Wednesday, 13 November 2024

जिस दिन ,जिस क्षण लिखना ख़त्म , समझिए कि मैं मर गया : दयानंद पांडेय

 अक्षरा के लिए दयानंद पांडेय से  जया केतकी की लंबी बातचीत 


मध्य प्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति , भोपाल द्वारा प्रकाशित पत्रिका अक्षरा के लिए दयानंद पांडेय से  जया केतकी ने लंबी बात की। नवंबर , 2024 अंक में प्रकाशित बातचीत ज्यों की त्यों प्रस्तुत है : 


1. यूँ तो साहित्यिक संसार के विविध अनुशासनों में आपकी निरंतर उपस्थिति रही है – वह काबिल-ए-गौर है, फिर भी सबसे पहले आप किस रूप में, किस विधा के पृष्ठों में स्वयं को अधिक उज्ज्वल, अधिक मौलिक, अधिक सार्थक रूप में पाते हैं,  इसका मूल्यांकन पाठक, लेखक और आलोचक समाज करते रहा हैं फिर भी यदि यही प्रश्न मैं आपसे करूँ तो ? 

- कहानी , कविता और उपन्यास में। संस्मरण में भी। 

दरअसल कहानी या उपन्यास लिखना मेरे लिए सिर्फ़ लिखना नहीं, एक प्रतिबद्धता है। प्रतिबद्धता है पीड़ा को स्वर देने की। चाहे वह खुद की पीड़ा हो, किसी अन्य की पीड़ा हो या समूचे समाज की पीड़ा। यह पीड़ा कई बार हदें लांघती है तो मेरे लिखने में भी इसकी झलक, झलका (छाला) बन कर फूटती है। और इस झलके के फूटने की चीख़ चीत्कार में टूटती है। और मैं लिखता रहता हूं। इस लिए भी कि इस के सिवाय मैं कुछ और कर नहीं सकता। हां, यह जरूर हो सकता है कि यह लिखना ठीक वैसे ही हो जैसे कोई न्यायमूर्ति कोई छोटा या बड़ा फैसला लिखे और उस फैसले को मानना तो दूर उसकी कोई नोटिस भी न ले। और जो किसी तरह नोटिस ले भी ले तो उसे सिर्फ कभी कभार ‘कोट’ करने के लिए। 

तो कई बार मैं खुद से भी पूछता हूं कि जैसे न्यायपालिका के आदेश हमारे समाज, हमारी सत्ता में लगभग अप्रासंगिक होते हुए हाशिए से भी बाहर होते जा रहे हैं। ठीक वैसे ही इस हाहाकारी उपभोक्ता बाजार के समय में लिखना और उससे भी ज्यादा पढ़ना भी कहीं अप्रासंगिक हो कर कब का हाशिए से बाहर हो चुका है तो भाई साहब आप फिर भी लिख क्यों रहे हैं ? लिख क्यों रहे हैं क्यों क्या लिखते ही जा रहे हैं ! क्यों भई क्यों ? तो एक बेतुका सा जवाब भी खुद ही तलाशता हूं। कि जैसे न्यायपालिका बेल पालिका में तब्दील हो कर हत्यारों, बलात्कारियों, डकैतों और रिश्वतखोरों को जमानत देने के लिए आज जानी जाती है, इस अर्थ में उसकी प्रासंगिकता क्या जैसे यही उसका महत्वपूर्ण काम बन कर रह गया है तो कहानी या उपन्यास लिख कर खुद की, व्यक्ति की, समाज की पीड़ा को स्वर देने के लिए लिखना कैसे नहीं जरूरी और प्रासंगिक है? है और बिलकुल है। सो लिखता ही रहूंगा। तो यह लिखना भी पीड़ा को सिर्फ जमानत भर देना तो नहीं है ? 

यह एक दूसरा सवाल मैं अपने आप से फिर पूछता हूं। और जवाब पाता हूं कि शायद ! गरज यह कि लिख कर मैं पीड़ा को एक अर्थ में स्वर देता ही हूं दूसरे अर्थ में जमानत भी देता हूं। भले ही हिंदी जगत का वर्तमान परिदृश्य बतर्ज मृणाल पांडेय, ‘खुद ही लिख्या था, खुदै छपाये, खुदै उसी पर बोल्ये थे।’ पर टिक गया है। दरअसल सारे विमर्श यहीं पर आ कर फंस जाते हैं। फिर भी पीड़ा को स्वर देना बहुत जरूरी है। क्यों कि यही मेरी प्रतिबद्धता है।किसी भी रचना की प्रतिबद्धता हमेशा शोषितों के साथ होती है। मेरी रचना की भी होती है। तो मैं अपनी रचनाओं में पीड़ितों की पैरवी करता हूं। 

हालांकि मैं मानता हूं कि लेखक की कोई रचना फैसला नहीं होती और न ही कोई अदालती फैसला रचना। फिर भी लेखक की रचना किसी भी अदालती फैसले से बहुत बड़ी है और उसकी गूंज, उसकी सार्थकता सदियों में भी पुरानी नहीं पड़ती। यह सचाई है। सचाई यह भी है कि पीड़ा को जो स्वर नहीं दूंगा तो मर जाऊंगा। नहीं मर पाऊंगा तो आत्महत्या कर लूंगा। तो इस अचानक मरने या आत्महत्या से बचने के लिए पीड़ा को स्वर देना बहुत जरूरी है। यह स्वर देने के लिए लिखना आप चाहें तो इसे सेफ्टी वाल्ब भी कह सकते हैं मेरा, मेरे समाज का ! बावजूद इस सेफ्टी वाल्ब के झलके के फूटने की चीख़ की चीत्कार को मैं रोक नहीं पाता क्यों कि यह झलका तवे से जल कर नहीं जनमता, समयगत सचाइयों के जहर से पनपता है और जब तब फूटता ही रहता है। मैं क्या कोई भी नहीं रोक सकता इसे। इस लिखने को।


2. आपकी एक कविता है –पिछवाड़े का घर गिर रहा है...


मेरे घर के पिछवाड़े का घर गिर रहा है

जैसे मैं गिर रहा हूँ 

आहिस्ता-आहिस्ता


जैसे किसी स्त्री का नकाब सरक रहा हो

आहिस्ता-आहिस्ता


घर गिर रहा है और धरती दिख रही है

आहिस्ता-आहिस्ता

जैसे निर्वस्त्र हो रही है धरती


क्या सचमुच भारतीय घर गिर ही जायेगा? क्या सचमुच स्त्री का नकाब सरक जायेगा, स्त्री का नकाब आप क्यों और किस तरह बचते-बचाते हुए देखना-दिखाना चाहेंगे? 

- गिरना किसी भी का हो दुःखद ही होता है। घर का गिरना और भी दुःखद। दरअसल पहले मैं एक सरकारी घर में रहता था। बरसों - बरस रहा। जिस सरकारी घर में रहता था , वह पूरी कॉलोनी जिस की ज़मीन पर बनी थी , यह पिछवाड़े का घर उन्हीं का था। उन की सारी ज़मीन सरकार ने ले ली थी , कालोनी बनाने के लिए। बरास्ता कोर्ट उन्हों ने अपना वह हवेलीनुमा बंगला किसी तरह बचा लिया था। कोर्ट ने कहा था कि जब तक घर अपने आप गिर न जाए , खंडहर न हो जाए , तब तक उस घर में वह रह सकते हैं। बस घर में कोई मरम्मत या निर्माण और नवनिर्माण नहीं करवा सकते। उस हवेलीनुमा बंगले के चारो तरफ सरकारी बिल्डिंगें खड़ी हो गईं। आई ए एस अफसरों के लिए आफिसर्स कालोनी। कोई चार - पांच दशक बाद वह घर पूरी तरह खंडहर होने की राह पर जब आ गया तब उन के परिवारीजन से उसे ख़ाली करवा कर उसे गिरा दिया गया। बारह मंज़िला विधायक और मंत्री निवास बनाने के लिए। बना भी। पर उस घर से तब तक कोई ढाई दशक का हमारा भी वास्ता हो गया था। सो एक रात बुलडोजर जब उस घर को गिरा रहे थे तो यह कविता मेरे मन से फूट पड़ी। बहुत दिनों तक उदास रहा मैं उस घर के गिरने से। उस घर के लोगों के बेघर होने से। लगता था उस घर का मलबा हमारी छाती पर गिर रहा है। घर नहीं , दिल टूट रहा है। वह लोग नहीं , मैं ही बेघर हो गया हूं। उस पुराने घर की सिसकी आज भी मेरे मन में सिसकती रहती है। वह घर आज भी मुझ में सांस लेता रहता है। उस धरती की धड़कन आज भी धड़कती रहती है , मेरे दिल में। मेरे दिमाग में। लगता है जैसे वह बुलडोजर आज भी हमारी छाती पर चढ़ा हुआ मुझे गिरा रहा है। और स्त्री भी एक धरती ही है। स्त्री का रूपक इसी लिए रचा। धरती और स्त्री कितना कुछ तो सहती है। सहती ही रहती है। धरती और स्त्री दोनों ही जो न हों तो हम कहां रहेंगे ? 

3. आपका विश्वास है - आपका लिखना लिखना नहीं है, प्रतिबद्धता है पीड़ा को स्वर देने की। सारे प्रतिबद्ध शिथिल हो चुके हैं, प्रतिबद्धता का पानी सूख चुका है, विचारधाराओं की इतिश्री की बात भी चलती रहती है – आपकी प्रतिबद्धता के प्रति इस विश्वास का कारण क्या है, चुनौतियाँ क्या हैं ? क्या प्रतिबद्धों का भविष्य सुरक्षित बना रहेगा ? 

- चुनौतियां सर्वदा एक सी ही होती हैं। अगर आप के भीतर , आप की आत्मा जीवित है तो आत्मा से बड़ी चुनौती कोई दूसरी नहीं। आत्मा ही है जो आप को सही - ग़लत का बोध करवाना नहीं भूलती। आप मानिए , न मानिए पर आत्मा आप को सत्य के पथ पर ही चलने के लिए कहती है। पीड़ा और पीड़ा को स्वर देने की प्रतिबद्धता यहीं से फूटती है जैसे किसी सोते से जल। जल की धारा। धारा में प्रवाह यहीं से आता है। पीड़ित की पीड़ा का स्वर इसी लिए मेरी रचनाओं में प्रमुख स्वर है। वैचारिक प्रतिबद्धता जैसे तत्व साहित्य को पोस्टर बना देते हैं। दोगला और दारुण बना देते हैं। लेखक को राजनीतिक टूल और टट्टू बना देते हैं। लेखक को यह शोभा नहीं देता। साहित्य का पतन हो जाता है। इसी लिए राजनीतिक प्रतिबद्धता में लिपटी या सनी एक भी बड़ी रचना दुनिया की किसी भी भाषा में नहीं मिलती। न कभी मिलेगी। मनुष्यता से बड़ी प्रतिबद्धता कोई और नहीं होती। मनुष्यता है , पीड़ा है तो रचना है। नहीं कुछ नहीं। 

4.भारतीय कहानियों में विशेषकर हिंदी कहानियों में क्या-क्या लिखा जाना, रचा जाना शेष है ? 

- जीवन जितना बदलेगा , कहानियां भी उतनी ही बदलेंगी। तकनीक जैसे बदलती है। समय और साधन भी वैसे ही बदलते हैं। माध्यम भी उसी अनुपात में बदलते हैं। भावना और संवेदना जैसे बदलती है , कहानी या कोई भी रचना बदलती है। पहले हरकारे थे , कबूतर थे संदेश भेजने के लिए। यह वाचिक का दौर था। वाचिक परंपरा का आज भी बहुत महत्व है। बहुत सी कथाएं वाचिक परंपरा से ही हमारे बीच आईं। फिर लिखित का दौर आया तो चिट्ठियां आ गईं। डाक विभाग आ गया। जल्दी की बात हुई तो तार विभाग आ गया। फ़ोन आ गया। यह लीजिए फैक्स भी आ गया। पेजर आ गया। आते - आते इंटरनेट आया तो मेल आ गया। मोबाईल भी आया। एस एम एस भी। वाट्सअप , फेसबुक , ट्विटर , एक्स , इंस्टाग्राम आदि भी। स्मार्ट फोन आया तो वाट्सअप भी। वीडियो काल आदि भी। तो जब इतनी सारी चीजें आ गईं तो बहुत सारी चीज़ें विदा भी हो गईं। आज से कोई पंद्रह बरस पहले मैं ने एक कहानी लिखी थी , फेसबुक में फंसे चेहरे। कथादेश में छपी। बहुत से लोगों ने चिट्ठी लिख - लिख कर पूछा कि यह फेसबुक क्या बला है। साहित्य अकादमी , दिल्ली ने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में कहानी पाठ का कार्यक्रम रखा तो मैं ने यही फेसबुक में फंसे चेहरे कहानी का पाठ किया। वहां भी लोग पूछने लगे कि यह फ़ेसबुक क्या है ? अब तो कोई नहीं पूछता कि फेसबुक क्या है। जो लोग फेसबुक पर नहीं हैं , वह लोग भी पूछ लेते हैं कि फेसबुक पर क्या चल रहा है। ट्यूटर पर क्या ट्रेंड हो रहा है। तो लोग और माध्यम जैसे - जैसे बदलेंगे , कहानियां भी बदलती रहेंगी। शरत बाबू या प्रेमचंद की रचनाओं में उपस्थित बैलगाड़ी , रेलगाड़ी थी। अब दुनिया भर की फ़्लाइट है। तो तकनीक भावना और संवेदना भी गढ़ती है। हां , मां नहीं बदलती। मनुष्यता नहीं बदलती। भूख और प्यास नहीं बदलती। किसी भी रचना की ताक़त और मूल यही हैं। इन में इच्छाएं और महत्वाकांक्षाएं बढ़ती जाती हैं। कहानियों में यह सब डुबकी मारते रहते हैं। तो कहानियां बदलती जाती हैं। इस लिए शेष तो बहुत कुछ है। हर रचना छपने के बाद मुझे लगता है कि अभी तो बहुत कुछ लिखना है। लिखना ख़त्म नहीं होता। कभी ख़त्म नहीं होगा। जिस दिन , जिस क्षण लिखना ख़त्म , समझिए कि मैं मर गया। मेरा जीवन समाप्त। 


5 विधाओं का सम्मिलन तो ठीक है, साझेदारी भी – कहानियों में अमूर्त गद्य की पेशेबंदी को आप किस तरह देखते हैं, कहानी में कहानी जैसा ही कुछ न रहे तो पाठक क्यों कर उसे कहानी कहे, माने और कथाकार के क़रीब जाये ? 

- किसी रचना में किसी किस्म की पेशबंदी अपने आप में बड़ी मूर्खता है। धृष्टता है। अपराध है। वह पेशबंदी मूर्त की हो या अमूर्त की। फिर किसी रचना , किसी कहानी का सब से बड़ा जज तो पाठक ही है। जिस का चाहे दीवाना हो जाए , जिसे चाहे कचरे में डाल दे। पाठक से बड़ा कोई नहीं। न कोई आलोचक , न संपादक। पाठक ही माई - बाप है। अगर आप भगवान को मानती हैं तो जानिए पाठक ही किसी लेखक का भगवान होता है। कम से कम मेरा तो है। 


6. भविष्य की कहानियों के बारे में ही बता दीजिए – कैसा होगा इस सदी के बाद शिल्प औऱ कथ्य ? 

- जैसा समय होगा , वैसी ही तो कहानी होगी। पौराणिक समय में पौराणिक कहानियां थी , आधुनिक समय में आधुनिक कहानियां हैं। भारतीय फिल्मों के पितामह कहे जाने वाले दादा साहब फाल्के ने बताया है कि जब वह पहली फिल्म द लाइफ ऑफ क्राइस्ट देखी देख रहे थे तब उन के मन में हरिश्चंद्र की कथा चल रही थी। और उन्हों ने भारत की पहली मूक फिल्म राजा हरिश्चंद्र बनाई भी । तो शिल्प जैसा भी हो कथ्य तो अपनी ही भूमि का होगा। आप भारत में रह कर अमरीका , रूस , यूरोप आदि की बात भी अपनी कहानी में लिख सकते हैं पर कहानी में संदर्भ तो भारतीय रहेगा ही। ठीक है कि कहानी कल्पना है , गल्प है पर झूठ और चमत्कार का पुलिंदा भर तो नहीं ही है। कुछ लोग शिल्प का चमत्कार करते मिलते हैं पर अगर उस शिल्प में कथा तत्व नदारद है तो उस शिल्प का अंतिम संस्कार बहुत जल्दी हो जाता है। कथ्य महत्वपूर्ण है। कथा ही कथा की जान होती है। सिर्फ़ तेल , मसाला डालने से सब्जी नहीं बनती। सब्जी के बिना तेल , मसाले का कोई अर्थ नहीं। पौराणिक कहानियां आज भी इसी लिए प्रासंगिक बनी रहती हैं। क्यों कि उन में कथा का तत्व बहुत प्रगाढ़ है। रामायण और महाभारत की कहानियां आज भी रोमांचक और रोचक लगती हैं तो सिर्फ़ इसी लिए कि उन की कथा में कथा बहुत है। महाभारत से बड़ी कथा तो दुनिया में किसी भी भाषा में आज तक नहीं लिखी जा सकी है। टालस्टाय का वार एंड पीस तक पानी मांगता है , महाभारत की कथा के आगे। कथा जो भी रोचक और रोमांचक होगी , पढ़ी जाएगी। रामायण और महाभारत की तमाम कथाएं तो लोग बिना पढ़े भी जानते हैं। क्यों कि वह लोक में हैं। लोगों की जुबान पर हैं। अनपढ़ और गंवार लोग भी इन कथाओं से परिचित हैं। तो सिर्फ़ इस लिए कि उस में कथा का तत्व बहुत प्रबल है। अलग बात है कि अब के समय की बहुत सारी कहानियां समय के साथ पुरानी पड़ती जाती हैं। उन की प्रासंगिकता ख़त्म हो जाती है। अज्ञेय ने एक समय लिखित घोषणा की कि वह अब कहानियां लिखनी बंद कर रहे हैं। क्यों कि समय के साथ कहानी पुरानी पड़ जाती है। कविता नहीं। कविता कभी पुरानी नहीं पड़ती। इस लिए वह कविता लिखते रहेंगे। कहानी नहीं। 


7. आज का बच्चा बड़ा होकर किन किन विषयों का उपन्यास पढ़ना चाहेगा, चाहेगा भी नहीं ? मैं आपका उत्तर एक उपन्यासकार के रूप में नहीं, एक विचारकर्ता के रूप में जानना चाहती हूँ – तब जब मनुष्य नेटजन के रूप में पूरी तरह से तब्दील हो चुका होगा। 


- दुर्भाग्य है कि बच्चा ही क्या अब कोई पढ़ना नहीं , देखना चाहता है। क्लास भी अब ऑनलाइन होने लगे हैं। कोरोना ने यह एक बहुत बड़ी बीमारी छोड़ दी है। वैसे भी हमारे यहां बच्चों के पालन - पोषण में नक़ल बहुत होने लगी है। फिर लोगों के पास समय कम है। बच्चों को समय नहीं दे पाते। संयुक्त परिवार समाप्त हैं। दादा - दादी , नाना -नानी , बुआ , मौसी आदि परिवार से विदा हो चुके हैं। एकल परिवार हैं अब। तो बच्चों का स्वाभाविक विकास डगमगा गया है। बच्चे टी वी , मोबाईल देख कर पल रहे हैं। बड़े हो रहे हैं। बच्चे बहुत जल्दी ही सब कुछ सीख ले रहे हैं। बहुत जल्दी बड़े हो जा रहे हैं। समय से पहले बड़े हो जा रहे हैं। क्यों कि संवेदना शून्य , भावना शून्य समाज हम रच रहे हैं। धन बहुत बड़ा फैक्टर बन चुका है। कहूं कि राक्षस। टीनएज बच्चे अब पैसा , सेक्स और शराब के क़ायल हो चले हैं। लड़की हो या लड़का। यही उन की दुनिया है। इस से कुछ अवकाश मिलता है तो कैरियर दबोच लेता है। हमारे समय में कॉमिक्स और कार्टून बच्चों को बहुत भ्रमित करते थे। नष्ट करते थे। अब तो बच्चों को मिसगाइड करने के लिए तमाम चीज़ें उपस्थित हैं। जिन को आप चाह कर भी रोक नहीं सकते।


8. आपको भारतीय हिंदी सिनेमा के दिग्गज़ों से मिलने, बतियाने, उनके कुछ खास उगलवाने का मौक़ा मिला है, कुछ विशिष्ट अनुभव बताना चाहें। 


- बहुतेरी बातें हैं। क़िस्से हैं। कुछ लोगों से मिलना बेहद सुखद रहा है। कुछ लोगों से मिलना बहुत सुखद नहीं रहा। कुछ लोगों से तो मित्रता भी हो गई। हालां कि सिनेमा ही नहीं , अन्य क्षेत्रों के भी बहुत से दिग्गजों लोगों से मिलना बतियाना होता रहा है। हमारे काम का हिस्सा रहा है यह। सिनेमा से ज़्यादा तो राजनीतिक दिग्गजों से मिलना हुआ। इन में भी सब से ज़्यादा अटल बिहारी वाजपेयी जी से। लेकिन आप ने सिनेमा जगत की बात की है तो उसी पर बात करते हैं। मेरा सौभाग्य है कि दिलीप कुमार , शशि कपूर , अमिताभ बच्चन , जितेंद्र , फ़ारुख़ शेख़ , जानी वाकर , ए के हंगल , मनोहर सिंह , कुलभूषण खरबंदा , हेमा मालिनी , रेखा , श्रीदेवी , पूजा भट्ट आदि तमाम अभिनेता और अभिनेत्रियों से इंटरव्यू किए। लता मंगेशकर , आशा भोंसले , हृदयनाथ मंगेशकर , उषा मंगेशकर , हेमलता , जगजीत सिंह , कुमार शानू आदि गायकों से भी। थिएटर के भी बहुत से दिग्गजों ब व कारंत , बृजमोहन शाह , उषा गांगुली , चेतना जालान आदि लोगों से भी। 

अमिताभ बच्चन से इंटरव्यू लेना बहुत सुखद था। बहुत आत्मीयता और सम्मान के साथ वह मिलते हैं। सहजता और सम्मान उन की बहुत बड़ी पूंजी है। यहां तक कि जब उन को मैं ने लगभग चिकोटी काटते हुए पूछा कि आप की यह विनम्रता ओढ़ी हुई है , अभिनय है या सचमुच ही आप इतने विनम्र हैं। अमिताभ बच्चन हाथ जोड़ और ज़्यादा विनम्र हो कर बोले , आप जो समझ लीजिए। यह 1996 की बात है। तब कौन बनेगा करोड़पति शुरू नहीं हुआ था। चार साल बाद जब कौन बनेगा करोड़पति शुरू हुआ तब पता चला कि अमिताभ बच्चन सचमुच बहुत विनम्र हैं। इस बड़े से इंटरव्यू के बाद भी कई बार अमिताभ बच्चन से भेंट हुई। दूसरी बार जब मिले तो मैं ने पूछा , पहचाना मुझे ? वह तपाक से हाथ जोड़ते हुए , गले लगाते हुए मिले और बोले , क्यों नहीं पहचानूंगा। वह बोले , आप ने मेरे बढ़िया इंटरव्यू किया था। उस इंटरव्यू में मैं ने उन से एक सवाल यह भी पूछा था कि : आप की ही क्या हिंदी फ़िल्मों में एक ट्रेंड सा है सत्य का असत्य पर जीत का। फटाफट जीत का। जब कि समाज में चीज़ें इस से उलट हैं। खास कर अदालत और पुलिसिया मामलों में।

-वह बोले थे , बाबू जी इन दिनों अस्वस्थ रहते हैं। पर रोज शाम को मेरी फ़िल्में ज़रूर देखते हैं। मैं उन से पूछता हूं क्यों देखते हैं, क्या धरा है इन में? तो वह कहते हैं कि इन फ़िल्मों में तीन घंटे के अंदर जो ‘पोएटिक जस्टिस’ मिल जाता है, वह इंसान को जीवन भर नहीं मिल पाता है। मैं एक बार रूस गया था। वहां मेरी फ़िल्में बहुत चलती हैं। एक आदमी से मैं ने इस बाबत पूछा तो वह बोला कि जब मैं हिंदी फ़िल्म देख कर बाहर आता हूं तो मेरे चेहरे पर हल्की मुस्कान होती है और गाल पर एक बूंद आंसू!

उस इंटरव्यू में अमिताभ बच्चन ने अगले जन्म में पत्रकार बनने की इच्छा जताई थी तो इस लिए कि पत्रकार को सवाल पूछने का अधिकार होता है। 

दिलीप कुमार की कलफ लगी उर्दू परेशान करती रही। इंटरव्यू के बाद तो दिलीप कुमार बहुत गंभीर हो कर अपने इंटरव्यू की फीस भी मांगने लगे। मैं ने हाथ जोड़ कर कहा कि मेरी हैसियत नहीं है कि आप को इस इंटरव्यू की फीस दे सकूं ! वह अचानक ठठा कर हंसे और बोले , जाइए जीते रहिए ! फ़ारुख़ शेख़ भी कलफ लगी उर्दू बोलते थे। लेकिन अंदाज़ दोस्ताना रहता था। 

जानी वाकर से जब इंटरव्यू कर रहा था तब दिलीप कुमार भी साथ उपस्थित थे। दिलीप कुमार जब - तब जानी वाकर की बात में हस्तक्षेप करते रहे थे। और जानी वाकर को दिलीप कुमार के हस्तक्षेप पर कोई ऐतराज नहीं हुआ। लेकिन जब दिलीप कुमार से इंटरव्यू कर रहा था तब जानी वाकर ने भी दो - तीन बार हस्तक्षेप किया। दिलीप कुमार ने अंतत : जानी वाकर को डपटते हुए कहा , इंटरव्यू आप का हो रहा है कि मेरा ? जानी वाकर तुरंत ख़ामोश हो गए थे। दिलीप कुमार इंटरव्यू के उस हिस्से में बहुत संजीदा हो गए जिन में देवदास और मुगलेआज़म पर बात हो रही थी। उन्हों ने कहा भी कि देवदास होना सब के वश की बात नहीं है। 

मनोज वाजपेयी आज की तारीख़ में बहुत बड़े अभिनेता हैं। लेकिन जब उन से भेंट हुई तो उन के बहुत इसरार पर भी जाने क्यों उन का इंटरव्यू करने को मन नहीं हुआ। तब जब कि वह बिलकुल बच्चों की तरह बहुत पीछे पड़े कि , भैया एगो हमरो इंटरव्यू ले ल ! महेश भट्ट तक से मनोज वाजपेयी ने सिफ़ारिश करवाई। हुआ यह कि एक बार महेश भट्ट अपनी बेटी पूजा भट्ट के साथ लखनऊ आए। पूजा भट्ट ने एक फिल्म प्रोड्यूस की थी तमन्ना। तो तमन्ना का प्रीमियम शो था लखनऊ में। तमन्ना की लगभग पूरी टीम आई थी। महेश भट्ट और पूजा भट्ट का अलग - अलग इंटरव्यू किया। मनोज वाजपेयी ने भी चाहा कि उन का इंटरव्यू हो। मनोज वाजपेयी के कहने पर महेश भट्ट ने मुझ से कहा भी कि मनोज वाजपेयी बहुत बड़ा एक्टर है। इस का इंटरव्यू कर लीजिए। मैं ने मनोज वाजपेयी से कहा कि अपने काम के बारे में बताइए। उन्हों ने कुछ सीरियल के नाम लिए। नाटकों के नाम लिए। जो मैं ने देखे नहीं थे। बैंडिट क्वीन का नाम लिया जिस में उन्हों ने मान सिंह का नाम लिया। मान सिंह की भूमिका मुझे याद थी। मनोज से मैं ने कहा कि कल देखते हैं। बात ख़त्म हो गई थी। पर बाद में जब सत्या , शूल , अक्स और अलीगढ़ जैसी कई सारी फ़िल्में देखीं तो बहुत पछताया। बहुत पछताया कि हाय ! मनोज वाजपेयी का इंटरव्यू मैं ने तब क्यों नहीं किया ! यह पछतावा आज तक है। अलीगढ़ मनोज वाजपेयी की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म है। 

लता मंगेशकर से जब मिला तो राजभवन में मिला। राजकीय अतिथि बन कर आई थीं। उन के चेहरे पर देवत्व और सफलता की आभा थी। बात - बेबात वह खिलखिलाती रहीं। आत्मीयता और औपचारिकता की जैसे मिलजुला कोलाज थीं वह। आशा भोसले तो होटल के कमरे में मैक्सी पहन कर बेड पर बैठ कर ऐसे बतियाती रहीं गोया मैं उन के घर का सदस्य होऊं। औपचारिकता की कोई दीवार नहीं खड़ी की। हर बात पर बेबाक। कुछ भी छुपाना नहीं। उषा मंगेशकर के पास जैसे कुछ बताने के लिए था ही नहीं। उन का इंटरव्यू नोट कर के भी नहीं लिख सका। तो छपता भी क्या। हृदयनाथ मंगेशकर भी इंटरव्यू के दौरान दोस्ताना व्यवहार रखे। कुछ सवालों पर भड़के भी पर आपा नहीं खोया। लता मंगेशकर और सी रामचंद्र के संबंधों के सवाल पर उखड़ गए। आशा भोसले पर कुछ सवालों को ले कर भी वह भड़के। और आपा खो बैठे। गो कि हृदयनाथ मंगेशकर संत स्वाभाव के आदमी हैं। इस सब के बावजूद हमारे दोस्त हैं वह अब। हेमलता भी आशा भोसले की ही तरह हंसती - हंसाती इंटरव्यू देती रहीं। रवींद्र जैन द्वारा आर्थिक , मानसिक और दैहिक शोषण की दास्तान बताते - बताते कई बार रो -  रो पड़ीं वह। कुमार शानू , श्रीदेवी जैसे लोग अपनी ही दुनिया में रहने वाले हैं। बाहर की दुनिया के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। हेमा मालिनी से जब मिला था , वह राजनीति में नहीं थीं। ज़्यादातर हीरोइनों के पास सवालों के जवाब नहीं होते। वह अपने हुस्न और सफलता पर ही फोकस चाहती हैं। कुछ और सवाल नहीं। जीतेंद्र ने जब बताया कि फिगर मेनटेन करने के लिए तीस साल तक कोई पका अनाज नहीं खाया। रोटी तक नहीं खाई। तो मैं दंग रह गया। जीतेंद्र को तो मेरा इंटरव्यू लेना इतना पसंद आया कि वह मुझे दिल्ली ले जाने लगे। बड़ी मुश्किल से उन को न जाने के लिए मना पाया। 

जगजीत सिंह से तो कई बार मेरा झगड़ा भी हुआ है। एक बार तो मैं ने उन से कह दिया कि होंगे आप बहुत बड़े ग़ज़ल गायक पर मैं भी कोई ऐरा - ग़ैरा नहीं हूं ! वह मुझे बाहों में भर लिए। बोले , आप मेरे दोस्त हैं। मेरे कद्रदान हैं। बात ख़त्म हो गई थी। जब वह लखनऊ आते थे तो मुझे खोजते फिरते थे। कई बार फ़ोन कर के बता देते थे कि लखनऊ आ रहा हूं। इंटरव्यू तो मैं ने बहुतेरे लोगों के किए हैं। पर दो लोग ऐसे हैं जिन का सब से ज़्यादा इंटरव्यू किया है। एक अटल बिहारी वाजपेयी और दूसरे हैं जगजीत सिंह। सो इंटरव्यू से इतर बहुतेरे क़िस्से , बहुतेरे लोगों के हैं। 


9. बताइये – हिंदी गीतों में फ़िल्मी गीतों, गीतकारों को शुमार करने लायक कोई भी संभावना नहीं थी जो इस पूरी शब्द-संपदा की उपेक्षा होती रही ? 

- इसी लिए हिंदी कविता अब अपना अस्तित्व बचाने में संघर्षरत है। कोई प्रकाशक जल्दी कविता संकलन छापने को तैयार नहीं होता। पैसा मांगता है , कविता संग्रह प्रकाशित करने के लिए। बड़े - बड़े कवि पैसा दे कर कविता संग्रह छपवा रहे हैं। कवि ही कवि की कविता सुन रहे हैं। जनता नहीं। जनता तो कविता के नाम पर लतीफ़ा सुनने में व्यस्त और न्यस्त है। लतीफ़ेबाज़ या फिर गलेबाज़ ही जनता के पल्ले पड़ गए हैं। तो सिर्फ़ इस लिए कि हिंदी कवियों ने कविता से उस की गीतात्मकता छीन ली। लय छीन ली। छंद छीन लिया। पार्टियों का पोस्टर बना दिया कविता को। ख़ास कर वामपंथी कवियों ने कविता का प्राण हर लिया। प्राणहीन कविता कोई क्यों पढ़ेगा। क्यों सुनेगा। कैसे पढ़ेगा और सुनेगा। पार्टी का नारा या पोस्टर कविता तो नहीं हो सकती। यही हो गया। गीत यह लोग लिख नहीं सकते थे। तो गीत को अछूत बना कर घूरे पर फेंक दिया। डस्टविन में डाल दिया। गीत लिखना और गाना जैसे अपराध घोषित कर दिया वामपंथी कवियों ने। छायावाद को हिंदूवाद बता दिया। यह सब अपराध हुआ। बहुत बड़ा अपराध। अक्षम्य अपराध। महादेवी वर्मा ने लिखा है न कि : मैं नीर भरी दुःख की बदली / उमड़ी कल थी , मिट आज चली। तो गीत क्या मिटा , कविता मिटने की मोड़ पर बढ़ चली। सोचिए कि आज है ऐसा कोई कवि जिस की कविता कबीर , तुलसी या धूमिल या दुष्यंत कुमार की कविता की तरह ज़ुबान पर चढ़ जाए और जब जो चाहे तब सुना दे ! आलम यह है कि अब कवि को ही अपनी कविता याद नहीं रहती। डायरी या मोबाईल देख कर कविता पढ़ता है। तो कविता सुनने वाले या पढ़ने वाले को कैसे याद रहेगी कोई कविता। कविता , वर्तमान हिंदी कविता बहुत संकट के समय से गुज़र रही है। रही सही गैंगवादियों की गुफा में समा गई है। 

दरअसल हमारे वामपंथी मित्र दुर्भाग्य से गैंग चलाने के हामीदार हैं। लेखन और लेखक उन की प्राथमिकता में नहीं है। एजेंडा और गैंग ही उन का प्रिय और प्राथमिक विषय है। असहिष्णुता और नफ़रत के क़िले में क़ैद रहने के अभ्यस्त हैं हमारे वामपंथी मित्र। असहमति का एक सूत भी उन्हें किसी सूरत स्वीकार्य नहीं है। अगर आप उन के गैंग में हैं तो कालजयी रचनाकार हैं , भले भूसा लिख रहे हों। गैंग में अगर नहीं हैं तो आप लेखक तो छोड़िए , मनुष्य भी नहीं हैं। वह आप को जानने से भी इंकार कर देंगे। गैंग से बाहर के किसी व्यक्ति का नाम सुनते ही उन के चेहरे पर घृणा और हिकारत के भाव अनायास आ जाते हैं। ऐसा करने के लिए वह अभ्यस्त हैं। अभिशप्त हैं। उन का सारा सरोकार साहित्य से नहीं , एजेंडे से है। फासिज्म का विरोध करते-करते अब वह नए फ़ासिस्ट हैं। तानाशाह तो खैर हैं ही। इसी लिए समाज से , पाठक से यह लोग अब वंचित हैं। कुंठित हैं। खारिज और खत्म हैं। ख़ुद ही लिखते हैं , ख़ुद ही पढ़ते हैं। और सर्वदा दुःख में रहते हैं। फिर चाहते हैं कि पूरी दुनिया दुखी रहे। हिंदी में तो वह इतनी ऐंठ में रहते हैं कि ब्रेख्त और नेरुदा में ही सारी मुक्ति खोजते हैं। खुद नेरुदा या ब्रेख्त की तरह लिख नहीं सकते। उस से आगे बढ़ना ही नहीं चाहते। साहित्य के यह तालिबान हैं। हिप्पोक्रेसी के नायाब नवाब हैं यह लोग।

वामपंथी लेखकों के लिए पार्टी की सीमा रेखा बहुत गहरी है। सीमा रेखा लांघते ही राहुल सांकृत्यायन , रामविलास शर्मा जैसे कई सारे वामपंथी लेखकों के साथ वामपंथ ने क्या सुलूक किया है , हमारे सामने है । निर्मल वर्मा और नामवर सिंह के साथ भी क्या कुछ हुआ है , हम सब के सामने है । किस्से बहुतेरे हैं वामपंथ के कट्टरपन के । वामपंथी लेखकों ने खुद भी अपने को वामपंथ के कट्टरपन में कैसे तो ढाल लिया है , क्या इस के विवरण भी हम सब को नहीं मालूम ? ज़रा सा असहमत होते ही अगले को भाजपाई , भक्त और संघी घोषित कर देना भी वामपंथी कट्टरपन नहीं तो और क्या है । आप ही बता दें । आप या कोई और यह बात माने या न माने पर सच यह है कि चुनी हुई चुप्पियां और चुने हुए विरोध ने आज की तारीख़ में वामपंथी लेखकों को तेली का बैल बना दिया है । वामपंथी लेखक अब निश्चित परिधि में ही विचरण करते हैं । उसी निश्चित परिधि में बोलते , लिखते और पढ़ते हैं । नतीज़तन गिरोह बन कर रह गए हैं । इस निश्चित परिधि से बाहर सोचना , समझना वामपंथी लेखक भूल चुके हैं । ठहरा हुआ जल बन चुके हैं । ठहरे हुए जल की नियति मालूम है न !

10. एक वरिष्ठ पत्रकार के रूप में पिछले एक दशक की भारतीय पत्रकारिता का चेहरा आपको दिखाई कैसी देती है ? 

- बहुत रुग्ण और दारुण चेहरा है हमारी भारतीय पत्रकारिता का। कोई तीन - चार दशक से लगातार बिगड़ता गया है चेहरा। दलाली और चाटुकार की छवि बहुत गाढ़ी हो गई है। कभी देश की आज़ादी की लड़ाई का एक हथियार थी यह पत्रकारिता। पर अब आज़ादी को छीनने में जितनी सहायक पत्रकारिता हुई है , कोई और नहीं। आर्थिक उदारीकरण और आवारा पूंजी ने पत्रकारिता को लक्ष्मी का दासी बना दिया है। सत्ता की मंथरा बना दिया है। आलम यह है कि जब जिस की सत्ता , तब तिस का अख़बार। तब तिस का चैनल। 

लोग भ्रमवश पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा खंभा कहते रहते हैं। ऐसा है नहीं लेकिन। वस्तुत :  यह पूंजीपतियों का खंभा बन कर अब उपस्थित है। बाक़ी तलछट दलालों के हाथ में है। जनता की बात आज की पत्रकारिता नहीं करती। सत्ता और पूंजी हित की बात करती है। वैसे भी संविधान में चौथा स्तंभ का कोई ज़िक्र नहीं है। संविधान में सिर्फ़ तीन ही स्तंभ वर्णित हैं। विधायिका , न्यायपालिका और कार्यपालिका। पत्रकारिता का संकेतों में भी ज़िक्र नहीं है। पत्रकारिता क्या है ? ऐसे जैसे सत्ता रूपी  हाथी पर महावत का अंकुश। तो लोकतंत्र में पत्रकारिता सत्ता पर अंकुश होती है। अवधारणा यही है। लेकिन पत्रकारिता का पतन हो गया है। बुरी तरह पतित हो गई पत्रकारिता। अगर पत्रकारिता अपने शौर्य पर होती , महावत के अंकुश का काम करती सत्ता रूपी हाथी पर तो आज की तारीख़ में हमारी राजनीति भी इतनी पतित न होती। इतना पतन न होता सत्ता का। अंकुश ढीला हुआ है तो हाथी मदमस्त हो कर मनमानी पर आमादा है। सत्ता हित सर्वोपरि है , जनता हित ठेंगे पर। पत्रकारिता पतित हुई तो राजनीति भी पतित हो गई। पतन हो गया राजनीति का। 

अस्सी के दशक में दिल्ली में पत्रकारिता करता था। दिल्ली में तब के दिनों प्रेस के दो खाने थे। इंडियन प्रेस और इंटरनेशनल प्रेस। इंडियन प्रेस मतलब अंगरेजी के अख़बार। इंटरनेशनल प्रेस मतलब विदेशी अख़बार और बी बी सी आदि। हिंदी अख़बार और दूरदर्शन तब हाशिए पर भी नहीं थे। दिल्ली में हिंदी अख़बारों की स्थिति इतनी बुरी थी कि पूछिए मत। बात पंजाबी और अंग्रेजी में करते थे और काम हिंदी में। लोकसभा और राज्य सभा में तो अब हिंदी भी सुनाई देती है , पहले अंग्रेजी का ही बोलबाला था। प्रेस कांफ्रेंस भी ज़्यादातर अंग्रेजी में ही होती थी। एक बार इंदिरा गांधी जो तब प्रधान मंत्री थीं , की प्रेस कांफ्रेंस में मैं ने हिंदी में प्रश्न पूछा पर इंदिरा गांधी अंग्रेजी में ही जवाब देने लगीं। मैं ने एकाधिक बार टोका कि हिंदी में सवाल पूछा है तो जवाब भी हिंदी में दीजिए। कुछ और हिंदी पत्रकार भी हिंदी - हिंदी करने लगे तो इंदिरा जी ने चश्मा उतारा , ठुड्डी पर लगाया और बोलीं , यहां इंटरनेशनल प्रेस भी है और वह हिंदी नहीं जानता। कह कर वह फिर अंग्रेजी में स्टार्ट हो गईं। मेरे दफ्तर में बाद में इंदिरा गांधी के सूचना सलाहकार ने मेरी शिकायत भी की। हिंदी पत्रकारिता की हीनता अभी भी बहुत है दिल्ली , मुंबई आदि में। दक्षिण की तो खैर बात ही क्या करें। 


11. आप हिंदी प्रदेशों की हिंदी और रचे जा रहे साहित्य को अन्य भारतीय भाषाओं के बरक्स कैसे अधिक उर्वर कहना चाहेंगे और अधिक प्रभावी भी ? 

- तुलसीदास ने बहुत कुछ लिखा है। पर चर्चा और जीवन में अमूमन तीन ही रचनाएं हैं। श्रीराम चरित मानस , हनुमान चालीसा और विनय पत्रिका। क्यों कि सारा साहित्य सर्वदा श्रेष्ठ और जनप्रिय नहीं होता। प्रेमचंद ने तीन सौ से अधिक कहानियां लिखी हैं। पर ज़्यादा चर्चा उन की दस - बारह कहानियों की ही होती है। उपन्यास सम्राट कहलाए जाने के बावजूद उन के दो - तीन उपन्यास ही घूम फिर कर चर्चा में हैं। श्रीलाल शुक्ल ने बहुत लिखा है पर रागदरबारी ही लोग जानते और मानते हैं। यही हाल बाकी लेखकों की रचनाओं की भी है। हमारे यहां बहुत सारे ईश्वर और देवी देवता हैं। कई कोटि। पर लोक में शंकर , राम , कृष्ण , हनुमान , दुर्गा और काली देवी ही ज़्यादा हैं। तो किसी लेखक की सारी रचना श्रेष्ठ नहीं हो सकती। होती है कोई एक रचना जो पाठक को क्लिक कर जाती है और लेखक लोकप्रिय हो जाता है। 


कुछ विशिष्ट प्रश्न


12.वर्तमान दौर में समाज में पनप रहे असंतोष को आप किस तरह देखते हैं? 


- धर्म में कट्टरता और जातियों में वैमनष्यता ही इस असंतोष के बड़े कारण हैं। 

13.क्या आप व्यक्ति के मन में पनप रहे असंतोष की परिणिति समाज में किसी प्रकार के अतिवाद के रूप में देखते हैं ?

- भोजन और वस्त्र अब सभी के पास है। कहीं कमी नहीं है। इस लिए असंतोष की स्थितियां आजकल रोटी , कपड़ा , मकान , भूख और बेरोजगारी के परिणाम से नहीं हैं। आज की तारीख़ में राजनीतिक और आर्थिक असंतोष ज़्यादा हैं। महत्वाकांक्षा और अहंकार का असंतोष बहुत ज़्यादा। 


14.आपकी दृष्टि में कौन-सा अतिवाद ज़्यादा घातक है, व्यवस्थागत या व्यक्तिगत ?

- दोनों ही घातक हैं। बहुत घातक। 

15.आप अतिवाद को एक भौतिक अवस्था मानते हैं या मानसिक ?

- राक्षसी अवस्था। 

16.क्या आप मानते हैं कि अतिवाद विरोध प्रदर्शित करने का एक बेहत्तर माध्यम है ?

- बिलकुल नहीं। समाज को नष्ट करना , देश में अराजकता फैलाना ही अतिवाद के विरोध प्रदर्शन का एकमात्र लक्ष्य है। अतिवाद से , हिंसा से कोई सकारात्मक रास्ता कभी नहीं निकलता। 


17.आपकी नज़र में क्या अतिवाद समस्याओं के समाधान का श्रेष्ठ उपाय हो सकता है ?

- बिलकुल नहीं। अतिवाद मतलब विध्वंस। चाहे किसी विचार का अतिवाद हो या किसी व्यवस्था का। विध्वंस कभी भी समस्याओं के समाधान का रास्ता नहीं निकाल सकता। अतिवाद का सब से बड़ा उदाहरण हमारे सामने कश्मीर का था। कभी पंजाब भी इसी अतिवाद का शिकार था। पंजाब भी लगभग संभल गया। कश्मीर भी। पड़ोस में बांग्लादेश अभी मुंह बाए खड़ा है। इजराइल और फिलिस्तीन के हमास के बीच युद्ध अतिवाद का परिणाम है। रूस और यूक्रेन का युद्ध भी। इराक़ , सीरिया आदि इसी में बरबाद हैं। पाकिस्तान और अफगानिस्तान इस अतिवाद के कारण ही अब बरबाद और कंगाल देश हैं। 

  


18.ऐसे समाज के स्वास्थ्य पर आप क्या कहना चाहेंगे जिस पर हमेशा भय, आंतक एवं अमानवीयता का साया मंडराता हो ?

- निश्चित ही यह दुर्भग्यपूर्ण है। आतंक और हिंसा ही भय और अमानवीयता का माहौल बनाते हैं। पर अगर दुनिया के बाक़ी हिस्से से तुलना कीजिएगा तो भारत की स्थिति बहुत संतोषजनक है। बहुत बेहतर है। आतंक पर बहुत हद तक क़ाबू किया जा चुका है। इस लिए भय और अमानवीयता भी लगभग समाप्त है। हम अब भयमुक्त समाज में सांस ले रहे हैं। यह क्या कम है। 


19.आप किस क़िस्म के अतिवाद को राष्ट्र के लिए सबसे बड़ा ख़तरा मानते हैं?

- हर क़िस्म का अतिवाद किसी भी सभ्य समाज और देश के लिए बड़ा ख़तरा है। मनुष्यता का दुश्मन है यह अतिवाद। अतिवाद किसी भी क़िस्म का हो , हर देश और समाज के लिए बड़ा ख़तरा है। फ़िलहाल तो इस्लामिक आतंक पूरी दुनिया के लिए सब से बड़ा ख़तरा बन कर उपस्थित है। 


20.भारतीय जनतंत्र की गति और मति के बारे में आप क्या सोचते हैं ?

- भारत में जनतंत्र एक स्वाभाविक स्थिति है। इस की गति भी ठीक है और मति भी। इतना बड़ा देश है तो थोड़ी बहुत टूट - फूट भी ज़रूर है। इस से इंकार नहीं है। लेकिन यह बहुत चिंतनीय नहीं है। आहिस्ता - आहिस्ता सब ठीक हो जाएगा। बहुरंगी और बहुसंस्कृति वाला देश है। लेकिन प्रकृति बहता पानी जैसी है। बहता हुआ पानी सब कुछ साफ़ करता हुआ चलता है। वेद और आयुर्वेद का देश है। सब कुछ स्वाभाविक रूप से भी ठीक होता जाता है। जब राजतंत्र था भारत में तब उस राजतंत्र में भी जनतंत्र की सुगंध भरपूर थी। पौराणिक काल के राजतंत्र में भी जनतंत्र की सुगंध आज तक सुवासित है। आक्रमणकारियों , लुटेरों ने आ कर भारत के जनतंत्र को आघात पहुंचाने की कोशिश की थी पर बहुत हद तक क़ामयाब नहीं हो सके। उन की एक निश्चित सीमा थी। और अब तो जनतंत्र पूरमपूर है।

























3 comments:

  1. ज्ञानवर्धक, सार्थक और रोचक बातचीत

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  2. बहुत सुंदर

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  3. हर विषय पर बेबाक उत्तर। कहानियों का स्वरुप समय के साथ बदलता रहेगा। यह भी सच है कि अगर लेखक लिखेगा नहीं तो जी नहीं पायेगा।
    साधुवाद।
    सुधा आदेश

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