Monday 25 September 2017

जैसे संघर्ष के लिए ही पैदा हुए थे संजय त्रिपाठी

दयानंद पांडेय  


होते हैं कुछ लोग जो सिर्फ़ संघर्ष के लिए ही पैदा होते हैं । हमारे छोटे भाई और फ़ोटोग्राफ़र मित्र संजय त्रिपाठी ऐसे ही लोगों में शुमार रहे हैं । आज जब संजय त्रिपाठी के विदा हो जाने की ख़बर सुनी तो दिल धक से रह गया। फ़रवरी , 1985 से हमारा उन का साथ था । 32 साल पुराना साथ आज सहसा टूट गया । लखनऊ में वह पहले मेरे ऐसे दोस्त बने जिन से आत्मीयता बनी । दुःख सुख का साथ बना । बिना किसी टकराव और अलगाव के कायम रहा । बिना कुछ कहे-सुने भी हम एक दूसरे को समझ लेते थे । साथ खबरें करते थे , घूमते थे , सिनेमा देखते थे । खुद्दारी रास आई सो दलाली , फोर्जरी , चापलूसी , चमचई न मुझे कभी भाई न संजय को । जब कि पत्रकारिता में यह आम बात हो चली है । बिना इस के अब गुज़ारा नहीं है । जो जितना बड़ा दलाल , उतना बड़ा पत्रकार । हम यह नहीं कर सके सो हम ने तो इस की भारी क़ीमत चुकाई है , चुका रहा हूं । कहां होना था और आज कहीं का नहीं रह गया हूं । एक से एक कौवे दलाली , चापलूसी कर के भाग्य विधाता बन गए और हम इन कौवों की बीट देखते-देखते खत्म हो गए । संजय त्रिपाठी भी इस मामले मेरे हमराही थे । वह इस बेरंग जिंदगी को विदा कह गए , मैं जाने क्यों शेष रह गया हूं । वह कोई तीन साल मुझ से छोटे थे । जब मेरे घर आते तो मेरे पैर छूते मेरे बड़े होने के नाते । बाद में मैं ने बहुत मना किया कि हम दोस्त हैं तो वह किसी तरह माने ।

जनसत्ता , दिल्ली से स्वतंत्र भारत , लखनऊ में जब मैं रिपोर्टर हो कर आया था तब संजय वहां पहले ही से फ़ोटोग्राफ़र थे । हम भी तब मुटाए नहीं थे लेकिन संजय त्रिपाठी ख़ूब दुबले-पतले थे । सींक सलाई जैसे । उन के चेहरे पर मासूमियत कुलांचे मारती थी , उत्साह जैसे हिलोरें मारता था । संकोच की चादर जैसे उन के पूरी देह पर लिपटी रहती थी । खुद्दारी की खनक उन के हर भाव से मिलती रहती थी । वह साईकिल से चलते थे । गले में कैमरा लटकाए , कैमरा संभालते , साईकिल चलाते उन को देखना मुश्किल में डालता था । लेकिन वह मुश्किल में नहीं रहते थे । पान कूंचते हुए वह अपनी सारी मुश्किलें जैसे साईकिल के टायर से कुचलते चलते थे । स्वतंत्र भारत था तो उस समय लखनऊ का सब से बड़ा अखबार , सवा लाख रोज छपता था लेकिन संजय त्रिपाठी का शोषण तब यह अख़बार बहुत करता था । उस समय सब को पालेकर अवार्ड के हिसाब से तनख्वाह मिलती थी , ठीक ठाक मिलती थी लेकिन संजय त्रिपाठी को प्रति फ़ोटो पांच रुपए मिलते थे । वह भी प्रकाशित फ़ोटो पर । वह फ़ोटो चाहे जितनी खींचें पर पैसे छपी फ़ोटो पर ही मिलती थी । और कई बार फ़ोटो सेलेक्ट हो कर भी नहीं छपती थी । कभी अचानक विज्ञापन आ जाने के कारण जगह की कमी के चलते । तो कभी किसी फ्रस्ट्रेटेड डेस्क के साथी की मनबढ़ई और सनक के चलते । खैर जैसे-तैसे संजय त्रिपाठी फोटोग्राफरी क्या चाकरी करते रहे थे । इस उम्मीद में कि कभी तो नौकरी पक्की होगी और कि उन्हें भी पालेकर अवार्ड वाली तनख्वाह मिलेगी । वह भी सम्मानजनक जीवन जिएंगे । लेकिन उन दिनों स्वतंत्र भारत में एक विशेष प्रतिनिधि थे शिव सिंह सरोज । निहायत ही मूर्ख , दुष्ट और धूर्त प्रवृत्ति के थे लेकिन चूंकि दलाल टाईप के पत्रकार थे सो उन की अख़बार और अख़बार से बाहर भी ख़ूब चलती थी । संजय को वह भरपूर परेशान और अपमानित करते । नित नए ढंग से । उन को चढ़ाई करने के लिए अपना फ्रस्ट्रेशन निकालने के लिए रोज कोई शिकार चाहिए होता था । संजय त्रिपाठी से कमज़ोर शिकार कोई और नहीं मिलता था । 

संजय त्रिपाठी और शिव सिंह सरोज जब कि एक ही क्षेत्र के रहने वाले थे । बाराबंकी के हैदरगढ़ के । बल्कि संजय त्रिपाठी के पिता श्री रामकिशोर त्रिपाठी साठ के दशक में हैदरगढ़ से विधायक रहे थे । लेकिन वह गांधीवादी थे सो पैसा नहीं बनाया , बेईमानी नहीं की । वह  पराग दुग्ध संघ के अध्यक्ष थे । चाहते तो संजय को कहीं अच्छी नौकरी दे सकते थे , किसी जगह सिफ़ारिश कर सकते थे । संजय ने ऐसा कई बार चाहा भी लेकिन पिता ने सख्ती से हर बार इंकार किया । संजय मन मसोस कर रह जाते थे । संजय के पिता जी एक समय भूदान आंदोलन में सक्रिय रहे थे । उत्तर प्रदेश में तमाम भूमिहीनों को भूमि के पट्टे दिए । लेकिन अपने किसी परिजन को एक इंच भूमि नहीं दी । अपने बच्चों को तो खैर क्या देते । आवश्यक वस्तु निगम के भी एक समय प्रशासक रहे । लेकिन उस भ्रष्ट विभाग में भी एक पैसा भी संजय के पिता ने न तो छुआ , न किसी को छूने दिया । ऐसे ईमानदार पिता के पुत्र संजय त्रिपाठी पांच रुपए प्रति फ़ोटो पर गुज़ारा कर रहे थे । रोज जीते थे , रोज मरते थे । किसी-किसी दिन एक भी फ़ोटो नहीं छपती । वह उदास हो जाते । शिव सिंह सरोज को बर्दाश्त करना उन के लिए दिन पर दिन भारी होता जा रहा था । नौकरों को भी कोई क्या डांटेगा जिस तरह शिव सिंह सरोज उन्हें डांटते , जलील करते । पर संजय करते भी तो क्या करते । उन के पास कोई विकल्प नहीं था । मैं देख रहा था , संजय दब्बू बनते जा रहे थे ।  उन की मासूमियत उन से मिस हो रही थी । खैर थोड़े दिन में वह संपादक वीरेंद्र सिंह की कृपा से दैनिक वेतन भोगी फ़ोटोग्राफ़र बन गए । अब थोड़ा ही सही , कम से कम एक निश्चित पैसा प्रति माह उन्हें मिलने लगा था । दबे-दबे से रहने वाले संजय अब फिर से हंसने लगे थे । उभरने लगे । संजय त्रिपाठी की खिंची फ़ोटो में भी निखार आने लगा । 

वह जो कहते हैं बाईलाईन , वह भी कभी-कभार संजय त्रिपाठी को फ़ोटो पर मिलने लगी । लेकिन कनवेंस अलाऊंस उन्हें नहीं मिलता था । जो उन दिनों डेढ़ सौ रुपए होता था । क्या तो उन के पास अपना कनवेंस नहीं था । हालां कि वह बहुत गुरुर के साथ कहते कि , ' है तो साईकिल मेरे पास ! ' लोग हंस पड़ते । बहुत लड़े वह इस के लिए । कुछ संघर्ष के बाद उन्हें कनवेंस अलाऊंस भी मिलने लगा । और यह देखिए कि शिव सिंह सरोज के तमाम विरोध के बावजूद संपादक वीरेंद्र सिंह ने संजय त्रिपाठी को स्टाफ़ फ़ोटोग्राफ़र का नियुक्ति पत्र थमा दिया । अब संजय ने लोन ले कर एक मोपेड भी ख़रीद लिया । जिसे उन के साथी फ़ोटोग्राफ़र संजय की बकरी कहते । अभी तक शिव सिंह सरोज के अपमान सहते आ रहे संजय अब थोड़ा दब कर ही सही उन से प्रतिवाद करने लगे थे । लेकिन स्वतंत्र भारत में एक क्राईम रिपोर्टर थे आर डी शुक्ल जो वीरेंद्र सिंह के बड़े मुंहलगे थे , वह भी सताने लगे । लेकिन संजय मेरे साथ बहुत कंफर्ट फील करते । बहुत से एसाइनमेंट हमारे साथ किए संजय ने । जब साईकिल से चलते थे तब वह हमारे साथ जब चलते तो अपनी साईकिल आफिस में छोड़ कर मेरी स्कूटर पर आ जाते । पीछे बैठे-बैठे ही वह फ़ोटो खींच लेते । ऐसी बहुत सी घटनाएं और यादें हैं । लेकिन कुछ दृश्य भुलाए नहीं भूलते । जैसे एक बार एक प्रदर्शन के समय विधान सभा के सामने लाठी चार्ज हो गया था । संजय बोले , थोड़ा रिश्क लीजिए तो हम बढ़िया फ़ोटो बना लें । हामी भरते ही वह रायल होटल की तरफ से हमारे स्कूटर पर पीछे की सीट पर पीछे मुंह कर के बैठे । बोले , बस खरामा-खरामा चलते चलिए । चौराहे पर आते ही पुलिस ने रोका लेकिन हम झांसा दे कर प्रेस-प्रेस कहते निकल लिए । बीच लाठी चार्ज में हमारी स्कूटर निकली । और संजय का कैमरा चमकने लगा । अचानक ठीक विधान सभा के सामने के आते ही पुलिस की चपेट में हम आ गए । संजय घबराए और बोले , फुल स्पीड में भाग लीजिए , नहीं पिट जाएंगे । हम कितना भागते । पुलिस की एक लाठी संजय के कैमरे पर आती-आती कि संजय ने कैमरे पर झुक कर अपना सिर लगा दिया । कैमरा बच गया , संजय का सिर फूट गया । चोट गहरी नहीं थी पर थी ।  स्कूटर सरपट भगा कर सिविल हास्पिटल आया । संजय को पट्टी वगैरह करवाई । लेकिन संजय को सिर पर चोट की परवाह नहीं थी । ख़ुश थे वह कि कैमरा बच गया और फ़ोटो अच्छी मिल गई थी । इस के पहले एक बार किसी प्रदर्शन में संजय का कैमरा टूट गया था । पांच हज़ार का उन का नुकसान हुआ था तब के दिनों । दफ़्तर से कोई सहयोग नहीं मिला था । वीरेंद्र सिंह ने बाद में मुझे डांटा । कहा कि , वह तो फ़ोटोग्राफ़र है , बैल है , बुद्धि नहीं है पर आप तो रिपोर्टर हैं , तिस पर लेखक भी , अकल से काम लेना था ।  कहीं जान पर बन आती तो ? एक लाठी चार्ज में एक नेता अक्षयवर मल की ऐसे ही किसी पुलिस लाठी चार्ज में सिर में चोट लगने से उन्हीं दिनों मौत हो चुकी थी । लेकिन दूसरे दिन संजय हीरो थे । अख़बार में आठ कालम की संजय की खींची फ़ोटो संजय की बाईलाईन के साथ छपी थी । ऐसी फ़ोटो किसी और अख़बार के पास नहीं थी । सभी अख़बार पिट गए थे ।

एक बार लखनऊ महोत्सव के कवि सम्मेलन में शिव सिंह सरोज ने अपना सम्मान आयोजित करवाया । सम्मान समारोह की गरिमा बनाने के लिए अमृतलाल नागर सहित कुछ और लोगों को भी सम्मान सूची में रखवा लिया । तब के मुख्य मंत्री नारायण दत्त तिवारी को सम्मानित करना था । ठाकुर प्रसाद सिंह कार्यक्रम का संचालन कर रहे थे । वह सम्मान के समय शिव सिंह सरोज का नाम भूल गए और कवि सम्मेलन शुरू कर दिया । शिव सिंह सरोज संजय को ख़ास ताकीद कर के ले गए थे समारोह में कि मेरे सम्मान की बढ़िया फ़ोटो खींचना । पर जब सम्मान समारोह खत्म हो गया , शिव सिंह सरोज का नाम नहीं पुकारा गया तो कवि सम्मेलन शुरू होते ही संजय पेशाब करने पंडाल से बाहर चले गए । लेकिन एक कवि के कविता पाठ के बाद सरोज ने संचालक को याद दिलाया कि उन के सम्मान का क्या हुआ ? तो उन्हों ने कवि सम्मेलन रोक कर शिव सिंह सरोज का सम्मान भी करवा दिया । फिर जल्दी ही शिव सिंह सरोज को कविता पाठ के लिए भी बुला लिया । शिव सिंह सरोज का डबल अपमान हो गया । एक तो क्रम से सम्मान नहीं हुआ दूसरे उन की वरिष्ठता का ख्याल नहीं रखते हुए नए कवियों के साथ पहले ही कविता पाठ करने के लिए बुला लिए गए । गुस्से में आग बबूला वह कविता पाठ करने आए । आग्नेय नेत्रों से ठाकुर प्रसाद सिंह को देखते हुए उन्हों ने बेलीगारद शीर्षक लंबी कविता पढ़नी शुरु की और हूट होने लगे । इतना कि वीर रस की यह कविता करुण रस में तब्दील हो गई । लेकिन लाख हूटिंग के शिव सिंह सरोज ने पूरी कविता पढ़ी । सम्मान में मिली कंधे से गिर गई शाल पीछे मुड़ कर उठाई , कंधे पर रखी और अपनी जगह ऐसे आ कर बैठे सीना तान कर कि हल्दीघाटी जीत कर लौटे हों । लेकिन असली हल्दीघाटी तो दूसरे दिन की रिपोर्टिंग मीटिंग में शेष थी । उन्हों ने संजय से अपने सम्मान समारोह की फ़ोटो मांगी । तो संजय बिदक कर पूछ बैठे कि , ' आप का सम्मान हुआ भी था ? ' और उन्हों ने जैसे जोड़ा , ' हां आप के बेलीगारद कविता पाठ की फ़ोटो ज़रूर खींची है ! ; कह कर उन के काव्य पाठ की फ़ोटो सामने रख दी । शिव सिंह सरोज ऐसे फटे गोया आसमान फट गया हो । फ़ोटो फेकते हुए बोले , ' बेलीगारद ! भाग जाओ यहां से । ' मुख्य मंत्री ने हम को सम्मानित किया , पूरी दुनिया ने देखा और ई बेलीगारद देखि रहे थे ! ' संजय उठ कर मीटिंग से बाहर चले गए । फिर घर चले गए । शिव सिंह सरोज ने संजय को बर्खास्त करने के लिए लिख दिया । वीरेंद्र सिंह ने टालते हुए कहा , यह बर्खास्तगी का विषय नहीं है । लेकिन संजय की तबीयत ख़राब हो गई । डिप्रेसन में चले गए । हफ़्ते भर बाद लौटे । संजय की जिंदगी फिर रफ़्तार पर आ गई । लेकिन अकसर बुदबुदाते हुए कहते यह बुड्ढा मेरी नौकरी खा जाएगा किसी दिन । शिव सिंह सरोज के इस बेलीगारद प्रसंग का सविस्तार वर्णन मैं ने अपने उपन्यास अपने-अपने युद्ध में किया है । हुआ यह भी कि मैं संजय को जब-तब बेलीगारद कह कर भी बुलाने लगा । वह कभी मुस्कुरा पड़ता तो कभी ताव खा जाता । 

उन दिनों मैं दारुलशफा में रहता था तो मेरे घर अकसर आते संजय । दफ़्तर का दुखड़ा रोते । घर में भी कम दिक्कत नहीं थी । एक दिन वह बहुत ख़ुश होते हुए बोले , मालूम है पांडेय जी , इस दारुलशफा में मैं भी रहा हूं काफी समय । बचपन गुज़रा है मेरा यहां । पूछा कैसे ? तो हलके से मुस्कुराते हुए बताया कि पिता जी एम एल थे न ! फिर चुप हो गए । 

पिता ईमानदारी का बरगद थे पर एक सौतेली माता भी थीं । उन का सौतेलापन भी कम नहीं था । संजय भीतर-बाहर दोनों तरफ टूट रहे थे । संयोग देखिए कि वीरेंद्र सिंह ने स्वतंत्र भारत से इस्तीफ़ा दे दिया तो शिव सिंह सरोज कार्यकारी संपादक बना दिए गए। कुछ दिनों के लिए ही सही । सरोज से मेरी भी नहीं निभती थी । संजय की तो खैर क्या कहूं । वह सरोज को का वा स बोलता । खैर सरोज के बाद पत्रकारिता में एक और दलाली के चैंपियन राजनाथ सिंह सूर्य संपादक की कुर्सी पर शोभायमान हो गए । मेरे लिए और मुश्किल हो गई । स्वतंत्र भारत से छुट्टी हुई और नवभारत टाइम्स आ गया । जल्दी ही राष्ट्रीय सहारा शुरू हुआ तो संजय त्रिपाठी भी स्वतंत्र भारत छोड़ राष्ट्रीय सहारा आ गए । अब हम उन को संजय के बजाय मज़ा लेते हुए कहते , का हो  , बेलीगारद !  राष्ट्रीय सहारा में आ कर संजय की जिंदगी जैसे पटरी पर आ गई । अब वह ख़ुश और मस्त दिखने लगे । लेकिन जल्दी ही वह फिर पटरी से उतर गए । रणविजय सिंह नाम का एक मूर्ख संपादक बन गया । जो पत्रकारिता का क ख ग भी नहीं जानता था । यह रणविजय सिंह शिव सिंह सरोज से भी ज़्यादा मूर्ख और धूर्त निकला । संजय से भी जूनियर था , मुझ से भी । वह संजय जैसे खुद्दार आदमी को निरंतर अपमानित करने लगा । संजय गालियां देते हुए कहता कि यार यह साला किस्मत का पट्टा लिखवा कर लाया है । अल्ला मेहरबान तो गधा पहलवान । फिर जैसे टूटते हुए कहता हम जैसों की किस्मत भगवान ने गधे के लिंग से लिखी है । रणविजय को पेट भर गरियाता और कहता साले को कुछ आता-जाता नहीं लेकिन दिन-ब-दिन मज़बूत हुआ जाता है पैर छू-छू कर । तंत्र-मंत्र कर के । बाद के दिनों में हम भी राष्ट्रीय सहारा पहुंचे । संजय और हम फिर साथ हो गए । 

रणविजय सिंह जैसे साक्षर , दलाल और धूर्त से मेरी भी कभी नहीं निभी । अजब अहमक था यह आदमी । बीच मैच में फ़ोटोग्राफ़र से मैन आफ़ द मैच की फ़ोटो मांगता । फ़ोटोग्राफ़र कहता कि अरे मैच खत्म होगा तब तो मैन आफ़ द मैच होगा। वह कहता टेक्निकल्टी मत समझाओ मुझे । मुझे तो बस फ़ोटो चाहिए । एक से एक मूर्खताएं करता रहता वह । समझ से पूरी तरह पैदल । निर्मल वर्मा का निधन हुआ तो तब के दिनों दिल्ली में फ़ीचर देख रहे मित्र से मैं ने फ़ोन कर कहा कि निर्मल जी पर एक विशेष पेज निकलना चाहिए । मेरे पास उन के एक इंटरव्यू सहित कुछ सामग्री है , कहिए तो भेज दूं । वह बोले , पहले संपादक से बात कर लूं फिर बताता हूं ।थोड़ी देर में उन का फ़ोन आया । कहने लगे कुछ मत भेजिए । मैं ने कारण पूछा तो वह बताने लगे कि संपादक ने पूछा कि क्या बहुत बड़ा कलाकार था ? मैं ने कहा , नहीं लेखक थे । तो मुंह बिचका कर कहने लगा फिर रहने दीजिए । ऐसी मूर्खताओं के उस के अनेक किस्स्से हैं । लेकिन संजय सही कहता था , अल्ला मेहरबान तो गधा पहलवान । रणविजय तो समूह संपादक हो गया । और यह देखिए कि औरतबाजी , दलाली  करते-करते , ट्रांसफर , पोस्टिंग करते-करवाते सांसद निधि बरसने लगी उस पर , विधायक निधि बरसने लगी उस पर । लाखों , करोड़ों में । वह मैनेजमेंट कालेज खोल बैठा  , इंजीनियरिंग कालेज भी । बारात घर भी । कई-कई घर और फार्म हाऊस । इधर संजय नींद की दवा खाने लगा । डिप्रेसन में जाने लगा । बच्चे बड़े हो रहे थे जिम्मेदारियां बढ़ रही थीं । तनाव उस से ज़्यादा । शराब तनाव से भी ज़्यादा । लाठियां खा कर भी फ़ोटो खींचने वाला संजय , कैमरे बचाने में सिर फोड़वा लेने वाला संजय अब एसाइनमेंट से भागने लगा । कभी मासूम सा दिखने वाला संजय अब अड़ने , लड़ने और झगड़ने वाला हो चला था । शिव सिंह सरोज से बड़ा सिरदर्द रणविजय सिंह हो गया संजय के लिए । लेकिन वह जैसे तैसे निभाता रहा । फ़ोटो खींचने में फ़ोटोग्राफ़र अकसर पिटते रहते हैं । कभी पुलिस पीटती है तो कभी गुंडे , कभी भ्रष्ट अफ़सर । संजय राष्ट्रीय सहारा की नौकरी में भी कई बार पिटा । लेकिन वापस दफ़्तर आ कर भी जलील हुआ तो टूट-टूट गया । परिवार बिखरने लगा । अब यह देखिए कि एक दिन पता चला कि संजय ने आत्महत्या की कोशिश की । ढेर सारी नींद की दवा खा ली थी । परिवारीजनों ने अस्पताल ले जा कर किसी तरह बचा लिया । जल्दी ही संजय ने दूसरी बार आत्म हत्या की कोशिश की । फिर घर वालों ने बचा लिया । पहली बार मैं ने समझाया था , सांत्वना दी थी । दूसरी बार डांटा । कि यह बार-बार की क्या बेवकूफी है । वह लिपट कर रोने लगा । कहने लगा आप बड़े भाई हैं , आप को डांटने का हक़ है ! पर मेरी लाचारी समझिए । बच्चों का वास्ता दिया , बेटी का वास्ता दिया । पर एक बहादुर आदमी हर बात पर रोता रहा । अंततः उस ने वायदा किया कि अब यह गलती नहीं करेगा। लेकिन उस की जिंदगी पटरी से उतर गई थी। डिप्रेशन उस का बड़ा भाई बन गया था । अब वह जिस तिस से लड़ पड़ता । इसी बीच वह मुनव्वर राना से उस की मुलाकात हो गई । अब वह उन की शायरी का मुरीद हो गया । बात-बात में वह मुनव्वर राना के शेर कोट करता रहता । अब वह गजलों का शौक़ीन हो चला था । अकसर रात को फ़ोन करता । कहता सो न रहे हों तो बड़े भाई कुछ शेर सुनाऊं । फिर एक से एक शेर सुनाता । कई बार वह यह काम सुबह-सुबह भी करता । फ़ोन करता और कहता , अरे , कब तक सोते रहेंगे , शेर सुनिए । अब वह जब घर आता तो ग़ज़लों की कोई सी डी लिए । कभी पेन ड्राइव लिए हुए कहता इसे सुनिए 

अब यह संजय ,  शराब और शेरो शायरी का दौर था । कह सकते हैं उस के डिप्रेसन की इंतिहा थी 

पिछले दिनों हम दोनों बेटी की शादी खोजने में लगे थे । संजय की बेटी की शादी तय हुई तो वह कार्ड ले कर आया । शादी के दिन ही दिल्ली में मेरा एक कार्यक्रम था । बताया तो कहने लगा कुछ नहीं आना है । अपनी बेटी की शादी में नहीं आएंगे तो कब आएंगे ? मैं ने टिकट कैंसिल किया । गया भी शादी में । बेटी की शादी संजय ने ख़ूब धूमधाम से की । इस के पहले संजय के एक छोटे भाई की शादी में अंबेडकर नगर के एक गांव में बारात गई थी । तब संजय का और ही रुप देखने को मिला था । बहुत सी रिपोर्टिंग यात्राओं में भी संजय का साथ रहा है । पर उस के रंग में फर्क नहीं आता था । उस की शेरो शायरी का रंग और ज़िम्मेदारी का रंग कैसे तो सुर्खरू थे । बेटी की शादी कर के वह बहुत निश्चिंत हो गया था । बिलकुल मस्त और मगन । मुझे बेटी के विवाह के लिए परेशान देखता तो कहता कि बेटियां अपना भाग्य ले कर आती हैं सो घबराओ नहीं यार ! हो जाएगी बिटिया की शादी भी ! वह बेटी की एक से एक फ़ोटो सेशन करता और कहता यह फ़ोटो भेज कर देखिए । अब की तो बात बन जाएगी । जब मेरी बेटी की शादी हुई तो वह आया और ख़ूब ख़ुश ।  

मालिनी अवस्थी और संजय त्रिपाठी , साथ में संजय कृष्णेत 

ऐसे ही एक दिन मिला तो कहने लगा मालिनी अवस्थी से कभी बात होती है । मैं ने कहा हां, होती है कभी-कभार । मैं ने पूछा कि क्यों क्या हुआ ? कहने लगा कि यार अब हमें वह पहचानती ही नहीं । फिर याद दिलाते हुए कहा कि याद है मालिनी अवस्थी के बलरामपुर अस्पताल वाले घर में आप के साथ गया था । आप ने इंटरव्यू किया था , हम ने फ़ोटो खींची थी । वह घर में स्कर्ट पहने बैठी थीं , उन की स्कर्ट में फ़ोटो । स्वतंत्र भारत में छपी थी बड़ी सी । किसी अख़बार में मेरी खींची फ़ोटो ही पहली बार उन की छपी थी , उन्हें याद तो दिलाइए । कि उन को स्टार बनाने में मेरा भी हाथ है । पहचान लिया करें मुझे भी तो अच्छा लगेगा । हम ने कहा , ठीक है । लेकिन मालिनी अवस्थी से यह कभी कह नहीं पाया । क्या कहता भला । यह भी कोई कहने की बात होती है । रिपोर्टिंग और फ़ोटोग्राफ़ी में ऐसे तमाम मुकाम आते-जाते रहते हैं । बहुत से लोग कंधे पर सिर रख कर निकल गए । जब ज़रुरत हुई सुबह-शाम सलाम किया । ज़रूरत खत्म , पहचान खत्म । कौन किस को याद करता है । लेकिन संजय अकसर याद दिलाता और कहता कि कहा नहीं मालिनी अवस्थी से क्या । मैं हर बार कहता हूं , कह कर टाल जाता । फिर बहुत दिन हो गए इस बात को उस ने यह कहना बंद कर दिया । पर एक दिन फ़ेसबुक पर संजय की वाल पर देखा कि वह मालिनी अवस्थी के साथ एक फ़ोटो में मुस्कुरता हुआ खड़ा था । लेकिन मैं ने उस से कुछ कहा नहीं । जाने कितनी सांस और फांस है संजय के साथ हमारी । जाने कितने लोगों के इंटरव्यू , सेमिनारों , नाटकों , राजनीतिक कार्यक्रमों , धरना , प्रदर्शन , आंदोलन आदि-इत्यादि में उस के साथ की अनेक यादें जैसे दफ़न हैं हमारे सीने में ।

कुछ समय पहले इस राष्ट्रीय सहारा की नौकरी से भी इस्तीफ़ा दे दिया था संजय ने । सो जिंदगी जो थोड़ी बहुत पटरी पर थी बिलकुल पटरी से उतर गई थी । आर्थिक समस्याएं जब नौकरी करते हुए नहीं खत्म हुईं तो बिना नौकरी के कैसे खत्म होतीं । उसे अपना फाइनल हिसाब मिलने का इंतज़ार था कि ख़ुद फाइनल हो गया । संजय का एक छोटा भाई विनोद त्रिपाठी भी टाइम्स आफ़ इंडिया में फ़ोटोग्राफ़र था । कुछ साल पहले विनोद भी विदा हो गया था । अब संजय अपने गांव की बात करता रहता था । लेकिन गांव में भी कौन सी जमींदारी थी भला । पुरखे देवरिया से आ कर हैदरगढ़ के पास के गांव पूरे झाम तिवारीपुरवा में बसे थे और पिता विरासत में ईमानदारी और संघर्ष दे गए थे । दुर्भाग्य से संजय भी अपने दोनों बेटों को यही विरासत सौंप गए हैं 

शुरु के दिनों में जब संजय स्वतंत्र भारत में अपने को फ़ोटोग्राफ़र साबित करने के संघर्ष में लगा था , उसे हर कोई फ़ोटोग्राफ़ी सिखाने में लगा था । जिसे कैमरा पकड़ने का शऊर नहीं होता वह भी , जिसे फ़ोटो की समझ नहीं होती वह भी । उन्हीं लोगों में से एक मैं भी था । मैं भी उसे कभी रघु रॉय के फ़ोटो दिखाता तो कभी सत्यजीत रॉय के फ़ोटो । और बताता कि देखो फ़ोटो यह होती है। वह फ़ोटो देखता , मेरी बात सुनता और टाल जाता । यह सब जब कई बार हो गया तो संजय कहने लगा यह दिल्ली नहीं है , बंबई और कलकत्ता नहीं है , लखनऊ है । यहां ऐसी फ़ोटो कौन खींचता है , कौन छापता है । तो मैं उसे अनिल रिसाल सिंह के फ़ोटो दिखाता । सत्यपाल प्रेमी के फ़ोटो दिखाता और कहता यह देखो , यह तो लखनऊ के फ़ोटोग्राफ़र  हैं । वह तड़पता हुआ कहता , इन के कैमरे देखे हैं , इन के लेंस देखे हैं ? क्या है मेरा कैमरा ? यह कोई कैमरा है ? वह कहने लगा दिला दीजिए ऐसा ही कैमरा , ऐसा ही लेंस और ऐसी ही सुविधा । और फिर धरना , प्रदर्शन , नाटक , नौटंकी की रूटीन फोटुओं से फुर्सत , डाल दीजिए मेरे पेट में भरपेट रोटी । ऐसी ही सुविधा और ऐसी ही निश्चिंतता । इन से अच्छी फ़ोटो खींच कर न दिखाऊं तो कहिएगा । वह कहता , यहां तो रोज जब फ़ोटो खींचता हूं तो शिव सिंह सरोज का अपमानित करने वाला सामंती रवैया दिमाग में सवार रहता है । फ़ोटो क्या खाक खींचूंगा ? रोटी दाल चलाने दीजिए परिवार की । व्यवहार में यही है , बाकी सब सिद्धांत है । सच यही है कि अधिकांश रिपोर्टर , फ़ोटोग्राफ़र रोटी दाल में ही स्वाहा हो जाते हैं और अपना बेस्ट नहीं दे पाते हैं । शिव सिंह सरोज और रणविजय सिंह जैसे पत्रकारिता के दलाल गिद्ध जाने कितने संजय त्रिपाठी खा गए हैं , खाते रहेंगे ।

क्यों कि अब इन्हीं शिव सिंह सरोज और रणविजय सिंह जैसे दलालों और भडुओं का ज़माना है । अख़बारों में यह भडुए दलाल ही भाग्य विधाता हैं । पढ़े-लिखे लोगों की ज़रुरत अब किसी प्रबंधन को नहीं है । 

अलविदा मेरे भाई , मेरे दोस्त , मेरे बेलीगारद ! बहुत सारी बातें हैं , बहुत सारी यादें हैं । स्मृतियों में तुम सर्वदा उपस्थित रहोगे । अभी इतना ही । शेष फिर कभी । लेकिन तुम ने आज मुझे रुलाया बहुत है । अकसर तुम्हें चुप कराने वाला मैं आज कैसे चुप रह पाता भला । सो रो-रो कर हलका किया ख़ुद को । तुम धू-धू कर जलते रहे , मैं फूट-फूट रोता रहा । यही तो आज हुआ , मेरे बेलीगारद , डियर बेलीगारद !

पर अब किसे इतने दुलार से कहूंगा डियर बेलीगारद ! तुम तो चले गए !

गांव के अपने खेत में संजय त्रिपाठी 

4 comments:

  1. मैं भी मीडिया से ही हूँ, पिछले छह सालों से लखनऊ के एक हिंदी दैनिक में काम कर रहा हूँ। न कोई पत्रकार मुझे जानता है, और न ही मैं किसी को। पर कुछ फोटोग्राफर ऐसे जरूर थे, जिनको मैं महसूस कर पाता था। लखनऊ में तीन फोटो जर्नलिस्ट हैं जिनके करीब मैं जब भी गया, लगा कि बिना बात किये उनके करीब रहूँ। और रहा भी। तीन फोटो जर्नलिस्ट में से छाबड़ा जी का नाम मालूम है। बाकी एक सरदार जी थे, जो शायद कुछ महीनों पहले अलविदा कह गए। तीसरे ये साहब हैं, जो अब कह गए। उनके न रहने के बाद उनके जीवन परिचय से परिचित होने
    बहुत कुछ अखर रहा है। इस लेख में आपके और उनके आत्मीय संबंधों को उड़ेला गया है। साथ ही उस व्यक्तित्व का रेखांकन है। पत्रकारों की फेहरिस्त में दलालों, चाटुकारों की कमी नही है। वैसे ही फोटो जर्नलिस्ट की भी फेहरिस्त में है। आज कई सारे फोटो जर्नलिस्ट सरकारी हो गए हैं। इनमें से कई सारे श्रद्धांजलि, आंसू भेंट करेंगे। पर पांडेय जी आपकी ये भेंट अविस्मरणीय है। मुझे कभी कभी लगता है ऐसे संवेदनशील लोगों का इस दुनिया से निकल जाना ही ठीक है। वह रोज़ मरते हैं, घर में दफ्तर में, फील्ड में, हांसिल नींद की गोलियां, अवसाद,क्षोभ, दुःस्वरियाँ ही होती हैं।

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  2. मैं भी मीडिया से ही हूँ, पिछले छह सालों से लखनऊ के एक हिंदी दैनिक में काम कर रहा हूँ। न कोई पत्रकार मुझे जानता है, और न ही मैं किसी को। पर कुछ फोटोग्राफर ऐसे जरूर थे, जिनको मैं महसूस कर पाता था। लखनऊ में तीन फोटो जर्नलिस्ट हैं जिनके करीब मैं जब भी गया, लगा कि बिना बात किये उनके करीब रहूँ। और रहा भी। तीन फोटो जर्नलिस्ट में से छाबड़ा जी का नाम मालूम है। बाकी एक सरदार जी थे, जो शायद कुछ महीनों पहले अलविदा कह गए। तीसरे ये साहब हैं, जो अब कह गए। उनके न रहने के बाद उनके जीवन परिचय से परिचित होने
    बहुत कुछ अखर रहा है। इस लेख में आपके और उनके आत्मीय संबंधों को उड़ेला गया है। साथ ही उस व्यक्तित्व का रेखांकन है। पत्रकारों की फेहरिस्त में दलालों, चाटुकारों की कमी नही है। वैसे ही फोटो जर्नलिस्ट की भी फेहरिस्त में है। आज कई सारे फोटो जर्नलिस्ट सरकारी हो गए हैं। इनमें से कई सारे श्रद्धांजलि, आंसू भेंट करेंगे। पर पांडेय जी आपकी ये भेंट अविस्मरणीय है। मुझे कभी कभी लगता है ऐसे संवेदनशील लोगों का इस दुनिया से निकल जाना ही ठीक है। वह रोज़ मरते हैं, घर में दफ्तर में, फील्ड में, हांसिल नींद की गोलियां, अवसाद,क्षोभ, दुःस्वरियाँ ही होती हैं।

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  3. संजय जी से मैं भी परिचित था। कैसे? यह नहीं जानता। शायद कुछ लोग जीवन में ऐसे ही मिल जाते हैं। उनके चले जाने के बारे में जाना तो उनका मुस्कराता हुआ चेहरा सामने आ गया। उस मुस्कान ने कितने दर्द छिपा रखे थे यह आपके मर्मस्पर्शी लेख से जान सका। उनकी स्मृति को नमन।

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  4. बहुत मर्मस्पर्शी लेख है।

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