Saturday 3 October 2020

लेकिन रामसेवक जी का वह सूत्र मेरे पास अभी भी बहती नदी की तरह उपस्थित है

दयानंद पांडेय 

रामसेवक श्रीवास्तव की चर्चा गोरखपुर में कभी-कभी देवेंद्र कुमार करते थे। हरिहर सिंह और माधव मधुकर भी। यह लोग रेलवे में थे। और बड़े फख्र से बताते थे कि रामसेवक भी पहले रेलवे में थे। रामसेवक जी की पत्रिका रचना का भी ज़िक्र होता ही था। परमानंद श्रीवास्तव भी रामसेवक जी का ज़िक्र करते थे। अकसर यह लोग किसी की चर्चा में उस की शिकायत भी बतिया ही जाते थे। ख़ास कर हरिहर सिंह और माधव मधुकर। लेकिन रामसेवक जी की किसी ने कभी कोई शिकायत नहीं की। रामसेवक जी का गांव गगहा , मेरे गांव बैदौली से तीन-चार किलोमीटर पर एक ही सड़क पर है। लेकिन तब तक गांव से उन का नाता लगभग टूट चुका था। 1981 में जब दिल्ली पहुंचा था , तब दिनमान में पहले व्यक्ति रामसेवक श्रीवास्तव से ही मिला था , गोरखपुर का हवाला दे कर। पहली ही मुलाक़ात में रामसेवक जी ने मुझे अपना बना लिया। भोजपुरी में बतिया कर। उन्हीं दिनों वह प्रेस इंक्लेव के अपने फ़्लैट में शिफ्ट हुए थे। अपने घर भी ले गए। अकसर घर बुलाते रहते थे। मैं जाता भी था। अकसर इतवार को। खूब खुल कर मिलना और खिलाना , उन की जैसी आदत थी। उन के घर की लाइब्रेरी भी बड़ी समृद्ध थी। बहुत सी किताबें उन से ले कर पढ़ीं। रामसेवक जी ने उन्हीं दिनों सेकेण्ड हैंड फिएट भी खरीदी थी। लेकिन ज़्यादातर चलते वह स्कूटर से ही थे। पूछने पर बोले , दफ्तर से मिलने वाले कार अलाउंस के लिए फिएट भी खरीद ली है। लेकिन रोज-रोज एफोर्ड कर पाना कठिन है। रामसेवक जी की जीवन साथी नीलम सिंह जी भी बड़ी आत्मीयता से मिलती थीं। नीलम जी भी दिल्ली के माया व्यूरो में थीं। माया और मनोरमा दोनों का काम देखती थीं। नीलम जी ने ही माया के तब के व्यूरो चीफ भूपेंद्र कुमार स्नेही से मिलवाया था। स्नेही जी ने माया के लिए मुझ से लिखवाया भी। राम सेवक जी अमूमन नीलम जी को उन के कनाट प्लेस वाले दफ्तर छोड़ते हुए ही दिनमान जाते थे और लौटते समय भी नीलम जी को ले कर ही लौटते थे। एक बार उन से उन की कविता पर बात की तो बोले , ' पुरानी बात हो गई। ' जम्हाई लेते हुए बोले , ' पत्रकारिता खा गई कविता। '

रामसेवक जी दिनमान में विशेष संवाददाता थे। इस के पहले दिनमान के विशेष संवाददाता श्रीकांत वर्मा थे। रामसेवक श्रीवास्तव ने श्रीकांत जी को रिप्लेस किया था। राजनीतिक ख़बरों की जैसी समझ रामसेवक श्रीवास्तव को थी , कम लोगों में मैं ने पाई है। रामसेवक जी के पास खबरों की न सिर्फ समझ अदभुत थी बल्कि सूचनाएं भी अप्रतिम। लेकिन वह यहां-वहां राजनीतिकों का कभी दरबार नहीं करते थे। जैसा कि तमाम राजनीतिक संवाददाता और संपादक करते थे। रामसेवक जी सिर्फ़ काम से काम रखते थे। चूंकि दिनमान उन दिनों बहुत ही प्रतिष्ठित पत्रिका थी तो हिंदी बेल्ट के राजनीतिज्ञों में बड़ा मान था उस का। तो इस बहाने रामसेवक जी का भी मान था। दिनमान की उस समय की प्रतिदवंद्वी पत्रिका थी रविवार। दिल्ली में तब रविवार के विशेष संवाददाता उदयन शर्मा थे। उदयन शर्मा , रामसेवक श्रीवास्तव से बिलकुल उलट थे। बिना दस राजनीतिज्ञों से मिले उन का दिन नहीं गुज़रता था। लेकिन रामसेवक जी ने कभी यह सब नहीं किया। रामसेवक जी असल में अज्ञेय की परंपरा के पत्रकार थे। कम बोलना , ज़्यादा लिखना ही रामसेवक जी का ध्येय था। एक बार मैं ने देखा कि कन्हैयालाल नंदन जी , जो तब नए-नए दिनमान के संपादक बने थे , उन की मेज के सामने खड़े थे , उन की कोई रिपोर्ट ले कर। और लगभग उन को उकसाते हुए कह रहे थे कि मुझे इस रिपोर्ट में रामसेवक श्रीवास्तव नहीं दिख रहे। मैं इस में रामसेवक श्रीवास्तव को देखना चाहता हूं। और जब घुमा-फिरा कर यही बात नंदन जी ने दो बार कही तो रामसेवक जी बड़ी विनम्रता से बोले , ' दुबारा भी लिखूंगा तो यही लिखूंगा ! बदल नहीं पाऊंगा। ' नंदन जी रिपोर्ट ले कर चुपचाप चले गए थे। दिनमान में अज्ञेय , रघुवीर सहाय , कन्हैयालाल नंदन के बाद घनश्याम पंकज के साथ भी उन्हों ने काम किया। रघुवीर सहाय और नंदन जी के समय मैं ने भी दिनमान में नियमित लिखा।

एक बार नंदन जी मुझ से , मेरे लिखे से खुश हो कर एक बहुत बड़ा एसाइनमेंट थमा दिए। एसाइनमेंट सुन कर मन मुदित हो गया। पर दूसरे ही क्षण घबराया। मैं उन से तो कुछ नहीं कह पाया। हामी भर कर उन की केबिन से निकल आया। लेकिन बाहर निकल कर मेरे हाथ-पांव फूल गए। मैं दिनमान दफ्तर में वैसे ही इधर-उधर भटक , बैठ रहा था। समझ नहीं आ रहा था क्या करुं , कैसे करुं। कि तभी रामसेवक जी ने इशारे से मुझे बुलाया। गया तो बैठते ही मुझे बधाई देते हुए बोले , ' सुना है आप बागपत जा रहे हैं ,चौधरी चरण सिंह को कवर करने। ' मैं ने धीरे से कहा , ' हां , जा तो रहा हूं। '

' तो इतना घबराए हुए क्यों हैं। ' रामसेवक जी ने मुस्कुराते हुए पूछा और कहा कि , ' यह तो आप के लिए बहुत बड़ा एचीवमेंट है। '

' एक पूर्व प्रधान मंत्री और इतने बड़े नेता को , बागपत को कवर करना थोड़ा कठिन लग रहा है। ' सकुचाते हुए मैं बोला। यह सुन कर रामसेवक जी किंचित गुस्सा हुए और बोले , 'आप तो गोरखपुर की नाक कटवा देंगे !' फिर उन्हों ने प्रोत्साहित करते हुए कहा , ' ऐसा डर उन को लगता है , जिन को लिखने नहीं आता। पर आप तो लिखना जानते हैं। एक से एक रिपोर्ट लिखी हैं आप ने। बिना किसी भय के जाइए। बिना कुछ सोचे जाइए। यह तय कर के बिलकुल न जाइए कि मुझे क्या लिखना है , क्या नहीं लिखना है। कोई आग्रह , पूर्वाग्रह नहीं। ' रामसेवक जी बोलते जा रहे थे , ' किसी नदी की तरह जाइए और नदी की तरह ही लौट कर आइए। जैसे नदी बहती है और अपने साथ जल , कंकड़-पत्थर , हीरा-मोती , कूड़ा-कचरा , सब कुछ साथ लेती हुई बहती आती है , वैसे ही आप भी जो भी कुछ देखिए , सुनिए , समझिए , कूड़ा-कचरा , हीरा-मोती सब कुछ लेते हुए आइए। लौट कर देखिए कि क्या आप के काम का है और क्या नहीं। फिर लिख डालिए। ' वह बोले , ' बहुत आसान है। ' रामसेवक जी के इसी सूत्र को ले कर मैं बागपत गया। बागपत घूमा। चौधरी चरण सिंह का एक बढ़िया इंटरव्यू भी लिया। फिर लंबी रिपोर्ट भी लिखी। जो दिनमान में बड़ी प्रमुखता से नंदन जी ने छापा। यह 1984 का साल था। और मैं 25-26 साल का युवा। जब बागपत जाने की बात हुई तो उन दिनों धीरेंद्र अस्थाना ने धीरे से किसी से कहा कि , ' नंदन जी इतना भरोसा कर के भेज रहे हैं , लिख लेगा यह ? '

मैं ने तो नहीं पर रामसेवक जी ने यह बात सुन ली थी तब। लेकिन कुछ बोले नहीं। लेकिन जब रिपोर्ट और इंटरव्यू दिनमान में तान कर छपा तब धीरेंद्र अस्थाना दिनमान से पहले व्यक्ति थे , जिन्हों ने बढ़ कर गले लगाया और बधाई दी। कहा कि , ' बहुत बढ़िया लिखा। ' फिर उन्हों ने रविवार के विजय मिश्र का ज़िक्र किया और कहा कि उन से भी बढ़िया लिखा है। ' बाद में रामसेवक जी ने धीरेंद्र अस्थाना की पहले वाली बात भी बताई। खैर , रामसेवक जी का यह सूत्र मैं ने अपनी रिपोर्टिंग में निरंतर अपनाया और खूब इंज्वाय किया। तमाम चुनावी रिपोर्टिंग और कि चुनावी आकलन में भी बहती नदी की ही तरह बहता हूं नदी की तरह और समय की दीवार पर लिखा बांच देता हूं। अपनी इच्छा नहीं बांचता। न थोपता हूं। फिर रिपोर्टिंग ही क्यों , अपने कथा साहित्य में भी खूब आज़माता हूं इस सूत्र को। अदभुत सुख है इस सूत्र में। कई बार होता है कि कोई कहानी या उपन्यास लिखना शुरू करता हूं तो शुरू भले अपने मन से , अपने ढंग से करता हूं पर बाद में तो पात्र मुझे खींचते हुए जाने कहां-कहां लिए चले जाते हैं और मैं उन के साथ बहने लगता हूं। अपने आप में नहीं रहता। न ही पात्र हमारे हाथ में होते हैं। बल्कि मैं पात्रों के हाथ में चला जाता हूं। बहता ही रहता हूं उन के साथ । फिर पात्र ही और-और पात्रों से मिलाते लिए चलते हैं। पात्र जैसे नाव बन जाते हैं , कथा नदी और मैं मुसाफिर। कथा किसी स्वेटर की तरह अनायास बुनती जाती है। मैं उस में कोई दखल नहीं देता। कभी नहीं देता। इसी लिए आप को मेरी कथा के पात्र अपरिचित नहीं लगते। वह मेरे ही नहीं , आप के भी परिचित लगते हैं। होते जाते हैं। क्यों कि वह गढ़े हुए पात्र नहीं होते। गढ़ी हुई स्थितियां नहीं होतीं। वास्तविक स्थितियां होती हैं। वास्तविक पात्र होते हैं। कथा की नदी में बहते हुए मिलते हैं। कभी तेज़-तेज़ , कभी मंद-मंद।

1994 में मैं राष्ट्रीय फीचर्स नेटवर्क में जब संपादक हुआ तो तमाम लोगों को जोड़ा था उस से। दिनमान के तीन लोग भी जुड़े। जीतेंद्र गुप्त , रामसेवक श्रीवास्तव और माहेश्वर दयालु गंगवार। बाकी कमलेश्वर और अरविंद कुमार जैसे बहुत लोग भी जुड़े और नियमित लिखते रहे। इसी सिलसिले में रामसेवक जी से फोन पर नियमित संवाद बना रहा और चिट्ठी-पत्री भी। अंतिम समय तक उन में लिखने की ललक बनी रही और वह कुछ नया करने की सोचते रहे। उन्हीं दिनों घनश्याम पंकज स्वतंत्र भारत के प्रधान संपादक बने थे और दिल्ली से भी स्वतंत्र भारत को छापने की योजना बना रहे थे। रामसेवक जी बताते थे कि एसोसिएट एडीटर बनने का प्रस्ताव मुझे भी दिया है पंकज जी ने , देखिए क्या होता है। पर वह प्रस्ताव , प्रस्ताव ही रह गया। स्वतंत्र भारत लखनऊ में ही खटाई में पड़ गया और पंकज जी भी। बाद के दिनों में रामसेवक जी कविता ही नहीं , पत्रकारिता से भी बिसर गए। और सब की खबर लिखने वाले खुद खबर नहीं बन पाए। कब विदा हो गए , कोई जान ही नहीं पाया। लैंड लाइन बंद कर लोग मोबाईल की दुनिया में दाखिल हो गए। बहुत लोगों से अचानक संपर्क और संवाद भंग हो गया। चार साल पहले गगहा के ही एक व्यक्ति से सूचना मिली कि रामसेवक जी तो अब रहे नहीं। सुन कर दिल धक् से रह गया था। लेकिन रामसेवक जी का वह सूत्र मेरे पास अभी भी बहती नदी की तरह उपस्थित है। कभी विस्मित नहीं हुआ। किसी सॉफ्टवेयर की तरह मन में बस सा गया है।






1 comment:

  1. बहती हुई नदी की तरह जीवन का पूर्ण स्वीकार ...बहुत सुंदर संस्मरण

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