Sunday 20 August 2023

विपश्यना में प्रेम : एक अनपेक्षित पुण्य परिपाक

राजेश्वर वशिष्ठ

दयानंद पांडेय एक अथक शब्दजीवी हैं। पेशे से पत्रकार रहे हैं। उन्होंने लगभग हर विधा में लिखा है। मेरी जानकारी के मुताबिक अब तक उनके तरह उपन्यास, तरह कहानी संग्रह और अन्य विधाओं की कुल मिलाकर पचहत्तर पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। मैं उनके राजनीति पर लिखे गए अनुभव-परक लेखों और उस पृष्ठ भूमि पर लिखे गए कथा साहित्य का प्रशंसक रहा हूँ। वे खतरा मोल लेकर, सच्चाई का परचम लहराते हैं। राजनीति से इतर लिखते समय भी वे पूरी तरह से भावना में बह कर, खुल कर लिखते हैं; जैसा लिखते हुए अधिकांश लेखक संकोच और चालाकी बरत लेते हैं। वे अपने पात्रों में मानव-मनोविज्ञान को किसी कुशल मनोवैज्ञानिक की तरह तो पढ़ते ही हैं, उनके साथ उनकी व्यवहार परिणति और निष्कर्ष भी चकित कर देने वाले होते हैं। मैं उनके जिस नए उपन्यास विपश्यना में प्रेम की बात कर रहा हूँ, उसका तो कथ्य ही नहीं भाषा भी कमाल की हैं। इतनी साफ-सुथरी बुनावट कि शब्द और भावों का कोई भी फंदा ढीला और असंतुलित नहीं; अनायास निर्मल वर्मा के गद्य की याद आ जाती है।  

हम सब अपने जीवन में चल रही भाग-दौड़, संबंधों के बीच उपजी निराशा और नापसंदगी को पीछे छोड़ कर किसी अनजानी जगह पर पलायन करने की कल्पना अकसर करते रहते हैं; पर पृथ्वी पर उस एकांत द्वीप को कभी नहीं खोज पाते। वैसा किसी फिल्म में हो सकता है कि दो स्त्री-पुरुष अजनबियों की तरह मिलें और जीवन के आनंद को रजनीश के उदात्त दर्शन के साथ आदम और हव्वा की तरह खोजें। दयानंद पांडेय अपने इस उपन्यास में पाठक के साथ कुछ ऐसा ही खोजने के लिए निकल पड़ते हैं। 

उपन्यास का मूल पात्र विनय दो सप्ताह के लिए एक विपश्यना शिविर में जा पहुँचता है; उसका अनुमान है कि वहाँ का एकांत उसके मस्तिष्क को शांत और उर्जस्वित कर देगा। विनय का सारा जोश पहले एकाध दिनों में ही शांत हो जाता है, जब सोने-जागने, उठने-बैठने का अनुशासन उसे परेशान कर देता है। उसे माहौल इतना बोरिंग लगता है कि वह श्वसन क्रियाओं के बीच ही झपकी लेने लगता है। कुछ दिनों तक ऐसा ही चलता रहता है। 

यह भी स्वाभाविक सत्य है कि जब आपके पास जेल तोड़ कर भागने का एक भी रास्ता न हो तो आप वहाँ के कुछ क्रिया-कलापों में रुचि लेने लगते हैं। विनय धीरे-धीरे आस-पास नज़र दौड़ाता है तो उसे कई विदेशी स्त्री-पुरुष अपने तौर-तरीकों के कारण दिलचस्प लगते हैं। इनमें कुछ जवान हैं तो कुछ अधेड़ भी। उनके बीच आकर्षण और अंतरंगता रही होगी लेकिन इस चारदीवारी के भीतर वे ऐसे तोते हैं जिन्हें कुछ देर साथ बिठा कर फिर से पिंजरों में बंद कर दिया जाता है। लेखक ने इस वस्तु-स्थिति बहुत नपे-तुले और दिलचस्प अंदाज़ में प्रस्तुत किया है। 

उपन्यास का एक अंश देखिए – “फिर उस ने देखा कि एक फ्रांसीसी व्यक्ति बैठे-बैठे अचानक गायब होने लगा। उस ने चेक किया कि उस की महिला मित्र भी थोड़ी देर में उठ कर चल देती। यह सब देख कर उस का ध्यान खंडित होने लगा। देह का दर्द तो था ही भटकाने के लिए, अब यह विदेशी जोड़ों का नैन मटक्का भी उस का ध्यान भटकाने लगा। तब जब कि महिला क्या पुरुष से भी संकेतों में भी बात करना मना था। मोबाइल, लैपटॉप, किताबें, कागज, पेन तक जमा करवा ली गई थीं। बिस्किट, नमकीन आदि भी जमा कर ली गई। कपड़ा, साबुन और दवाई के अलावा कोई अतिरिक्त चीज़ किसी भी के पास नहीं रहने दी गई थी। यहां तक की कोई माला तक ले ली गई थी। किसी भी किस्म के पूजा पाठ या एक्सरसाइज तक पर कड़ी पाबंदी थी। क्या तो ध्यान भंग होने का खतरा था। कोई और पद्धति ध्यान में मिल कर खलल डाल सकती थी, नुकसान हो सकता था। मानसिक और शारीरिक भी। ऐसा ही बताया गया था। चंचल मन को काबू करने के तमाम उपाय किए गए थे। पर विनय देख रहा था कि तमाम उपाय अब धराशायी होने लगे थे। ..... जाने क्यों उस अंगरेज लड़के को देख कर विनय को अपने बेटे की याद आ जाती। इस लड़के की हाइट, उस की बाडी लेंगवेज़, उस की मासूमियत, और बहुत कुछ बेटे से मिलती थी।” इस अंश को पढ़ कर आप अनुमान लगा सकते हैं कि विनय बाबू की विपश्यना किस अवस्था में चल रही थी।

इस शिविर में कुछ लोग विदेशों – फ्रांस, रशिया, ऑस्ट्रेलिया - आदि से हैं तो भारत के विभिन्न प्रांतों से आए लोग भी हैं। विनय जिस नज़रिए से विदेशी प्रतिभागियों के तौर-तरीकों और शारीरिक मुद्राओं का वर्णन करता है, वह बहुत यथार्थपरक है। विनय ध्यान, श्वसन क्रियाओं आदि की तुलना में आचार्य सत्यनारायण गोयनका के रेकॉर्डिड प्रवचनों में अधिक दिलचस्पी लेता है क्योंकि उन्हें सुनना भर है, उनकी व्याख्या का तरीका और प्रस्तुति उसे पसंद है। मेरा मानना है कोई लेखक निजी अनुभव के बिना ऐसा सांगोपांग वर्णन नहीं कर सकता। 

इस शिविर के नियंत्रण में विनय को रह-रह कर बुद्ध याद आते हैं; वही एक ऐसे चर्चित पात्र हैं जिनकी कहानी हम सब ने बार-बार सुनी है। लेखक विनय के माध्यम से कहलाता है - “सच बतलाना बुद्ध तुम इसे कैसे स्वीकर कर पाए थे? कैसे सीख पाए थे? क्या सिर्फ़ विपश्यना से? अच्छा जो सीख ही गए थे, भूल ही गए थे अपने आप को भी, तो क्या करने गए थे बरसों बाद अपने उस राजमहल में भी? क्या सिर्फ़ भिक्षा मांगने ही? ...... विनय मन ही मन पूछता है। वह एक शाम आचार्य से इस पर चर्चा भी करना चाहता है। पर आचार्य इस बिंदु पर बहस से चर्चा से कतरा जाते हैं। यह कह कर कि बात सिर्फ़ विपश्यना पर ही हो सकती है। वह भी बहस भाव में नहीं। सिर्फ प्रश्न और उत्तर की शकल में संक्षिप्त में। और उन के पास हर सवाल का जवाब सिर्फ़ विकार और विकार मुक्ति में ही होता है। विनय को यह बात कुछ जमती नहीं। .... विनय यह सोच कर ही मुश्किल में आ जाता; जैसे किसी युवा लड़की के लिए उसका वक्ष ही भार हो जाता है, ठीक वैसे ही विनय के लिए साधना भी भार हो चली थी।” 

विनय जब इस स्थिति का सही मूल्यांकन कर लेता है तो इस ज़िद को छोड़ देता है कि उसे आचार्य से बहुत कुछ सीखना है। उसके निकट सुंदर स्त्रियाँ है जो भारतीय स्त्रियों की तरह बहुत कुछ ढक कर नहीं रखतीं। यह उनकी प्रकृति है; उनके संस्कार बाधक नहीं बनते। पुरुष के लिए तो सारी दुनिया का सौंदर्य निहारने और प्राप्त करने की इच्छा रखने का विषय है। इस बीच उसे आश्रम में किसी स्त्री पर प्रेत छाया का दृश्य दिखाई देता है; आचार्य उसका निराकरण करते हैं। विनय को बचपन में अपने गाँव के आस-पास घटे ऐसे अनेक प्रसंग याद आ जाते हैं। 

अब आगे, उपन्यास का घटना-क्रम एक दिलचस्प मोड़ लेता है। विनय सारे झंझटों को उनके स्थान पर छोड़ कर एक रशियन स्त्री पर ध्यान केंद्रित कर लेता है जो उसकी मुस्कराहट का प्रत्युत्तर देती है, बर्तन धोते हुए उसे स्पर्श का सुख देकर किसी अनूठे स्वप्न-लोक में ले जाती है। अब वह दिन भर हर अवस्था में उसी के विषय में सोचता है। 

“इश्क़ सेक्स नहीं है कि ऐसे भी हो सकता है और वैसे भी या कैसे भी। इश्क़ तो जगजीत सिंह की गाई कोई ग़ज़ल सुन कर भी हो सकता है। लेकिन इश्क़ जगजीत सिंह की गाई ग़ज़ल भी नहीं है। इश्क़ तो तकिए पर टूटा हुआ बाल भी नहीं है कि कभी मिल जाता है, कभी नहीं मिलता। तकिए पर मिला काजल भी नहीं। इश्क़ काजल की धार भी हो सकती है, उन्नत वक्ष भी, दिल की तरह धुकुर-पुकुर करता किसी स्त्री का नितंब भी हो सकता है, किसी की आवाज़ भी, अंदाज़ भी। या ऐसा कुछ भी नहीं हो सकता है। इश्क़ तो गिलहरी है। इश्क़ तो बुलबुल है, कोयल भी तितली भी। कब कहां गा दे, गुलाब के कांटे की तरह कब चुभ जाए, कौन जानता है। तुम भी नहीं, हम भी नहीं। लता मंगेशकर भी नहीं। इश्क़ एक अनबूझ यात्रा है। बूझ, समझ कर नहीं होती यह यात्रा। यह तो बस हो जाती है तो हो जाती है। नहीं होती तो नहीं होती। होती रहती है तो आनंद है। अलौकिक आनंद। वह एक मिसरा भी है न, इधर तो जल्दी-जल्दी है, उधर आहिस्ता-आहिस्ता। तो आहिस्ता-आहिस्ता भी एक फैक्टर है। और जल्दी जल्दी के भी क्या कहने। बस अपनी-अपनी सहूलियत है और अपना-अपना सलीका। प्रेम हल्दीघाटी या पानीपत की लड़ाई भी नहीं है। यहां कोई तर्क काम नहीं आता। कुछ लोगों का शग़ल ही है बतिया कर ही रह जाना, सुन कर मजा लेना । बहुत से लोग थ्यौरी से काम चलाते हैं, प्रैक्टिकल में उन की दिलचस्पी या क्षमता नहीं होती। अपना-अपना शौक़ है, अपनी- अपनी क्षमता। विनय की दिलचस्पी प्रैक्टिकल में रहती है। लंपटई की बेटिंग में नहीं।

तो क्या अभी आज सुबह से जो भी कुछ घट रहा है, उस रशियन स्त्री के साथ, क्या यह इश्क़ है? विनय अपने आप से पूछ रहा है। वह जवाब भी देता है, 'क्या पता ?' फिर कहे किस से?

मुमकिन है देह का आकर्षण भर हो।” 

अब विनय को एक सुखद कार्य मिल गया है। अब उसे आचार्य या उनके द्वारा सिखाई जा रही जटिल क्रियाओं से कोई शिकायत नहीं है। वह अपना ध्यान उस स्त्री पर केंद्रित कर लेता है, जिससे उसे अकथ प्रेम हो गया है। अब उसे इस साहचर्य से जुड़े ध्यान में ज्ञान की अनुभूति होने लगी है। आज एक ऐसा ही पवित्र दिन है; वह हॉस्टल लौट आया है लेकिन उसे नींद नहीं आ रही है। बाहर धुंध है, ठंड है। दिन भर के थके लोग सो गए हैं। वह इस सर्दी में बाहर निकल कर, पेड़ों के झुरमुटों में टहलना चाहता है। वह निकल गया है। 

“बुद्ध ने यशोधरा को छोड़ दिया था। घर बार छोड़ दिया था। और वह यहां अलकजाल में उलझा हुआ है। विपश्यना के आनंद की पहली सीढ़ी चढ़ चुकने और उस अमृतपान के बाद भी स्त्री सुख की लालसा में डूबा जा रहा है। अचानक उसे लगता है कि कोई उस के पीछे आ रहा है। यह पहली बार है। सो मुड़ कर देखता है। वही रशियन स्त्री है। वह अपने क़दम धीमे कर लेता है। धीरे-धीरे वह स्त्री उस के बगल में चलने लगी है। विनय ने मुड़ कर फिर पीछे देखा है कि क्या कोई और भी है क्या पीछे। देखा तो पाया कि कोई नहीं है। वह निश्चिंत हो जाता है। वह स्त्री आहिस्ता-आहिस्ता चलते हुए उस के क़रीब आती जाती है। स्पर्श की हद तक। विनय अब क्या करे भला? यह सोचते ही उस के भीतर कोई बिजली सी चमक जाती है। ऐसे जैसे कोई शार्ट सर्किट हो गया हो। बिजली गुम हो गई हो। सहसा उस ने बढ़ कर उसे बाहों में भर कर चूम लिया है। वह रशियन स्त्री अवाक रह गई है। उसे विनय इस तरह इतनी जल्दी चूम लेगा, इस का बिलकुल अंदाजा नहीं था। प्रत्युत्तर में वह भी चूम लेती है विनय को। दोनों ज़रा देर आलिंगनबद्ध हो कर एक दूसरे को चूमते रहते हैं। आहिस्ता-आहिस्ता फिर बेतहाशा। बाहों के दरमियां रात गहरी हो रही है। वह दोनों लिली के फूल की झाड़ की ओट ले लेते हैं। फिर आम के वृक्ष की तरफ सरक जाते हैं। जहां बिजली की हलकी रौशनी भी नहीं पहुंच पा रही है। दोनों में कोई शाब्दिक संवाद नहीं है। दोनों की देह संवाद-रत हैं। अजब कश्मकश है। यह देह का संघर्ष है, मन का संघर्ष है, वासना का संघर्ष है कि विपश्यना के कारण निकले विकार का संघर्ष है? और यह लीजिए जो नहीं होना था, होने लगा है। अकस्मात। आहिस्ता-आहिस्ता वह स्त्री विनय को निर्वस्त्र करने लगी है। विनय उसे विपश्यना के अनुशासन की याद दिलाना चाहता है। बताना चाहता है कि विपश्यना की वर्जनाओं को निभाना ज़रुरी है। पर भटक गया है। पूरी तरह भटक गया है। जैसे युगलबंदी चल रही हो गायन और वादन की। सेजिया चढ़त डर लागे! अधर, कपोल, वक्ष सभी जैसे साज बन गए हैं। और वह उन्हें उन के तार को मद्धम स्वर में बजा रहा है। स्त्री जब ऐसे उन्माद में आती है तो उस के अधर स्वत: बांसुरी बन जाते हैं। बस आप के अधरों में उसे बजाने की कला आती हो। सांस का अभ्यास ही यहाँ भी काम आता है। वही आना-पान।

बांसुरी जब सुर में आती है तो कपोल को संतूर की मिठास में तब्दील होने में देर नहीं लगती। वक्ष पियानो और नितंब तबला बन गया है। यह स्त्री जैसे इन सारे वाद्यों का लय-ताल जानती है, भली भांति समझती है। निष्णात है। संकोच की सिलवट पहले ही इसरार में हटा देती है। विनय जैसे जब चाहता है, वह उसी में ढलती जाती है। सारंगी का सुर भी यह रशियन स्त्री बहुत अच्छे से जानती है। स्त्री उस पर झुक आई है झुकती ही जा रही है। सरकती जा रही है। गोया सरकती जाए है नकाब आहिस्ता- आहिस्ता! गोया उस के मुख गागर बन गए हैं। वह डूब रहा है, अलौकिक सुख के गागर में अधर जो बांसुरी थे, अब माऊथ ऑर्गन बन गए हैं। न इधर जल्दी-जल्दी है न उधर आहिस्ता-आहिस्ता। देह संगीत की इस सभा में सभी सुर, सभी अलाप, आरोह-अवरोह सब अपनी गति में हैं। .... संभोग का सितार ऐसे ही तो बजता है।”

विनय इस रशियन स्त्री से एक -दो बार फिर मिलता है। उसे डर है कि यदि किसी को पता लग गया तो उन्हें बड़ी अपमानजनक स्थिति के साथ शिविर से निकाल दिया जाएगा। पर संभोग सुख का आकर्षण विनय जानता है, वह स्त्री भी; दोनों खतरों के बीच खेलना चुनते हैं। इस बार खेल और भी अधिक आनंददाई हो गया है क्योंकि साज और साजिंदे एक दूसरे को समझ चुके हैं। वे फिर-फिर इस आदिम खेल को खेलते हैं जिसमें भाषा की नहीं जोश और  सौम्य-पशुता की आवश्यकता होती है। 

इन अद्भुत अनुभवों के साथ ही शिविर का समापन हो जाता है। विनय लोगों से मिलता है तो उसे ठेस लगती है कि यहाँ आने वाले अधिकांश लोगों का ध्येय विपश्यना सीखना था ही नहीं। कोई सस्ते आवास के चक्कर में आया था तो कोई इसे व्यवसाय के तरीके से देखने के लिए आया था। वह लोगों से मिल रहा था पर उसकी आंखें तो अपनी रशियन प्रेयसी को ही खोज रही थीं, जिसका काल्पनिक नाम उसने मल्लिका रख दिया था। उसका वास्तविक नाम दारिदा था। 

वह मिलती है और अपने पति से भी मिलवाती है। उसका पति वही बीमार व्यक्ति था जिसे आचार्य ने दीवार से लग कर बैठने की अनुमति दे दी थी और विनय को साफ मना कर दिया था। दारिदा टैक्सी में बैठ कर चली जाती है और निराश विनय अपने रास्ते लगता है। वह जानता है ऐसे संपर्क और संसर्ग तो भाग्य से ही बनते हैं। 

उपन्यास का सबसे चमत्कारिक और प्रसन्नतादाई अंश वह है जब एक वर्ष बाद विनय को दारिदा का फोन आता है और वह बताती है कि वह उसके बच्चे की माँ बन गई है; बच्चा दारिदा की तरह गोरा है लेकिन उसकी शक्ल विनय जैसी है। यह बात उसने अपने पति को नहीं बताई है कि यह बच्चा विनय से उसके गर्भ में आया था, लेकिन उसे बताना चाहती है। उसे अपने विवाहित जीवन में संतान की ज़रूरत थी और उसे लग गया था कि यह पवित्र कार्य विनय के सहयोग से संभव हो सकता है। उसने बेटे का नाम विपश्यना रख दिया है। 

यह उपन्यास इन दिनों प्रकाशित हो रहे उपन्यासों के बीच कथा, भाषा और विन्यास के स्तर पर अलग और अनूठा है। इसे अवश्य पढ़ा जाना चाहिए। 

विपश्यना में प्रेम उपन्यास पढ़ने के लिए इस लिंक को क्लिक कीजिए 


विपश्यना में विलाप 


समीक्ष्य पुस्तक :


प्रेम में विपश्यना 
लेखक : दयानंद पांडेय 
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन 
4695 , 21 - ए दरियागंज , नई दिल्ली - 110002 
आवरण पेंटिंग : अवधेश मिश्र 
पृष्ठ : 106 
हार्ड बाऊंड : 499 रुपए 
पेपरबैक : 299 रुपए 

अमेज़न (भारत)
हार्डकवर : https://amzn.eu/d/g20hNDl




2 comments:

  1. श्रीमन् आपके भाषा -भाव -प्रवाह में बहती शब्दों की इस दुनिया में जो भी गोता लगाएगा वह धारावाहिक, चलचित्र इत्यादि की दुनिया को भूल जाएगा ।आपकी रचना धर्मिता का आदित: कायल हूं।आपकी लेखनी को शत-शत नमन 🙏🙏

    ReplyDelete
  2. बहुत अच्छी एवं सार्थक समीक्षा। निश्चय ही अनूठे विषय पर लिखी अनूठी पठनीय पुस्तक। बधाई आपको। 🙏

    ReplyDelete