Sunday, 12 March 2017

काश कि उत्तर प्रदेश के यादव लैंड या दलित लैंड बनने पर भी लेखक मित्रों ने कभी मुह खोला होता

काश कि उत्तर प्रदेश के यादव लैंड या दलित लैंड बनने पर भी लेखक मित्रों ने कभी मुह खोला होता । मुस्लिम तुष्टिकरण पर भी सांस ली होती । एकपक्षीय सेक्यूलरिज्म का पहाड़ा न पढ़ा होता तो शायद यह नतीज़े यह और इस तरह कतई नहीं होते । हिंदी संस्थान जैसी जगह पर साहित्य के साथ यादववाद का भी पाठ पढ़ाया जाने लगा । पुरस्कृत किया जाने लगा । दलित राज में तो हिंदी संस्थान को बंद करने की साज़िश रची गई । लेकिन लेखक इस सब पर भी मासूम बन कर चुप थे । हर थानेदार यादव , हर ठेकेदार यादव , हर प्राईज पोस्टिंग पर यादव । सौ में से 84 डिप्टी कलक्टर यादव । इस पर भी मुंह खुलना चाहिए था । क्यों नहीं खुला भला ?

सर्जिकल स्ट्राइक और नोटबंदी जैसे मसलों पर किसी पार्टी के कार्यकर्ता की तरह लामबंद हो गए । गिरोह की तरह काम करने लगे । कश्मीर की आज़ादी जैसे मसलों पर अलगाववाद के पैरोकार बन गए , सेना को बलात्कारी बनाने की मुहिम चलाने लगे । तिहरे तलाक़ जैसे मसलों पर शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर धंसा कर सिट डाऊन हो गए । स्त्रियों की यातना नहीं दिखी । जनता की भावना और संवेदना नहीं , अपनी ज़िद , सनक और पूर्वाग्रह की ऐंठ में ऐंठे रहे । दुश्मनी मोदी और भाजपा से करनी थी , देश से करने लगे । जो भी कोई रत्ती भर असहमत हो , उसे भक्त कहने लगे । संघी बताने लगे ।

दादरी से लगायत मुजफ्फर नगर तक सपा सरकार दोषी थी , जवाबदेह थी , पर उस के दोष पर परदा डाल कर नरेंद्र मोदी को फ्रेम करने लगे । लड़ना था मोदी से , साहित्य अकादमी से लड़ने लगे । पुरस्कार वापसी का रैकेट चलाने लगे । फिर ऐसे में नतीज़े अब वल्गर हो गए । भाई वाह ! पूरा उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड भक्त हो गया । इतना कि उत्तर प्रदेश के 31 जिलों में भाजपा के सिवाय किसी का खाता नहीं खुला । 403 सीट में से सौ सीट भी समूचा प्रतिपक्ष नहीं पा सका । 79 सीट पर सिमट गया समूचा प्रतिपक्ष ।

लेखक , लेखक के बजाय जब पार्टी कार्यकर्ता बन कर एक व्यक्ति से एकतरफा नफ़रत का खेल खेलने लगे तो उस समाज को , लेखक के अंतर्विरोध को समझना बहुत मुश्किल नहीं है । पत्रकार तो पेड मीडिया में गिरफ्तार हैं , चाकर हैं । लेकिन लेखक ? यह किस पेड अभियान में हैं , किस के चाकर हैं ? अधिकांश लेखक भी इस संभावित दुर्घटना को कैसे नज़रअंदाज़ कर गए ? कैसे नहीं देख पाए यह सब ? जनता भक्त हो रही थी और आप उस को अपनी ज़िद और सनक में यह देख भी नहीं पा रहे थे ? एक फ़ासिस्ट का विरोध करते-करते इतने अंधे क्यों हो गए कि ख़ुद भी फ़ासिस्ट हो गए ? वेरी गुड ! और आप फिर भी लेखक हैं ? धन्य हैं आप लेखक शिरोमणि ! जनादेश का सम्मान करना सीखिए लेखक शिरोमणि , नफ़रत नहीं । असहमत होना और नफ़रत करना दोनों दो बात है । तिस पर आप लेखक जन की एक बड़ी शिकायत है कि आप को लोग पढ़ते नहीं । जनता से , जन भावना से , उस की संवेदना से कट कर रहेंगे तो साहित्य भी तो नकली ही लिखेंगे प्रभु ! नक्कालों से सावधान रहना जनता बहुत बेहतर जानती है । आप यह भी कैसे भूल गए हैं ।

तो कैसे पढ़ेगी आप को जनता । बल्कि क्यों पढ़ेगी । ख़ुद ही लिख कर , ख़ुद ही पढ़ लेने की आदत हो गई है आप को । यह बात तो अब सब जानते हैं । हो सके तो यह आदत बदलिए । क्यों कि लेखन के लिए , समाज के लिए यह बहुत गुड आदत नहीं है । हो सके तो अपने विचार , अपनी असहमतियां कायम रखते हुए अपनी ज़िद , सनक और पूर्वाग्रह से बाहर निकलिए । कुंठा से छुट्टी ले लीजिए । जनता अगर राजनीतिक पार्टियों को नकारना जानती है तो लेखक किस खेत की मूली हैं । लेखकों को भी जनता नकार रही है वही जनता जिस को आप पाठक कहते हैं । सभी पाठक भक्त नहीं होते , न संघी । सामान्य जन ही होते हैं । यह भी कि आत्म-मंथन भी एक चीज़ होती है।

हालां कि लेखकों को यह समझाना बहुत मुश्किल है कि विचार अपनी जगह हैं , असहमति अपनी जगह है पर तथ्य भी तो अपनी जगह हैं । लेकिन विचार की बुनियाद पर , असहमति की बुनियाद पर तथ्यों पर पानी डालने की कसरत कर कैसे लेते हैं आप ?  आप की यह कसरत आप को मुबारक ! लेकिन चश्मा लगा कर धूप में बरसात न दिखाएं , न देखें ।  रेत में सिर घुसा कर चुप रहना भी गुड बात नहीं । जन मानस और जनता की नसों को समझिए , उन की भावनाओं , समझ और पसंद को वैचारिकी के बूटों तले रौदना , कुचलना अब बंद भी कीजिए । कृपया दिन को दिन , रात को रात कहने का अभ्यास कीजिए ।

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