यह अजब है कि उत्तर प्रदेश में एक बहुमत की सरकार के बावजूद इस का कोई एक खेवनहार नहीं है। अराजकता और अंधेरगर्दी की सारी हदें यहां जैसे बाढ़ में विलीन हो गई हैं। ठीक वैसे ही जैसे इस बार यहां बारिश कम हुई तो सूखा भी पड़ा और अब बाढ़ भी आ गई है। लेकिन प्रदेश सरकार के पास न तो सूखा से निपटने की कोई कार्य-योजना थी और न अब बाढ़ से निपटने की कोई कार्य-योजना है। जैसे कि अभी जब गेहूं खरीद के समय बोरे नहीं थे, तो सरकार ने कहा कि पिछली सरकार ने इंतज़ाम नहीं किया। और जब गरमी में बिजली का बोझ बढा़ तो सरकार ने फिर पिछली सरकार के सिर ठीकरा फोड़ दिया। और सरकार के पिता श्री मुलायम तो दो कदम और आगे चले गए। बोले कि पिछली सरकार के अधिकारियों की बदमाशी से बिजली की दिक्कत हो रही है। पर अभी जब ग्रिड फेल होने से आधे देश में देश में बिजली गुल हो गई तो सब ने एक सुर से उत्तर प्रदेश सरकार पर आरोप मढ़ दिया कि उत्तर प्रदेश के ज़्यादा बिजली लेने से यह गड़बडी़ हुई तो क्या सरकार, क्या उस के पिताश्री सभी खामोशी साध गए।
सच यह है कि अखिलेश को मुलायम ने मुख्यमंत्री बनवा कर अपने पारिवारिक विद्रोह को दबाने और पारिवारिक विरासत को संभालने का काम कर तो लिया पर अखिलेश को सर्व संपन्न मुख्यमंत्री बनने की राह में इतने सारे रोडे़ बिछा दिए हैं कि अखिलेश क्या साक्षात यदुवंशी कृष्ण भी जो आ जाएं तो वह भी सरकार नहीं चला पाएंगे इन स्थितियों में। अपनी मर्जी से अखिलेश न तो एक मंत्री नियुक्त कर पाए, न ही उन को पोर्टफ़ोलियो दे पाए। मंत्री तो मंत्री एक अधिकारी भी वह अपनी पसंद का नहीं नियुक्त कर पाए हैं अभी तक। वास्तव में तो अखिलेश अपने पिता का खड़ाऊं राज चला रहे हैं। इसी दबाव में वह कई बार मूर्खता भरे फ़ैसलों का ऐलान कर बैठते हैं। वह चाहे शाम 7 बजे के बाद बाज़ार की बिजली काट देने की घोषणा हो या फिर विधायकों को विधायक निधि से बीस लाख की कार खरीदने का फ़ैसला हो और पलट कर उसे वापस लौटा लेने का मामला हो या फिर मायावती के तमाम फ़ैसलों को पलट देने का मामला हो। कानून व्यवस्था पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है। अधिकारियों-कर्मचारियों में यादव अधिकारियों-कर्मचारियों का दबदबा है ठीक वैसे ही जैसे मायावती राज में दलित अधिकारियों-कर्मचारियों का दबदबा रहा था। सरकारी अमले की दो तिहाई ऊर्जा इस जातीय संतुलन में ही बर्बाद है। काम क्या खाक होगा? तिस पर शिवपाल सिंह और आज़म खान जैसे अखिलेश के चाचाओं का सत्ता के समानांतर केंद्र बन जाना। अखिलेश को यह और मुलायम के तमाम सहयोगी रहे मंत्री मुख्यमंत्री स्वीकार ही नहीं पाए हैं। वह उन्हें बच्चा ही मानते हैं। और यह तब तक चलता रहेगा जब तक मुलायम प्रदेश राजनीति से खुद को अलग नहीं करते। और कि अखिलेश का गर्भनाल काट कर उन्हें कुछ कडे़ फ़ैसला लेना नहीं सीखाते। पर चाचा तो चाचा लोग अखिलेश तो अनीता सिंह जैसी चाचियों से भी तबाह हैं। अनीता सिंह उन की सचिव औपचारिक तौर पर भले हों, आदेश तो वह मुलायम सिंह से ही लेती हैं। और जो कभी-कभार ज़रुरत पड़ जाती है तो अखिलेश से फ़ाइलों पर औपचारिक आदेश के एवज़ में सिर्फ़ हस्ताक्षर करवा लेती हैं। ठीक वैसे ही जैसे कभी बसपा के सहयोग से मुलायम सिंह यादव जब मुख्यमंत्री बने े तो उन के एक सचिव थे पी.एल.पुनिया जो आजकल कांग्रेस के सांसद हैं और अनुसूचित आयोग के अध्यक्ष भी। तो इन पी.एल. पुनिया को तब मुख्यमंत्री का सचिव कांशीराम ने बनवाया था। और तब के दिनों पुनिया मुलायम के बजाय कांशीराम से आदेश लेते थे और मुलायम से सिर्फ़ दस्तखत करवाते थे। तो इतिहास जैसे फिर अपने को दुहरा रहा है।
तो आखिर क्या करें अखिलेश यादव?
सिर्फ़ मायावती की शुरु की हुई और पूरी हुई योजनाओं का लोकार्पण और उन के द्वारा बनाए गए ज़िलों का नामांतरण?
अखिलेश युवा हैं और उन की नियति पर भी अभी तक के काम-काज को देखते हुए सवाल उठाना विपक्ष के लिए भी मुश्किल है या किसी राजनीतिक पर्यवेक्षक को कोई निर्मम टिप्पणी करना भी अभी मुश्किल है। हां, उन के अनिर्णय की नोटिस लेना अब अनिवार्य हो गया है। वह अगर अभी और बिलकुल अभी नहीं चेते और जो कुछ कड़े फ़ैसले लेने का फ़ैसला नहीं लेते तो उन को बड़ी राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ सकती है। इस में कोई दो राय नहीं।
इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व के शुरुआती दिनों की याद आ जाती है अखिलेश की दुर्दशा को देख कर। थोडी़ पृष्ठभूमि की याद कर लें। नेहरु के निधन के बाद स्वाभाविक उत्तराधिकारी की तलाश में लालबहादुर शास्त्री और मोरार जी देसाई के नाम उभरे थे। इंदिरा की दावेदारी दबी-दबी रह गई थी। अंतत: तमाम उठापटक के बाद लालबहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री हो गए थे। पर जब ताशकंद से लालबहादुर शास्त्री के निधन की खबर इंदिरा गांधी को देर रात क्या लगभग भोर में मिली तो इंदिरा ने तुरंत बिसात बिछा ली थी अपने प्रधानमंत्री बनने के लिए। और उन्हों ने शास्त्री जी के निधन की पहली सूचना अपने पिता नेहरु के मित्र और मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री पंडित द्वारिका प्रसाद मिश्र को फ़ोन कर के दी, पिता से उन के संबंधों का हवाला दिया और कहा कि वह फ़ौरन दिल्ली पहुंचे और उन्हें प्रधानमंत्री बनाने के लिए प्रयत्न शुरु करें। द्वारिका प्रसाद ने भी देर नहीं की। जब इंदिरा का फ़ोन उन्हें मिला तो भोर के चार बज रहे थे। और वह सुबह के सात बजे वह दिल्ली में इंदिरा के घर उपस्थित थे। योजना बनी। यह बिलकुल स्पष्ट था कि तब मोरार जी देसाई सब से प्रबल उम्मीदवार थे प्रधान मंत्री पद के। कामराज तब कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। पहली योजना के तहत द्वारिका प्रसाद मिश्र ने कामराज को ही मोरार जी के बरक्स प्रधानमंत्री पद के लिए खडा़ किया। नाम चल गया। अब मोरार जी और कामराज आमने-सामने थे। कामराज के सामने जाहिर है मोरार जी देसाई बीस पड़ रहे थे। सो अब दूसरे राऊंड में द्वारिका प्रसाद मिश्र ने कामराज को मोरार जी के भारी पड़ने का डर दिखाया। और बताया कि चूंकि उन को हिंदी भी नहीं आती सो वह देश भी ठीक से नहीं चला पएंगे। कामराज द्वारिका प्रसाद मिश्र के डराने में डर भी गए। तब? तब फिर क्या हो? रास्ता भी द्वारिका प्रसाद मिश्र ने कामराज को सुझाया। और इंदिरा का नाम सुझाया। नेहरु से संबंधों का वास्ता दिया और कहा कि आप की बच्ची है। उसे अपना उम्मीदवार घोषित कर दीजिए। अगर जीत गई तो आप की जीत, अगर हार गई तो कह दीजिएगा बच्ची थी। साथ ही यह भी जता दिया कि मोरार जी को अगर पटकनी कोई दे सकता है तो सिर्फ़ और सिर्फ़ इंदिरा गांधी। और हुआ भी यही। इंदिरा गांधी प्रधान मंत्री बन गईं। मोरार जी देसाई तब हार गए थे।
अब शुरु हुआ असली खेल। कामराज इंदिरा को बच्ची ही समझते रहे। प्रधानमंत्री मानने को तैयार ही नहीं थे। इंदिरा सुनो ! से संबोधित करते। इंदिरा इधर आओ ! कहते रहते। यह करो, वह करो, फ़रमाते रहते। इंदिरा एक प्रधानमंत्री की बेटी थीं, प्रधानमंत्री का ज़माना देखा था, उन की सचिव रह चुकी थीं, उन का कामकाज संभाल चुकी थीं, प्रधानमंत्री की हनक और उस की गरिमा का भान था उन्हें। जाहिर है कामराज का यह व्यवहार उन्हें नहीं सुहाता था। सो उन्हों ने कामराज योजना बनाई और पहले राऊंड में कामराज को ही निपटाया, कामराज को किनारे किया। इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बना कर आधुनिक चाणक्य बने द्वारिका प्रसाद मिश्र भी इंदिरा को बेटी ही मानते रहे, प्रधानमंत्री नहीं। सो इंदिरा ने दूसरे राऊंड में इस चाणक्य को निपटाया। सिंडीकेट-इंडीकेट और जाने क्या-क्या हुआ। और एक समय वह भी आया कि कांग्रेस में लोग उन्हें इंदिरा इज़ इंडिया कहने लग गए।
तो अब अखिलेश को भी क्या कामराज योजना की तरह ही क्या चाचा योजना की ज़रुरत नहीं आज़मानी चाहिए? समय आ गया है कि अब अखिलेश अर्जुन बन कर अपने चाचाओं-चाचियों के चक्रव्यूह तोड़ कर मुख्यमंत्री की तरह निर्द्वंद्व हो कर, खुल कर काम-काज करें और कि साथ ही अपने पिताश्री के खडा़ऊंराज से मुक्ति लें। नहीं यह तय है कि अगर वह ऐसे ही बने रहे तो कोई उन्हें चाचा चक्रव्यूह में फंस कर अभिमन्यु की तरह बेमौत मरने से रोक नहीं सकेगा। कन्हैयालाल नंदन की एक कविता है, 'तुम्हें नहीं मालूम/ कि जब आमने सामने खड़ी कर दी जाती हैं सेनाएं/ तो योग और क्षेम नापने का तराजू/ सिर्फ़ एक होता है/ कि कौन हुआ धराशायी/ और कौन है/ जिसकी पताका ऊपर फहराई/।' तो इतिहास तो विजेता ही का नाम दर्ज करता है। नहीं होने को उत्तर प्रदेश में श्रीपति मिश्र जैसे नाकारा मुख्यमंत्री भी हो कर गए हैं जिन के राज में कहा जाता था कि, 'नो वर्क, नो कंप्लेंड !' या फिर नरसिंहा राव के प्रधानमंत्रित्व के ज़माने में उन के लिए कहा जाता था कि, ' निर्णय न लेना भी एक निर्णय है !' और बाबरी मस्जिद गिर जाती थी। तो अखिलेश यादव भी कुछ-कुछ वैसी इबारतें दर्ज़ करने की तरफ़ अग्रसर हैं। मंत्रियों की मनमानी बढ़ती जा रही है। चाचा शिवपाल मुलायम के राज में निठारी जैसे कांड के लिए कहते थे कि बडे़-बडे़ शहरों में छोटी-छोटी घटनाएं घटती रहती हैं तो अब अखिलेश राज में अफ़सरों से कह रहे हैं कि मेहनत कर के चोरी करो। जैसे कभी मायावती सांसदों विधायकों से एक मीटिंग में कह गई थीं कि निधि का पैसा अकेले-अकेले मत खाओ, कुछ हिस्सा हमें भी दे दिया करो। आज़म खां से लिया गया एक ज़िले का प्रभार रातोरात लौटाने को विवश होना पड़ता है मुख्यमंत्री को। इतना कमज़ोर मुख्यमंत्री? जनता में तो यही संदेश जाता है। हालत यह है कि आज़म और शिवपाल अखिलेश के लिए सब से बडे़ स्पीड-ब्रेकर बन कर सरकार में उपस्थित हैं। तो राजा भैया जैसे गले के पत्थर भी बेशुमार हैं। सपा के 111 विधायक तो दागी हैं। और ऐसे में जो मुख्यमंत्री अपने मंत्री परिषद के लोगों को ही काबू न कर सके, अपने अधिकारियों पर ही लगाम न लगा सके, वह मुख्यमंत्री राज क्या चलाएगा। एक मायावती मुख्यमंत्री थीं कि क्या मंत्री, क्या अधिकारी हर कोई उन से थरथराता था। गंवई शब्दावली में कहूं तो यह लोग मूत मारते थे मायावती नाम भर से। और अब? खैर मायावती जो करती थीं वह भी अनुचित था, तानाशाही थी, वह भी नहीं होना चाहिए। पर वह जो कहते हैं कि सरकार चलती इकबाल और धमक से। तो अखिलेश सरकार की न तो कोई धमक है न कोई इकबाल। टका सेर भाजी, टका सेर खाजा वाला आलम है। मनमोहन सिंह से भी गई गुज़री हालत है उत्तर प्रदेश में अखिलेश की। उन की सारी पढाई-लिखाई उन के जाहिल सहयोगियों की भेंट चढ़ गई है। पढे़-लिखे मुख्यमंत्री की जो छाप दिखनी चाहिए, जो समझ दिखनी चाहिए अखिलेश के अब तक के काम-काज में नहीं दिखी है, जो समझ और दृष्टि दिखनी चाहिए वह नदारद है अब तक तो। कभी एक इंजीनियर मुख्यमंत्री थे मध्य प्रदेश में दिग्विजय सिंह तो उन के प्रशासन और फ़ैसलों में वह इंजीनियरों वाली चमक देखी जाती थी। आज की तारीख में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी इंजीनियर हैं। उन के प्रशासन और फ़ैसलों में भी वह चमक और तुर्शी साफ दिखती है। बिहार की छवि बदल कर रख दी है उन्हों ने। पर यहां हमारे उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव भी इंजीनियर हैं, वह भी आस्ट्रेलिया के पढे़ हुए। पर न वह चमक है न तुर्शी उन के फ़ैसलों और कामकाज में। न वह विज़न है, न दृष्टि जो उन से दरकार है। चुनाव के समय जैसे पूरी सख्ती से उन्हों ने डी.पी.यादव जैसे बाहुबली को आज़म के फ़ैसले के बावजूद दरकिनार किया था, मोहन सिंह जैसे लोग तब डी.पी.यादव की पैरोकारी में बह गए थे। उसी दमदारी और सख्ती की ज़रुरत उन्हें अब भी है। राजनीतिक रुप से भी और प्रशासनिक रुप से भी। नहीं पापा कहते हैं बडा़ नाम करेगा वह गाते रह जाएंगे और पापा भले उन्हें सौ में सौ नंबर देते रहेंगे, प्रदेश, जनता और इतिहास उन्हें सौ में शून्य दे कर दफ़ना देगा। नंदन जी की ही एक और कविता है:
सब पी गए पूजा नमाज़ बोल प्यार के
और नखरे तो ज़रा देखिए परवरदिगार के
लुटने में कोई उज्र नहीं आज लूट ले
लेकिन उसूल कुछ तो होंगे लूट मार के
तो अखिलेश जी समझाइए अपने चाचाओं और चाचियों को, कि लूटमार के भी कुछ वसूल होते हैं तो सत्ता को साधने के भी। उदाहरण बहुत हैं पर आप के ही एक और चाचा हैं कल्याण सिंह। अच्छे और सख्त शासक होने के बावजूद आप की एक चाची कुसुम राय को नहीं संभाल पाए और दफ़न हो गए। राजनाथ सिंह के शकुनी चाल में फंस कर। तो उन से ही सही सबक लीजिए और साथ ही अपने पिताश्री को भी समझाइए कि अब रामराज का ज़माना नहीं रहा सो खड़ाऊंराज से आप को वह मुक्त कर दें। नहीं अभी आप को वह खडा़ऊं सौंप कर दिल्ली में उपप्रधानमंत्री फिर राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति का सपना जोड़ कर और फिर तोड़ कर अब आडवाणी के ब्लाग को हाज़िर-नाज़िर मान कर फिर से प्रधानमंत्री बनने का जो सपना जोड़ रहे हैं, जब आप और आप का राज कायम रहेगा, तभी पूरा हो पाएगा। इस लिए भी कि जिस भ्रष्टाचार से आजिज आ कर लोगों ने मायावती को किनारे कर आप को राज थमाया, वह भ्रष्टाचार फिर से फ़न फैलाए खड़ा है। कहीं दोगुनी ताकत से।
एक बात और नोट कर लीजिए अखिलेश जी कि अगर आप अपना निजाम चाक-चौबंद नहीं रख पाएंगे तो पुत्र मोह के मारे मुलायम के पास आप के सौतेले भाई प्रतीक यादव भी एक विकल्प हैं। अलग बात है कि यादव बिरादरी में अभी प्रतीक की स्वीकृति नहीं है। सो इस का लाभ आप को अभी है। पर मुलायम अपनी सत्ता की साध पूरी करने के लिए कब किस से हाथ मिला लें, कब किस को किनारे लगा दें कोई नहीं जानता। वह खुद भी नहीं। पुराने लोगों की तो बात ही क्या नए लोगों में राज बब्बर, अमर सिंह, कल्याण सिंह, आज़म खान, लालू यादव, अजीत सिंह, कांग्रेस, भाजपा, बसपा, वामपंथी और अभी ताज़ा-ताज़ा ममता बनर्जी। बहुत लंबी सूची है। तो कुल मिला कर बात यह कि अपने लिए नहीं न सही, पापा के लिए तो आप को खरा उतरना ही है। इस उत्तर प्रदेश को जो अब चौपट प्रदेश बन चुका है, इस को भी पटरी पर लाना ही है। उत्तर प्रदेश के लोगों को आप से बहुत उम्मीदें हैं। आप में लोग अब नीतीश देखते हैं। लोग उत्तर प्रदेश को बिहार की तरह सकारात्मक ढंग से बदलते हुए देखना चाहते हैं। पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा गाना आप शायद तभी गा सकेंगे और उस में जोड़ भी सकेंगे कि बेटा हमारा ऐसा काम करेगा !
बड़ी खरी टिप्पणी है। कहने को तो अखिलेशजी मुख्यमंत्री हैंपरंतु उनके हाथ बँधे हुए हैं। इन हाथों को खोलना होगा, नहीं तो जनता कब कुपित हो जाय कोई भरोसा नहीं है। खरी टिप्पणी के लिए आपको बधाई-----
ReplyDeletebahut hi sunadr lekh hai sir. apko sader pranam
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