Wednesday 10 October 2012

भेड़ियों को उन की मांदों में ही अब घेरेंगे हम

[लखनऊ के पुस्तक मेले में आज 10 अक्टूबर का दिन विभांशु दिव्याल का दिन था। मौका उन के पांचवें उपन्यास गाथा लंपटतंत्र के लोकार्पण समारोह का था। समारोह की अध्यक्षता सुपरिचित कथाकार शिवमूर्ति ने की। मैं ने आधार-वक्तव्य पढा़। पेश है वह वक्तव्य:]

लोकतंत्र के पैसा तंत्र में बदलते जाने की यातना कथा है ‘गाथा लंपट तंत्र की।’ इस को पढ़ते समय मन में एक सांघातिक तनाव का तंबू तन जाता है। अनायास ही। विभांशु दिव्याल इस लंपट तंत्र की गाथा को लिखने के लिए जिस आग से गुज़रे हैं वह जाहिर है कि किसी आग के दरिया से गुज़रना नहीं है। जब समूचा समाज और व्यवस्था ही आग में तब्दील हो तो क्या दरिया, क्या समुंदर! आग से गुज़रना ही नहीं है, आग में साक्षात बैठ जाना है। जल जाना है। दिव्याल जी ने जैसे जल-जल कर इस उपन्यास को लिखा है, पढ़ने वाला भी वैसे ही जल-जल कर पढ़ता है।

मंच पर बोलते हुए दयानंद पांडेय,
बैठे हुए दाएं से विभांशु दिव्याल,वीरेंद्र यादव,शिवमूर्ति,अखिलेश,महेश भारद्वाज ।

इस उपन्यास की बड़ी खूबी है इस का शिल्प। मैंगो पीपुल यानी आम लोगों यानी अनाम लोगों की इस गाथा में भी कोई नाम नहीं है। कोई धर्म, कोई जाति नहीं है। कोई संप्रदाय या वाद नहीं है। चार लड़के हैं। और एक पांचवां लड़का भी है। इनके पिता हैं, मां, बहन और परिजन हैं। पर सभी अनाम। नेता हैं, स्वामी हैं, ड्रग है, दुनिया भर के अपराध है, राजनीतिक कवच है, जोड़-तोड़ है, पुलिस है जो इस लंपट तंत्र की गाथा की आग में अपनी ताक़त भर घी डालने में लगे हैं। व्यवस्था में अनाचार और अत्याचार पहले भी बहुत था। पर वह दाल में नमक जैसा लगता था। अब नमक में दाल हो गया है। तो कभी हस्तक्षेप निकालने के लिए जाने जाने वाले विभांशु दिव्याल ने इस नमक में दाल पर पूरी ताक़त से हस्तक्षेप किया है गाथा लंपट तंत्र को लिख कर।

चार बेरोजगार लड़कों का अड्डा है एक पार्क। यहीं उठते-बैठते हैं। अपना दुःख-सुख बतियाते हुए। यहां-वहां रोजगार तलाशते हुए। एक पिता की चाय की दुकान पर लगता है, एक टैंपू चलाने लगता है, एक नेता का कारिंदा बन जाता है। पर सेटिल्ड कोई नहीं हो पाता। सभी लड़ रहे हैं अपने आप से, बेरोजगारी से। सिस्टम से। एक पांचवां लड़का भी है जो इनमें वर्ग संघर्ष और वर्ग चेतना की आंच में खड़ा है। इन को अपने संगठन की मीटिंग में ले जाता है। मीटिंग से वापस आ कर लड़के एक दूसरे से बात करते हैं। एक लड़का कहता है, ‘कुछ पल्ले नहीं पड़ता। जाने कहां-कहां की बातें करते हैं। यहां दो पैसे का जुगाड़ नहीं हो रहा और वो साले दुनिया बदलना चाहते हैं।’ और लगता है जैसे मन में टूटे हुए शीशे की कई किरिचें धंस गई हों। ऐसे चुटीले संवादों और बारीक ब्यौरों से भरे इस उपन्यास में दिव्याल जी लगातार तनाव बोते और रोपते रहते हैं। ऐसे जैसे कोई गंवई स्त्री धान रोपती हो। जैसे कोई स्त्री रसोई बनाती हो। कभी धीमी और मीठी आंच पर तो कभी खूब तेज़ आंच पर। दिव्याल जी भी यही करते हैं। लेकिन लक्ष्य वही है कि,
‘भेड़ियों को उनकी मादों में ही अब घेरेंगे हम
एकजुट हो कर लड़ें हम बस यही दरकार है।’

दिव्याल जी लिखते हैं कि, ‘वह अपने अनुभव से जानता है कि वैचारिक प्रयासों की निरंतर गति अंततः सफल होती है, भले ही यह सफलता कितनी ही सीमित क्यों न हो। कभी-कभी लगता है कि जिस व्यवस्था के विरळद्ध हम खड़े हैं, वह अपराजेय है, इतनी शक्तिशाली है कि हमारे हर प्रयास को कुचल देगी, लेकिन वास्तविकता इसके विरळद्ध भी होती है। जो व्यवस्था अपने मज़बूत होने का जितना बड़ा स्वांग रचती है, वह अंदर से उतनी ही खोखली भी होती है। ज़रूरत होती है इस खोखलेपन को पहचानने की और फिर योजनाबद्ध तरीके से उस पर प्रहार करने की।

’उस ने आंखें बंद कर ली हैं और उसकी बंद आंखों में एक स्वप्न तैरने लगा है-इस व्यवस्था के चरमरा कर ढहने का स्वप्न।’
जैसा कि इस गाथा में एक अंतिम गीत है। इस युद्ध को सभी का लोकयुद्ध बताया गया है तो सचमुच यह गाथा लंपट तंत्र की भी एक कभी न ख़त्म होने वाला लोकयुद्ध ही है। अभी दो दिन पहले अशोक वाजपेयी कह रहे थे कि साहित्य का देवता उसके ब्यौरों में बसता है। तो दिव्याल जी के इस उपन्यास में इतने किसिम के और इतने ब्यौरे हैं, दिल दहला देने वाले बारीक ब्यौरे हैं यत्र-तत्र। इस गाथा में सिर्फ़ व्यवस्था से लोकयुद्ध नहीं है। प्रेम भी है और सेक्स भी। शराबी पिता के बेरोजगार से आजिज ब्यूटी पार्लर में काम करने गई बार गर्ल बन कर सीझती सिगरेट, शराब पीने वाली प्रेमिका भी है और सेक्स के रोमांच में उलझी नाबालिग प्रेमिका भी। लेकिन बड़ा तो लोकयुद्ध ही है। और उसका यह लक्ष्य कि,
‘भेड़ियों को उनकी मांद में अब घेरेंगे हम
एकजुट हो लड़ें हम बस यही दरकार है।’

यकीन मानिए कि ऐसा तनाव मैंने तीन और उपन्यासों में भी पाया था, मोहन राकेश के अंधेरे बंद कमरे, अरळण साधू के बंबई दिनांक और निर्मल वर्मा के रात का रिपोर्टर में। गाथा लंपट तंत्र की चौथा उपन्यास है मेरे जीवन में जिस ने न सिर्फ़ तनाव तंबू ताना मन में एक बड़ी लड़ाई का बीज भी बोया जो कि बाकी उपन्यासों ने नहीं बोया था। तो शायद इस लिए कि उन उपन्यासों से लोकयुद्ध खारिज था। जो यहां अपनी पूरी सघनता में उपस्थित है।
‘भेड़ियों को उनकी मांद में अब घेरेंगे हम
एकजुट हो लड़ें हम बस यही दरकार है।’

एकजुट हो लड़ने की यह दरकार सचमुच बहुत सैल्यूटिंग है। इस उपन्यास में एक अच्छे नाटक और एक अच्छी फ़िल्म बनने की भरपूर गुंजाइश है।


5 comments:

  1. aapne is upnyaas kee sakaratmakta ko bahut achhe dhang se likha hai

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  2. Kal to suna hi tha, lekin aaj padh kr aur 'Prabhavi' laga. Dhanyavad.

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  3. आपने इस उपन्यास को सराहा है । आशा है यह अवश्य समय का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ होगा । लेखक को मेरी बधाई एवं शुभकामना ।

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