एक चित्र अपने पितामह श्री सत्यराम पांडेय के साथ। हम उन्हें बाबा कहते थे। वह अपने समय में उर्दू और गणित के अध्यापक थे। प्रधानाध्यापक पद से आठ रुपए वेतन पा कर रिटायर हुए थे वह। बताते थे कि तब बीस आने में देसी घी के साथ पूरे परिवार की बसर हो जाती थी। परिवार भी संयुक्त परिवार। खूब बाल-बच्चे। खैर बात-बात में चांदी के रुपए की खनक जैसे उन के जुबान पर भी आ जाती थी। अपने अध्यापन के तमाम किस्से, तमाम गाथाएं उन के पास थीं। जिसे जब-तब वह सुनाते रहते थे, बड़े चाव के साथ। बड़े दर्प के साथ। 1983 में वह दिवंगत हुए। दिवंगत होने के समय भी उन के बत्तीस दांत मौजूद थे। ऊंख चूस कर वह गए थे। खैर जब तक जीवित रहे अपने अध्यापन को ले कर वह बहुत गौरवान्वित महसूस करते थे। संयोग से मेरे पड़-पितामह यानी मेरे बाबा के पिता श्री रामशरन पांडेय भी उर्दू और गणित के अध्यापक रहे थे। और कि वह भी प्रधानाध्यापक पद से ही रिटायर हुए थे। उन को तो मैं ने देखा नहीं, पर उन के अध्यापन की यश-गाथा के किस्से बहुत सुने हैं अपने बाबा से। कि उन के पढ़ाए लोग कैसे-कैसे ऊंचे-ऊंचे ओहदों तक लोग पहुंचे। वह भी अंगरेजों के समय के अध्यापक थे और हमारे बाबा भी। तब शायद अध्यापकों के लिए पेंशन आदि की व्यवस्था नहीं थी। लेकिन बहुत बाद में उन्हें सोलह रुपए की पेंशन भी मिलने लगी। यह सत्तर के दशक की बात है। पेंशन जब वह पाने लगे तब खुद भी सत्तर पार कर चुके थे। सोलह रुपए की तब कोई बहुत वकत नहीं रह गई थी। पर बाबा हमारे वह सोलह रुपए पा कर खुश बहुत रहते थे। विभोर हो कर कहते थे कि गवर्मेंट ने हमारी सेवा को याद रखा, यही बहुत है। जैसे आज कल वृद्धावस्था पेंशन छ-छ महीने की एक साथ मिलती है वैसे ही उन्हें भी तब एक साथ पांच-छ महीने की पेंशन एक साथ मिलती थी। जिसे लेने वह गांव से शहर आते थे। मैं तब विद्यार्थी था। एक बार वह पेंशन लेने शहर आए तो मैं उन्हें ज़िद कर के फ़ोटो खिंचवाने ले गया। यह 1978-79 की बात है। वह बहुत टाल-मटोल करते रहे और कहते रहे कि क्या ज़रुरत है! पर मुझे आकाशवाणी से कविता-पाठ के तब पचीस रुपए मिले थे। जिसे उन के साथ अपनी फ़ोटो पर खर्च करने की धुन सवार थी। बड़ी झिझक के साथ वह स्टूडियो गए। यह उन के जीवन की शायद पहली फ़ोटो थी। संभवतं: आखिरी भी। फ़ोटो खिंचवा कर भी वह विह्वल हो गए। कैमरा देख कर वह टकाटक कैमरा ही देखते रह गए। गोरखपुर के सुंदर स्टूडियो में खिंची यह उन की फ़ोटो जिस में मैं भी उन के साथ हूं, आप मित्रों के साथ साझा कर रहा हूं। कभी उन की बातें भी साझा करुंगा। आज तो बस यह फ़ोटो।
No Copy
!->
Wednesday, 10 April 2013
हम अपने बाबा के साथ
एक चित्र अपने पितामह श्री सत्यराम पांडेय के साथ। हम उन्हें बाबा कहते थे। वह अपने समय में उर्दू और गणित के अध्यापक थे। प्रधानाध्यापक पद से आठ रुपए वेतन पा कर रिटायर हुए थे वह। बताते थे कि तब बीस आने में देसी घी के साथ पूरे परिवार की बसर हो जाती थी। परिवार भी संयुक्त परिवार। खूब बाल-बच्चे। खैर बात-बात में चांदी के रुपए की खनक जैसे उन के जुबान पर भी आ जाती थी। अपने अध्यापन के तमाम किस्से, तमाम गाथाएं उन के पास थीं। जिसे जब-तब वह सुनाते रहते थे, बड़े चाव के साथ। बड़े दर्प के साथ। 1983 में वह दिवंगत हुए। दिवंगत होने के समय भी उन के बत्तीस दांत मौजूद थे। ऊंख चूस कर वह गए थे। खैर जब तक जीवित रहे अपने अध्यापन को ले कर वह बहुत गौरवान्वित महसूस करते थे। संयोग से मेरे पड़-पितामह यानी मेरे बाबा के पिता श्री रामशरन पांडेय भी उर्दू और गणित के अध्यापक रहे थे। और कि वह भी प्रधानाध्यापक पद से ही रिटायर हुए थे। उन को तो मैं ने देखा नहीं, पर उन के अध्यापन की यश-गाथा के किस्से बहुत सुने हैं अपने बाबा से। कि उन के पढ़ाए लोग कैसे-कैसे ऊंचे-ऊंचे ओहदों तक लोग पहुंचे। वह भी अंगरेजों के समय के अध्यापक थे और हमारे बाबा भी। तब शायद अध्यापकों के लिए पेंशन आदि की व्यवस्था नहीं थी। लेकिन बहुत बाद में उन्हें सोलह रुपए की पेंशन भी मिलने लगी। यह सत्तर के दशक की बात है। पेंशन जब वह पाने लगे तब खुद भी सत्तर पार कर चुके थे। सोलह रुपए की तब कोई बहुत वकत नहीं रह गई थी। पर बाबा हमारे वह सोलह रुपए पा कर खुश बहुत रहते थे। विभोर हो कर कहते थे कि गवर्मेंट ने हमारी सेवा को याद रखा, यही बहुत है। जैसे आज कल वृद्धावस्था पेंशन छ-छ महीने की एक साथ मिलती है वैसे ही उन्हें भी तब एक साथ पांच-छ महीने की पेंशन एक साथ मिलती थी। जिसे लेने वह गांव से शहर आते थे। मैं तब विद्यार्थी था। एक बार वह पेंशन लेने शहर आए तो मैं उन्हें ज़िद कर के फ़ोटो खिंचवाने ले गया। यह 1978-79 की बात है। वह बहुत टाल-मटोल करते रहे और कहते रहे कि क्या ज़रुरत है! पर मुझे आकाशवाणी से कविता-पाठ के तब पचीस रुपए मिले थे। जिसे उन के साथ अपनी फ़ोटो पर खर्च करने की धुन सवार थी। बड़ी झिझक के साथ वह स्टूडियो गए। यह उन के जीवन की शायद पहली फ़ोटो थी। संभवतं: आखिरी भी। फ़ोटो खिंचवा कर भी वह विह्वल हो गए। कैमरा देख कर वह टकाटक कैमरा ही देखते रह गए। गोरखपुर के सुंदर स्टूडियो में खिंची यह उन की फ़ोटो जिस में मैं भी उन के साथ हूं, आप मित्रों के साथ साझा कर रहा हूं। कभी उन की बातें भी साझा करुंगा। आज तो बस यह फ़ोटो।
Labels:
टिप्पणी
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
अपने बड़े-बुजुर्गों की बातें याद करना हमेशा बहुत अच्छा लगता है. मैं अपने दादाजी के साथ बहुत समय नहीं रहा पर उनकी बहुत सी बातें याद हैं और मन को अत्यंत सुखद अहसास से भर देतीं हैं.
ReplyDelete