Friday, 7 September 2012

धृतराष्ट्र, मगध और अन्ना

आप को याद होगा कि पांडवों ने कौरवों से आखिर में सिर्फ़ पांच गांव मांगे थे जो उन्हें नहीं मिले थे। उलटे लाक्षागृह और अग्यातवास वगैरह के पैकेज के बाद युद्ध क्या भीषण युद्ध उन्हें लड़ना पडा था। अपनों से ही अपनों के खिलाफ़ युद्ध लड़ना कितना संघातिक तनाव लिए होता है, हम सब यह जानते हैं।

तो क्या अब हम एक अघोषित युद्ध की ओर बढ रहे हैं? आखिर अन्ना और उन की टीम जो कह रही है, जनता उस को सुन रही है, गुन रही है। दस दिन से दिन रात एक किए हुई है और अपनी सरकार समय की दीवार पर लिखी इबारत को क्यों नहीं पढ पा रही है, इसे जानना कोई मुश्किल काम नहीं है। लोग अन्ना नाम की टोपी पहने घूमने लगे हैं। अभी एक दिन एक लतीफ़ा चला कि आज सुबह मनमोहन सिंह भी एक टोपी लगाए घूमते पाए गए। इस टोपी पर लिखा था मैं अंधा हूं। तो एक सच यह भी है कि मनमोहन सिंह नाम का यह प्रधानमंत्री इन दिनों धृतराष्ट्र में तब्दील है। नहीं, जो मनमोहन सिंह एक समय अमरीका से परमाणु समझौते खातिर वाम मोर्चे का समर्थन खो कर अपनी सरकार को दांव पर लगाने की हद तक चला गया था, वही मनमोहन सिंह अब लोकपाल पर सर्वदलीय समर्थन की टोपी लगा कर देश की जनता के साथ छ्ल की बिसात बिछा कर संसदीय मर्यादाओं की दुहाई देता घूम रहा है तो ज़रा नहीं पूरा अफ़सोस होता है।

अन्ना ने जब लोकपाल पर अप्रैल में जंतर मंतर पर अनशन किया था तब तो इसी मनमोहन सरकार ने संवेदनशीलता का परिचय देते हुए रातोरात अध्यादेश जारी कर दिया था। पर बाद के दिनों में यही सरकार शकुनि चाल के फंदे में लगातार अनेक लाक्षागृह निर्माण करने में युद्ध स्तर पर लग गई। कपिल सिब्बल, सुबोधकांत टाइप के अश्वमेधी अश्व भी छोड़े। और लोकपाल की बैठकों के बीच में ही अन्ना टीम अपने को छला हुआ महसूस करने लगी। इस छल को कांग्रेस ने छुपाया भी नहीं। असल में इस बीच एक और बिसात बिछ गई। यह बिसात भाजपा की थी। इस चाल में बहुत आहिस्ता से भाजपा ने कांग्रेस को महसूस करवाया कि सिविल सोसायटी को अगर इसी तरह सिर पर बिठाया गया तो संसद और संसदीय गरिमा और उस की शक्ति का, उस के विशेषाधिकार और उस की सर्वोच्चता का क्या होगा?

कांग्रेस इस फंदे में बहुत आसानी से आ गई। ठीक वैसे ही जैसे बहेलिए के जाल में कोई कबूतर या कोई चिड़िया आ जाय। यहां भाजपा ने जाल के नीचे संसद की अस्मिता का दाना डाल रखा था। कांग्रेस को यह दाना मुफ़ीद लगा। जाल नहीं देख पाई। और फिर धीरे-धीरे इस संसदीय अस्मिता के दाने की आस में देश की सभी राजनीतिक पार्टियां फंसती गईं। भाजपा का काम हो गया था। कांग्रेस अब जनता के सीधे निशाने पर थी। कांग्रेस को अपने छले जाने और भाजपा के जाल का एहसास तो हुआ पर अब तक बहुत देर हो चुकी थी।

अचानक रंगमंच पर महत्वोन्माद की बीमारी के मारे योग के मल्टीनेशनल व्यापारी रामदेव ने एंट्री ले ली। उन को लगा कि जैसे वह योग के नाम पर अपने अनुयायियों की आंख में धूल झोंक कर अपना व्यवसाय दिन दूना रात चौगुना कर गए हैं वैसे ही वह देश की बहुसंख्य जनता को भी फांस लेंगे। रामलीला मैदान में उन्हों ने अपनी दुकान सजा ली। रामलीला मैदान को जैसे शापिंग माल में कनवर्ट कर बैठे वह। मनमोहन सरकार इसी फ़िराक में थी। पहले रामदेव की पतंग को वह शिखर तक ले गई फिर लंबी ढील दी और अंतत: उन की ओर से बालकृष्ण की लिखी चिट्ठी सार्वजनिक कर उन की मिट्टी पलीद कर दी। बताया कि रामदेव भाजपा और आर.एस.एस. के इशारे पर काम कर रहे हैं। और आधी रात बिजली काट कर रामदेव की रही सही कसर भी निकाल दी।

रामदेव की पतंग काटने की बजाय उन के हाथ से चर्खी ही छीन ली। उन को औरतों की सलवार कमीज पहन कर भागना पडा। जिस को नहीं करना था उस ने भी कांग्रेस की थू-थू की। लेकिन कांग्रेस और उस के टामियों को लगा कि उन्हों ने न सिर्फ़ मैदान मार लिया बल्कि आने वाले दिनों में संभावित आंदोलनों का मंसूबा बांधने वालों के लिए एक बडी लक्ष्मण रेखा भी खींच दी है कि कोई अब हिम्मत भी नहीं कर पाएगा। चाहे पेट्रोल के दाम बढें या दूध के, जनता भी चूं नहीं करेगी। तो जब अन्ना ने १६ अगस्त से अनशन पर जाने की हुंकार भरी तो कांग्रेस को लगा कि वह फ़ूंक मार कर चींटी की तरह उन्हें भी उडा देगी।

कोशिश यही की भी। पहले के दिनों में राजा जब लडाई लडते थे तो जब देखते थे कि वह हार जाएंगे या मारे जाएंगे तो अपने आगे एक गाय खडी कर लेते थे। उन की रक्षा हो जाती थी। गो हत्या के डर से अगला उस पर वार नहीं करता था। तो इन दिनों जब कांग्रेस या सो काल्ड सेक्यूलर ताकतों को जब कोई बचाव नहीं मिलता तो वह भाजपा और आरएसएस नाम की एक गाय सामने रख देते हैं कि अरे इस के पीछे तो भाजपा है, आर.एस.एस है।जैसे कभी हर गलती को छुपाने के लिए सी.आई.ए. का जाप करती थीं। सो बहुत सारे लोग इसी भाजपा, आर.एस.एस. परहेज में उस प्रकरण से अपने को अलग कर लेते हैं।

कांग्रेस या सो काल्ड सेक्यूलर लोगों का आधा काम यों ही आसान हो जाता है। रामदेव और अन्ना हजारे के साथ भी कांग्रेस ने यही नुस्खा आजमाया। रामदेव तो दुकानदार थे पिट कर चले गए। उन को पहले कोई यह बताने वाला नहीं था कि दुकानदारी और आंदोलन दोनों दो चीज़ें हैं। पर वृंदा करात वाले मामले में वह कुछ चैनलों और मीडिया को पेड न्यूज की हवा में अरेंज कर मैनेज कर 'हीरो' बन गए थे तो उन का दिमाग खराब हो गया था, महत्वाकांक्षाएं पेंग मारने लगी थीं। लेकिन झूला उलट गया। होश ठिकाने आ गए हैं अब उन के। और जो अब वह कभी-कभी इधर-उधर बंदरों की तरह उछल-कूद करते दिख जाते हैं तो सिर्फ़ इस लिए कि मह्त्वोन्माद की बीमारी का उन के अभी ठीक से इलाज होना बाकी है अभी। और यह औषधि उन्हें कोई आयुर्वेदाचार्य ही देगा यह भी तय है। एलोपैथी के वश के वह हैं नहीं।

खैर कांग्रेस और उस के टामियों ने तमाम भूलों में एक बड़ी भूल यह की कि अन्ना को भी उन्होंने रामदेव का बगलगीर मान लिया। और टूट पड़े सारा राशन-पानी ले कर। नहा-धो कर। अन्ना की चिट्ठी का जवाब भी जो कहते हैं कि ईंट का जवाब पत्थर की तर्ज़ में राजनीतिक भाषा और संसदीय मर्यादा से पैदल प्रवक्ता मनीष तिवारी से दिलवाया। बिल्कुल बैशाखनंदनी व्याख्या में 'तुम अन्ना हजारे!' की शब्दावली में। गोया अन्ना, अन्ना नहीं दाउद के हमराह हों! अब की बार पहला तारा यहीं टूटा। हाय गजब कहीं तारा टूटा के अंदाज़ में। दूसरे दिन सरकार ने धृतराष्ट्र के अंदाज में अन्ना को गिरफ़्तार कर लिया।

और फिर आए कैम्ब्रिज, आक्सफ़ोर्ड के पढे लिखे चिदंबरम, कपिल सिब्बल और अंबिका सोनी जैसे लोग। सरलता का जटिल मुखौटा लगाए। फिर यह वकील टाइप नेता मंत्री लोग जैसे कचहरी के दांव-पेंच में मुकदमे निपटाते, उलझाते हैं, उसी दांव-पेंच को अन्ना के साथ भी आज़माने लगे। पर अन्ना ठहरे मजे हुए सत्याग्रही।उन के आगे इन वकीलों की दांव पेंच खैर क्या चलती? तो भी वह चलाते तो रहे ही। क्या तो जो भी कुछ हुआ, किया दिल्ली पुलिस ने और कि वही जाने। कहां हैं अन्ना? सवाल का जवाब भी गृहमंत्री ने इस अंदाज़ में दिया गोया वह गृहमंत्री नहीं कोई मामूली प्रवक्ता हो। और बताया कि यह भी उन्हें नहीं मालूम। कपिल सिब्बल ने फिर आर. एस.एस. और भाजपा की टेर लगाई।

पर जब शाम तक तक लोग तिहाड पहुंचने लगे तो देश की जनता समझ गई। यह बात चिल्ला चिल्ला कर एक ही खबर दिन रात दिखाने वाले चैनल समझ गए पर सरकार नहीं समझी।पर दूसरे दिन जब बाकायदा तिहाड ही धरनास्थल हो गया तो हफ़्ते भर का रिमांड भूल सरकार ने रिहा कर दिया अन्ना को। अब अन्ना ने सरकार को गिरफ़्तार किया। ऐसा खबरिया चैनलों ने चिल्ला चिल्ला कर कहा भी। अन्ना ने कहा कि बिना शर्त रिहा होंगे। और फिर ्सरकार को घुटने टिकवाते हुए जेल से बाहर निकले। भरी बरसात मे बरास्ता गांधी समाधि रामलीला मैदान। अपनी दौड से सब को चकित करते हुए। अब देश की जनता थी और अन्ना थे। रामलीला मैदान ही नहीं देश भर में मैं भी अन्ना, तू भी अन्ना और वंदे मातरम की गूंज में नहाया हुआ।

अब शुरू हुआ देश के बुद्धिजीवियों का खोखलापन। अरुंधती राय से लगायत अरुणा राय तक खम ठोंक कर अन्ना का मजाक उडाती हुई खडी हो गईं। और यह देखिए सारे दलित चिंतक एक सुर में गाने लगे कि यह तो अपर कास्ट का आंदोलन है। और कि संविधान विरोधी भी। बैकवर्ड चिंतकों ने भी राग में राग मिलाया और बताया कि इस आंदोलन में तो वही वर्ग शामिल है जो आरक्षण के विरोध में झाडू लगा रहा था, पालिस लगा रहा था। यह भी संविधान विरोधी की तान बताने लगे। [तो क्या यह दलित और पिछड़े इस अन्ना की आंधी से इस कदर डर गए हैं कि उन को लगने लगा है कि आरक्षण की जो मलाई वह काट रहे हैं संविधान में वर्णित मियाद बीत जाने के बाद भी राजनीतिक तुष्टीकरण की आंच में, एक्स्टेंशन दर एक्स्टेंशन पा कर, कभी उस पर भी हल्ला बोल सकती है यह अन्ना की जनता? सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका पर सरकार से इस पर जवाब मांगा भी है।]

खैर, सरकार अपने मनमोहनी राग में धृतराष्ट्र की राह चलती भैंस की तरह पगुराती रही। भाजपा ने तरकश से तीर निकाले जो दोमुहे थे। वह अन्ना आंदोलन का खुल कर समर्थन करती हुई जन लोकपाल से असहमति का दूध भी धीमी आंच पर गरमाती रही। कि चित्त भी मेरी और पट्ट भी मेरी।कांग्रेस ने अन्ना को बढते जनसमर्थन को देखते हुए एक दिन राग दरबारी गाना छोड़ कर राग अन्ना गाने का रियाज़ किया। भाजपा ने उसे फिर से संसदीय परंपरा और और संसद की सर्वोच्चता की अफ़ीम सुंघाई।

सरकार फिर रुआब और संसद की सर्वोच्चता के नशे में झूम गई है। और सारी राजनीतिक पार्टियां अब एक ही राग में न्यस्त होकर यह साबित करने में लग गई हैं गोया अन्ना देश के लिए खास कर संसद के लिए, संसदीय जनतंत्र के लिए भारी बोझ बन गए हैं। सभी कमोबेश यह साबित करने में लग गए हैं कि अन्ना तो बहुत अच्छे आदमी हैं पर उन की मांगें और जनलोकपाल की उन की जिद देश को डुबो देगी। अन्ना उन्हें लुटेरा बताते हुए काला अंगरेज बता रहे हैं। वह तो कह रहे हैं कि प्रशंसा में भी धोखा होता है। पर सरकार है कि उन्हें गिव एंड टेक का रुल समझाते हुए ऐसे पेश आ रही हो गोया सरकार एंपलायर हो और अन्ना उस के कर्मचारी। कि आओ इतना नहीं, इतना परसेंट बोनस ले लो और छुट्टी करो। याद कीजिए ऐसे ही दबावों, समझौतों और प्रलोभनों में पिसते-पिसते देश से ट्रेड यूनियनों का कोई नामलेवा नहीं रह गया। यही हाल जनांदोलनों का भी हुआ है। अब ज़माने बाद कोई जनान्दोलन आंख खोल कर हमारे सामने उपस्थित है तो इसे अपर कास्ट और संविधान विरोधी या संसदीय सर्वोच्चता से जोड़ कर इसे कुंद नहीं कीजिए। समय की दीवार पर लिखी इबारत को पढिए। कि यह सिर्फ़ अन्ना की ज़िद नहीं है, महंगाई और भ्रष्टाचार की चक्की में पिसती जनता की चीत्कार है। यह हुंकार में बदले और आंदोलन हिंसा की तरफ मुड़े उस से पहले जनता की रिरियाहट भरी पुकार को सुनना ज़रूरी है, बेहद ज़रूरी। नहीं तो समूचा देश कहीं नक्सलवाणी या दंतेवाला में तब्दील हुआ तो उसे संभालना बहुत कठिन हो जाएगा। सारी संसदीय सर्वोच्चता बंगाल की खाड़ी में गोताखोरों के ढूंढने पर भी नहीं मिलेगी। बिला जाएगी।

संसद को संसद ही रहने दीजिए। जनता के माथे पर उसे बोझ बना कर बाप मत बनिए। उस पर आग मत मूतिए। रही बात भाजपा की तो उस को देख कर कभी जानी लीवर द्वारा सुनाया एक लतीफ़ा याद आता है। कि एक सज्जन थे जो अपने पड़ोसी रामलाल को सबक सिखाना चाहते थे। इस के लिए उन्हों ने अपने एक मित्र से संपर्क साधा और कहा कि कोई ऐसी औरत बताओ जिस को एड्स हो। उस के साथ मैं सोना चाहता हूं। मित्र ने कहा कि इस से तो तुम्हें भी एड्स हो जाएगा। जनाब बोले यही तो मैं चाहता हूं। मित्र ने पूछा ऐसा क्यों भाई? जनाब बोले कि मुझे अपने पड़ोसी रामलाल को सबक सिखाना है।

मित्र ने पूछा कि इस तरह रामलाल को कैसे सबक सिखाओगे भला? जनाब बोले- देखो इस औरत के साथ मैं सो जाऊंगा तो मुझे एड्स हो जाएगा। फिर मैं अपनी बीवी के साथ सोऊंगा तो बीवी को एड्स हो जाएगा। मेरी बीवी मेरे बड़े भाई के साथ सोएगी तो बड़े भाई को एड्स हो जाएगा। फिर बड़ा भाई से भाभी को होगा और भाभी मेरे पिता जी के साथ सोएगी तो पिता जी को एड्स हो जाएगा। फिर मेरी मां को भी एड्स हो जाएगा। और जब पड़ोसी रामलाल मेरी मां के साथ सोएगा तो उस को भी एड्स हो जाएगा। तब उस को सबक मिलेगा कि मेरी मां के साथ सोने का क्या मतलब होता है!

तो अपनी यह भाजपा भी सत्ता में आने के लिए कांग्रेस को सबक सिखाना चाहती है हर हाल में। देश की कीमत पर भी। चाहे संसद मटियामेट हो जाए पर उस की सर्वोच्चता कायम रहनी चाहिए। भले काजू बादाम के दाम दाल बिके, पेट्रोल के दाम हर दो महीने बढते रहें, दूध के दाम और तमाम चीज़ों के दाम आसमान छुएं। इस सब से उसे कोई सरोकार नहीं। भले विपक्ष का काम अन्ना हजारे जैसे लोग करें इस से भी उसे कोई सरोकार नहीं। उसे तो बस कांग्रेस को सबक सिखाना है। रही बात कांग्रेस की तो उन के पास तो एक प्रधानमंत्री है ही, मैं अंधा हूं, की टोपी लगा कर घूमने वाला! जो देश की जनता को आलू प्याज भी नहीं समझता है। उसे बस देश के उद्योगपतियों और बेइमानों की तरक्की और जीडीपी की भाषा समझ में आती है।

श्रीकांत वर्मा की एक कविता मगध की याद आती है। उन्हों ने लिखा है कि, 'मगध में विचारों की बहुत कमी है।' सचमुच हमारा समूचा देश अब मगध में तब्दील है! यह देश का विचारहीन मगध में तब्दील होना बहुत खतरनाक है। और जब जनता की आवाज़ चुनी ही सरकार और चुने हुए लोग ही न सुनें तो फिर मुक्तिबोध जैसे कवि लिखने लगते हैं: 'कहीं आग लग गई, कहीं गोली चल गई !' क्या यही देखना अब बाकी है?

1 comment:

  1. सटीक आलेख !
    वर्ड वेरिफिकेशन हटा दें तो टिपियाना आसान हो जाये !

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