क्या है?
जैसे सौंदर्य क्षण-क्षण परिवर्तित होता रहता है वैसे ही इस रचना में हर संस्मरण एक परिवर्तित भाव भूमि लेकर हमारे सामने आता रहता है। रचना में उत्सुकता बने रहना बहुत अनिवार्य है, वह भी ऐसे समय में जब लोगों ने पढ़ना बहुत कम कर दिया है और पूरी तरह से डिजिटल या सोशल मीडिया पर आधारित हो गए हैं। किंतु यह दौर बहुत अधिक समय का नहीं है। आज के लेखक आशावाद से भरे हुए हैं। क्योंकि सभी को पता है कि पाठक समाज पुनः पुस्तकों की ओर लौटेगा।
पुस्तकों की ओर लौटना बहुत अनिवार्य है। इसके लिए आज साहित्यकारों का सबसे बड़ा उत्तरदायित्व है कि सार्थक साहित्य का सृजन करें। बस मात्र लिखने के लिए न लिखें। छान कर, निथार कर, सोच-समझ कर लिखें वह लिखें जो न केवल लोगों को आनंदित करे बल्कि समाज को दिशा देने का भी कार्य करे।
इस दिशा में प्रस्तुत रचना, श्रृंखला की कड़ी बनकर सामने आती है। यादों की देहरी अपने भीतर एक लंबी जीवन यात्रा समेटे हुए है। पुस्तक आपके हाथों में है और आप भी इस जीवन यात्रा से होकर निकलें तो ढेर सारे विचार बिंदु आपके साथ हों इसी कामना के साथ।
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