प्रताप दीक्षित
हिंदी साहित्य के वर्तमान परिदृष्य में युवा रचनाकार दयानंद पांडेय वह
महत्वपूर्ण नाम हैं जिन्होने अपने उपन्यासों, कहानियों, आलेख फ़िल्मी लेख,
अंग्रेजी की चर्चित कृतियों के अनुवाद, हिंदी के सर्वाधिक पढ़े जाने वाले
ब्लाॅग (सरोकारनामा) आदि के माध्यम से जो स्थान बनाया है अन्य रचनाकारों के
लिए स्पृहणीय है। हमारे समाज के भीषण दबावों के बीच पठनीयता के तथाकथित
संकट के प्रचारित फतवों के दौर में इन की पुस्तकों ने पठनीयता के कीर्तिमान
स्थापित किए हैं। 30 से अधिक पुस्तकें इस का प्रमाण हैं कि यह किताबें
पाठकों की मोहताज नहीं रहीं। पुस्तकों के महंगी होने, इन की अनुपलब्धता,
टी0वी0-इंटरनेट आदि की बहुलता के समय में भी इन की किताबें हाथोंहाथ ली गई
हैं।
पाठकों की तथाकथित कमी के ‘विलाप’ के पीछे जिन तथ्यों
की उपेक्षा की जाती है कि आज बहुसंख्य लेखन पाठकों की अपेक्षाओं से कट चुका
हुआ है। सरोकार, प्रतिबद्धता, वैचारिकता आदि जुमलों के नाम पर प्रायोजित
रचनाओं में पाठकों को अपने आसपास की दुनिया, भावनाओं, आंतरिकता की छवि नही
दिखाई देती, तब इन से जुड़ाव कैसे संभव होगा! पाठक किसी कृति को तभी
आत्मसात कर पाता है जब उस में अपनी अनुभूतियों, आकांक्षाओं, निराशाओं,
द्वंद्व, सपनों की प्रतिछाया महसूस करता है। तब रचना पाठक को पढ़ने के लिए
बाध्य कर देती है। रचना पाठक के लिए उस की तमाम व्यस्तताओं की निश्चित
कालावधि (24 घंटों, सप्ताह, महीनों- -) के अंदर एक ‘अतिरिक्त समय’ सृजित
करती है।
समय की अबाध गतिशीलता में निरंतर प्रवहमान
दयानंद अपनी रचनाओं के माध्यम से धारा के साथ और धारा के विपरीत भी तैरे
हैं। समय की नदी में यह मनुष्य के साथ चलते हुए उस के सपनो, भावनाओं,
दुश्वारियों, संघर्ष के सहयात्री बनते हैं, तो धारा के विपरीत वह मनुष्य के
प्रति अन्याय, जीवन की विसंगतियों और यथास्थिति में परिवर्तन के प्रयासों
के साक्षी। यह यात्रा वायवी न हो कर यथार्थ के धरातल पर होती है। इस का एक ही
उदाहरण काफी होगा- इन के उपन्यास में बांसगांव की मुनमुन का संघर्ष एक
दूसरे लेखक के चर्चित उपन्यास की ‘वर्षा’ की तुलना में यथार्थ की
जलती-कठोर भूमि पर अनवरत गिरती-उठती हुई लड़की के संघर्ष की ज़मीनी हक़ीक़त है।
इस निर्मम समय के चलन ‘मसरूफ़ ज़माना मेरे लिए क्यों
वक़्त अपना बरबाद करे’ के बरक्स सच्चाई तो यह है - ‘जिन्हें हम भूलना चाहे
वो अक्सर याद आते हैं।’ कहानी-उपन्यासों और संस्मरण में मूल अंतर कहां होता
है? कहानी-उपन्यासों के चरित्र भी तो किसी न किसी रूप में लेखक के जीवन
में आए होते हैं। उनमें पात्रों के नाम-स्थितियों में लेखक कल्पना का
मिश्रण कर देता है। (बकौल प्रख्यात कथाकार काशीनाथ सिंह - लेखक एक ग्वाले के
समान होता है जो दूध में पानी की मिलावट की तरह सच में झूठ की मिलावट करता
है।) संस्मरण लिखना खतरे खतरे से खाली नहीं होता। संबंधित व्यक्ति की
नाराजगी, प्रंशसा करने पर लेखक पर चाटुकारिता के आरोप और सबसे ज्यादा लेखक
का अपनी आत्मा की अदालत में सच से आत्म-साक्षात्कार की यातना से गुज़रने का।
इन का सद्यः प्रकाशित ‘यादों का मधुबन’ (संस्मरण) में भी लेखक धारा के
विपरीत तैरने का साहसिक-सशक्त प्रमाण है। संस्मरण किसी न किसी रूप में
अतीत का साक्षात्कार होता है। ऐसी बातचीत जिस में लेखक बीते हुए वक़्त और
वर्तमान के बीच एक पुल बनाता है, ऐसा पुल जो भविष्य की दिशा तय करता है।
‘यादों के मधुबन’ के संस्मरण मात्र व्यतीत हुए समय और चेहरों की आत्मीय
प्रस्तुति नहीं बल्कि उस तस्वीर और सच के दूसरे पहलू को भी व्यक्त करती है
जो सामान्यतः निगाहों से ओझल रहता है। सुनी सुनाई या मीडिया ऐसे अन्य
माध्यमों से व्यक्ति के संबंध में जो नज़रिया गढ़ लिया जाता है उसके बरक्स
दूसरा चेहरा यह संस्मरण हमारे सामने पेश करते हैं। इस के साथ ही इस में लेखक
का अनवरत संघर्ष, जद्दोजहद और अतीव जिजीविषा भी है। जीवन संघर्षों का ही
पर्याय, दूसरे शब्दों में एक मरुथल की यात्रा, होती है। एक सामान्य व्यक्ति
और रचनाकार की यात्रा में फर्क होता है। चलना दोनो को ही पड़ता है, थकान
दोनो को आती है। परंतु एक सामान्य व्यक्ति इस यात्रा के दौरान जहां केवल
अपने पैरों में चुभे कांटे निकालता है वहीं रचनाकार इस यात्रा के दौरान
दूसरों के पैरों से कांटे ही नहीं चुनता, रास्ते को समतल भी बनाता है, तपते
दिनों में जीवन-यात्रा को आश्वस्ति के ठंडे झोंकों से सह्य बनाता है।
(जिंदगी धूप, तुम घना साया) यह ‘तुम’ लेखकीय संवेदना ही तो है। यही कारण है
कि अच्छी किताबें हमेशा संकट के दिनों में पाठकों को बल देती रहीं हैं।
परंतु इस प्रक्रिया में जहां एक रचनाकार दूसरों के जीवन के मरुथल में शीतल
बयार लाता है, मरुथल की नागफनियां उसे लहू लुहान कर देती हैं। तभी शायद
एक संवेदनशील रचनाकार दूसरों के साथ नहीं, दूसरों के स्थान पर स्वयं रोता
है। सीता के विरह में, लक्ष्मण के शक्ति लगने पर आने वाले राम के आंसू
वास्तव में तुलसी के आंसू हैं। एक रचनाकार तो अपने आंसुओं को दिखाता भी
नहीं। उसे तो बिना थके अपनी यात्रा जारी रखनी है। राबर्ट फ्राॅस्ट की तरह-द
वुड्स आर लवली, डार्क ऐण्ड डीप, बट आई हैव प्राॅमिजेस टु कीप, ऐण्ड माइल्स
टु गो बिफोर आई स्लीप।
इन संस्मरणो में दयानंद जी के
संघर्ष के साथ उन व्यक्तियों की पीड़ाओं, यातनाओं और संघर्ष से साक्षात्कार
भी है, जिनके संबंध में इनका सृजन हुआ है। ये उनके भागीदार रहे हैं। लेखक
भले ही सहयात्रियों को उनकी पीड़ाओं से निजात नहीं दिला सकता, लेकिन इन
संस्मरणों के मलयज बयार के माध्यम से नागफनी की चुभन किंचित कम ज़रूर करता
है।
अधिकांश आत्मकथ्यों की
परंपरा के विपरीत लेखक ने इन संस्मरणों में कहीं भी अपने को महिमामंडित करने की कोशिश नहीं की है। दयानंद पांडेय का साहस उन्हें किसी की नाराजगी
और अपवादों से निःशंक करता है और फक्कड़पन इतना कि वे बखिया उधेड़ने में
स्वयं को भी नहीं बख्सते। कथारस और किस्सागोई से भरपूर संस्मरणो में लेखक
का कहानी से संस्मरण, फिर संस्मरण से कहानी में आवाजाही का आभास पाठकों को
होता रहता है।
हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे सरल ह्नदय मनष्य
और लेखक विरल होते हैं। सरल-निश्छल होने पर भी दृढ़ प्रतिज्ञ। सामान्यतः
सरल-सहज व्यक्ति किसी के लिए किसी को ‘न’ कर पाना मुश्किल होता है। परंतु
हजारी प्रसाद जी एक लगभग किशोर वय कवि (दयानंद पांडेय) के ‘अनुनय-विनय’
करने पर भी अपनी बात पर अडिग हैं। (क्योंकि उनकी दृष्टि में कवि का स्वयं
अपना संग्रह छपवाना उचित नहीं है) इन्हीं द्विवेदी जी की करुणा है कि वे
लड़की के परीक्षा के दौरान रो पड़ने पर उसे पास कर देते हैं। परंतु नामवर
जी लड़कियों की रोने की होशियारी पर नहीं पिघलते। यह अंतर शायद हजारी
प्रसाद के ‘उपन्यासकार’ और नामवर के ‘आलोचक’ होने का है। यह करुणा
‘चारुचंद्रलेख’, ‘वाणभट्ट की आत्मकथा’, ‘अनामदास का पोथा’ के रचनाकार की
करुणा है।
संस्मरण की विशेषता है इस के शब्दातीत (बिटवीन द लाइंस ) ध्वन्यार्थ। एक अठारह साल के लड़के (कवि) का युवकोचित हठ, साहस, और
आत्मविश्वास। ‘पावं छूने की प्रवृत्ति का विरक्त आकलन और सूक्ष्म निरीक्षण
(आॅब्जर्वेशन) क्षमता जहां वह उनके सौम्य, सहज स्वभाव, आवाज के वाइब्रेशन
और स्निग्ध छुअन को महसूस करता है और उस का अक्खड़पन तिरोहित हो जाता है। एक
17-18 साल के युवा कवि में अपने कविता संग्रह छपवाने की उत्कंठा स्वाभाविक
प्रतीत होती है परंतु यह बचपना, छपास की उतावली अनेक प्रौढ़-वृद्ध कवियों
में भी होती है। जो अपने कविता संग्रह स्वय अपने पैसे से छपवा कर
परिचितों-अपरिचितों के बीच बांटते रहते हैं। इस से उन के अहं की तुष्टि भले
ही हो जाती हो लेकिन उन संग्रहों को किसी के द्वारा गंभीरता से पढ़ा जाना
तो शंकित ही करता है।
इस का दूसरा पक्ष प्रायोजित साहित्यिक
परिदृष्य पर व्यंग्य और साहित्य की प्रभृति विभूतियों के लिए समाज-सरकार
की अमानीवय उपेक्षा के प्रति लेखकीय चिंता है जिसमें हजारी प्रसाद
द्विवेदी, आचार्य रामचंद्र शुक्ल के निवास स्थान रहे भवन खंडहर हो रहे हैं
अथवा बाज़ार-उपभोक्तावादी शक्तियों द्वारा इन्हे बिल्डरों की गिद्ध दृष्टि
का ग्रास बनाने की तैयारी हो रही है। विदेश में जहां साहित्यकारों के आवास
राष्ट्रीय स्मारक के रूप में संरक्षित किए गए हैं। अपने देश में संस्कृति
विहीन रसकारों से यह प्रत्याशा दुराशा ही सिद्ध होगी। इस के लिए तो
संवेदनशील रचनाकारों की चिंता ही आशा का दीपक बन सकती है।
तुलसीदास और रामचरित मानस की तरह भगवतीचरण वर्मा और चित्रलेखा एक दूसरे के
पर्याय बन चुके हैं। इस संस्मरण (हमको तो चलना आता है केवल सीना तान के ) में भगवती बाबू
की उक्ति के माध्यम से बहुत महत्वपूर्ण तथ्य उभर कर आता है - ‘खंडहरों के
शहर में बस कर हम धीरे धीरे खुद खंडहर बनते जा रहे हैं।’ शायद लेख की नियति
का प्रतीक है कि एक संवेदनशील कवि-कथाकार घर, परिवार, मित्रों के बाद भी
समाज में कहीं बहुत अकेला होता है। साहित्य की त्रिवेणी (भगवती बाबू, नागर
जी, यशपाल) की महत्वपूर्ण कड़ी भगवती बाबू की इस व्यथा के पीछे निश्चिति
रूप से शहर के लोगों के मन में उन के प्रति उपेक्षा-अनदेखी रही होगी। उन के
अनेक उपन्यासों पर समीक्षकों ने कभी कला के अभाव को ले कर, कभी समाधान न
देने आदि को ले कर आलोचना की परंतु संस्मरण में एक पंक्ति ही उनकी रचनाओं
के केंद्रीय भाव की सार्थकता व्यक्त कर देती है जब पद्मभूषण मिलने पर
भगवती बाबू कहते हैं - अगर तुम्ही को पद्मभूषण बना दिया जाए तो सरकार का
क्या कर लोगे? ऐसा वक्तव्य केवल वही दे सकते हैं जिन्हें चलना आता है सीना
तान कर। लेखक ने उस तने हुए सीने का ताप महसूस किया है।
‘टूट गए है, पर टूटे नहीं हैं नागर जी’ आत्मीय संस्मरण है। समय आदमी को
कितना बदल देता है, तोड़ देता है लेकिन मनुष्य की अदम्य जिजीविषा उसे
पराजित नहीं कर पाती। सत्तर साल के बूढ़े नागर जी का जीवन संगिनी के न रहने
पर ‘तुम मेरे पास होती हो - -’ का करुणा से भरा हुआ वर्णन लेखक की नागर जी
के साथ दुख की सहभागिता की लेखकीय संवेदना का प्रमाण है। दुःख तोड़ने के साथ
मांजता भी है।
' अमृतलाल नागर : हम फिदाए लखनऊ, लखनऊ हम पे फ़िदा !' बताता है कुछ ऐसे वजूद
होते हैं वे शहर का पर्याय बन जाते हैं। इस केे पीछे लेखक (अमृतलाल नागर)
की आत्मीयता, विनम्रता, लोगों को बड़प्पन देना आदि गुण है जो एक इंसान को
महान लेखक के साथ महान आदमी भी बनाते हैं। घर पहली बार आए एक युवा प्रशंसक
के चेहरे पर उस की क्लांत भूख को समझ उससे ‘जूठन गिराने का अनुरोध’ नागर जी
की सहृदयता की अप्रतिम प्रतीक है। पाठक तो नागर जी को अग्निगर्भा के साथ
उन के क्रांतिधर्मा स्वरूप को ही जानता है परंतु संस्मरण बताता है कि लेखक के
जीवन में भी एक आम आदमी की तरह विडंबनाएं ओर विरोधाभास होते हैं। उसे भी
तमाम समस्याओं से जूझना पड़ता है। उस के न रहने पर कितना कुछ बदल जाता है।
नागर जी के बेटे, बेटियां सब पूरे देश में रहने फैल गए। क्रांतिकारी यशपाल
के बेटे, बेटी में यशपाल जी की रायल्टी को ले कर विवाद है। यही समय का कहर या
विडंबना है जिस के विषय में पहले से अनुमान नहीं लगाया जा सकता। दूसरी ओर हिंदी जगत की कृतघ्नता की ओर इंगित किया गया है कि हम अपने शिरमौर लेखकों
को जन्मशती पर याद भी नहीं करते।
जैनेंद्र जी के संबंध में
संस्मरण ‘न लिखने को भी पाप मानते थे जैनेंद्र जी ’ बताता है कि व्यक्ति व्यक्ति में अंतर होता
है। नागर जी और जैनेंद्र जी की तुलना में नागर जी की आत्मीयता, अपना बना
लेने की क्षमता जग जाहिर है। लेखक की यह अनुभूति और गहरी हो जाती है जब वह
नागर जी से पहले मिल चुका है। परंतु इस के भी कारण हैं। जैनेंद्र जी के ही
शब्दों में - मैं जीवन की जटिलताओं से चकरा पड़ा हूं। जैसे आर्थिक,
सामाजिक, राष्ट्रीय, पारिवारिक स्थितियों मेरे लिए वास्तव बन गई हैं।
जिन्होने मेरे आत्मिक पहलू को मेरे ही निकट गौण बना दिया है। जैनेंद्र जी
के लिखने के कारणों (सर्वथा अकेला, अमान्य, किसी लायक नहीं हूं ) और अज्ञेय जी
के कला के प्रयोजन के संबंध में उन के विचार (कला सामाजिक अनुपयोगिता की
अनुभूति के विरुद्ध अपने को प्रमाणित करने का प्रयत्न-अपर्याप्तता के
विरुद्ध विद्रोह -है।) में अद्भुत साम्य है।
विष्णु प्रभाकर
एक का व्यक्तित्व एक धर्मग्रंथ की तरह है जिस के प्रति सब श्रद्धा से नत हो
जाते हैं। उन की खूबी है कि वे दूसरे को अपने से ज़्यादा सम्मान देते हैं जब
संस्मरण लेखक उन से पहली बार मिलना है तो उस के मन में अपार श्रद्धा की
हिलोरों के साथ ‘आवारा मसीहा’ का नशा भी छाया हुआ है। लेकिन लेकिन पितामह
की उम्र की दूरी को वे क्षण भर में भस्म कर देते हैं। लेखक के झुक कर
प्रणाम करने पर वे ‘ठठा कर हाथ मिलाते’ हैं। दूसरों की तकलीफ समझना ओर उसे
भावनाओं की पाग में डालना उन की फ़ितरत थी। विष्णु जी के साहित्य विशेषता है
कि ‘गांधीवादी होते हुए भी उन्हों ने अपनी कहानियों को कभी गांधीवाद का
प्रचार साहित्य नहीं बनने दिया। सिद्धांत और सपने में एक लंबी दूरी है जो
वह अपनी कहानियों में अकसर पाट देते थे।’ (यहा संस्मरण लेखक के बिना कुछ
कहे तमाम मार्क्सवादी लेखकों के लिए विष्णु प्रभाकर के संबंध में यह कथन
दिशाबोधक बनता है।) संस्मरण में उन लोगों की संवेदनहीनता को भी चिन्हित
किया गया है जो काॅफ़ी हाउस में विष्णु जी को ‘देख कर विपरीत दिशा में आंख
बचाते हुए जा कर बैठ जाते’ थे।
प्रभाष जोशी के मार्मिक
संस्मरण (हमन इश्क मस्ताना बहुतेरे) में भले ही लेखक को लगता है, ‘नर्मदा
किनारे प्रभाष जोशी की देह नहीं, मैं ही जल गया हूं।’ (यह लेखक की
संवेदनशीलता की सघनता है। परंतु संस्मरण का निहितार्थ है कि इस तरह के
व्यक्तित्व अमर होते हैं। यह अपनी तैयार की गई पीढ़ी में सदा जीवित रहते
हैं। जोशी जी का व्यक्तित्व मिथक बन चुका है। संस्मरण में जोशी जी के
व्यक्तित्व-कृतित्व के अनजाने पहलुओं के संबंध मे पाठक रूबरू होते हैं। उन की सरलता, छोटे छोटे कामों में संकोच न करना (डेस्क पर अकसर बैठ कर काम
करना), साहस (मोहसिना किदवई को करारा जवाब), धैर्य-संतुलन गुणो के साथ ही
सर्वोदयी प्रभाष जोशी में आए उस बदलाव को भी बताया गया जहां जिसमें वे
‘अपने संपादकीय सहयोगियों के साथ लोकतांत्रिक नही रह गए थें’। रामदरश मिश्र
के प्रति जोशी जी का जान बूझ कर की गई उपेक्षा इसी तरह का उदाहरण है।
संस्मरण लेखक की बेबाकी का ही प्रमाण है कि जिन के प्रति उसके मन में अपार
श्रद्धा है उन के अलोकतांत्रिक व्यवहार, एवं अन्य कमियों, अखबारों राजनीति
की ओर भी इंगित करता है। संस्मरण में प्रकारांतर से धर्मवीर भारती, रघुवीर
सहाय, आलोक तोमर, अशोक वाजपेयी, रामनाथ गोयन्का आदि के प्रसंग आए हैं।
सब के अपने अहं और अपनी रणनीति के दांव-पेच के भी। निष्कर्ष के रूप में
लेखक द्वारा उद्धृत गांधीजी के आप्तवाक्य के - ‘महापुरुषों का सर्वश्रेष्ठ
सम्मान हम उन का अनुकरण कर के ही कर सकते हैं।'
प्रत्येक
रचनाकार अपनी रचनाओं के द्वारा हमेशा जीवित रहता है। ‘कमलेश्वर अभी जि़ंदा हैं’ संस्मरण व्यक्त करता है कि रचनाओं के अतिरिक्त भी कमलेश्वर में उन की
धर्मनिरपेक्षता, स्पष्टवादिता, साहस, मित्रता, विनोदात्मकता और जुझारूपन
आदि के गुण उन्हे कालजयी बनाते हैं। कमलेश्वर के उपन्यास ‘काली आंधी’ को
लोग इंदिरा गांधी के जीवन पर समझते हैं। संस्मरण में ही संभवतः पहली बार
खुलासा होता है कि सुब्रमण्यम स्वामी द्वारा, ‘आपने इंदिरा गांधी का अच्छा
चित्रण किया है।’ कहने पर कमलेश्वर छूटते ही बोले यह उपन्यास इन्दिरा
गांधी पर नहीं विजया राजे सिंधिया पर आघारित है।’
पत्रकारिता का क्षेत्र बाहर से बड़ा ग्लैमरस नज़र आता है। परंतु इस संसार
के संघर्ष, स्पर्धा, दांव-पेच, लेगपुलिंग ओर इन सब के बावजूद कुछ लोगों की
कर्मठता आदि के संबंध में दयानंद पांडेय के पत्रकारिता से संबंधित संस्मरण
सामान्य पाठकों को एक नई दुनिया से परिचय कराते हैं। ‘अपनी शर्तों पर जिए वीरेंद्र सिंह’ में एक सच्चे, ईमानदार, बहुविज्ञ, पत्रकार वाले ऐबों से
दूर पत्रकार की जिजीविषा, संघर्ष, दूसरों की सहायता को सदैव तत्पर, उदार,
बेबाक साहसी पत्रकार की छवि उभर कर आती है। लेखक ने संस्मरण में
स्पष्टवादिता से वीरेंद्र सिंह की विशिष्टताओं के साथ उन की कमजोरी ‘कान के
कच्चे होने’,का भी ज़िक्र करते हैं। दयानंद प्रमुखतः उपन्यासकार हैं।
कथाकार किसी मनुष्य को उस की समग्रता,गुण-दोषों सहित, रूपायित करता है।
दयानंद जी की एक प्रसिद्ध कहानी ‘एक जीनियस की विवादास्पद मौत’ के पात्र
विष्णु प्रताप सिंह के चरित्र में, पुत्र के इलाज के संबंध में डाक्टर से
होने वाली बहस का प्रकरण, वीरेंद्र सिंह के चरित्र से ही लिया गया प्रतीत
होता है।
‘कन्हैयालाल नंदन मतलब धरा के विरुद्ध तैराकी ’ में नंदन जी की जिजीविषा,
संघर्ष क्षमता, प्रतिभा, जीवन में उन के द्वारा छू गई उचाइयों (10, दरियागंज
के संपादक) के साथ ही तमाम पाठकों को जो नहीं जानते उन्हें मालूम होता है कि
नंदन जी ने ब्राह्मण होते हुए भी एक पिछड़ी जाति की विधवा महिला से विवाह
किया था। संस्मरण में ही नंदन जी की कई महत्वपूर्ण कविताएं भी हैं।
‘साहित्यपुर के संत और उन के रंगनाथ की दुनिया ’ में ‘राग दरबारी’, ‘विश्रामपुर का संत’ आदि
महत्वपूर्ण उपन्यासों के रचनाकार श्रीलाल शुक्ल के व्यक्तित्व, कृतित्व और
जीवन के अनजाने पहलुओं के संबंध में यादें हैं। यह किसी लेखक की चरम सफलता,
सबसे बड़ा पुरस्कार है जब किसी पाठक (दयानंद जैसे रचनाकार) को महसूस हो कि,
‘वैद्य जी (राग दरबारी के पात्र) से, उन की मान्यताओं, उन की उखाड़-पछाड़
से रंगनाथ ही नहीं मैं भी टकरा रहा हूं। संस्मरण में ही यह भी भासित होता
है कि ‘राग दरबारी’ के शिवपालगंज का चित्रण में बांसगांव का असर है। किसी
रचना को पढ़ कर अकसर पाठक एकतरफा राय बना लेते हैं। विशेष तौर पर स्त्री
विमर्श, स्त्री के उत्पीड़न संबंधित रचनाओं पर। चंद्रकिरण सोनरिक्सा की
आत्मकथा ‘पिंजरे की मैना’ पढ़ने पर उन के पति खलनायक ही सिद्ध होते हैं।
परंतु संस्मरण के एक प्रसंग में ही जानकारी प्राप्त होती है कि श्री
सोनरिक्सा बेमिसाल फ़ोटोग्राफ़र भी थे। संस्मरण में ही पुरस्कार की राजनीति, हिंदी संस्थान आदि की अध्यक्षता के सच के पीछे के सच की अंतर्कथा भी है।
रघुवीर सहाय एक सुप्रसिद्ध कवि, पत्रकार, विशेष तौर से ‘दिनमान’ के रूप
में जाने जाते हैं। दयानंद जी का आत्मीय संस्मरण रघुवीर सहाय : बजा फिर बेताल हो गया उन की उन विशिष्टताओं -
अंग्रेजी में एम0ए0 होने पर भी रोटी हिंदी की खाने, बनिया तंत्र (अखबार के
मालिकान) से असहमति, संधर्ष और इस्तीफा के पीछे की गाथा, दिल्ली में सिटी
बसों में धक्के खाने लेकिन सरकारी तंत्र की नौकरी न करने के साथ ही मीडिया
की संवेदनहीन निर्ममता (दूरदर्शन पर उन के निधन की खबर न होना) आदि को तल्खी
से व्यक्त करता है।
सरकारी तंत्र तो अमानवीय होता ही हैं,
परंतु जब संवेदनशील कहे जाने वाले साहित्यकार भी निर्मम हो जाएं वह भी
अपने ही एक कवि साथी (अदम गोंडवी) के प्रति तब इसे विडंबना ही कहा जाएगां
इसी को व्यक्त किया है संस्मरण - ‘तो आमीन अदम गोंडवी, आमीन!’ में।
राजनेताओं को सामान्यत: निर्मम मान लिए जाने की परंपरा है। लेकिन राजनेताओं
में भी अंतर होता हैं यही अंतर एक गरीब-दलित की बेटी मायावती और मुलायम
सिंह यादव में है। मुलायम सिंह यादव ने ही अदम गोंडवी के इलाज की व्यवस्था
अपने पास से तब की थी जब वे सत्ता में भी नहीं थे। इन्हीं मुलायम सिंह ने
संस्मरण लेखक (दयानंद पांडेय) के दुर्घटनाग्रस्त होने पर स्टेट हेलीकाप्टर से ले कर पीजीआई में चिकित्सा की व्यवस्था की थी। मुलायम सिंह ही ने एस0के0
त्रिपाठी के कैंसर के इलाज के लिए अपने विवेकाधीन कोष से दस लाख दिए थे।
संस्मरण बताता है कि हर दिखते चेहरे के पीछे कई चेहरे होते हैं जिन्हें हम
नहीं देख पाते। मुलायम सिंह पर भले ही संपत्ति से ले कर तमाम राजनीतिक आरोप
लगते हों लेकिन यह संस्मरण उन्हे एक संवेदनशील व्यक्ति के रूप में साबित
करता है जो अमूमन आज के परिदृष्य से लुप्त हो चुके हैं। इसी संस्मरण
में अदम गोंडवी की रचनाधर्मिता के साथ , भारतभूषण की स्मृति और ‘शहर के
साहित्यकारों की संवेदनहीनता ’ का उल्लेख किया गया है।
अंगूर नहीं खट्टे , छलांग लगी छोटी में कवि देवेंद्र कुमार बंगाली की रचनाशीलता, सादगी, सरलता और अखबारों की
स्मृतिक्षीणता (अखबारों में निधन की ख़़बर तक न छपना) आज के समय की निर्मम
प्रक्रिया का दुनियावी अंश है।
संगम की प्रतिमूर्ति में विश्वनाथ प्रसाद तिवारी
अपनी कविताओं आलोचनाओं, संस्मरण, संपादन (दस्तावेज) आदि के कारण जाने जाते
हैं। कुछ लोग कभी नहीं बदलते। अपनी पोशाक, सादगी, देशज ठाठ, भले ही वे
शीर्ष (साहित्य अकादमी) पर पहुंच जाएं। लेखन में राजनीतिक प्रतिबद्धता से
असहमति के बावजूद इन की कविताओं ने आपात्काल (1976) की कविताओं के प्रतिरोध
के स्वर की धार तथाकथित प्रतिबद्ध साहित्य से कहीं ज़्यादा तीखी रही है।
सत्तर की उम्र में ‘संत सी सक्रियता और प्रेम’ दो नदियों के अतिरिक्त मनुष्यता
और साहित्य की कितनी धाराएं उस संगम की निर्मिति करती हैं जिस की
प्रतिमूर्ति तिवारी जी हैं। सरलता, सहजता, विनम्रता, मदद करके भूल जाना
संतों का ही गुण होता हैै। ऐसे व्यक्तियों की पोशाक, भले ही रचना की उंचाई
अथवा साहित्य अकादमी का शीर्ष पद हो। दयानंद जी के इस संस्मरण में उन के साथ
ही कितने लोगों की श्रद्धा संपुटित है।
लेखक ने ‘अपराजित परमानंद श्रीवास्तव’ में, बच्चन जी के इलाहाबाद को कोसने के प्रसंग के साथ
परमानंद जी को अपने शहर गोरखपुर के सालने की बात की है। (भगवती चरण वर्मा
को लखनऊ, अपना न सही, लेकिन रहने से लेकर आखिरी सांस वहीं ली, शहर को
खंडहरों का शहर कहते थे- बकौल संस्मरणकार) संबंधों की निस्सारता, मित्रों
की प्रवंचना, उपेक्षा ऐसे कौन कारक होते हैं कि किसी व्यक्ति को अपना शहर
बेगाना लगने लगता है। परमानंद आलोचक के साथ संवेदनशील कवि भी थे। किसी
संवेदनशील व्यक्ति को अमानवीय स्थितियां ही इस हस्र पर पहुचा देती हैं।
संस्मरण में लेखक का उस घटना का उल्लेख जब हरिश्चंद्र श्रीवास्तव पीएचडी
के लिए लेखक के आवास पर आए थे, परमानंद जी के बड़प्पन और सहजता का उदाहरण
है। छोटे कद का, साहित्य और मनुष्यता के क्षेत्र का बहुत ऊंचा
व्यक्तित्व। दयानंद जी की महत्वपूर्ण निष्पतित है कि ‘अंतर्विरोधों को
खंगालना है तो खंगालिए पर बिलो द बेल्ट मत जाइए।’ परंतु हिंदी साहित्य की
दुनिया की राजनीति को क्या करेंगे कि यहां हमेशा बिलो द बेल्ट प्रहार ही
नहीं अभिमन्यु की तरह घेर कर बध करने के प्रयास होते हैं। शायद जीवन के
अंतिम दिनों में यह दुरःभिसंधिया भी उन के अवसाद, स्मृति-भ्रम और बीमारी का
कारण रही होंगी। (संस्मरण लिखे जाने के बाद उन का देहांत हो चुका है।)
क्या किसी के द्वारा आत्महत्या के पीछे केवल उसकी हताशाएं होती है?
कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में यह समाज, परिवेश और प्रत्यक्ष या परोक्ष
दुःरभिसंधियां भी इस के पीछे ज़रूर होती हैं जिन के कारण ऐसे साहसी व्यक्ति,
जिसने दो बेटियों की मां विधवा महिला से विवाह किया हो, के लिए स्वयं को
खत्म कर लेने के सिवाए कोई विकल्प नहीं बचता। ‘निश्चित तौर पर उस समय अपने
रूढि़े्रस्त समाज में उन्होने कड़ा संघर्ष किया होगा। ' उस ने मरना भी चाहा तो आहट सुनाई दी ’ , कवि राजेश शर्मा की अत्महत्या पर लिखा संस्मरण केवल मार्मिक और राजेश
जी की मृत्यु का मर्सिया पढ़ना नहीं है, बल्कि उपरोक्त सवालों के संदर्भ
में निर्मम स्थितियों को प्रश्नांकित करते हैं। यह संस्मरण अवसाद ग्रस्त
लोगों की जिजीविषा बढ़ाने में मददगार सिद्ध हो सकेगा।
‘शिवमूर्ति अगर कहीं जज रहे होते तो ज़्यादा अच्छा होता !’ ऐसे आत्मीय संस्मरण एक लेखक के द्वारा, बहुत कम,
दूसरे समकालीन लेखक के संबंध में लिखे जाते हैं। शिवमूर्ति जी के प्रारंभिक जीवन के इतने कठिन संघर्ष के संबंध में उन्होने तो संभवतः कभी खुली चर्चा
की नहीं होगी। उन के आत्मीय लोग भले जानते हों। साहित्यिक समारोहों-
गोष्ठियों में, गंभीर से गंभीर विषय पर, वे अपने वक्तव्य इतने रोचक-मनोरंजक
ढंग से देते हैं कि श्रोताओं को बेकारारी से उन का इंतजार रहता है। शिवमूर्ति
की अटूट जिजीविषा ही है जो इतना कुछ घटित हो सकने के बाद इतने सहज-सामान्य
बने हुए हैं। अन्यथा ‘विमर्श’ के नाम पर कितने ऐसे लेखक हैं जिन्होने
अपने ‘बचपन के दुर्दिनों-शोषण’ को, पूरे वर्ग को कोसते हुए पूरे जीवन
भुनाया है। संभवत शिवमूर्ति जी ने अपने नाम के अनुसार बचपन के भुक्त दिनों
के जहर को अपने कंठ में रख कर अपनी रचनाओं के माध्यम से कल्याणरत हैं।
दयानंद स्वयं पत्रकार होने के कारण इस दुनिया को बहुत नजदीक से जानते
हैं। ‘छोटा हूं ज़िंदगी से पर मौत से बड़ा हूं !’ प्रख्यात पत्रकार आलोक तोमर के संबंध में
संस्मरणात्मक आलेख है। आलोक तोमर ऐसे लोग जो अपने सिद्धांतों के लिए डेस्क्
वालों से ही नहीं हर जगह जहां उन्हे अन्याय प्रतीत होता है उलझ जाते हैं।
परंतु यह दयानंद की आतमीयता है या आलोक तोमर की सहृदयता कि दयानंद के
दुर्घटना ग्रस्त होने पर वह आते हैं, अटल जी के साथ। प्रभाष जोशी और आलोक
तोमर की जोड़ी के संदर्भ में संस्मरण लेखक का कथन ‘अब तो - - क्या रिपोर्टर,
क्या संपादक ज्यादातर चोर हो गए हैं जितना बड़ा चोर उतना सफल संपादक, उतना
सफल रिपोर्टर’ इतना साहसिक वक्तव्य है जो किसी ऐसे व्यक्ति के द्वारा दिए
जाने के लिए तो कतई असंभव लगता है तत्कालिक रूप से उसी प्रोफेशन में हो।
पत्रकारिता की दुनिया एक समान्य पाठक के लिए अनजानी तिलिस्मी दुनिया हो
सकती है परंतु प्रभाष जोशी की तानाशाही के साथ दयानंद जी का यह सवाल भी कम ज़रूरी नहीं कि शिखर पर बैठा हुआ व्यक्ति रामकृष्ण परमहंस की तरह अपना
विवेकानंद क्यों नहीं ढूढ़ सका? आवश्यकता तोमर ऐसे पत्रकारों की है जो
‘सरकार से गुहार लगा सकें कि सिगरेट से मिलने वाले टैक्स से एक हिस्सा
कैंसर मरीजों के लिए खर्च किया जाए।’ लेखक का यह संस्मरण आलोक जी को
श्रद्धांजलि के साथ उन सरोकारों को भी उठाता है जिन के लिए आलोक मरे और जिए।
लेखक के प्रसिद्ध उपन्यास ‘लोक कवि अब गाते नहीं ’ के मुख्य पात्र की
पृष्ठभूमि के नायक बालेश्वर का स्मृति-चित्र ‘मूरख मिले बलेस्सर पढ़ा लिखा गद्दार ना मिले ’
मार्मिक होने के साथ ही एक लोकप्रिया कलाकार के जीवन के संघर्ष, विसंगतियो
और अंतर्विरोधों को व्यक्त करता है। दूसरी ओर लोककला-संगीत के प्रति
व्यवस्था की दिखावटी चिंता, संरक्षण के लिए किए गए कार्यो के पीछे का सत्य
तथा नौकरशाही की संवेदनहीनता को संस्मरण उजागर करता है। ऐसा किरदार जिसे
जीवन यापन के लिए ‘मिट्टी-गारा की मजदूरी’ करनी पड़े वहां लोककला के विकास
के संबंध में सहज अनुमान लगाया जा सकता है। वस्तुतः लोककला-संगीत का
संरक्षण सरकारी कारकुन नहीं ‘दबे कुचले समाज’ के लोग ही करते हैं क्यों कि
‘बालेश्वर गरीब-गुरबों के गायक है।’
मिथक बन चुके प्रेमचंद
के नाम को जितना भुनाया गया है, उनके नाम पर सरकारी याजनाओं के अनुदान का
दुर्पुयोग हुआ है इन्य किसी रचनाकार के नाम पर कम किया गया होगा। संस्मरण
‘प्रेमचंद एक अनुभव’ इसी व्यथा को व्यक्त करता है कि आज शहरी लोगों को
प्रेमचंद के गांव लमही में वह फिल्मी गांव ढूढ़े नहीं मिला था जिसकी उनके
मन में कल्पना रही होगी। दूसरी विडंबना यह है कि जिस रचनाकार ने अपने पूरे
जीवन जाति-धर्म की दीवारें तोड़ने की कोशिश अपनी रचनाओं के माध्यम से किया
उसी लेखक को इतने विकास के बाद भी ‘यही जानते हैं कि वह लाला थे, मनसिधुवा
थे।’ संस्मरण लेखक की बचपन की स्मृति ‘तब साहित्य में मेरी रुचि भी न थी।
साहित्य क्या बला है इससे अनभिज्ञ’ के संबंध में यही कहा जा सकता है कि इसे
तो आज बहुत से लिखने वाले भी नहीं जानते होंगे। परंतु साहित्य की परिभाषा
भले ही न जानते हों लेकिन ‘वह अजीब सी दुनिया - - गुल्ली डंडा जम कर खेलते।
- - अपने बैलों में ‘हीरा मोती’ की छाप ढू़ढ़ते’ जीवन में साहित्य का
उतरना और प्रेमचंद की सार्थकता है।
विकास की विडंबना है कि
75 से अधिक प्रतिशत गांवों वाले देश में गांव खोते जा रहे हैं। गांवों में
शहरों की सुविधाएं भले ही न आ पाई हों लेकिन वहां का प्रदूषण और छद्म जीवन
शैली अवश्य प्रवेश कर चुकी है। ‘लमही गांव की मन में टूटती तसवीर और उस की छटपटाहट के बीच प्रेमचंद की जय !’ बड़ी मार्मिक उक्ति
है - लमही अब कोई गांव नहीं, एक बसता हुआ शहर सांस लेता है।’ प्रेमचंद के
जन्मदिन (31 जुलाई) पर 2012 में लमही जाने पर लेखक की अनुभूति प्रेमचंद के
पाठक-लेखक के मन की व्यथा है कि ‘यह प्रेमचंद को याद करने भर का यत्न नहीं,
प्रेमचंद को जीने का क्षण था।’ लेखक काशीनाथ सिंह को उद्धृत करता है कि -
तुलसी, कबीर, रैदास को तो मठ वाले ले गए लेकिन प्रेमचंद अभी भी हमारे पास
हैं।’ ( परंतु पिछले दिनो प़त्र-पत्रिकाओं मे चली बहस ‘हमारे प्रेमचंद,‘
‘हमारे निराला’ ने इन पर भी खतरा पैदा कर दिया है।)
‘अपनी ही अदालत में मुकदमा हारते खड़े अटल’ के बहाने समय, नियति, राजनीति, नैतिकता और सपनो के
अन्तर्संबंधों की अंतर्कथा है। एक कवि प्रधानमंत्री के सपनो को मूर्त रूप
देेने की कोशिशों को इस संस्मरण में व्यक्त किया गया है। लेखक नियति - समय
के उस चक्र पर अफसोस ही प्रकट कर सकता है - ‘जैसे महाभारत में भीष्म पितामह
से आशीर्वाद लेने के लिए कतार लगी रहती थी, अटल जी के साथ वैसा नहीं है।’
एक उदाहरण लेखक ने अटल जी द्वारा लालजी टंडन को दिए निर्देश/सुझाव,, ‘टंडन
जी वोट मिलता है, नाली, खड़ंजा, सड़क ठक होने से और हैंडपंप में पानी रहने
से, डिग्री काॅलेज के उद्घाटन से नहीं।’ उनके सरोकारों के प्रति
प्रतिबद्धता का दिया है। जिनसे आज के राजनीतिको को कितना कुछ सीखना बाकी
है।
‘नारायणदत्त तिवारी, उज्ज्वला और रोहित’ और ‘जैविक पिता और लांछित पिता की त्रासदी’ के प्रसंग पिछले कुछ दिनों से अखबारों के लिए सबसे बड़ा
स्कूप रहा है। इस संस्मरण को पढ़ने के पहले तक अधिकांश अखबार पढ़ने वाले
पाठक नारायणदत्त तिवारी को खलनायक मान चुके होंगे। लेकिन यह आलेख पढ़ने के
बाद निश्चित रूप से उनकी धारणा बदलेगी। वस्तुतः स्त्री-पुरुष संबंध, उन का
आकर्षण हमेशा से रहा है। महाभारत के उदाहरण - सूर्य पुत्र, व्यास नंदन आदि
के द्वारा इन लांछनों के इतिहास को भी लेखक बताता है। स्त्री विमर्श के ढोल
बनजे के साथ और अब नए कानूनो के बाद पुरुष को एकतरफा दोषी मान लिया जाता
है। निश्चित रूप से यह संबंध दोनो की सहमति से बने होंगे। इस प्रसंग में
तथाकथित तौर पर ‘पीडि़त महिला’ का आरोपी नेता के प्रति आकर्षण का कारण उस
नेता का आकर्षक रूप-सौंदर्य और उस का पद मूल में रहा ही होगा। व्यक्तिगत
संबंधों की निजता बनाए रखना ज़रूरी होता हैं खास तौर पर स्त्री के लिए।
निश्चित रूप से श्री तिवारी का पक्ष, भले ही अदालत में न सही, सबल है। एक
संवेदनशील पाठक की सहानुभूति, उन की सदाशयता केे कारण और भी ज्यादा, तिवारी
जी के साथ होगी। लेखक द्वारा पूर्व और वर्तमान के अनेक नेताओं, अभिनेताओं,
उद्योगपतियों, सेलिब्रिटीज के इस संबंध में नामों की लंबी सूची के उल्लेख
के लिए लेखक की खोजी पत्रकारिता के कौशल के साथ उसके साहस को साधुवाद देने
की ज़रूरत है कि आज जब जरा ज़रा सी बातो पर मानहानि के दावे दायर कर दिए जाते
हैं, ऐसी स्थिति में लेखक ने बड़ा ख़तरा उठाया है। (शायद लेखक के मन में
एक आश्वस्ति रही हो कि एक आलेख में संभावना है कि इसे बहुत लोगों ने नहीं
भी पढ़ा हो सकता है लेकिन ‘उनके द्वारा मुकदमा करने’ से पूरा मामला जग
जाहिर हो जाएगा) दसरी ओर यह पूरी लिस्ट इस लिए जरूरी लगती है कि जनता की
अदालत में निर्णय के लिए यह साबित होना भी आवश्यक प्रतीत होता है कि इस
हमाम में सभी नंगे हैं। यह लेख ऊपरी तौर पर निवारीजी-उज्ज्वला के संबंधों
पर प्रतीत हो सकता है परंतु इसका संबंध इतिहास, समाज, संबंधों की गरिमा,
मनुष्य होने की विशिष्टता के सवालों पर पुनर्विचार का एक श्वेतपत्र के रूप
में अपना महत्व बनाता है।
राजनीति भी एक मनुष्य होता है।
मनुष्य गुण-अवगुणो की खान होता है। फिर राजनीतिज्ञ इससे विलग कैसे रह सता
है, यदि वह अपने ऊपर मुखौटा न लगाए हो। आज अधिकांश राजनेताओं के असली चेहरे
अपराधियों, गुंडों, अनपढ़, अनगढ़ हैं। परंतु उन पर ये लोग सभ्रांत,
सुशिक्षित होने का ढोंग रचे रहते हैं। जो लोग ऐसे मुखौटे नहीं लगाए रहते,
लेखक के अनुसार उनमें एक चेहरा स्व0 वीर बहादुर सिंह का है। ‘भदेस वीर बहादुर सिंह की देसी बातें ’ का प्रारंभ नियति के उस दुर्भाग्य से होता है जिस के लिए बहुत पहले लिखा
जा चुका है (बहादुर शाह ‘जफ़र’) - दो गज जमीं न मिल सकी, कूए यार में। इसी
प्रकार उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री एवं बाद में बने केंद्रीय मंत्री वीर बहादुर सिंह के जीवन की यह नियति थी कि ‘पेरिस जा कर मरेंगे, यह
भला कोन जानता था।’ जमीनी यथार्थ से जुड़े इस नेता के संघर्ष, कूटनीतिक
चालें, दूसरों को परास्त करने के दांव-पेच, दूसरों को की गई मदद , उपकार के
साथ एक महत्वपूर्ण गुण मान-अपमान को समभाव से स्वीकार करने की क्षमता का
आलेख में वर्णन है। इस के साथ ही इस संस्मरण में विधायकों की सौदेबाजी,
पत्रकारों को इसका मोहरा-माध्यम बनाना, पत्रकारों की आपसी प्रतिस्पर्धा और
प्रत्युत्पननमति (दयानंद पांडेय की) से विजय का रोचक वर्णन है।
लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाने वाले पत्रकार जगत के कुछ चेहरे आज
‘लायजनर’ बन कर रह गए है। ‘सफलता का अब - -’ इसी मौकापरस्ती के कच्चे
चिट्ठे का उद्घाटन है। इन नामों के संबंध में अखबारों के द्वारा अधिकांश
पाठक अब परिचित हो चुके हैं। फिर भी यह अन्तर्कथा सोचनीय है। यदि इसमें
उल्लेखित तथ्यों में यदि एक प्रतिशत भी सच्चाई है तो यह व्यवस्था लोकतंत्र
के लिए घातक है। आश्वस्ति इतना ही सोच कर हो सकती है कि पत्रकारिता में सभी
चेहरे ऐसे नहीं हैं।
‘बबूल के समुद्र की चुभन , साक्षी , पुष्कर और ख्वाज़ा की दरगाह ऊर्फ पधारो म्हारो देश !’ यात्रा संस्मरण
के बहाने प्रायोजित साहित्यिक पत्रकारिता, धार्मिक कठमुल्लेपन पर अनकही
टिप्पणी करता है। क्या प्रतीकात्मक रूप से यह बबूलवन चतुर्दिक नहीं फैल
चुके हैं? इसी प्रकार ‘त्रिवेणी के विलाप का यह विन्यास ’ के माध्यम से शालीनता से उस
व्यवस्था पर क्षोभ प्रकट किया गया है जिसमें ‘अपमान, यातना और नरक का नया
संगम’ सृजित हुआ है। ‘राजा की रात की बात को मानने का सूर्यास्त अब बहुत
जरूरी हो गया हैं’ लेखक की इस सदिच्छा के लिए ‘आमीन’ कहना ही होगा।
एक अजीब संयोग है कि इन संस्मरणों का रचनाकार एक प्रमुख, चर्चित
उपन्यासकार है। सामान्यतः एक कवि-लेखक सबसे निरीह प्राणी माना जाता है और
पत्रकार सबसे शक्तिशाली। पत्रकार यदि किसी से भयभीत होता है तो अपनी अंतर्रात्मा से। ‘पंचतंत्र’ की कथा पुनः मूषको भवति, जिसमें एक चूहा
शक्तिशाली बनने की प्रक्रिया में फिर से मूषक बन कर संतोष पाता है। इसी तरह
एक लेखक की शरणस्थली उस के लेखन में ही उसे मिलती है। पत्रकार की हैसियत से
लिखे गए इन संस्मरणों के कहीं बहुत अंदर एक संवेदनशील रचनाकार सतत जागृत
है। तभी वह अपने अनुभवों की नाव में अतीत की यात्रा में पाठकों को एक
सर्वथा नए संसार में ले जाता है। शब्दों की खिड़की से बीत गए अतीत की दूसरी
आत्मीय दुनिया की झलक मिलती है।
समीक्ष्य पुस्तक-
यादों का मधुबन
[संस्मरण]
लेखक- दयानंद पांडेय
पृष्ठ-248 मूल्य-450
प्रकाशक- सर्वोदय प्रकाशन 512-B, गली नं.2 विश्वास नगर दिल्ली-110032
प्रकाशन वर्ष-2013
इस लिंक को भी पढ़ें :
[संस्मरण]
लेखक- दयानंद पांडेय
पृष्ठ-248 मूल्य-450
प्रकाशक- सर्वोदय प्रकाशन 512-B, गली नं.2 विश्वास नगर दिल्ली-110032
प्रकाशन वर्ष-2013
इस लिंक को भी पढ़ें :
No comments:
Post a Comment