Thursday, 19 March 2015

महुए की उस इकलौती माला की सौगंध



महुए सी महकती मीठी यादों में भी मिलती हो
तो बांहों में ही मिलती हो
यह क्या है
कभी तो अवकाश दो
कि अपने आप से भी मिलूं

तुम्हें याद है
जब एक सुबह महुए के बाग़ में
हमने तुम ने मिल कर महुआ बिना था डलिया भर
लेकिन उस महुए की एक माला गुंथी थी अकेले तुम ने
उसी महुए के पेड़ के नीचे बैठ कर
उस ताज़ा पीले महुए की माला खेल-खेल में
पहना दी थी तुम ने मुझे
वह मेरे गले में आज तक महकती है
उतरी नहीं वह महक आज भी मन से
महुआ सा मदमाता मन लिए मैं खड़ा हूं आज भी
तुम कहां हो

महुआ चू रहा है
डलिया लिए बीन रहा हूं अकेले
लेकिन मुझे माला गूंथने नहीं आता
तुम आओ एक बार फिर से माला गूंथ दो
अब की मैं पहनाऊंगा तुम्हें
और सेलिब्रेट करने के लिए
तुम्हारे मनपसंद हरे चने का होरहा
आग में भून कर तुम्हें फिर खिलाऊंगा
कहोगी तो गेहूं की उम्मी भी आग में भून कर
नमक,  मिर्च , लहसुन मिला कर
तुम कहां हो

मह -मह महकती
यह आम्र मंजरियां
अपने भीतर दूध भरती और खुद को पकाती
यह गेहूं की बालियां
तुम्हारे रूप की तरह गदराई
यह अरहर की लदी - फनी छम-छम बजतीं छीमियां
इन के बीच से गुज़रता हुआ मैं अकेला
यह सब की सब पूछती हैं
तुम कहां हो

इन सब की सौगंध है
महुए की उस इकलौती माला की सौगंध है
आ जाओ
अब और मत भरमाओ
खेल-खेल में ही सही गौरैया सी फुदकती हुई
बांस के कइन की तरह लपती हुई
महुआ बारी की इस बहार में
आ जाओ
महुए सी महकती मीठी यादों में समा जाओ
हरसिंगार सा अनगिन रंग और उमंग लिए
तुम्हें अपने हाथ से बीना हुआ महुआ खिलाऊंगा
आ जाओ
तुम कहां हो

[ 19 मार्च , 2015 ]

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