Monday, 8 June 2015

बड़की दी का यक्ष प्रश्न : क़िस्सागोई की लयबद्धता और कहानियों में टटकापन


अंजू उपध्याय 

दयानंद पांडेय का दूसरा कहानी संग्रह ‘बड़की दी का यक्ष प्रश्न’ एक साथ कई खिड़कियां खोलता है। कुल ग्यारह कहानियां इस संग्रह में संग्रहीत हैं और सभी कहानियों की जमीन न सिर्फ अलग-अलग हैं। शिल्प में भी बहुत अलग-अलग हैं। दरअसल दयानंद पांडेय की कहानी को पढ़ कर हर पल एक नये अनुभव से गुजरना है। उनकी कहानियों का टटकापन और किस्सागोई की लयबद्धता पाठक को कहानी छोड़ने नहीं देती क्योंकि वह अपने पात्रों के मन में जैसे बैठ जाते हैं और उनके चरित्र का रेशा-रेशा सामने रखते जाते हैं। उनके छोटे-छोटे विवरण छोड़ने का मोह वह नहीं छोड़ पाते। तो यह कहीं इन कहानियों की ताकत बन जाता है। कहानी संग्रह के फ्लैप पर लिखा है कि ‘कि इन कहानियों की खूबी कहिए या खामी, कमोवेश इनके सभी ‘क्रिएटेड’ नहीं ‘एडाप्टेड’ लगते हैं। सच यही है और शायद इसी लिए इन कहानियों का पढ़ना ऐसा लगता है जैसे सामने किसी फिल्म का दृश्य रील दर रील गुजरता जा रहा है।

संग्रह की पहली कहानी ‘बड़की दी का यक्ष प्रश्न’ जिस वृद्धा के वैधव्य जीवन से साक्षात्कार कराती है वह रोंगटे खड़ा कर देने वाला है। वैधव्य की चुनौती और वृद्ध होने की दहशत दोनों सवालों का जवाब जब वह अपनी इकलौती बेटी में ढूंढ़ती है तो जैसे वह अपने को सवालों के नागफनी में घिरी पाती है। मायका और ससुराल दोनों में ही जैसे उसके लिए कटीले वाण लिए खड़ी हो जाती है। ऐसे में उसका बेटी के घर पर जाकर रहना सामाजिक सवाल कम उसकी बेटी के लिए आर्थिक सवाल ज्यादा बन जाता है। लेकिन इस कहानी में लेखक अंततः कोई परिणाम बताने के बजाय सारे सवालों का जवाब पाठक पर ही छोड़ देता है और जानना बाकी रह जाता है कि आखिर बड़की दी का हुआ क्या ?

जिगर मुरादाबादी का एक शेर है कि, ‘दीदार रोज होता है मगर गुफ्तगू नहीं होती।’ लेकिन बशीर बद्र का एक शेर है- ‘गुफ्तगू रोज होती है, दीदार नहीं होता।’ इन दोनों शेरों में खास फर्क यह है कि जिगर मुरादाबादी के समय में फोन नहीं था और बशीरबद्र के समय में फोन आ गया है।

इस संग्रह की दूसरी कहानी ‘फोन पर फ्लर्ट’ फोन पर बातचीत की शिल्प में है जरूर पर वह एक भटकी स्त्री  और बहके हुए पुरुष का संलाप भर नहीं है यह समाज और परिवार में गिरती हुई नैतिकता की भी कहानी है। कहानी यह भी स्पष्ट करती है कि फोन पर किसी से भी बेलाग बतियाना कितना घातक होता है।

संग्रह की तीसरी कहानी ‘घोड़े वाले बाऊ साहब’ सामंतवाद और जमींदारी के अवशेष खण्डहरों की व्यथा तो है ही संतानहीनता के तकलीफ को भी यह कहानी बड़ी शिद्दत से बांचती है। कहानी में गूंथा गया गंवई परिवेश और बाऊ साहब का घोड़े का शौक जब बदल कर बैलगाड़ी में तब्दील हो जाता है तो कहानी बदलती आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था को इंगित करती है। कहानी में पट्टीदारी, अंधविश्वास और सामंती ऐंठ की भी इबारत साफ दिखती है। लेकिन कुल मिलाकर ‘घोड़े वाले बाऊ साहब’ के गोधन सिंह का व्यक्ति चित्र जो हमारे सम्मुख उपस्थित होता है, वह अविरल है। उनके साथ सहानुभूति भी उपजती है।

‘देहदंश’ संगीत, संस्कृति और राजनीति का ऐसा भयावह कोलाज है जिसको पढ़ कर आंखें चौंधिया जाती हैं। राजनीति की ऐसी दरिद्रता खासकर राजनीति में महिलाओं का शोषण इस कहानी में बहुत स्पष्ट रूप से उभर कर सामने आता है। अतः ‘नितम्बों पर भीड़ और उरोजों पर मुख्यमंत्राी’ जैसे वाक्य इस कहानी की चुभन को और नुकीला बनाती है। विधायिका के साथ का व्यवहार या एक समलैंगिक विधायक का चरित्र, मुख्यमंत्री और मंत्री  की जोड़-तोड़ और इस सबमें फंसी नायिका निर्मला का चरित्र बराबर उफनाता मिलता है। और वह बेबस, ‘घट-घट में पंछी डोलता, आप ही डंडी आप तराजू आप ही बैठा तोलता।’ गाते-गाते कबीर के शरण में चली जाती है तो समझना कुछ नहीं बहुत कठिन हो जाता है।

‘प्लाजा’ कहानी ‘ट्रेड यूनियन’ के ‘ट्रेड’ में बदलते जाने की कथा को बड़ी बारीकी से बयान करती है। ‘प्लाजा’ के राकेश की बेचैनी, बेरोजगारी का तनाव और महेश जी का उसका साथ देना कहानी में ऐसा तनाव बुनता है जिससे बेरोजगारी की आंच को बांचा जा सकता है।

‘मुजरिम चांद’ इस संग्रह की सबसे लंबी और महत्वपूर्ण कहानी है। प्रशासनिक दोगलेपन और पुलिसिया हेकड़ी को प्याज की तरह बेपर्दा करती यह कहानी एक साथ में गुंथे व्यंग्य और ब्यौरों को पढ़ कर श्रीलाल शुक्ल के उपन्यास ‘राग दरबारी’ के रंगनाथ की याद आ जाती हैं तो भी यह कहानी ‘राग दरबारी’ के मुकाबिल तो नहीं पर उदय प्रकाश की कहानी ‘और अंत में प्रार्थना’ के पाये की कहानी तो है ही। इस कहानी में दिलीप कुमार जैसे अभिनेता की कैसी दुर्गति होती है यह देखना भी दिलचस्प है। इस कहानी में बन गया माहौल भी काफी महत्वपूर्ण है। एक बानगी दृष्टव्य है:

‘दिलीप कुमार के आंगन में पहुंचते ही उन औरतों का रुन-झुन शोर यकायक थम कर खामोशी में तब्दील हो गया। सभी आंखें ख़ामोश लेकिन जैसे बहुत कुछ बोलती हुई। बुरके से टुकुर-टुकुर ताकती हुई। एक खुशी भरी खामोशी जैसे पूरे जनानखाने में तारी हो गई। अजब यह था कि इस खामोशी  में पैंट की जेब में एक हाथ डाले खड़े दिलीप कुमार भी जरा देर खामोश रहे। ऐसे गोया झील की बल खाती लहरें उड़ते हुए हंस के पंखों को थाम लें। हंस को उड़ने न दें।

‘आदाब !’ अचानक खामोशी तोड़ती हुई। दिलीप कुमार की हाथ उठाती आवाज क्या गूंजी एक साथ कांच की सैंकड़ों चूड़ियां और पचासों पायलें बज गईं। ऐसे, जैसे पंडित शिवकुमार शर्मा का संतूर बज गया हो, ऐसे जैसे कोई जल तरंग सोए-सोए जाग गया हो। आंखों के संकोच में सने दर्जनों हाथ उठे और जबान बोली, ‘आदाब !!!’ मिठास ऐसी जिसे मिसरी फूट कर किसी नदी में बह चली हो। राजीव को लगा जैसे कमाल अमरोही की किसी फिल्म का शॉट चल रहा हो। बिना कैमरा, बिना लाइट, बिना साउंड-म्यूजिक और बिना डायरेक्टर के, गुरुदत्त की किसी फिल्म के किसी भावुक दृश्य की तरह। हालांकि उसने देखा कि ‘आदाब’ के पहले भी बिन बोले उन औरतों और दिलीप कुमार के बीच एक अदृश्य सा संवाद उपस्थित था जिसे ठिठका हुआ समय दर्ज भी कर रहा था। पर दिलीप कुमार बिना निर्देशन के इस दृश्य की संवेदनशीलता, कोमलता और उसके औचक सौंदर्य को शायद समझ नहीं पाये या वापस जाने की हड़बड़ी में अकुलाए उन्हें जाने क्या सूझा कि वह घबरा कर ‘आदाब’ बोल बैठे, जैसे किसी ठहरे हुए पानी में कोई कंकड़ फेंक दे। यही किया दिलीप कुमार ने। लेकिन कांच की चूड़ियों की खन-खन और पायलों की रुन-झुन में भीग कर जो ‘आदाब’ जवाब में उधर से आया लगा कि दिलीप कुमार उसमें भीज कर भहरा गए हैं। उसने देखा वह सचमुच मुंह बा कर, माथे पर बालों की लटों को थामे क्षण भर तो खड़े रह गए । पर आगे ख़ामोशी की फिर एक सुरंग थी। लंबी सुरंग।

‘संवाद’ कहानी में दो पीढ़ियों के बीच का जो जेनरेशन गैप है वह काफी तल्खी से सामने उभर कर आता हैं पत्र शैली में लिखी गयी यह कहानी पीढ़ियों में आए टकराव को ऐसे बयान करती है। गोया कोई दिमाग पर हथौड़ा मार रहा हो। ‘प्रतिनायक मैं’ टीनएजर की मीठी यादों की कहानी है लेकिन इसमें बहुत कसाव नहीं है। ‘सुन्दर भ्रम’ कच्चे प्यार की कहानी कहती है। जबकि ‘वक्रता’ सुन्दर भ्रम का दोहराव लगती है। ‘मेड़ की दूब’ सूखे जैसी विपदा के बहाने गांव के आर्थिक, सामाजिक व्यवस्था को ‘आदमी के जीवन-संघर्ष, को रेखांकित करती है। खासकर इसका यह संवाद कहीं गहरे तक हिला जाता है, ‘दम तो मेड़ की दूब में है काकी ! कितना सूखकर हरे हो गये। सूखना और फिर हरा सोना, यही तो जिंदगानी है।’ कुल मिला कर इस संग्रह की कहानियों पठनीयता का ऐसा चुंबक है कि जिनको एक बार शुरू करने पर खत्म किये बिना छोड़ा नहीं जा सकता है।

[ हिंदुस्तान समाचार फ़ीचर्स नेटवर्क द्वारा जारी ] 


समीक्ष्य पुस्तक :

बड़की दी का यक्ष प्रश्न
पृष्ठ- 175
मूल्य-175 रुपए

प्रकाशक
जनवाणी प्रकाशन प्रा. लि.
30/35-36, गली नंबर- 9, विश्वास नगर
दिल्ली- 110032
प्रकाशन वर्ष-2000

1 comment:

  1. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, मंदी की मार, हुआ बंद व्यापार - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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