Tuesday 9 August 2022

मोहर्रम की बधाई देने और मर्सिया पर ताली बजाने वाले सेक्यूलर लोग

 दयानंद पांडेय 

आज मोहर्रम है। ग़म का दिन है। त्यौहार नहीं है मोहर्रम। लेकिन लालू यादव के कुख्यात पुत्र तेजप्रताप यादव आज नीतीश कुमार को अपने पाले में आया देख कर मोहर्रम की बधाई भी देने लगे। कुछ न्यूज़ चैनलों के एंकर भी मोहर्रम को त्यौहार बता गए। कुछ समय पहले तो नवभारत टाइम्स जैसे अख़बार ने बाक़ायदा संपादकीय लिख कर मोहर्रम को त्यौहार बता कर बधाई दी थी। सेक्यूलरिज्म की यह पराकाष्ठा है। तेज प्रताप सत्ता के जश्न में थे। मोहर्रम को भी जश्न बना बैठे थे। पर यह मीडिया के साक्षर लोग ? 

उन दिनों उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का राज था। अम्मार रिज़वी कैबिनेट मिनिस्टर थे। सचिवालय में उन के कमरे से कुछ पत्रकार एक साथ बाहर निकल रहे थे कि अचानक एक सेक्यूलर पत्रकार उधर से गुज़रे। पूछा कि कोई ख़ास बात है क्या ? पत्रकारों में से एक चुहुल पर उतर आया। बोला , ' अरे कुछ ख़ास नहीं। बस अम्मार भाई को मोहर्रम की बधाई देने चले गए थे। ' सेक्यूलर पत्रकार ने आव देखा , न ताव अम्मार रिज़वी के कमरे में धड़धड़ा कर घुस गए। और हाथ बढ़ा कर हाथ मिलाते हुए बोले , ' अम्मार भाई , मोहर्रम की बहुत बधाई ! '

अम्मार रिज़वी सकते में आ गए। अम्मार रिज़वी ख़ुद शिया थे। लेकिन करते तो क्या करते। पत्रकार की मूर्खता पर चेहरा बिगाड़ कर रह गए। 

एशिया में दो ही जगह ऐसी हैं जहां सब से ज़्यादा शिया-सुन्नी दंगे होते रहे हैं। एक लखनऊ में , दूसरे कराची में। इस लिए कि सब से ज़्यादा शिया लखनऊ और कराची में ही रहते हैं। अस्सी के दशक में भी लखनऊ में  मैं  ने शिया-सुन्नी के भयानक दंगे देखे हैं। दंगे बहुत देखे हैं और उन्हें कवर किया है। जैसे दिल्ली में हिंदू-सिख दंगा। तमाम हिंदू-मुस्लिम दंगे भी कवर किए हैं। 

पर 1996 में तो चौक के सिरकटा नाले के पास शिया-सुन्नी दंगा कवर करते हुए मेरी हत्या होते-होते बची थी। किसी तरह जान बची थी। कुछ दंगाइयों ने मेरे लिए छुरा और तलवार निकाल लिया था। क्यों कि मैं हिंदू था। ब्राह्मण था। मुझ पर वह दंगाई हमलावर होते-होते कि हमारे सहयोगी एक मुस्लिम पत्रकार शबाहत हुसैन विजेता बढ़ कर अचानक अपनी जान पर खेल कर , छटक कर मेरे आगे आ कर खड़े हो गए। बोले , ' मैं तो मुसलमान हूं। पर पहले मुझे मारो ! ' दंगाई कुछ समझते-समझते कि और स्थानीय लोगों ने मुझे पीछे से पकड़ कर , मेरी कालर पकड़ कर खींचने लगे। खींचते-खींचते जाने किस-किस गली में ले गए। मुझे भी और विजेता को भी। 

अचानक एक घर में ले जा कर हम लोगों को धकेल दिया। दरवाज़ा बंद कर लोग बोले , ' अब आप लोग सुरक्षित हैं ! ' तो जैसे सांस में सांस आई। यह लोग भी मुसलमान ही थे। अनजान थे। यह शिया लोग थे कि सुन्नी। आज भी नहीं जानता। पर बोले , ' आप की रिपोर्ट हम लोग रोज पढ़ रहे हैं। आप ठीक-ठीक लिख रहे हैं। असलियत लिख रहे हैं। अगर आप के साथ यह दंगाई कुछ गड़बड़ कर देते तो हम लोग कल क्या कहते। कैसे मुंह दिखाते किसी को ?'  थोड़ी देर बाद जब माहौल ठीक हुआ तो हम लोग फिर से बाहर आए। हमारे साथ एक और मुस्लिम पत्रकार हमारे सहयोग के लिए थे। पर वह मुझ पर हमला होते ही न सिर्फ़ अचानक ग़ायब हो गए बल्कि उस शाम दफ़्तर भी नहीं पहुंचे। दो दिन बाद दफ़्तर आए तो मैं ने पूछा , ' कहां ग़ायब हो गए थे ? ' वह बोले , ' सर मैं बहुत डर गया था। ' 

अब इस के बाद क्या कहता भला। 

लखनऊ में तो ऐसे-ऐसे सेक्यूलर रहते हैं कि मत पूछिए। वामपंथियों की सभा में मर्सिया सुन कर भी लोगों को तालियां बजाते देखता हूं। यह लोग नहीं जानते कि मर्सिया शोक गीत है। वैसे ही जैसे आज तेजप्रताप यादव एक न्यूज़ चैनल से बात करते हुए हर्षित हो कर मोहर्रम की बधाई सुबह-सुबह दे रहे थे। मोहर्रम ग़म का दिन है। इराक स्थित कर्बला में हजरत मुहम्मद (सल्ल.) के नवासे हजरत हुसैन को शहीद कर दिया गया। शिया मुसलमान इसी लिए इमामबाड़ों में जा कर मातम मनाते हैं। ताजिया निकालते हैं। लखनऊ इस मातम का विशेष केंद्र है। सुन्नी इस का विरोध करते हैं। दंगा हो जाता है। अब तो ख़ैर योगी राज है। सो दंगों की गुंजाइश समाप्त है।

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