दयानंद पांडेय
अम्मा जी जब भी गांव से कभी आतीं तो कोई न कोई अग्नि परीक्षा ले कर ही गांव लौटतीं। पर इस बार तो जैसे अग्नि परीक्षा से भी बड़ी परीक्षा वह ले बैठीं। नन्ही सी बेटी को ही मांग बैठीं। दो साल की बेटी जो मेरा दूध पी रही थी। कि जैसे भी हो इस को अब की वह अपने साथ गांव ले जाएंगी। यह सुन कर मेरी तो जैसे जान ही निकल गई।
बेटा जब बहुत छोटा था तब अम्मा जी उसे भी अपने साथ गांव में रखना चाहती थीं। जब उन्हों ने बेटे को अपने साथ ले जाने की बात कीं तो तब भी मैं घबरा गई थी। उन से बोली , ' मैं कैसे रहूंगी ? '
' जैसे मैं बिना अपने बेटे के रहती हूं। ' वह जैसे घायल हो कर बोलीं , ' मैं कैसे अकेले रहती हूं बिना अपने बेटे के , कभी सोचा है ? '
मैं चुप रह गई। लेकिन अम्मा जी का यह दुःख मुझे मथ गया। बुरी तरह मथ गया।
दो दिन बाद थोड़ा मजे लेती हुई अम्मा जी बोलीं , ' ऐसा करो तुम मेरे बेटे के साथ रहो , मैं तुम्हारे बेटे के साथ रहूंगी। हिसाब बराबर। ' यह सुन कर मैं रोने लगी। अम्मा जी ने मुझे अपनी गोद में ले लिया और मुझे संभालती हुई बोलीं , ' घबराओ नहीं। कुछ नहीं होगा। मेरा बेटा भी अपने पास रखो , अपना बेटा भी अपने पास रखो। मैं रह लूंगी अकेले भी। जैसे भी। '
बात ख़त्म हो गई थी। पर सचमुच नहीं।
एक बार गांव गई तो वापसी में फिर वही तान कि , 'कुछ दिन के लिए सही , बाबू को मेरे पास छोड़ दो। '
मैं फिर रोने लगी। बेटे के बिना रहने की कल्पना ही नहीं कर पा रही थी। बोली , ' अम्मा जी , अभी बहुत छोटा है। मेरा दूध पीता है। दूध छूट जाए तब रख लीजिएगा। '
' पक्का ? ' अम्मा जी ने मुदित हो कर मुझे अंकवार में भर कर पूछा।
' पक्का ! ' हंसती हुई मैं बोली।
बेटे को ले कर मैं शहर आ गई। दिन बीतने लगे। सब कुछ ढर्रे पर आ गया। अचानक अम्मा जी फिर शहर आईं। फिर वही परंपराएं , वही संस्कार की नर्सरी। वही अनुशासन , वही कर्फ्यू। बेटा जो कभी ग़लती से किचेन में ठुमक - ठुमक कर चला जाता तो दिन भर दादी को सफाई देता फिरता कि , ' देखिए दादी हम किचेन में नहा कर गए थे। चप्पल नहीं पहने थे। आदि - इत्यादि। एक दिन तो वह चप्पल पहने किचेन में आ गया। अचानक बड़ी सी जीभ निकाली। चप्पल कमर में खोंसी। बोला , ' दादी , हम चप्पल पहन कर नहीं आए। ' संयोग था कि दादी तब अपने बेटे से बतियाने में लगी थीं। ध्यान ही नहीं दिया। पर वापसी पर फिर बाबू को गांव ले जाने की ज़िद। पर अब की मुझे कुछ कहना ही नहीं पड़ा। पतिदेव ने कमान संभाली। बोले , ' अगले हफ़्ते इस का एडमिशन करवाना है स्कूल में। '
' इतना छोटा सा बच्चा , अभी से स्कूल ? ' अम्मा जी ने माथा पीटा।
' हां अम्मा ! ' वह बोले , ' स्कूल अब जल्दी भेजना पड़ता है बच्चों को। '
' पर स्कूल में एडमिशन तो जुलाई में होता है। मार्च में नहीं। ' अम्मा जी ने एक और पासा फेंका।
' अब अप्रैल में ही एडमिशन होता है अम्मा , जुलाई में नहीं। '
अम्मा जी इस तीर से हार गईं। बोलीं , ' अब पढ़ाई की बात है तो क्या कहूं ? '
अम्मा जी जब भी गांव से आतीं तो ढेर सारे गंवई सामान के साथ ढेर सारा प्यार और स्नेह भी आ कर मुझ पर लुटातीं। बरसातीं। पर जाने क्या था कि उन के आते ही घर में जैसे अघोषित भूकंप आ जाता। कर्फ्यू लग जाता। सब से ज़्यादा किचेन में। बहू थी उन की पर मानती वह मुझे बिटिया की तरह थीं। इस लिए कि उन की कोई बेटी नहीं थी। सो बेटी की साध भी वह मुझी से पूरा करतीं। फिर भी इस मां के पीछे उन के भीतर एक सास भी जैसे चुपके से बैठी रहती थी। दोपहर के सूर्य की तरह। लाख छुपाने पर भी यह दोपहर का सूर्य छुपता नहीं था। अपनी पूरी आंच के साथ उपस्थित। मैं चांद बन कर इस सूर्य के पीछे दुबकी-दुबकी रहती। ऐसे जैसे बिटिया उछलती रहती , बहू दुबकी-दुबकी। गांव से मेरा बहुत नाता नहीं था पर अम्मा जी से बहुत था। अम्मा जी का शहर से बहुत नाता नहीं था पर मुझ से बहुत था। अजब अंतर्विरोध था। अजब सहमतियां थीं। असहमतियां भी बहुत थीं। पर न अम्मा जी उसे सामने लातीं , न मैं। अम्मा जी गांव की सारी परंपराएं , संस्कार , रवायतें सब कुछ एक साथ मुझ में किसी धान के पौधे की तरह रोप देना चाहती थीं। मैं थी कि अम्मा जी को , उन की की बहुत सी बातों को अपने ढंग से आधुनिक बना देना चाहती थी। पर होता यह था कि अम्मा जी काली कमरिया थीं। उन पर कोई और रंग चढ़ता ही नहीं था। चढ़ो न दूजो रंग वाली स्थिति थी। वह अपनी आस्थाओं और जड़ों से गहरे जुड़ी हुई थीं। टस से मस नहीं होती थीं। बदलना मुझे ही रहता था। वह जब भी आतीं , सिर से पल्लू ले कर , मुझे आफ़िस से छुट्टी लेनी पड़ती। शुरू में वर्क फ्राम होम करती। पर अम्मा जी को यह वर्क फ्राम होम भी नहीं सुहाता था। कहतीं , ' इस से अच्छा तो तुम दफ़्तर ही चली जाया करो !' तो जैसे - तैसे पूरी छुट्टी ले लेती। आफिस वाले भी अम्मा जी के नाम पर माने जाते। छुट्टी नहीं लेती तो वह जैसे बहुत मासूम सा ताना देतीं , ' घर में पूरे दिन अकेले रह कर क्या ईंटें गिना करूं ? ' फिर छत देखती हुई कहतीं , ' यहां तो ईंटें भी नहीं दिखतीं। ' मैं छुट्टी ले कर घर बैठ जाती थी ताकि अम्मा जी को कठिनाई न हो। उन का मन लगा रहे। तब भी वह हफ़्ते दस दिन में ही बोर हो जातीं। टी वी उन्हें सुहाता नहीं था। बेटा भी छोटा था पर स्कूल चला जाता था। घर में रहते हुए भी या तो सोता , पढ़ता या खेलता। दादी की बातों में उसे बहुत दिलचस्पी नहीं रहती। अम्मा जी के पास गांव , दुआर , घर की बातें होतीं। गांव की बोली में। खांटी गंवई। बेटे के कुछ पल्ले ही नहीं पड़ता था। बेटा पोएट्री सुनाता। अम्मा जी लोकगीत। दोनों के ही सब कुछ पास बाई। आफ्टरआल बच्चा था , बहू नहीं। और अम्मा जी तो , अम्मा जी ही थीं। सुप्रीमो ! घर की सुप्रीमो। छोटी बेटी बतियाने भर की हुई नहीं थी। सोती और खेलती ज़्यादा थी। पतिदेव भी अम्मा से उतना ही बतियाते जितने में उन का झगड़ा न हो। पतिदेव और अम्मा जी अक्सर किसी बात पर लड़ ही जाते थे। बेटा थे , बहू नहीं। कि बात बेबात सरेंडर करते रहें। कि सही होने पर भी अपने को ग़लत मान लें। अम्मा जी डिमांडिंग बहुत थीं। पतिदेव डिमांड सभी पूरी करते रहते थे पर कभी किसी बिंदु पर आ कर लड़खड़ा जाते। बस झगड़ा शुरू। पर वह अम्मा को मनाना भी बहुत जानते थे। दो मिनट में मना भी लेते।
अम्मा जी जब तक रहतीं तब तक किचेन में सिर्फ़ तीन ही लोगों की एंट्री थी। एक अम्मा जी की , दूसरी हमारी। तीसरी काम वाली की। काम वाली को वह घूरती बहुत थीं। चुपचाप। बिन बोले घूरतीं। इतना कि वह अकसर घबरा जाती। अम्मा जी किचेन में ही बैठ कर खाती - पीतीं। किचेन उन के लिए रसोई होता। चाहती थीं कि सभी लोग रसोई बोलें। भोजन बोलें। अगर कोई बच्चा गलती से भी खेलते - खेलते किचेन में घुस जाए तो किचेन अपवित्र। किचेन से खाने की कोई चीज़ बाहर आ गई तो अगर ग़लती से किचेन में वापस चली गई तो किचेन अपवित्र। किसी के लिए रोटी आ गई और उस ने नहीं ली और वह रोटी किचेन में वापस चली गई तो किचेन अपवित्र। किचेन अपवित्र मतलब अम्मा जी का कुछ भी खाना - पीना तब तक के लिए बंद जब तक किचेन साफ़ कर नया भोजन न पक जाए। चप्पल आदि पहने तो जा ही नहीं सकता था कोई। मैं भी बिना नहाए किचेन में प्रवेश नहीं कर सकती थी। दोनों टाइम नहाना। कितना भी जाड़ा पड़ रहा हो , कितनी भी अर्जेंसी हो। बाक़ी बातों में अम्मा बहुत व्यावहारिक थीं। आंख मूंद लेती थीं। बात टाल जाती थीं। लेकिन किचेन की पवित्रता के मामले में कोई कंप्रोमाइज नहीं। सारी व्यावहारिकता डस्टविन में। बल्कि कहें भाड़ में।
गांव में भी उन की किचेन की पवित्रता शिखर पर रहती। शहर में भी। ख़ैर हमेशा की तरह इस बार भी अम्मा जी को स्टेशन छोड़ने गए हम सभी। बाबू जी उन्हें लेने आ गए थे। घर से चलते समय अम्मा जी ने बेटी को ले जाने के बाबत कुछ कहा ही नहीं। मैं ख़ुश-ख़ुश और निश्चिंत। कि अच्छा हुआ कि अम्मा जी भूल गईं। स्टेशन पर ट्रेन में बर्थ पर बैठते ही अम्मा जी बेटी को गोद में ले कर चूमने लगीं। सहसा पतिदेव से बोलीं , ' मैं इस को ले जा रही हूं ! ' पतिदेव ने हंसते हुए हामी भर दी। लेकिन मेरे तो जैसे प्राण ही सूख ही गए। मुझे चुप देख कर अम्मा जी बोलीं , ' तुम को कोई ऐतराज तो नहीं है ? '
' ऐतराज तो नहीं है। ' दबी जुबान मैं बोली, ' पर अभी यह हमारा दूध पीती है। इस का कोई कपड़ा-लत्ता भी तो लाए नहीं हैं। '
' दूध हम पिला देंगे गाय का। कपड़ा-लत्ता हम सब नया बनवा देंगे। गांव में सब कुछ मिलता है। दर्जी है। नहीं बाज़ार से रेडीमेड मंगवा लेंगे। ' वह बोलीं , ' तुम इस की चिंता मत करो ! खिलाएंगे , पिलाएंगे भी तुम से बढ़िया। काम वाली के भरोसे नहीं छोड़ेंगे। '
मैं चुपचाप रोने लगी।
बात ही बात में ट्रेन चलने को हो गई। अम्मा , बाबू जी के पांव छू कर हम डब्बे से प्लेटफार्म पर उतर आए। बेटी को बाई - बाई करते हुए। घर वापस आते समय रास्ते भर रोते रहे। घर आ कर पतिदेव से कहा कि , ' ट्रेन तो शहर के कई छोटे स्टेशन पर रुकते हुए जाएगी। तब तक आख़िरी वाले स्टेशन पर चलते हैं , बेटी को वापस लेते आते हैं। '
' नौटंकी मत करो ! ' वह बोले , ' मैं तो इस तरह किसी स्टेशन चलने से रहा। ऐसा ही था तो अम्मा से बेटी को स्टेशन पर ही ले लेना था। '
' ऐसा करें कि हम लोग भी क्यों न रात की ट्रेन से गांव चले चलें। ' पतिदेव से थोड़ी देर बाद कहा।
' मैं कहीं नहीं जा रहा। ' वह बोले , ' कुछ दिन अम्मा के साथ भी रह लेने दो बेटी को। अम्मा का भी मन बहल जाने दो। '
दो - चार दिन बीते। पर मैं घर में रह नहीं पा रही थी। चुप नहीं रह पा रही थी। बात - बेबात रो पड़ती। बेटी जैसे जब - तब सामने आ कर खड़ी हो जाती। आफिस भी जाना छोड़ दिया। छुट्टी बढ़ा दी थी। वाट्सअप पर बात होती अम्मा जी से रोज। बेटी भी दिख जाती। पर इस दूर से देखने से मन नहीं भरता था। दिल नहीं मानता था। मन करता था कि उस वीडियो काल में ही कूद कर बेटी को गोद में ले लूं। बाहों में भर लूं। छाती में दूध जैसे उफना जाता। ऐसे जैसे पतीली में दूध उफना गया हो। रोने लगती। मेरा रोज - रोज का रोना - धोना देख कर पतिदेव पसीज गए। रिजर्वेशन करवा दिया। अगले हफ़्ते सुबह - सुबह हम लोग गांव पहुंच गए। अम्मा जी ने देखते ही तंज किया , ' हफ़्ता भर भी नहीं रह पाई बेटी के बिना ? ' जवाब में सुबुक - सुबुक कर रोने लगी। हल्के घूंघट में थी। पर अम्मा जी से मेरा रोना नहीं छुपा। मैं उन के पांव छू रही थी और वह मेरी ठुड्डी पकड़ कर उठाए हुई मेरी भरी - भरी आंखें देख रही थीं। मेरा रुदन देख कर , अम्मा जी भी रोने लगीं। बोलीं , ' दुलहिन , इस में तुम्हारा दोष नहीं। औलाद होती ही ऐसी चीज़ है। ' कह कर उन्हों ने मुझे अपनी अंकवार में भर लिया।
सब कुछ था पर बेटी नहीं दिख रही थी। मैं , मेरी आंखें उसी को खोज रही थीं। पूछने पर पता चला बाबू जी उसे ले कर खेत की तरफ गए हैं।
' किसी को भेज कर बुलवा लीजिए न ! ' मैं ने अम्मा जी से कहा।
' किस को ? ' अम्मा जी ने पूछा।
' बाबू जी को। '
' बाबू जी को देखना है कि बेटी को ? '
' बेटी को। ' धीरे से मैं बोली।
बाबू जी थोड़ी देर में आ गए। बेटी भी। बाबू जी के पांव छू ही रही थी कि बेटी दादी की तरफ भाग गई। मेरी तरफ आई ही नहीं। मैं अवाक् रह गई। वह दौड़ कर दादी की गोद में समा गई। बाद के समय भी बहुत कोशिश की उसे अपने पास बुलाने की। वह आती ही नहीं थी। जिस के लिए सब कुछ छोड़ कर सैकड़ो किलोमीटर की दूरी तय कर आए थे , वही मेरे पास आने को तैयार नहीं थी। लग ही नहीं रहा था कि वह मेरी बेटी है , मैं उस की मां। अजब दृश्य था। दूध में जैसे दरार पड़ गई थी। कलेजे में टीस सी उठी। जैसे कोई भाला गड़ गया हो दिल में। दिन बीता , रात हो गई। बेटी मेरे पास नहीं आई। दादी के पास ही सोई। मैं और रोने लगी। कि ऐसा क्या हो गया। कि मेरे पास नहीं आ रही। दूसरे दिन गौर किया कि बेटी मेरे ही पास नहीं , अपने पापा के पास भी नहीं जा रही। वह लाख बुलाएं। पकड़ें। वह उछल कर भाग जाए। ऐसे जैसे मम्मी , पापा उस की ज़िंदगी में हैं ही नहीं। वह जानती ही नहीं हमें। बाबा - दादी ही सब कुछ हैं , उस के लिए। पड़ोस के बच्चों को वह जानती थी। पड़ोस की आती - जाती औरतों को वह पहचानती। अपने भाई को पहचानती। मम्मी - पापा से जैसे उस की दुश्मनी हो गई थी।
कहीं अम्मा जी ने अपने पास रखने के लिए इस पर कोई जादू-टोना तो नहीं कर दिया ? मैं ने सोचा। पर अम्मा जी के बारे में ऐसा सोच कर भी दुःख हुआ। अम्मा जी ऐसी नहीं हैं , मन ही मन कह कर इस बात को झटक दिया। पतिदेव को बहुत फ़र्क़ नहीं पड़ा कि बेटी उन के पास क्यों नहीं आ रही। इस बारे में उन्हों ने ध्यान भी नहीं दिया। वह गांव की रूटीन , खेत , पट्टीदार आदि में व्यस्त हो गए थे।
पर मैं क्या करूं ? क्या करूं कि बेटी मेरे पास आ जाए। उसे जी भर प्यार करूं। इसी उधेड़बुन में दूसरा दिन भी बीत गया। तीसरे दिन आंगन में खेलती हुई बेटी को ज़बरदस्ती पकड़ कर गोद में बिठा लिया। चूमने लगी। वह फिर उछल कर भाग खड़ी हुई। भाग क्या खड़ी हुई , किसी गौरैया की तरह फुदक कर उड़ गई। मैं दुःख में डूब गई। पीछे से अम्मा जी यह सब चुपचाप देख रही थीं। अचानक वह आईं और मेरा कंधा पकड़ कर वहीं बैठ गईं। बोलीं , ' यह तो हम से बड़ा अपराध हो गया , बड़ा पाप हो गया दुलहिन ! '
' क्या ? ' मैं अचकचा पड़ी।
' दो साल की बिटिया को तुम से अलग कर के। '
' क्या ? '
' हां। ' अम्मा जी बोलीं , ' बिटिया तुम दोनों से बहुत नाराज है। कह नहीं पा रही। शब्द नहीं है उस के पास नाराजगी जताने के लिए। पर यह अबोध बच्ची , दो साल की दुधमुंही बच्ची तुम लोगों से बहुत नाराज हो गई है। इसी लिए दो दिन से देख रही हूं , तुम लोगों की इतनी उपेक्षा कर रही है। निर्मोही हो गई है। उस को माफ़ कर दो और मुझे भी ! ' कह कर अम्मा जी ने हाथ जोड़ लिए। अम्मा जी की उदास आंखों में जैसे समंदर सा पानी था। भरभरा कर सारा बाहर आ गया।
मैं अम्मा जी के गले लग कर रो पड़ी। फफक - फफक कर। अम्मा जी भी फफक रही थीं और मैं भी।
उधर बेटी , अपने भाई के साथ खेल रही थी। कूद - कूद कर।
[ साहित्य अकादमी , दिल्ली द्वारा प्रकाशित पत्रिका समकालीन भारतीय साहित्य के जनवरी - फ़रवरी , 2025 अंक में प्रकाशित। ]
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