Saturday 24 August 2019

प्रज्ञा पांडेय की कहानियां कटहल का लासा हैं


प्रज्ञा पांडेय 
प्रज्ञा पांडेय की कहानियों में नदी बहती है। इस नदी में कथा ही नहीं संवेदना भी बहती है। प्रज्ञा की भाषा में एक आग है। भाषा में आग , कथा में नदी। इस आग में सीता नहीं जलती , नदी के जल में राम ज़रूर जल-जल जाते हैं। प्रज्ञा की कहानियों की ताकत यही है। बिना किसी चीख-पुकार के , बिना किसी शोशेबाज़ी के स्त्री के सुख-दुःख में डूबी प्रज्ञा की कहानियां नारेबाज़ी की नौटंकी में नहीं फंसतीं। बग़ावत के गीत गाती प्रज्ञा की कहानियों की स्त्रियां जुलूस की स्त्रियां नहीं हैं। घर , परिवार की चौहद्दी में जूझती , रमती , रोती , हंसती , बोलती , बतियाती औरतें हैं। बागी भी हैं पर बवाली नहीं। चौहद्दी तोड़ती , तमाम लक्ष्मण रेखा की ऐसी-तैसी करती प्रज्ञा की स्त्रियां लेकिन स्त्री की संवेदना में सीझी हुई हैं। किसी ओस की बूंद की मानिंद। चिरई जैसी जियरा उदास करती , घर  से भाग कर फिर से घर लौटती स्त्री अपने स्त्रीत्व का सत्य नहीं खोती है। प्रज्ञा की कहानियों की स्त्री ऐसी ही भरी-पूरी है। अपनी चौहद्दी जानती है। अपना आकाश और अपनी धरती जानती है। अपनी कुछ समकालीन कहानीकार स्त्रियों की तरह नकली , खोखली और ख़याली पुलाव पकाती फर्जी स्त्रियां प्रज्ञा की कहानियों में खोजे नहीं मिलतीं। चिरई क जियरा उदास की लखपति जैसी घर से नाराज स्त्री आज की जानी-पहचानी स्त्री है। मेरा घर कहां है कि नवब्याहता स्त्री भी हमारे बेशर्म और लालची समाज की शिनाख्त करती है। न सिर्फ शिनाख्त करती है , भरपूर जूता मारती है।

' फर्राटेदार अंग्रेजी बोलती हो तो यहां  क्या करने आई हो ?'
' कलक्टर से शादी क्यों नहीं कर दी तुम्हारे बाप ने। '
' कलक्टर बहुत पैसे मांग रहा था भाभी जी। बाबू जी के बस  में होता तो वे कलक्टर से ही व्याहते हमें। '

चांद की एक अंतहीन रात जैसी कहानी में प्रज्ञा जो आग बोती हैं इकौना वाली के बहाने , वह दुर्लभ है। अनिर्वचनीय प्रेम और देह की दग्धता में डूबी गंवई डाह और दंश में भीगी इकौना वाली का चरित्र बड़ी बारीकी से बना है प्रज्ञा ने। इकौना वाली की देह की आग वैसी ही है जैसे राख में दबी किसी कंडे में दहकती आग। प्रज्ञा की भाषा में भी यह आग की नदी बहती है और इकौना वाली की देह में भी । विवशता , लाचारी और वर्जनाएं क्या तो त्रिकोण रचती हैं। बाल विवाह की मुश्किलें देह की नदी में , स्त्री के दुःख में कैसे तो तिरोहित हुई जाती हैं। लड़कियां मछलियां नहीं होतीं में तुहिना एक नई स्त्री है।  लाचारी , विवशता और वर्जना के सारे किले ध्वस्त करती हुई। स्त्री की एक नई दुनिया। कारपोरेट सेक्टर के जंगल में अपने कवच खोजती , तुहिना खुद को नहीं समाज को तोड़ रही है। तुहिना की मां की अपनी विवशता है , लेकिन तुहिना विवश नहीं है। लेकिन बेटी की सुरक्षा के लिए बेताब तुहिना की मां। अजब तनाव है। संस्कारों की सलीब और देह की बाड़ में झूलती यह तनाव कथा पाठक में भी तनाव भरती है। सांघातिक तनाव। देह जब कान बन जाए तो ऐसा ही होता है।  कहा न कि प्रज्ञा की भाषा में एक आग है , आग की नदी है प्रज्ञा की कहानियों में। जहां राम जलते हैं , सीता नहीं।  कछार कहानी के तार में भी यही शार्ट सर्किट है। बस यहां गांव है। गांव का जंगल है। रूपा है , रूपा का रूप है।  मां  और मां की मुश्किलें हैं। मर्दों के कछार में सांस लेती अपने ही पर हंसती , रोती औरतें हैं। कहानी की भाषा , बुनावट और तेवर देखने लायक है। जैसे कछार की कोरों में धंस कर गंवई जीवन की इबारत लिखी गई हों। गंवई औरतों का मनोविज्ञान , उस का कसैलापन , कच्चापन और माटी की वह मासूमियत , वह जटिलता , कछार के कंट्रास्ट में बसी मिलती है। जीने से पहले कहानी की सुखना बो और उस का रूप , उस के रूप का कछार अपने कातर रूप में उपस्थित है। कहानी किसी सवाल की तरह , सोटा मारती हुई खत्म होती है :  ' लेकिन एक सवाल फिर भी परेशान करता है कि जिस सुखना बो की खुद्दारी इस गांव में न अंट सकी तो क्या महीप उसे सहेज पाया होगा। सोचती हूं वह कभी मिले तो पूछ लूं उस से। '

प्रज्ञा गांव , शहर हर कहीं की कहानी उस के पेट में बैठ कर लिखती हैं। पात्र की नब्ज़ किसी कुशल वैद्य की तरह थाम कर बांचती चलती हैं। उस की ही भाषा , उस के ही भेष में , उस की ही घुटन , उस की कुंठा , उस की ही त्रास और आस में फंस कर। उस की ही इच्छा , आकांक्षा , ख़ुशी और चहक में छलक कर। महक और बहक कर। रूप है तो रूप , धूप है तो धूप। प्रज्ञा की कहानियों की सूर्य भी स्त्री है और चंद्रमा भी स्त्री ही है। तारा हो या जुगनू हर कोई स्त्री के दर्पण में। कि स्त्री इन के दर्पण में। जो मान लीजिए। आकुलता , विह्वलता , चंचलता और मृदुलता सब कहीं स्त्री की ही शीत में नहाए हुए।

इसी शीत में सन्न तस्दीक का अनपढ़ और लजाधुर भोलानाथ भी है। जो अपनी मेहनत और शराब में डूबा अपनी एक वायरल न्यूड फ़ोटो में सन्न है। यह अलग भूमि है प्रज्ञा की कहानी की। जो धुर गांव से धूल झाड़ती हुई झांकती है। लेकिन ऑफ़ व्हाइट एक शाल का रंग है। इस रंग की कई सारी सिलवटें , शिफत और कैफ़ियत हैं। भाषा के जादू में लिपटी यह कहानी स्थितियों को कनिका के बहाने प्याज की परत दर परत खोलती और खौलती चलती है। पिता के अवैध संबंध , जायदाद और जीजी , जीजा के बीच पिसती बेबो और उस की मां की मुश्किल किसी बटुली में अदहन की तरह बदकती , पकती , दहकती हुई खौलती रहती है। दोस्त कनिका अगहन की नरम ठंड की तरह उपस्थित मिलती है। बाहुबली नरोत्तम की बीवी बन कर भी बेबो सुरक्षित नहीं होती। और असुरक्षित हो जाती है। भावनात्मक सुरक्षा जिस की कि उसे तलब है , नहीं मिलती। पति मंत्री बन जाता है पर बेबो का साथी नहीं बन पाता। संपत्ति की सीढ़ी बनाता है उसे। मां के मन सी उदास शाम को अपनी भी शाम बनाने को अभिशप्त है बेबो । मां की जगह चाची को दे देने वाले पिता द्वारा लाई गई ऑफ़ व्हाइट शाल की लालसा जब बेबो जताती है तो चाची उसे थप्पड़ मार , पिता के लाइटर से उस शाल को जला देती है। धू-धू कर जलती ऑफ़ व्हाइट शाल नहीं जलती , उस की लालसा और संवेदना जलती है। जल जाता है बचपन। इसी लालसा में , इसी की तलाश में , वह अभिशप्त है। इस आहट और लपट में झुलसी लालसा को प्रज्ञा क्या तो शब्द देती हैं : ' मुझे चाची की आंखें पापा की सुलगती सिगरेट सी लगती थीं , मुझे समझ नहीं आता था कि ऐसी आंखों को लोग किस तरह मदमाती , नशीली और मदभरी आंखें कहते हैं। '

खैर दोस्त द्वारा गिफ्ट के रुप में ही सही जब ऑफ़ व्हाइट शाल पा जाती है बेबो तो लगता है जैसे जीवन पा गई है। स्नेह की बाती और बचपन का वजूद पा जाती है। रात भर इस हिमाचली शाल को ओढ़ कर सोती है , सहलाती है। सुबह की फ्लाइट से मां के पास पहुंचती है। अविकल। अचानक। मां पूछती भी हैं , ' बेबो , तू अचानक कैसे आ गई। ' बेबो मां से लिपट जाती है।  शाल उन के हाथों में रख देती है , ' उन की आंखें  हंस रही हैं लेकिन तभी वे झरने लगती हैं। उन के दुखों की शिलाएं टूट रही हैं। वे बारिश और धूप दोनों हैं। ' प्रज्ञा जैसे निर्मल वर्मा के गद्य का वितान रचती हैं। 

और अरावली की पहाड़ियों के बीच रहने वाली सुराख़ कहानी की वह लड़की ? प्रेम और प्रेम विवाह की यातना की चक्की में पिसती लड़की जो अब अपने को बाहर अविवाहित ही बताती है। उस के अपने को अविवाहित कहने की धार और गांठ इतनी पक्की और सच्ची है कि ट्रेन के सफ़र में मिला बातूनी सी बी आई अफसर भी उस के इस सुराख़ को नहीं देख पाता। तब जब कि उस का दावा है कि वह कुएं में झांकने की तरह किसी के मन में झांकता है। असल में प्रज्ञा की कहानियां स्त्री जीवन की तमाम ऐसी बखिया और तिरुपाई को इतनी आहिस्ता से उधेड़ती और फिर उसी आहिस्ता से सिलती मिलती हैं जो लोग अमूमन जान नहीं पाते। स्त्री मन की इतनी गुफाएं , इतनी कंदराएं हैं जो अभी हिंदी कहानी में खोजी नहीं गई हैं। प्रज्ञा की कहानियां संयोग से इसी काम में परिचित हो रही हैं। प्रज्ञा की कहानियों को पढ़ते हुए कई बार जैनेंद्र कुमार याद आते हैं। तो कई बार शरत बाबू। स्त्री मन की नई थाह उन का मनोविज्ञान और नई वैज्ञानिकता के , नए-नए व्यवहार के कई सारे रंग से ऑफ़ व्हाइट में संकलित कहानियां अनायास परिचित करवाती मिलती हैं। प्रज्ञा की टटकी भाषा में एक संगीत सा है। जादू सा है। प्रज्ञा की इन कहानियों में भाषा की चमक भी है और चुभन भी। बिना किसी शोर शराबे के स्त्री अस्मिता और उस की संवेदना ही प्रज्ञा की कहानियों का केंद्र बिंदु है। लेकिन स्त्री विमर्श की फर्जी उछल-कूद या नकलीपन की बदबू से लस्त-पस्त नारेबाज़ी की शोशेबाज़ी नदारद है प्रज्ञा के यहां। सती का चौरा जैसी कहानी में भी प्रज्ञा लाऊड नहीं होतीं। और अंधविश्वास पर प्रहार भी भरपूर करती हैं। 
' लगता है जंगल में आग लगी है। पत्ते नहीं रह जाते सिर्फ़ लाल दहकते फूल बचते हैं। ' जैसे संवादों वाली अनजान पते में प्रेम कथा का एक नया ही बिरवा रोपती हैं प्रज्ञा। जमीला और साज़िद के बहाने प्रज्ञा यह सच भी बताती चलती हैं : ' जमीला ने बताया था - मां दूसरी तो पिता तीसरा हो जाता है। ' प्रज्ञा की कहानियों में ऐसे ही अचानक कोई हचका लगता रहता है। कोई ब्रेक लगता है। और कहानी किसी अनजान पते की तरफ मुड़ जाती है। यह बताती हुई कि : ' जब तक यह धरती है तब तक ओस भी रहेगी और तब तक साज़िद भी। ' कालिदास की शकुंतला की तरह प्रज्ञा की भी शकुंतलाएं धोखा , छल , कपट और तनाव में जीती , मरती हैं। लेकिन कभी नरम , मखमली भाषा में लिपट कर तो कभी अंगार और आग की नदी की भाषा में दहक कर। सिमट कर पास आती हैं तो कहानी का लासा बन कर सट जाती हैं। छूटती नहीं। कटहल का लासा की तरह। प्रज्ञा पांडेय की कहानियां कटहल का लासा हैं। इन को पढ़ना शुरू कीजिए तो यह छूटती नहीं। पढ़वा कर ही छोड़ती हैं। लगता ही नहीं कि प्रज्ञा पांडेय का यह पहला कहानी संग्रह है। 


समीक्ष्य पुस्तक :

ऑफ़ व्हाइट 
कहानी-संग्रह 
लेखिका - प्रज्ञा पांडेय 
पृष्ठ - 128 , मूल्य : 300 रुपए 
प्रकाशक :
साहित्य भंडार , 50 , चाहचंद [ ज़ीरो रोड ] , प्रयागराज -211 003 

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