Sunday 29 November 2020

हम तो इस कृषि बिल को कश्मीर से धारा 370 हटाने की तरह मानते हैं


छोटी जोत का ही सही किसान मैं भी हूं। लेकिन कृषि बिल के खिलाफ नहीं हूं। न ही इस आंदोलन में हिस्सेदार हूं। देख रहा हूं कि सोशल मीडिया पर किसान आंदोलन के लिए वह लोग भी खांस रहे हैं जिन्हें गांव , किसान और किसानी का धेला भर ज्ञान नहीं है। क्या कहा , अंबानी , अडानी , कारपोरेट खेत ले कर खेती करने लगेंगे। यह तो वेरी गुड है। कोई कारपोरेट कल आ रहा हो मेरे खेत पर खेती करने तो वह आज ही आ जाए। मैं तो खूब स्वागत करूंगा। क्यों कि मैं जानता हूं कि अब के समय में गांव में रहना और खेती करना कितना कठिन है। खेती भी अब एक व्यवसाय है। भरपूर पूंजी और टाइमिंग मांगती है। मज़दूरी और मेहनत मांगती है। रिश्क भी बहुत है। गांव में मज़दूर खोजना और मज़दूरों के नखरे उठाना मुझे तो नहीं सुहाता। बिलकुल नहीं सुहाता। 

जो बेज़मीर लोग नहीं जानते वह अब से जान लें। कि खेती कितनी तो बदल गई है। महीनों का काम अब घंटों में हो जाता है। किराए का ट्रैक्टर खेत जोत देता है। खेत में ही लगे बोरिंग के पानी से सिचाई हो जाती है। एक दिन में खाद छींट दी जाती है। कंबाइन चार घंटे में फसल काट देता है। अनाज सीधे बोरी में भर कर घर में। फिर भी सिर्फ दो-चार दिन में होने वाली धान की रोपाई खातिर सारा खेत बटाई पर दे देना पड़ता है। बटाई मतलब आधा अनाज धान रोपने वाले का। क्यों कि धान की रोपाई करने वालों की शर्त ही यह होती है कि अगर अधिया नहीं , तो धान की रोपाई नहीं। मज़दूरी पर वह धान नहीं रोपेंगे। तिस पर तुर्रा यह कि गेहूं भी वही बोएंगे। तभी धान में हाथ लगाएंगे।  

सोचिए कि खेत हमारा , बीज हमारा , खाद हमारी , बोरिंग , पंपिंग सेट , डीजल भी हमारा। ट्रैक्टर और कंबाइन का एडवांस में पूरा किराया भी हमें ही देना है। मतलब सारा खेत , सारी पूंजी हमारी पर आधा अनाज उन का। क्यों कि उन के पास तो पैसे ही नहीं हैं। उन के नखरे भी सहना है। फिर भी आधा अनाज उन्हीं का है। अजब ब्लैकमेलिंग है। बरसों से यह ब्लैकमेलिंग बर्दाश्त कर रहे हैं। 

अरे जैसे मकान किराए पर उठाते हैं अपनी शर्तों पर तो खेत भी अगर कोई किराए पर ले कर किराया देता है तो हर्ज क्या है। खेती अगर कारपोरेट के हाथ आ जाती है तो हमारा ही क्या हम जैसे करोड़ों लोगों का लाभ है इस में। दिक्कत क्या है किसी को। आखिर खेती भी लाभ और व्यवसाय का विषय है। बुरा क्या है कारपोरेट के खेती में आ जाने से। आखिर कपड़े , जूते , दवाई , शिक्षा , अस्पताल , वाहन ,मोबाइल समेत तमाम ज़रूरी मामलों में दुनिया कारपोरेट के हवाले और सहारे ही जी रही है तो खेती में भी कारपोरेट आ जाए तो बुरा क्या है। पहाड़ तो नहीं टूट पड़ेगा। दुनिया के कई देशों में यह हो ही रहा है। कि खेती कारपोरेट के हाथ है। 

हम तो इस कृषि बिल को कश्मीर से धारा 370 हटाने की तरह मानते हैं। जैसे 370 हटने से कश्मीर में पत्थरबाजी खत्म हो गई , घाटी में कुछ पॉकेट्स में छिटपुट मामलों को छोड़ दीजिए तो देश से आतंक का खात्मा हो गया है। तो इस कृषि बिल से किसानों के बीच बैठे तमाम दलाल और माफियाओं का अंत हो जाएगा। कृषि आय के नाम पर टैक्स चोरों और नंबर दो का एक करने वालों का अंत भी ज़रूरी है। आखिर कभी इस बात पर आंदोलन हुआ क्या कि पचास पैसे किलो वाला आलू बाज़ार में आ कर पचास रुपए किलो क्यों बिक रहा है। कौन लोग इस में मालामाल हो रहे हैं। सच यह है कि यही मालामाल लोग ही इस किसान आंदोलन को प्रायोजित किए हुए हैं। 

बाक़ी सोशल मीडिया पर जहर उगलने वाले बुद्धिजीवियों की हताशा और निराशा का आनंद लीजिए। इन लोगों को गंभीरता से लेना तो दूर , इन की नोटिस लेना भी अपराध समझिए। यह लोग तो हर शाहीन बाग़ में शांति और क्रांति एक साथ खोज लेते हैं। इन निठल्ले लोगों के पास एक सूत्रीय कार्य शेष रह गया है। कि कैसे समाज में जहर और अशांति फैला कर देश को गृह युद्ध में झोंक दें। वह चाहे कोरोना में मज़दूरों का पलायन ही क्यों न हो। पांव में छाले मज़दूरों के पड़े लेकिन दुःख बेचने के लिए यह लोग आगे आ गए। अजब शग़ल है यह भी। 

विपक्ष में बैठी राजनीतिक पार्टियां चुनाव में नहीं लड़ पातीं। संसद में जहां क़ानून बनता है , वहां नहीं लड़ पातीं। हार-हार जाती हैं। सो सड़क पर अराजक आंदोलन में अवसर तलाशती हैं। कभी शाहीन बाग़ तो कभी मज़दूरों के पलायन , तो कभी हाथरस जैसे हादसों में आग लगा कर सत्ता का सपना जोड़ती हैं। यकीन मानिए यह किसान आंदोलन , किसानों का आंदोलन नहीं है। प्रायोजित आंदोलन है। कुछ राजनीतिक पार्टियों और कुछ कृषि माफिया और बिचौलियों द्वारा प्रायोजित आंदोलन है। नहीं कृषि बिल कब आया और आंदोलन कब हो रहा है। 


अच्छा कृषि बिल का विरोध करने के लिए दिल्ली कूच करने वाले किसान सिर्फ पंजाब में ही क्यों रहते हैं। जब किसानों के इतने सारे संगठन एकजुट हो कर आंदोलन कर ही रहे हैं तो समूचे देश के किसानों को एक साथ दिल्ली कूच कर दिल्ली पर चढ़ाई कर देनी चाहिए थी। कहां-कहां रोकती पुलिस भला। फिर दुनिया की ऐसी कौन सी पुलिस है जो आंदोलनकारियों से कभी जीत भी पाई है। फिर यह तो हमारे अन्नदाता हैं। पर अन्नदाता के नाम पर जब कुछ लोग सेलेक्टिव चुप्पी और सेलेक्टिव विरोध के तराजू पर बैठ कर बिक जाते हैं तो यही होता है। पूरे देश की आवाज़ पंजाब में सिमट कर रह जाती है और हरियाणा में आ कर फंस जाती है। 

दिल्ली ऐसे ताकतवर हुई जाती है। कोरोना से कराहती दिल्ली में इन दिनों कोई समझदार किसान आना भी कैसे और क्यों चाहेगा। फिर वह कांग्रेस , वह राहुल गांधी जो खुद को नहीं संभाल पा रहे , वह किसानों को कैसे और कितना संभाल पाएंगे। अच्छा किसान सिर्फ पंजाब में ही रहते हैं , हरियाणा में क्यों नहीं रहते। उत्तर प्रदेश , बिहार , बंगाल , राजस्थान , महाराष्ट्र , तमिलनाडु , केरल , कर्नाटक आदि के किसान भी कहां हैं ? किस पुलिस ने रोक रखा है। कि बाकी किसानों के पास ट्रैक्टर नहीं है कि संसाधन नहीं हैं। अजब मंज़र है। यहां के मेहनतकश किसान क्यों नहीं दिल्ली कूच पर आंदोलित हैं। आप ही बता दीजिए।


1 comment:

  1. सही बात कही आपने। इस बटाई के नखरे का सही चित्रण किया आपने। उत्तर बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के अधिकांश खेत इस त्रासदी के शिकार बने बैठे हैं। ऊपर से कभी बाढ़ तो कभी सूखे का तुर्रा।

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