दयानंद पांडेय
शंभुनाथ जी को अभी याद करते हुए दिनकर की एक काव्य पंक्ति याद आती है : मुझे क्या गर्व हो अपनी विभा का। सचमुच ज़रा भी गर्व , ज़रा भी अभिमान , ज़रा भी अहंकार उन में नहीं था। व्यूरेक्रेसी की ज़रा भी बू नहीं थी उन में। उन की विद्वता , विनम्रता , मृदुता , शालीनता उन में सुगंध और सुमन की तरह एकमेव थी। जैसे माखन और मिसरी। दिनकर और आचार्य विष्णुकांत शास्त्री जैसे उन के पथ थे। दिनकर की उंगली थामे नौकरशाही के राजपथ पर चलते-चलते कब वह आचार्य विष्णुकांत शास्त्री के अमृत सरोवर में डूब गए , वह भी नहीं जान पाए। उन की कुल विभा यही थी। विभा यानि उन की प्रभा, कांति, चमक , किरण, रश्मि , शोभा, सुंदरता सब कुछ यही सरोवर था। विष्णुकांत शास्त्री का अमृत सरोवर। विद्वता और सरलता का सरोवर। इस सरोवर में वह सब को डुबकी लगवाते रहते थे। यह इस अमृत सरोवर का ही स्वाद है , संयोग और कि प्रारब्ध भी कि कल शाम एक किताब के विमोचन के अवसर पर वह मृत्यु की बात कर रहे थे। मृत्यु की कहानी सुना रहे थे। मृत्यु की बात करते-करते , मृत्यु की कथा सुनाते समय ही मृत्यु ने उन्हें अपने आलिंगन में ले लिया। काश कि ऐसी ही मृत्यु मुझे भी मिले। न कोई सेवा , न टहल , न अस्पताल। बहुत भाग्यशाली थे शंभुनाथ जी। ऐसी मृत्यु कहां और किस को मिलती है भला। अज्ञेय ने लिखा है :
होना ही है यह, तो प्रियतम! अपना निर्णय शीघ्र सुना दो-
नयन मूँद लूँ मैं तब तक तुम रस्सी काटो, नाव बहा दो!
पर यह तो अब की बात है। थोड़ा पहले के पृष्ठ पलटता हूं।
वह मेरे संघर्ष के दिन थे। सफलता और निरंतर सत्ता के गलियारे का स्वाद चखने के बाद का संघर्ष , आदमी को तोड़ देता है। आदमी को नपुंसक बना देता है। यह बात मुझ से ज़्यादा भला कौन जानता होगा। फ़िलहाल तो वह नौकरी में लड़ाई और उथल-पुथल के मेरे दिन थे। बहुत जद्दोजहद थी ज़िंदगी में। बेटी बहुत छोटी थी। नर्सरी क्लास में थी। एक दिन शाम को घर आया तो वह भी अचानक पूछ बैठी , हाईकोर्ट में क्या हुआ ? मैं अवाक् और निःशब्द ! यह मासूम सी , अबोध सी बच्ची और हाईकोर्ट का ताप ? थोड़ी देर रुक कर उसे गोद में बिठाया और प्यार से पूछा , तुम को हाईकोर्ट का किस ने बताया। कैसे मालूम हुआ ? वह बोली , आप अकसर मम्मी से , फ़ोन पर हाईकोर्ट के बारे में ही तो बात करते हैं। मैं बिलकुल चुप हो गया। असल में हाईकोर्ट की लड़ाई ही उन दिनों मेरा ओढ़ना-बिछौना था। तुम देखी सीता मृगनैनी जैसा। न्याय की लड़ाई लड़ रहा था और टूट रहा था। निरंतर। लड़ाई से ज़्यादा वह मेरा स्वाभिमान था।
ऐसे में एक दिन एनेक्सी सचिवालय के उन के कार्यालय में शंभुनाथ जी से भेंट हुई। वह ऐसे मिले , जैसे जाड़े में रजाई। तब वह उत्तर प्रदेश शासन में श्रम सचिव थे। सचिव पद बड़ा पद होता है। अपने नाम के अनुरूप उन्हों ने मेरा कल्याण करने की कोशिश की। बताता चलूं कि शंभू शब्द संस्कृत से लिया गया है, जिसमें 'शं' का अर्थ 'कल्याण' और 'भू' का अर्थ 'उत्पत्ति' है। तो शंभुनाथ जी ने अपने 'शं' का परिचय दिया। रिपोर्टर रहा था तो इस कारण सत्ता के गलियारों से ख़ूब परिचित था। तमाम मंत्रियों , मुख्य मंत्रियों से नियमित मिलने का अभ्यास था। अनुभव था। तरह-तरह के अफसरों से भी वास्ता पड़ता रहता था। लेकिन उन दिनों सत्ता के गलियारों में मुझे कोई पहचानने वाला नहीं था। कोई देखता भी तो कतरा कर निकल जाता था। जो लोग मिलने के लिए बिछे रहते थे , खोजते रहते थे , पहचानने के लिए तैयार नहीं थे। क्यों कि मैं बेरोजगार हो गया था। बेरोजगार ही नहीं , तब के समय के ताक़तवर अख़बार पायनियर और स्वतंत्र भारत को प्रकाशित करने वाली कंपनी द पायनियर लिमिटेड से टकरा गया था। हाईकोर्ट में मुकदमा दायर कर स्टे ले चुका था। हाईकोर्ट का यह स्टे लेकिन झुनझुना बन कर रह गया था। लंबे समय तक यह झुनझुना बजाते रहने के लिए अभिशप्त हुआ। क्यों कि पायनियर इस स्टे को व्यावहारिक रूप से मानने को तैयार नहीं था। कंटेम्प्ट के जवाब में प्रबंधन ने शपथ पत्र पर लिख कर हाईकोर्ट को दिया था कि हम तो काम पर इन्हें लेना चाहते हैं। यही काम पर नहीं आते।
हक़ीक़त यह थी कि दफ्तर जाने पर गेट पर मेरी एंट्री पर रोक लगी थी। सिक्योरिटी गार्ड रोक देता था। तो तमाम रास्तों में एक रास्ता श्रम विभाग का था। उन दिनों लखनऊ में डिप्टी लेबर कमिश्नर था , एस पी सिंह। पी सी एस अफ़सर था। हेकड़ी में धुत्त। वह सिवाय आश्वासन के कुछ करना नहीं चाहता था। पायनियर प्रबंधन के हाथों बिका हुआ था। आजिज आ कर एक दिन श्रम सचिव शंभुनाथ से मिला। शंभुनाथ जी ने न सिर्फ़ पहचाना बल्कि पूरे सम्मान से मिले। हमारी तकलीफ़ से अपने को जोड़ा। उन्हें सारी बात बताई। सारे कागज़ात दिखाए। उन्हों ने डिप्टी लेबर कमिश्नर एस पी सिंह को तलब किया। दूसरे ही दिन। हम दोनों को साथ बिठाया। पूछा डिप्टी लेबर कमिश्नर एस पी सिंह से कि , 'इन का काम करने में दिक़्क़त क्या है ? ' वह मिनमिनाने लगा। शंभुनाथ जी ने स्पष्ट कहा कि , ' या तो इन को अपने साथ ले जा कर तुरंत ज्वाइन करवाइए , माननीय हाईकोर्ट के आदेश के मद्देनज़र या फिर इन का बकाया वेतन दिलवाइए। प्रबंधन न माने तो रिकवरी नोटिस जारी कीजिए। '
' राइट सर ! यस सर ! ' करता रहा , डिप्टी लेबर कमिश्नर एस पी सिंह। शंभुनाथ जी ने अपनी वरिष्ठता और प्रोटोकाल भूल कर डिप्टी कमिश्नर एस पी सिंह से लगभग मनुहार करते हुए कहा कि देखिए , ' इन को चार-पांच लाख रुपए मिल जाएंगे तो इन का कुछ भला हो जाएगा। थापर का इस से क्या बिगड़ जाएगा ? चार-पांच लाख रुपए थापर के लिए मैल बराबर भी नहीं है। ' यह नब्बे के दशक का पूर्वाद्ध था। थापर ग्रुप पायनियर का नया मालिक था। जयपुरिया ग्रुप ने अख़बार बेच दिया था।
' यस सर , राइट सर ! ' करते हुए एस पी सिंह चला गया। मैं भी चलने को हुआ तो शंभुनाथ जी ने मुझे रोक लिया। काफी मंगवाई। काफी पीते हुए , मैं ने उन से पूछा , 'आप को क्या लगता है कि हमारा काम हो जाएगा ? ' वह बोले , ' उम्मीद तो पूरी है ! ' चलने लगा तो वह बोले , ' अगर ज़्यादा दिक़्क़त हो तो कुछ पैसे ले लीजिए ! ' कहते हुए उन्हों ने अपना पर्स निकाल लिया। मैं ने पूरी सख़्ती और पूरी विनम्रता से हाथ जोड़ कर , सिर हिला कर मना कर दिया। उस पूरी बेरोजगारी में कभी किसी के आग हाथ नहीं पसारा। न कभी किसी से कुछ लिया। न घर में , न बाहर। सारी तकलीफ़ चुपचाप पीता गया।
हालां कि मेरे मित्र एक दूसरे पी सी एस ने चर्चा चलने पर साफ़ बता दिया कि एस पी सिंह आप का काम नहीं करेगा। पी एल पुनिया का आदमी है। शंभुनाथ को वह सेटता ही नहीं। सामने की बात और है। तो भी चार दिन बाद डिप्टी लेबर कमिश्नर एस पी सिंह से मैं ने मिल कर बात की। वह बिलकुल वीर रस में था। बोला , ' लट्ठ से लट्ठ बजा दूंगा , पायनियर की। थोड़ा समय दीजिए। ' पायनियर प्रबंधन को नोटिसनुमा चिट्ठी लिखी भी। पायनियर प्रबंधन कुछ जवाब देता इस नोटिस का कि मेरा दुर्भाग्य जैसे मेरे सिर पर सवार हो गया। शंभुनाथ जी का ट्रांसफर हो गया , श्रम सचिव पद से। शंभुनाथ जी का ट्रांसफर क्या हुआ , मेरा मामला फिर खटाई में पड़ गया। पायनियर प्रबंधन की लट्ठ से लट्ठ बजाने की शेखी बघारने वाला डिप्टी लेबर कमिश्नर एस पी सिंह अब मुझ से कतराने लगा। न फ़ोन पार बात करता , न मिलता। डिप्टी लेबर कमिश्नर बहुत छोटा पद होता है और कि महत्वहीन भी। लेकिन प्रबंधन से किसी लड़ते हुए आदमी के लिए बहुत बड़ा अफ़सर। लगभग भगवान। ज़्यादातर कारखानों में काम करने वाले मज़दूर इस का शिकार होते हैं। नरक भोगते हैं। पत्रकार आदि इक्का - दुक्का। ह्वाइट कॉलर वालों के लिए लेबर आफिस नहीं था। अब तो किसी के लिए नहीं है। अधिकतम डिप्टी लेबर कमिश्नर का हफ़्ता , महीना टाइप बंधा रहता है। सो मज़दूरों के हक़ में फैसला लगभग नहीं ही आता है। लेबर ट्रिब्यूनल का भी यही हाल है। वहां कोई रिटायर्ड जज होता है। सरकारों ने मज़दूरों का गुस्सा आदि कुंद करने के लिए ही श्रम विभाग खोल रखा है। ठीक वैसे ही जैसे मद्य निषेध विभाग है , शराब रोकने के लिए और आबकारी विभाग है , शराब बेचने के लिए। मद्य निषेध की नौटंकी चलती रहती है , शराब बिकती रहती है। राजस्व बढ़ता रहता है। सरकार कोई हो। बाद में यही एस पी सिंह प्रमोटी आई ए एस बन कर आज़म खान का ख़ास बन गया। सचिव बन गया। पहले पी एल पुनिया का ख़ास था। फिर आज़म ख़ान का। आज़म खान ने रिटायर होने के बाद एक्सटेंशन दिलवा दिया इसे। पर आज़म खान की जब सत्ता डोली , गर्दिश में दिन आए , लपेटे में आने के डर से इस एस पी सिंह ने भाजपा ज्वाइन कर ली। आज़म ख़ान सहित उस के कई गुर्गे जेल में हैं पर इस एस पी सिंह पर कोई आंच नहीं आई।
खैर , उन दिनों जब बहुत हो गया तो एक बार फिर मैं मिला शंभुनाथ जी से। अपनी फ़रियाद दुहराई। वह लाचार दिखे। कहने लगे , ' अब तो मैं उस को फ़ोन पर भी कुछ नहीं कह सकता ! ' उन्हों ने जोड़ा , ' लगता है , मैनेजमेंट से मिल गया है वह। ' बाद में मैं ने एक उपन्यास ही लिखा इस पूरी लड़ाई पर। अपने-अपने युद्ध। सारे सिस्टम सहित , न्यायपालिका की धज्जियां उड़ा दी हैं। आज भी ख़ूब पढ़ा जाता है यह उपन्यास। फिर इसी उपन्यास अपने-अपने युद्ध पर कंटेम्प्ट ऑफ़ कोर्ट भी झेला। ख़ैर , तब दूसरी नौकरी भी मिल गई। सत्ता के गलियारों में फिर घूमने लगा। सब कुछ पहले जैसा तो नहीं रहा , पर सब कुछ लगभग सामान्य हो गया। ज़िंदगी पटरी पर आ गई। शंभुनाथ जी से गाहे-बगाहे कभी भेंट हो जाती थी। बहुत सी बातें और मुलाक़ातें हैं उन के साथ। पर उन का नया रूप देखने को तब मिला जब वह राज्यपाल के प्रमुख सचिव थे। दिनकर पर उन की पी एच डी थी , यह तो जानता था पर वह अभिन्न और अविरल अध्येता हैं , अदभुत वक्ता हैं , तब ही जाना।
उन दिनों आचार्य विष्णुकांत शास्त्री उत्तर प्रदेश के राज्यपाल थे। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान की तब के समय की प्रधान संपादक डाक्टर मंजुलता तिवारी एक लेखिका संगठन में भी थीं। तुलसी जयंती पर एक कार्यक्रम आयोजित किया मंजुलता तिवारी ने। लखनऊ के राय उमानाथ बली प्रेक्षागृह में आयोजित इस कार्यक्रम की अध्यक्षता या कि मुख्य अतिथि के तौर पर आचार्य विष्णुकांत शास्त्री जी को बुलाया गया था। सब कुछ ठीकठाक चल रहा था। लोगबाग उन की प्रतीक्षा में थे। अचानक शंभुनाथ जी आए। आयोजकों से विनयवत वह मिले। हाथ जोड़ कर बोले कि , ' आचार्य जी अस्वस्थ हो गए हैं। बहुत तेज़ बुखार हो गया है। इस कार्यक्रम में नहीं आ पाएंगे। ' इस बाबत एक औपचारिक पत्र भी वह साथ में लाए थे। मंजुलता तिवारी आगे बढ़ कर बोलीं , ' तो आप ही उन की जगह आ जाइए ! ' शंभुनाथ जी ने हाथ जोड़ कर कहा , ' आचार्य जी की जगह मैं कैसे ले सकता हूं ? ' मंजुलता तिवारी निरुत्तर हो कर शर्मिंदा हुईं और बोलीं , ' मेरा मतलब है , इस आयोजन में उन की जगह बोलने के लिए। ' शंभुनाथ जी ने फिर हाथ जोड़े और कहा कि , ' इस के लिए भी मुझे आचार्य जी की अनुमति लेनी पड़ेगी। ' मंजुलता जी ने कहा , ' फोन कर लीजिए। ' तब मोबाईल का ज़माना नहीं था पर लैंड लाइन फ़ोन था राय उमानाथ बली प्रेक्षागृह में। शंभुनाथ जी ने कहा , ' फोन पर यह अनुमति नहीं मांग सकता। इस के लिए मुझे आचार्य जी के पास जाना पड़ेगा।' मंजुलता तिवारी और अन्य आयोजक मान गए। शंभुनाथ जी वापस राजभवन गए। एक घंटे में लौटे। कार्यक्रम में काफी विलंब हो गया। पर लोग रुके रहे। आते ही शंभुनाथ जी ने हंसते हुए , हाथ जोड़ कर बताया कि आचार्य जी ने अनुमति दे दी है। मंच पर लोग बैठ गए। औपचारिकताएं हुईं। आख़िर में बोलने के लिए शंभुनाथ जी माइक पर आए। पहला ही वाक्य बोले कि , ' इस तरह तुलसी जयंती मनाने की क्या ज़रूरत है ? पूरे हाल में खुसफुसाहट शुरू हो गई। विरोध के स्वर भी उठे। कहा गया कि , ऐसे आदमी को बुलाने की क्या ज़रूरत थी ? दलित है , यह तो ऐसे ही बोलेगा ! आदि-इत्यादि। कि तभी शंभुनाथ जी बोले , ' तुलसी जयंती तो पूरी दुनिया में हर रोज , हर क्षण मनाई जाती है। तुलसी जयंती कोई एक दिन की बात तो है नहीं ! ' वह बोले , ' दुनिया का ऐसा कौन सा हिस्सा है जहां तुलसी की रामायण नहीं है। रामायण तो हरदम , हर जगह पढ़ी जाती है। तुलसी जयंती इस तरह रोज मनाई जाती है। दुनिया भर में। जहां रामायण लोग पढ़ें , तुलसी जयंती मन जाती है। ' शंभुनाथ जी यहीं नहीं रुके। रामायण के एक से एक प्रसंग सुनाने लगे। राम सेतु पर उमाकांत मालवीय की कविता का संदर्भ लिया। सेतु प्रसंग के अनखुले पृष्ठ खोलने लगे। तुलसी के जीवन के कई आयाम आए उन के उदबोधन में। कोई एक घंटे से अधिक वह बोले। बोले क्या जैसे अमृत वर्षा कर रहे हों। उन का वह अमृत उदबोधन आज भी कान में अमृत रस घोलता रहता है। कार्यक्रम समाप्त हुआ।
मंच से जब वह उतरे तो मैं ने उन का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा , ' आज तो आप का यह अलौकिक रूप देख कर मुग्ध हो गया हूं। यह कैसे संभव हो गया ? ' वह विनयवत बोले , ' सब आचार्य जी की संगत का असर है। उन का ही आशीर्वाद है। ' आचार्य जी मतलब आचार्य विष्णुकांत शास्त्री। विष्णुकांत शास्त्री थे ही ऐसे। सब को अपना बना लेने वाले। अपने रंग में रंग देने वाले। अपनी विद्वता और विनम्रता के आगोश में लपेट लेने वाले। शंभुनाथ जी ही नहीं , अपने स्टाफ के कई आई ए एस , पी सी एस अफसरों को विष्णुकांत शास्त्री जी ने अपने इसी रंग में रंग लिया था। शंभुनाथ जी अपने आचार्य जी की इस रंगोली के सब से चटक रंग थे। शंभूनाथ जी कभी विष्णुकांत शास्त्री का नाम भी नहीं लेते थे। महामहिम राज्यपाल भी नहीं , आचार्य जी से संबोधित करते थे। पतिव्रता स्त्रियों की तरह वह नाम लेने से बचते थे। ठीक वैसे ही जैसे नामवर सिंह , हजारी प्रसाद द्विवेदी को नाम से नहीं , सर्वदा गुरुदेव कह कर संबोधित करते थे। कम लोग जानते हैं कि विष्णुकांत शास्त्री और नामवर सिंह बहुत गहरे मित्र थे। अटल बिहारी वाजपेयी और नामवर सिंह के बीच सेतु थे विष्णुकांत शास्त्री। बहुतेरी बातें हैं। पर अभी बात शंभुनाथ जी की।
शंभुनाथ जी रांची के रहने वाले थे पर जब उत्तर प्रदेश कैडर मिला उन्हें 1970 में और लखनऊ आए तो तो वह कहते हैं न कि लखनऊ हम पर फिदा है, हम फिदा-ए-लखनऊ वाली बात हो गई। उत्तर प्रदेश के कई ज़िलों में वह कलक्टर भी रहे पर उन की ज़िंदगी में लखनऊ पहले आप पर आ कर ठहर गया। उन्हों ने लखनऊ में अपने आप का विलय कर दिया। इसी लिए वह हम से , सब से ही , पहले आप की भावना में भीग कर ही मिलते थे। अपने हम को , दूसरों में घुला देते थे। नौकरी में वह मुख्य सचिव की कुर्सी तक पहुंचे। प्रदेश की सब से ताक़तवर कुर्सी। पर कोई एक विवाद उन्हें छू तक नहीं गया। हिंदी संस्थान के कार्यकारी अध्यक्ष भी बने। यहां भी कोई विवाद नहीं। बाद के समय में वह साहित्यिक सभाओं के वक्ता बन कर परिचित हुए। किसी भी विषय पर वह बोलते , किसी भी किताब पर बोलते तो पूरी तैयारी से बोलते। संदर्भ और अर्थ के साथ ऐसे बोलते जैसे कोई कारीगर चूल से चूल मिला रहा हो। न पेंच ज़्यादा कसते , न पेच ढीला छोड़ते। विषय तय करने वाला या कोई पुस्तक लिखने वाला भी उतना नहीं सोचता , जितना अर्थ , जितना संदर्भ वह खोल कर रख देते। वह कहते हैं न , अनावरण। तो वह कोई विषय हो , कोई किताब हो , उसी तरह अनावरण करते जैसे किसी चित्र का। किसी शिलालेख , किसी शिलापट्ट का। किसी विषय पर उन का स्पर्श ऐसा था कि किसी भी शिला को , अहिल्या बना देता। इतना कि अहिल्या भी औचक हो कर उन्हें देखने लगे। बातों में उन के इतना सौंदर्य था , इतना औदार्य था कि पूरी सभा रूपवती हो जाती थी। उन के व्याख्यान कोई कैसे भूल सकता है। और वह भी उस लखनऊ सहित पूरे देश में जहां कई सारे ऐसे उदभट विद्वान हैं जिन्हें आप विषय कोई भी दीजिए , किताब कोई भी दीजिए , बोलना उन को वही है , जो वह बोलते आए हैं। बोलते रहेंगे। कभी सूत भर भी इधर-उधर नहीं होते यह उदभट विद्वान लोग। उन की चुनी हुई चुप्पियां , उन के चुने हुए विरोध उन्हें मशरूम बना चुके हैं , यह लोग यह बात कभी जान ही नहीं पाए। कभी जान भी पाएंगे , मुझे शक़ है। ऐसे ख़तरनाक़ समय में शंभुनाथ जी का विदा लेना शूल का बोध करवाता है। शंभुनाथ जी की बहुत सी बातें हैं , बहुत सी यादें हैं जो फिर कभी। अभी तो : ' जैसी हो भवतव्यता वैसी मिले सहाय, ताहि न जाए तहां पर ताहि तहां ले जाए। ' यही उन के बोले अंतिम वाक्य थे और यही उन की अंतिम फ़ोटो है। शंभुनाथ जी , आप की विभा को , आप के आचार्यत्व को हम कभी भूल नहीं पाएंगे। यह दुर्योग ही है कि नोएडा प्रवास के कारण आप का अंतिम दर्शन करने से वंचित रह गया हूं।
विनम्र श्रद्धांजलि !
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