Wednesday, 2 July 2025

राइटर्स रेजीडेंसी , पटना में यौन अपराध के आरोप के बहाने और मायने

दयानंद पांडेय 



नई धारा के राइटर्स रेजिडेंस में मदिरा की यह खुली हुई बोतल बीते जून की किसी तारीख़ की है। इस फ़ोटो ने ही फ़ेसबुक पर उपस्थित क्रांतिकारियों के क़ानूनी कार्रवाई की तरफ जाने के लिए हाथ और रास्ते बांध रखे हैं। सब जानते हैं कि बिहार में क़ानूनी रूप से शराब बंदी है। तीनों पक्ष फंस सकते हैं। नई धारा , कृष्ण कल्पित और शिवांगी गोयल। हालां कि कोई फांसी किसी को नहीं होगी। कुछ जुर्माना भर लगेगा। मामला रफा-दफा। लेकिन बात रिकार्ड में आ जाएगी। नज़ीर बन जाएगी। सो सारी क्रांति , सारी आग फेसबुक पर लगी हुई है। लोगबाग इस बहाने अपने-अपने को निपटाने में लगे हुए हैं। 

आग सुलगी पटना से। दहकी दिल्ली में। फिर तो हर कोई हर-हर गंगे करने लगा। जिस को लिखने का शऊर नहीं है , वह भी , जिस को है वह भी। कृष्ण कल्पित , अशोक वाजपेयी के परम निंदक हैं। अशोक वाजपेयी के एक शिष्य प्रभात रंजन की भी वह जब-तब ऐसी-तैसी करते रहते हैं। गीताश्री की भी। कृष्ण कल्पित को निपटाने का इस से बढ़िया अवसर क्या हो सकता है। तो दिल्ली में पहली , दूसरी पोस्ट प्रभात रंजन और गीताश्री की ही फ़ेसबुक पर आई। फिर तो कृष्ण कल्पित की जैसे शामत ही आ गई। हम हुए तुम हुए कि मीर हुए / सब इसी ज़ुल्फ़ के असीर हुए। कृष्ण कल्पित वैसे ही बदनाम प्राणी , अब और बदनाम। सारी बोफ़ोर्स कृष्ण कल्पित की ओर तैनात हो गईं। क्या स्त्री , क्या पुरुष। बात ही ऐसी थी। बहुत कम लोग ख़ामोश रहे। कम लोग नहीं , बल्कि होशियार लोग। अपन मस्त हो के देखा , इस में मज़ा नहीं है / हुसियारी के बराबर कोई नशा नहीं है। कभी इस शेर को मजा ले कर सुनाने वाले उदय प्रकाश जैसे लोग भी कृष्ण कल्पित के पक्ष में कूद गए। इस आशंका के साथ कि कृष्ण कल्पित कहीं आत्महत्या न कर लें। अब बोफोर्स उदय प्रकाश की तरफ गरजने लगीं। राजस्थान का नमक अदा करने ओम थानवी भी कूदे , उदय प्रकाश को संबोधित करते हुए। थोड़ा इधर भी , थोड़ा उधर भी। असग़र वज़ाहत पहले ही बालिका के पक्ष में सर्टिफिकेट जारी कर चुके हैं। प्रलेस , जसम टाइप लोगों ने नाखून कटवा कर शहीद बनने की रस्म पूरी कर ली है। काठ की तलवारों को अब छुटभइये भांज रहे हैं। हुसियार लोग अभी भी प्रेक्षक दीर्घा में उनींदे उबासी ले रहे हैं। ऐसे जैसे तीतर-बटेर लड़ रहे हों। भगवती चरण वर्मा की कहानी दो बांके याद आ गई है और उस का एक सवाद भी : 

मुला स्‍वांग ख़ूब भरयो !

दिलचस्प यह कि प्रभात रंजन और उदय प्रकाश दोनों ही अशोक वाजपेयी शिविर के शिष्य हैं। और दोनों आमने-सामने। प्रभात रंजन ने तो एक पुरस्कार के बाबत ऐलान कर दिया है कि चूंकि उदय प्रकाश निर्णायक मंडल में हैं सो मैं उस पुरस्कार से अपनी किताब ही वापस ले रहा हूं। अशोक वाजपेयी लेकिन अपने ही शिविर के शिष्यों के बीच लगी आग में कृष्ण कल्पित को जलते हुए देख कर आनंद की ख़ामोशी में टुन्न हैं। आनंद से बड़ी मदिरा भला कौन होती है। 

क़िस्सा कोताह यह कि पटना में बालिका और कृष्ण कल्पित के बीच जो भी कुछ घटा , उसे उस ने फ़ोन पर एक मित्र के साथ साझा किया। उस मित्र ने मिर्च मसाला लपेट कर किसी और मित्र को परोसा। उस मित्र ने पटना की निवेदिता झा को बताया। निवेदिता झा ने मौखिक लंतरानी को लिखित बना कर रात में ही फ़ेसबुक पर पोस्ट कर दिया। कृष्ण कल्पित की ऐसी-तैसी की। फिर दूसरे दिन शालिनी श्रीनेत ने भी कृष्ण कल्पित की जय हिंद की। जंगल में आग लग चुकी थी। 26-27 जून को लपटें उठने लगीं। कृष्ण कल्पित जयपुर रवाना किए गए कि हुए , वही जानें। 

इस बीच लेकिन वाम टोले ने जो सक्रियता दिखाई वह हैरतंगेज थी। पटना की गंगा में शायद इतना पानी नहीं होगा , जितना इस प्रसंग की नाव में पानी भरा गया है। पर परिणाम क्या है ? 

ग़लत हुआ , जो भी उस बालिका के साथ घटा पर मामला किस विस , स्पर्श आदि तक का ही बताया जा रहा है। हालां कि यह भी अपराध है। निंदनीय है। कोलकाता में अभी लॉ स्टूडेंट के साथ रेप हुआ है। उस पर यह वाम टोला सिरे से ख़ामोश है। क्यों है ? बीते साल कोलकाता में ही एक डाक्टर के साथ रेप हुआ , हत्या भी हुई। संदेशखाली हुआ। मुर्शिदाबाद हुआ। बांग्लादेश हुआ। क्या वहां स्त्री , स्त्री नहीं थी ? पर सब के सब सब पर सिरे से ख़ामोश। शायद इस लिए कि वह स्त्रियां नहीं थीं। कि बांग्लादेश की स्त्रियां , स्त्रियां नहीं हैं। लेकिन ख़ामोशी का अजब मंज़र है। ऐसा कोहरा है , ऐसी धुंध है कि पूछिए मत। इन की इस सेलेक्टिव चुप्पी पर क्या किया जाए ? 

वाम टोला हालां की इस पटना के राइटर्स रेजीडेंसी प्रसंग पर कई टुकड़ों में बंट गया। खंड-खंड हो गया पर इन का पाखंड नहीं गया। 

और तो और महिलाओं को भी क्या कहें ? 

मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना। कुछ स्त्रियों की पोस्ट में एक शब्द देखा डी डी। पहली बार पढ़ा तो लगा कि दीदी लिखना चाहती रही होंगी मोहतरमा। टाइप ग़लत हो गया होगा। लेकिन फिर जब कई जगह यह डी डी लिखा देखा तो पता किया कि डी डी है क्या बला ! मालूम हुआ कि फेमिनिस्ट स्त्रियों को डी डी कहने का चलन है। एक नया ज्ञान मिला। ख़ैर , यह डी डी टाइप कुछ स्त्रियां मेरी पोस्ट पर भी भड़कती हुई आई-गईं। पहले दिल्ली यूनिवर्सिटी वाले आशुतोष आए। मुझे धमकाने लगे कि विक्टिम की आइडेंटिटी आप ने बता दी है। आप के ख़िलाफ़ कार्रवाई हो सकती है। इतना ही नहीं , आशुतोष ने लिखा कि आप की पोस्ट पर लाइक और कमेंट करने वालों पर भी नज़र है। अजब धमकी थी। भरपेट रिप्लाई दिया उन्हें , फिर वह पलटे नहीं। कोई रिद्धि श्री आईं। अंग्रेजी बूकती हुई। अपनी प्रोफ़ाइल लॉक कर अंग्रेजी में सूक्तियां भाखती और धमकाती हुई। भरपेट भोजन के बाद सारे कमेंट मिटाती हुई , ब्लॉक कर चंपत हो गईं। और भी कई डी डी आईं। इस पूरे प्रसंग में सब से दिलचस्प आमद निवेदिता झा की रही। गौर तलब है कि पटना राइटर्स रेजीडेंसी की सूर्पणखा निवेदिता झा ही हैं। ख़ैर आईं वह वह मुझे बलात्कारी का पक्षकार बता कर हुरपेटने लगीं। किसी भैंस की तरह। मैं उन्हें राशन , पानी देता रहा। पर अचानक वह मुझे ब्लॉक कर चंपत हो गईं। उन को एक रिप्लाई दे रहा था , नहीं पोस्ट हुई तब यह समझ आया। फिर उन को अलग से कमेंट लिख कर यह रिप्लाई लिखी :


मित्रों , Nivedita Jha नाम की एक अराजक औरत अनर्गल टिप्पणियां कर के मुझे ब्लॉक कर के भाग गई। इस अराजक महिला की कुंडली बांचना ही चाहता था , जवाब लिख ही रहा था कि ब्लॉक कर के भाग गई। इस लिए उस को रिप्लाई नामुमकिन हो गई है। आप मित्रों में से कोई उस Nivedita Jha की मित्र सूची में हो तो मेरी यह रिप्लाई उस तक पहुंचा दे। बता दीजिए कि बिना तथ्य और तर्क के कुछ नहीं लिखता।

अच्छा ?

अपने बारे में भी कुछ जानती हैं ? जानती हैं कि आप किस के पक्ष में हैं ?

बताऊं ?

इस प्रसंग में जो आप की भूमिका है , उस का गुणगान शुरू कर दूं ?

फिर कैसा लगेगा ?

सो , अपनी औक़ात और हैसियत में रहिए !

समय आने पार आप की कुंडली बांच दूंगा। यह जो गिरगिट वाला चेहरा है न आप का , इधर भी , उधर भी उस की कलई उतर जाएगी। रंगा सियार हो !

असल में होती हैं कुछ अराजक स्त्रियां , जो अपने स्त्री होने के गुमान में बदतमीजी का लाइसेंस लिए घूमती हैं। स्त्री होने के लोकलाज में लोग बर्दाश्त कर लेते हैं। तो यह अपनी इस बदतमीजी को अपना अराजकता का हथियार बना लेती हैं। हर किसी पर आजमाती फिरती हैं। 

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और यह निवेदिता झा ? 

राइटर्स रेजीडेंसी , पटना की इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना पर सब से पहली पोस्ट निवेदिता झा की थी। कई पोस्ट लिखी निवेदिता झा ने। लेकिन इतनी डरपोक है निवेदिता झा कि कृष्ण कल्पित के एक कल्पित शो काज नोटिस को देखते ही सब कुछ मिटा डाला। निवेदिता झा की वाल पर अब राइटर्स रेजीडेंसी , पटना से संबंधित एक भी पोस्ट नहीं है। पर 6 दिन पहले एक पोस्ट है शालिनी श्रीनेत की जिसे शालिनी ने निवेदिता झा को टैग करते हुआ लिखा है कि कल निवेदिता ने पोस्ट लिखी थी। 


अब कुछ लोगों ने मुझे लगातार धमकी दी , आरोप लगाया कि मैं ने विक्टिम की आइडेंटिटी क्यों डिस्क्लोज की ? बारंबार वामी टोले के लोगों और डी डी लोगों ने मुझ पर यह आक्षेप लगाए हैं। इन मतिमंदों को अब कौन बताए कि विक्टिम , अगर कोई है , तो उस की आइडेंटिटी मैं ने नहीं , नई धारा ने पोस्टर बना कर डिस्क्लोज कर रखी है। पहले ही से कृष्ण कल्पित और शिवांगी गोयल की फ़ोटो सहित दोनों का नाम लिखा हुआ है। मुझे किसी की आइडेंटिटी को डिस्क्लोज करने की ज़रूरत भी क्यों थी ? दिन को बताना पड़ता है क्या कि मैं दिन हूं ? या कि रात हूं ? सुबह , शाम , दोपहर हूं। 

अरे मतिमंदों , स्त्रियों का सम्मान करता हूं। बहुत करता हूं तो इस लिए कि एक स्त्री मेरी मां है , एक पत्नी है , बहन है , बेटी है। स्त्री है तो मैं हूं। हम सब है। स्त्री और धरती न हो , तो हम हैं कहां ? 

लेकिन मतिमंदों को , वाम टोले के लोगों को , डी डी लोगों को आज तक कोई समझा पाया है भला , जो मैं अब इन्हें  समझाऊंगा ?

क्यों समझाऊंगा , इन एजेंडाधारियों को ? इच्छाधारी नाग से भी ज़्यादा ख़तरनाक़ हैं यह लोग। 

कल पटना के एक मित्र से बात हो रही थी , इसी राइटर्स रेजीडेंसी प्रसंग पर। तो वह अचानक बोले , शराबी के तो सौ गुनाह यहां माफ़ कर देते हैं लोग लेकिन चरित्र से गिरे लोगों के एक भी नहीं। 

इस प्रसंग में जो सब से दुःखद बात हुई है , वह यह कि शिवांगी चाहे जैसी हो , हर किसी ने उस की बदनामी की इबारत लिखी है। चाहे पक्ष में लिखा हो या प्रतिपक्ष में। बदनाम तो वही हुई है। कालिख तो उसी पर लगी है। कृष्ण कल्पित का क्या है , वह तो अपनी बदनामी की कालिख लिए फिरते हैं। उस कालिख को बेचते फिरते रहते हैं। हर किसी को लिख-लिख कर बताते फिरते हैं। निवेदिता झा , गीताश्री , प्रभात रंजन , आशुतोष आदि तमाम लोगों ने कृष्ण कल्पित का क्या बिगाड़ लिया ? बताएं तो सही ! एक बदनाम आदमी की बदनामी का ग्राफ थोड़ा और बढ़ा दिया। बस ! 

पर शिवांगी का ? 

जाने सच है कि झूठ , नहीं जानता पर पटना के कुछ लोगों का कहना है कि कुछ लोग शिवांगी को ले कर महिला आयोग गए थे। वहां दस्तख़त और शराब के प्रश्न पर यह लोग उलटे पांव लौट आए। सवाल है कि शिवांगी गोयल और उन के जो भी साथी , शुभ चिंतक हैं , अभी तक पुलिस में एफ आई आर दर्ज करवाने क्यों नहीं गए ? बिहार में चुनाव का मौसम है , फौरन कार्रवाई होगी। कृष्ण कल्पित ने कभी लिखा है कि नीतीश कुमार कवि भी हैं और कि उन के पुराने मित्र। अपने फ़ोटो भंडार से वह नीतीश के साथ अपनी एक बुलंद फोटो भी जब-तब फेसबुक पर चिपकाते रहते हैं। 

तो क्या नीतीश कुमार कृष्ण कल्पित ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई रोक देंगे ? 

नीतीश की जगह अगर जंगल राज के नरेश लालू यादव होते तो हो सकता है , वह रोक देते। पर नीतीश से यह उम्मीद नहीं होती। बाक़ी राजनीति है , लेखकों की राजनीति है। 

लेकिन शिवांगी को जान लेना चाहिए कि लेखक या लेखिका बड़े होते हैं , अपनी रचना से। विवाद से नहीं। विवाद से होते तो आज की तारीख़ में इसी पटना की ज्योति कुमारी आज बहुत बड़ी लेखिका होतीं। ज्योति कुमारी का भी ऐसे ही कुछ लोगों ने इस्तेमाल किया और राजेंद्र यादव के ख़िलाफ़ खड़ा कर एफ आई आर दर्ज करवा दिया। राजेंद्र यादव भी औरतों के मामले में बहुत बदनाम थे पर उन से ज़्यादा बदनाम ज्योति कुमारी हुई। ज्योति कुमारी को लोग लेखन के लिए नहीं , राजेंद्र यादव के साथ और विवाद के लिए जानते हैं। राजेंद्र यादव को लोग पहले भी जानते थे , आगे भी जानते रहेंगे। पर ज्योति कुमारी को लोग आहिस्ता-आहिस्ता भूल जाएंगे। शिवांगी गोयल को भी लोग जानेंगे तो अगर उस के पास कोई रचना होगी तभी। अभी तो नहीं है शिवांगी के पास ऐसी कोई रचना। आगे की राम जाने। सभी लेखिकाएं महादेवी वर्मा जैसा सम्मान चाहती हैं। पर यह नहीं समझतीं का महादेवी जैसी रचना भी चाहिए होती है। वह गरिमा भी। महादेवी वर्मा का दांपत्य खटाई में था। अकेली रहती थीं। पर कभी कोई एक अंगुली उन पर कभी नहीं उठी। निराला जैसे अराजक व्यक्ति को भी वह अपने स्नेह की डोरी में बांध कर शांत रखती थीं। निराला शराब बहुत पीते थे। पर महादेवी उन के साथ बैठ कर शराब नहीं पीती थीं। राष्ट्रपति से लगायत प्रधान मंत्री तक महादेवी के सम्मुख नत रहते थे। विनत रहते थे। 

मैं नीर भरी दुख की बदली!


स्पन्दन में चिर निस्पन्द बसा

क्रन्दन में आहत विश्व हँसा

नयनों में दीपक से जलते,

पलकों में निर्झारिणी मचली!


मेरा पग-पग संगीत भरा

श्वासों से स्वप्न-पराग झरा

नभ के नव रंग बुनते दुकूल

छाया में मलय-बयार पली।


मैं क्षितिज-भृकुटि पर घिर धूमिल

चिन्ता का भार बनी अविरल

रज-कण पर जल-कण हो बरसी,

नव जीवन-अंकुर बन निकली!


पथ को न मलिन करता आना

पथ-चिह्न न दे जाता जाना;

सुधि मेरे आगन की जग में

सुख की सिहरन हो अन्त खिली!


विस्तृत नभ का कोई कोना

मेरा न कभी अपना होना,

परिचय इतना, इतिहास यही-

उमड़ी कल थी, मिट आज चली!

ऐसा सरल लेकिन सर्वकालिक गीत लिखने के लिए बड़ी साधना चाहिए होती है। फेसबुकिया विवाद की फंफूद से किसी को कोई प्रसिद्धि नहीं मिलती। 

स्त्रियों का सर्वदा सम्मान है। पर यह प्रश्न तो बनता ही है कि आख़िर सहमति से बनाए गए संबंध स्वार्थ के संकट में आते ही बलात्कार में कैसे और क्यों कनवर्ट हो जाते हैं ? ऐसे अनेक उदाहरण हैं। इसी पटना की ज्योति कुमारी , दिल्ली में राजेंद्र यादव के साथ उन के घर रहती थी। उन के साथ रोज हंस के दफ़्तर आती थी। स्वस्थ आदमी के बीमार विचार पुस्तक में सहयोगी लेखिका बनी। पर अक्षर ट्रस्ट पर काबिज नहीं हो सकी तो राजेंद्र यादव और उन के ड्राइवर को अचानक बलात्कारी घोषित कर दिया। कमलेश जैन के सहयोग से एफ आई आर हो गई। और जो-जो नहीं होना था , सब हो गया। हालां कि उम्र के उस मोड़ पर राजेंद्र यादव क्या ही बलात्कार कर पाए होंगे , वही जानते होंगे। तभी के दिनों अनिल यादव से एक अनौपचारिक बातचीत में राजेंद्र यादव ने स्वीकार किया था कि इस उम्र में छूने , टटोलने वगैरह के अलावा क्या ही हो सकता है। अलग बात है किसी अन्य अवसर मन्नू भंडारी ने लिखा था कि राजेंद्र यादव किसी से बलात्कार नहीं कर सकते। हां , छलात्कार अवश्य कर सकते हैं। उसी पटना में आलोक धन्वा ने असीमा भट्ट से बेमेल विवाह कर लिया। बाद के दिनों में असीमा भट्ट  आलोक धन्वा पर किसिम - किसिम के आरोप लगा कर अलग हो गईं। मुंबई में रहती हैं अब। अज्ञेय की पहली पत्नी को जब तलाक़ लेना हुआ तो उन्हों ने अदालत में अज्ञेय पर नपुंसक होने का आरोप लगा दिया। अज्ञेय ने इस आरोप को सहर्ष स्वीकार कर लिया। तलाक़ हो गया। अगर ऐसा ही कुछ आरोप अज्ञेय ने भी लगा दिया होता तो ? स्त्री अस्मिता ख़तरे में आ गई होती। 

अज्ञेय की आई ए एस पत्नी और विदुषी कपिला वात्स्यायन ने तो कभी ऐसा आरोप उन पर नहीं लगाया। इला डालमिया ने भी नहीं। जिन के साथ अज्ञेय आखिर तक दिल्ली के केवेंटर लेन के विशाल बंगले में रहते रहे। अज्ञेय से और भी स्त्रियां जुड़ी रहीं। अज्ञेय के लिए लोग कहते थे कि जिस को भी गहा , बांहों में गहा। पर किसी भी अन्य स्त्री ने अज्ञेय पर ऐसा लांछन नहीं लगाया। इतना ही नहीं अज्ञेय का जब निधन हुआ तो कपिला वात्स्यायन और इला डालमिया आपस में अंकवार भर कर , गले मिल कर रोईं। दोनों साथ ही उन के शव के पास बैठीं और उन को सम्मान पूर्वक मिल कर अंतिम विदाई दी। ऐसे क्षण की यह फोटुएं देख कर मन श्रद्धा से भर जाता है। अनेक लेखकों के जीवन में अनेक स्त्रियां रही हैं , रहती रहेंगी। अच्छा लेखिकाओं के जीवन में क्या अतिरिक्त पुरुष नहीं हैं ? अनेक पुरुष नहीं हैं ? पढ़िए कभी कमलेश्वर की आत्मकथा। राजेंद्र यादव की मुड़-मुड़ कर देखता हूं। कई स्त्रियों ने अपनी आत्मकथा में अपने पुरुष मित्रों का अजब - गजब वर्णन किया है। कि अज्ञेय की कविता कितनी नावों में कितनी बार याद आ जाती हैं। 

पर स्त्रियों का यह जो डी डी अवतार हुआ है , अद्भुत है। उदय प्रकाश और मंगलेश डबराल जैसे लोगों पर भी कुछ स्त्रियों ने अनौपचारिक रूप से ऐसे आरोप लगाए हैं। नीलाभ पर भी उन की दूसरी पत्नी ने सेक्स की दवा खाने पर भी क़ामयाब न रहने की बातें लिखीं। शायद असीमा भट्ट ने भी आलोक धन्वा पर इस तरह के आरोप लगाए थे। कथादेश में धारावाहिक लिख कर। और अब तो कुछ स्त्रियां ऐसी हो गई हैं कि लोग उन्हें देखते ही कतरा जाते हैं। इस भय से कि जाने कब , क्या आरोप लगा दें। स्त्रियों के साथ परिचय अब काजल की कोठरी बन गया है कुछ मुट्ठी भर स्त्रियों के कारण। सामान्य जन को  भी नीला ड्रम से शिलांग इत्यादि का भय भयानक रूप से भयाक्रांत किए हुए है। सब के पास हनुमान जैसी शुचिता , नैतिकता , बुद्धि और बल नहीं है कि सुरसा राह रोके तो लघु रूप धर मुंह में प्रवेश कर , कान से निकल जाएं। काजल की कोठरी से कालिख मुंह पर लगा कर ही निकल रहे हैं। 

लखनऊ में फ़िल्म निर्देशक मुजफ्फर अली रहते हैं। उन की चार पत्नियां हैं। चारों हिंदू हैं। अभी वह कैसरबाग़ की अपनी हवेली में राधा सलूजा के साथ रहते हैं। एक बार उन से बात चली तो कहने लगे बाकी सभी से भी मिलता रहता हूं। उन का ख़याल रखता हूं। बच्चों का भी। एक बड़े संपादक रहे हैं , विनोद मेहता। लखनऊ के ही रहने वाले थे। उन की आत्म कथा भी है लखनऊ ब्वाय नाम से। अब नहीं रहे। पर उन की भी तीन पत्नियां थीं। एक बार बाक़ी की बात चली तो हंसे और बोले , हम दोस्त हैं अब भी। मिलते रहते हैं। सोते रहते हैं। 

मोहन राकेश की चौथी पत्नी अनीता राकेश की आत्मकथा है चंद सतरें और। आज की लेखिकाओं को उसे ज़रूर पढ़ना चाहिए। जानना चाहिए कि असहमति की भी एक सभ्यता होती है। चंद्रकिरण सोनरिक्सा की पिंजरे की मैना , प्रभा खेतान की अन्या से अनन्या और अजित कौर की खानाबदोश भी। बहुत यातना जी है , इन लेखिकाओं ने अपने प्रेमियों से जो बाद में पति भी बने। मन्नू भंडारी की आत्मकथा भी कम नहीं है। महादेवी वर्मा का दांपत्य भी सर्वदा खटाई में रहा। अभिव्यक्ति की आज़ादी तो उन के पास भी थी। लेकिन लगता है आज की स्त्रियां सत्तर के दशक में आई मलयाली लेखिका कमला दास की आत्मकथा माई स्टोरी की मारी हुई हैं। रमणिका गुप्ता , कृष्णा अग्निहोत्री आदि की आत्मकथा की मारी हुई हैं। स्वछंदता में पुरुषों से कंधे से कंधा मिला कर खड़ी हैं। फिर चाहती हैं कि स्त्री वाली सुरक्षा और सम्मान भी मिले। मनुस्मृति में वर्णित : यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः ।/ यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः ।। वाला सम्मान भी मिले। ज़िक्र ज़रूरी है कि सम्मान स्वार्थ से , देह से या पैसे ख़रीदने की वस्तु नहीं है। इसी लिए मातृत्व का सम्मान है। पूरी दुनिया में है। यह स्त्री का सम्मान है। 

लेकिन आजकल की स्त्री लेखिकाएं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की इतनी मारी हुई हैं कि अपने मातृत्व को भी , गाली दे रही हैं। अपनी मातृ सत्ता को भूल गई हैं। भूल गई हैं कि मां ही पुरुषों का कुम्हार होती हैं। जैसा गढ़ती हैं , पुरुष , वही हमारे सामने आता है। ऐसे असभ्य पुरुष का निर्माण करने वाली स्त्रियों को इस बिंदु पर भी अवश्य विचार करना चाहिए। विचार करना चाहिए कि प्रकृति ने छुरा और खरबूजा का उदाहरण ऐसे ही नहीं बना रखा है। पर क्या कीजिएगा कुछ शातिर पुरुषों ने औरतों को भोगने के लिए एक बड़ा जुमला चला दिया मृदुला गर्ग के चितकोबरा पीरियड में कि स्त्रियों की देह उन की अपनी है , जैसे चाहें इस्तेमाल करें। मूर्ख स्त्रियां इस बहकावे में दौड़ गईं। अभी भी दौड़ती जा रही हैं। रुकने वाली नहीं हैं। 

यह भी सही है कि पुरुष , स्त्रियों को सभ्य और सुरक्षित समाज देने में अभी तक असफल रहे हैं। लेकिन स्त्रियां भी पितृ सत्ता की गालियां दे कर अपना समाज भी बदरंग करने में बहुत पीछे नहीं हैं। दोनों को मिलजुल कर अपने समाज को ख़ास कर लेखक समाज को सभ्य और बेहतर बनाना चाहिए। भारतीय जनमानस राजनीति , फिल्म , क़ानून आदि समाज की अपेक्षा लेखक समाज को ज़्यादा सम्मान से देखता है और लेखक समाज से नैतिकता , शुचिता और आदर्श की सर्वदा अपेक्षा रखता है। 

स्त्रियों का खुले कपड़े पहनना , शराब , सिगरेट पीना , इन के , उन के साथ घूमना अब सामान्य बात हो चली है। यह कोई टैबू नहीं रहा अब। फिर भी ऐसी स्त्रियों का प्रतिशत अभी भी बहुत कम है। ऐसी अनेक लेखिकाओं और पत्रकार स्त्रियों को जानता हूं जो ख़ूब धूम-धड़ाके से शराब , सिगरेट पीती हैं। कुछ तो डट कर पीती हैं। लेकिन इस का मतलब यह हरगिज नहीं है कि वह इस बांह से उस बांह में जाने वाली भी होती हैं। फिर होती भी हैं तो ऐसी स्त्रियों की संख्या मुट्ठी भर ही है। कुछ स्त्रियां मदिरा गोष्ठी में साथ तो बैठ जाती हैं , पर मदिरा नहीं सॉफ्ट ड्रिंक ले लेती हैं। कुछ सॉफ्ट ड्रिंक में मिला कर भी ले लेती हैं। पर यह सब मिला कर भी ऐसी स्त्रियां कोई दस-पंद्रह प्रतिशत ही हैं। नब्बे प्रतिशत स्त्रियां इन चीज़ों से बहुत दूर हैं। फिर किसी स्त्री को , उस के लेखन और व्यक्तित्व को मापने के अनेक पैमाने हैं। सब को इन पैमानों पर खरा उतरने की बाध्यता नहीं होती। मैं बस इतना ही जानता हूं कि रचा ही बचा रह जाता है। और कि जो रचनाकार स्त्री हो या पुरुष अच्छा इंसान नहीं हो सकता , अच्छा लेखक भी क्या ख़ाक होगा ? होगा तो होता रहे। 

यह टिप्पणी लिखते समय ही नई धारा की आज की यह दूसरी लिबलिब पोस्ट भी दिख गई है। पढ़िए और बताइए नई धारा के कर्ताधर्ताओं को कि अपने इस कब्ज की बीमारी को दूर करें। खुल कर सामने आएं। बताइए कि उन के राइटर्स रेजीडेंसी के कार्यक्रम ने हिंदी समाज के लेखकों का बहुत नुक़सान किया है। ख़ास कर स्त्री समाज का। जो संस्था किसी स्त्री की शुचिता की रक्षा करने में असमर्थ हो , वह संस्था कैसे किसी दोषी को , यौन अपराधी के आरोपी को मुक्त कर जाने की इजाजत दे देती है। पुलिस नहीं , न सही , पटना के लेखक समाज को सही तुरंत बुला कर विचार विमर्श कर सकती थी। क्यों नहीं किया। फिर जब बिहार में शराब बंदी है तो राइटर्स रेजीडेंसी में यह शराब की बोतल कैसे आ गई भला। सुनते हैं रोज ही मदिरा गोष्ठी होती थी। क्या अब भी होती है ? 

नई धारा की आज की पोस्ट :

‘नई धारा राइटर्स रेजीडेन्‍सी’ के बारे सोशल मीडिया में हो रही चर्चा पर ‘नई धारा’ ने अब तक बहुत कुछ नहीं कहा, क्योंकि जाँच की शुरुआत में ही शिकायतकर्ता ने उनकी निजता बनाये रखने का अनुरोध किया था, और कानूनी तौर पर निजता उनका हक भी है। अब जबकि शिकायतकर्ता ने स्वयं अपने सोशल मीडिया पेज पर सार्वजनिक रूप से इस विषय में बात की है, हम कुछ और बातें आपके साथ साझा करना चाहते हैं। उनकी पोस्‍ट में ही साफ है कि हमने वही कदम उठाए, जिनका उन्‍होंने अनुरोध किया था।   

सबसे पहले, तो हम ‘राइटर्स रेज़िडेंसी’ में हुई इस घटना, उसके सार्वजनिक होने और सोशल मीडिया में शिकायतकर्ता की पहचान को उजागर करने, उनका चरित्र हनन करने की भर्त्‍सना करते हैं। हम अपने प्रतिभागियों की निजता, सुरक्षा और सम्‍मान के प्रति प्रतिबद्ध हैं और शुरुआत से ही शिकायतकर्ता के साथ खड़े रहे हैं तथा अब भी खड़े हैं। शिकायतकर्ता ने मांग की थी कि या तो कृष्ण कल्पित लिखित तौर पर माफ़ी मांगें, या फिर उन्हें कार्यक्रम से हटा दिया जाए। जांच के दौरान कृष्ण कल्पित ने आरोपों को सिरे से खारिज करते हुए माफ़ी मांगने से इनकार कर दिया। इसके बाद तत्‍काल प्रभाव से उनकी ‘रेज़िडेंसी’ समाप्‍त कर दी गई और उन्‍हें वापस जाने के लिए कह दिया गया। अगले दिन वे रेजीडेन्‍सी से जा चुके थे।

शिवांगी गोयल ने रेज़िडेंसी जारी रखनी चाही और वे आज भी हमारी अतिथि हैं। वे रेज़िडेंसी की पहले से निर्धारित अंतिम तिथि तक यहां रहेंगी। वे ‘नई धारा’ द्वारा इस मामले पर कार्यवाई से पूर्णतः संतुष्ट हैं। चौतरफा दबावों के बीच भी इस नीति पर कायम रहने के लिए हमारी सम्‍मानित अतिथि ने लिखित तौर पर हमारे इस रुख की सराहना की है। 

हमें उम्‍मीद है कि यह वक्तव्य चली आ रही तमाम अटकलों पर पूर्ण विराम लगाएगा।


नोट : जानना यह भी दिलचस्प है कि यह फोटुएं , कौन खींच रहा है , कौन प्रसारित कर रहा है। कोई पर्दाफाश करे , इस का भी। 








Sunday, 29 June 2025

शिवांगी गोयल बच्ची , तुम सीधे-सीध एक एफ़ आई आर क्यों नहीं लिखवा देती ?

दयानंद पांडेय

शिवांगी गोयल बच्ची , तुम सीधे-सीध एक एफ़ आई आर क्यों नहीं लिखवा देती ? कब तक लेखकों को कुत्तों की तरह आपस में लड़ाती रहोगी ? सोशल मीडिया पर चूहा-बिल्ली खेलने से कुछ नहीं होने वाला। सोशल मीडिया पर तुम्हारी तरफदारी करने वाले क्रांतिकारी लोग तुम्हारी बदनामी की इबारत लिख रहे हैं। तुम्हारा मजाक उड़ा रहे हैं। अफ़सोस कि तुम्हें इस का पता तक नहीं। कैसी कवयित्री हो ? ऐसे ही कविता लिखती हो ? सारे क़ानून तुम्हारे पक्ष में हैं। अदालतों में भी तुम्हारी जय-जय होगी l

POSH Act तक लगवा सकती हो। राजेंद्र यादव से ज़्यादा दुर्गति हो जाएगी कृष्ण कल्पित की। ज्योति कुमारी प्रसंग में तो विभूति नारायण राय ने राजेंद्र यादव को जेल जाने से बचा लिया था। तुम्हें मालूम होना चाहिए कि सार्वजनिक स्थल पर यौन उत्पीड़न से निबटने के लिए 1997 में सुप्रीम कोर्ट ने विशाखा बनाम राजस्थान राज्य मामले में विशाखा गाइडलाइंस स्थापित की थीं। ये गाइडलाइंस 2013 में यौन उत्पीड़न (निवारण, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 (POSH Act) लागू होने तक रही। अब POSH Act ने इसकी जगह ले ली है। इसमें विशाखा गाइडलाइंस की मूल भावना और सिद्धांत अब भी शामिल हैं। इस कारण राइटर्स रेज़िडेंसी की यह घटना POSH Act के तहत कार्यस्थल के रूप में गिनी जाएगी।

अलग बात है कि राजेंद्र यादव की इसी शॉक में सांस चली गई। उन की घाघरा पलटन बस मुंह बाए देखती रह गई। गौरतलब है कि एक समय बहुत आजिज आ कर यह घाघरा पलटन शब्द मन्नू भंडारी ने राजेंद्र यादव के लिए इस्तेमाल किया था। यहां भी यह उसी अर्थ में प्रयुक्त है। बहरहाल , विभूति नारायण राय भी राजेंद्र यादव को इस शॉक और मृत्यु से नहीं बचा पाए। पर क़ानूनी लाज से बचा ले गए। एफ आई आर में नामजद होने के बावजूद। सारा प्रोटोकाल , सारी वरिष्ठता भूल कर रात भर दरियागंज थाने में राजेंद्र यादव के साथ बैठे रहे कि पुलिस उन के साथ पुलिसियापन न करे। सुबह थाने से छुड़ा ले गए। जेल नहीं जाने दिया। जब की उन्हीं आरोप और धाराओं में उन का ड्राइवर उसी समय जेल भेजा गया। लंबे समय तक तिहाड़ी बना रहा।

कृष्ण कल्पित के पास तो कोई विभूति नारायण राय भी नहीं है। कानूनन जेल और सज़ा दोनों सुनिश्चित है। एफ आई आर लिखवाओ तो सही। लगभग अस्सी फीसदी लेखक समुदाय फ़ेसबुक पर तुम्हारे साथ , तुम्हारे पक्ष में खड़े हैं। तुम को ले कर वामपंथी लेखक दो नहीं , बीस फाड़ हो चुके हैं। उदय प्रकाश जैसे चुके हुए कुछ मुट्ठी भर लेखक कृष्ण कल्पित के पक्ष में आधे - अधूरे ढंग से खड़े दिखते हैं। अवसर आने पर पूरी तरह पलट जाएंगे। तुम्हारे साथ खड़े दिख रहे नब्बे प्रतिशत लेखक भी पक्का पलट जाएंगे। अदालत , पुलिस जाना हो तो एक प्रतिशत ही शायद खड़े मिलेंगे। यह लेखक क़ौम है ही इसी स्वाभाव की। ड्राइंग रूम में बैठ कर क्रांति की पिंगल छांटने वाले , सोशल मीडिया के क्रांतिकारी हैं। अवसरवादी हैं। अवसर पर साथ लेकिन नहीं देते। बहाना , ख़ामोशी और कायरता इन के स्थाई स्वभाव हैं।

नई धारा की ओर से संक्षिप्त सफाई और निर्णायक मंडल के एक सदस्य प्रियदर्शन की फ़ेसबुक टिप्पणी कम से कम तुम्हारे पक्ष में खड़ी नहीं दिखती। अपनी सफाई रखते हुए , अपना चेहरा साफ़ करने की क़वायद भर है। तुम्हारी अस्मिता , तुम्हारे अपमान की उन्हें कोई चिंता नहीं। चिंता है तो बस अपनी। अपने संस्थान और अपने चेहरे की। तुम को क्या लगता हैं राम ने रावण से युद्ध सीता के लिए लड़ा था ? ऐसा सोचती हो तो बिलकुल ग़लत सोचती हो। राम ने रावण से युद्ध अपनी प्रतिष्ठा के लिए लड़ा था। अपना चेहरा साफ़ करने के लिए लड़ा था। उन की चिंता थी कि बिना सीता अयोध्या लौट कर वह लोगों को क्या जवाब देंगे। तुलसी की रामायण में तो नहीं पर वाल्मीकि रामायण में राम की इस चिंता के इस के स्पष्ट विवरण उपस्थित हैं। यह कुछ लेखक जो तुम्हारे साथ सोशल मीडिया पर खड़े दिख रहे हैं राम की तरह अपनी उसी प्रतिष्ठा के तहत उपस्थित हैं। अपनी-अपनी अयोध्या को एड्रेस करने के लिए। तुम्हारे साथ कोई नहीं खड़ा है। सब की अपनी-अपनी अयोध्या है। और तुम जानती ही हो कि श्रीकांत वर्मा लिख गए हैं कि कोशल में विचारों की कमी है। अगर बात अभी नहीं समझ आई तो लो यह पूरी कविता पढ़ो। शायद बात पूरी समझ आए इस सेना की :

महाराज बधाई हो; महाराज की जय हो !

युद्ध नहीं हुआ –

लौट गये शत्रु ।

वैसे हमारी तैयारी पूरी थी !

चार अक्षौहिणी थीं सेनाएं

दस सहस्र अश्व

लगभग इतने ही हाथी ।

कोई कसर न थी ।

युद्ध होता भी तो

नतीजा यही होता ।

न उनके पास अस्त्र थे

न अश्व

न हाथी

युद्ध हो भी कैसे सकता था !

निहत्थे थे वे ।

उनमें से हरेक अकेला था

और हरेक यह कहता था

प्रत्येक अकेला होता है !

जो भी हो

जय यह आपकी है ।

बधाई हो !

राजसूय पूरा हुआ

आप चक्रवर्ती हुए –

वे सिर्फ़ कुछ प्रश्न छोड़ गये हैं

जैसे कि यह –

कोसल अधिक दिन नहीं टिक सकता

कोसल में विचारों की कमी है ।

तो कोशल की तरह यह सभी भी अधिक दिन तक नहीं टिक सकते। इस लिए भी कि सब के अपने-अपने राजसूय हैं , सब के सब चक्रवर्ती हैं। पर तुम भाग्यशाली हो कि त्रेता नहीं , कलयुग में हो। कोशल न सही , क़ानून सौ फीसद तुम्हारे पक्ष में है। तुम सच कहो , झूठ कहो , यह तुम्हारी मर्जी है। पर तुम्हारा हर कहा , क़ानून के लिए सच है। ऐसे सभी प्रसंग में हर स्त्री का कुछ भी कहा , क़ानून के लिए सच है। क़ानून के पन्ने बताते हैं कि राइटर्स रेजिडेंस भी कार्यस्थल है और कार्यस्थल पर कृष्ण कल्पित के ख़िलाफ़ तुम्हारा कहा POSH Act के क़ाबिल है। बहुत कड़ा क़ानून है यह। ज़मानत दूभर है। बस एक ही समस्या है कि मायके पक्ष से तुम भले व्यवसायी हो पर ससुराल पक्ष से ब्राह्मण हो। और भारतीय राजनीति और वामपंथी लेखकों के गलियारे में जाति बहुत बड़ा फैक्टर है। तथ्य और तर्क से पहले जाति और धर्म पर विचार होता है। फिर किधर खड़ा होना है , तय होता है। ब्राह्मण हो जाना तो ख़ैर हर दृष्टि से अपराध है। वह सर्वदा का दोषी है। रहेगा। स्थापित सत्य है। नो इफ , नो बट। बहुत मुमकिन है कि उदय प्रकाश तुम्हारे इसी ब्राह्मण पक्ष से विचलित हो कर कृष्ण कल्पित के पक्ष में उपस्थित हो गए हों।


इस लिए भी कि अभी कल तक कुछ लेखक लोग कृष्ण कल्पित को ब्राह्मण समझ कर पूरी ताक़त से प्रहार कर रहे थे , यह जानते ही कि वह बढ़ई हैं या कोई ओ बी सी हैं , उन के प्रहार क्षीड़ होते गए हैं। वैसे भी तुम वामपंथ खेमे के प्लस-माइनस भी ख़ूब जानती होगी। एक सांसद चंद्रशेखर दुराचारी होने के बाद भी सिर्फ़ इस लिए सुरक्षित है कि वह दलित है। गो कि दुराचार भी दलित के साथ ही संपन्न हुआ है। और निरंतर। नियमित। पर इस ख़बर पर सारे के सारे सिरे से ख़ामोश हैं। एक पत्ता भी नहीं खड़का है।

बहुत समय नहीं बीते एक दुराचारी खुर्शीद अनवर को बचाने के लिए यही वामपंथी लेखक समुदाय पूरे प्राण से लगा हुआ था। उसे शहीद और महान बताने में बड़े-बड़े लेखक और संपादक खर्च हो गए थे। एक आंदोलन में शामिल होने के लिए दिल्ली आई हुई नार्थ ईस्ट की उस लड़की के साथ यह लेखक बहादुर लोग नहीं खड़े हुए। दुराचारी खुर्शीद अनवर को बचाने में लग गए। वह तो जब वह क़ानूनी रूप से घिर गया तो बालकनी से छलांग मार कर मर गया। यह कमज़र्फ फिर उसे शहीद बताने लगे। खुर्शीद अनवर भी शराब के नशे में उस नार्थ ईस्ट की बेटी के साथ बलात्कारी बन गया था।

कम से कम अपनी सफाई में खुर्शीद अनवर ने यही बताया था कि आंदोलन की थकान उतारने के लिए शराब पी और शराब का नशा उतारने में बलात्कार हो गया। जनसत्ता के तत्कालीन संपादक ओम थानवी ने खुर्शीद अनवर की ताजपोशी और उस की मासूमियत के बखान में लेख लिखे। गो कि ओम थानवी वामपंथी नहीं हैं। पर कंधे से कंधा मिला कर चलने की बीमारी उन्हें है , तो है। लेखक तो लेखक , लेखिकाएं और आगे हैं। कोसो आगे।

नया ज्ञानोदय में जब विभूति नारायण राय ने कुछ छिनार लेखिकाओं को संकेतों में इंगित कर दिया तो विभूति के पक्ष में बहुत से लेखक ही नहीं , लेखिकाओं ने भी शहर-शहर विभूति के पक्ष में हस्ताक्षर अभियान चलाए। जुलूस निकाले। हालां कि भले अप्रिय और अभद्र बात विभूति ने कही थी पर सच कही थी। फिर भी अपनी वाइस चांसलरी बचाने के लिए तुरत-फुरत माफ़ी मांग ली थी। रवींद्र कालिया ने भी।

तो सर्वदा इनाम-इकराम , मुफ्त की यात्रा की लालसा-अभिलाषा में सांस लेने वाले यह हिंदी के बेरीढ़ लेखक कितना तुम्हारे साथ खड़े होंगे और लड़ेंगे , वह भी नहीं जानते। इधर-उधर होने में तनिक देर नहीं लगती इन्हें। लेकिन भारतीय क़ानून तुम्हारे पक्ष में पूरी तरह शत-प्रतिशत खड़ा है। तुम कैसी कविता लिखती हो , नहीं जानता। तुम्हारा जीवन , तुम्हारी अभिलाषा क्या है नहीं जानता। कुछ लोग कह रहे हैं कि इस बहाने तुम्हें बहुत प्रसिद्धि मिल गई है। तुम ने प्रसिद्धि के लिए ही यह सारा तानाबाना बुना है। मैं ऐसी बातों और ऐसी प्रसिद्धि से सहमत नहीं होना चाहता। दुहराता हूं वह सवाल फिर से कि : शिवांगी गोयल बच्ची , तुम सीधे-सीध एक एफ़ आई आर क्यों नहीं लिखवा देती ? कब तक लेखकों को कुत्तों की तरह आपस में लड़ाती रहोगी ?

देवेंद्र कुमार की एक लंबी कविता है बहस ज़रूरी है। उस के दो छोटे अंश है :

समन्वय, समझौता, कुल मिला कर
अक्षमता का दुष्परिणाम है
जौहर का किस्सा सुना होगा
काश! महारानी पद्मिनी, चिता में जलने के बजाए
सोलह हजार रानियों के साथ लैस हो कर
चित्तौड़ के किले की रक्षा करते हुए
मरी नहीं, मारी गई होती
तब शायद तुम्हारा और तुम्हारे देश का भविष्य
कुछ और होता!
यही आज का तकाजा है
वरना कौन प्रजा, कौन राजा है?

(बहस जरूरी है)

दिक्कत है कि तुम सोचते भी नहीं
सिर्फ दुम दबा कर भूंकते हो
और लीक पर चलते-चलते एक दिन खुद
लीक बन जाते हो
दोपहर को धूप में जब ऊपर का चमड़ा चलता है
तो सारा गुस्सा बैल की पीठ पर उतरता है
कुदाल,
मिट्टी के बजाय ईंट-पत्थर पर पड़ती है
और एकाएक छटकती है
तो अपना ही पैर लहुलुहान कर बैठते हो
मिलजुल कर उसे खेत से हटा नहीं सकते?

(बहस जरूरी है)

तो बच्ची , सोशल मीडिया पर ही नहीं , क़ानूनी रूप से लड़ो। सोशल मीडिया के जौहर से निकलो। माता - पिता ने इतना सुंदर नाम दिया है तो अपने शिवांगी नाम के अर्थ को भी तनिक समझो और इसे जियो।

Thursday, 26 June 2025

किसी से कुछ कहना क्या , किसी से कुछ सुनना क्या !

दयानंद पांडेय


ग्रेटर नोएडा वेस्ट की हमारी सोसाइटी में रात दो बजे भी कोई अकेली औरत टहल सकती है l निर्भय l निर्द्वंद्व l टहलती दिखती भी हैं कुछ औरतें l रात देर तक जागने के कारण बालकनी से जब-तब देखता भी हूं यह स्त्रियों का बेखटक टहलना l पचास एकड़ की इस सोसाइटी में कुत्तों से भले कोई डरे पर किसी और से नहीं l


लेकिन बीते दिनों एक रात दुर्भाग्यपूर्ण घटना घटी l

एक लड़की रोज़ की तरह आधी रात टहल रही थी l दो शोहदों ने उस के साथ छेड़खानी की l अभद्रता की l बाद में पता चला कि वह दोनों लड़के पिए हुए भी थे l लड़की कॉरपोरेट सेक्टर में काम करती है l उस ने घर जा कर तुरंत यह बात बताई l उस के पिता ने तुरंत यह बात सोसाइटी के वाट्सअप ग्रुप पर विस्तार से लिख दी l आधी रात हंगामा हो गया l रात भर वाट्सअप ग्रुप पर क्रांति होती रही l लेकिन दूसरी सुबह लड़की के पिता ने पुलिस को भी इनफ़ॉर्म किया l पुलिस आई l लड़कों की शिनाख़्त हुई l पता चला वह दोनों लड़के एक फ्लैट में किराएदार थे l बैचलर थे l शराब पी कर मस्ती कर रहे थे l हफ़्ते भर पहले ही किराएदार बन कर सोसाइटी में आए थे l

पूरी सोसाइटी के लोग इकट्ठे हुए l मीटिंग हुई l मेंटेनेंस से मकान मालिक का नंबर ले कर मकान मालिक से संपर्क किया गया l पुलिस ने तो उन दोनों लड़कों को थाने ले जा कर टाइट किया ही , मकान मालिक ने भी उसी दिन घर ख़ाली करने को कह दिया l दूसरी सुबह वह लड़के इस सोसाइटी से मय सामान के घर ख़ाली कर गए l फिर दुबारा नहीं दिखे l इस मसले पर पूरी सोसाइटी एक हो गई l आपस में बहुतों के बहुत मतभेद थे , झगड़े और विवाद थे पर सब कुछ , सब लोग भुला कर एकजुट हो गए l शोहदों को बेइज्जत हो कर भागना पड़ा l सोसाइटी में वैसे भी बैचलर को किराए पर घर देने की मनाही है l

लड़की के पिता ने वाट्सअप ग्रुप पर ही पूरी सोसाइटी को धन्यवाद ज्ञापित किया l न अपनी पहचान छुपाई , न बेटी की l सब ने उन को सैल्यूट किया l गौर तलब है कि वह लड़की या अन्य स्त्रियां आज भी सोसाइटी में बेधड़क टहलती हैं l जब चाहती हैं तब l आधी रात भी l

बहरहाल एक छोटी सी सोसाइटी में एक लड़की से छेड़खानी पर पूरी सोसाइटी में एकजुटता दिखी और परिणाम भी तुरंत मिला l पर क्रांति की अलख जगाने वाले , व्यवस्था परिवर्तन की बात करने वाले , मोदी , ट्रंप की रोज माँ-बहन करने वाले हिंदी लेखक ऐसे किसी मसले पर एकजुट नहीं हो सकते l आधी रात भी l जान सभी गए पर आहिस्ता-आहिस्ता l गोया रुख़ से सरकती जाए है नक़ाब आहिस्ता-आहिस्ता !

एक लंपट और शराबी लेखक का नाम लेने में , उस की निंदा करने में लेखक लोग भयभीत हो गए l हाई हैडेड स्त्री लेखिकाएं भी हिजाब ओढ़ कर बैठ गईं l घाघरा पलटन टाइप लेखिकाएं भी गुदगुदा कर रह गईं l अजब है हमारा हिंदी लेखक समाज भी l राजनीतिक दलाली करने वाले लेखकों से , अपनी अम्मा और आत्मा बेच कर एजेंडा चलाने वाले लेखकों से तो कोई उम्मीद करना अपने ही से घात करना है l

पुनश्च : बात बेबात फेसबुक पर हवा ख़ारिज करने और विवादित रहने की बीमारी से ग्रसित कृष्ण कल्पित इस पूरे मसले पर सिरे से ख़ामोश हैं। और वह कहते हैं न कि जग अभी जीता नहीं है और मैं अभी हारा नहीं हूं कि ध्वनि भी है। शिवांगी गोयल की कोई बात सामने नहीं आई है। कयास भी बहुत सारे हैं। फिर भी यह एक पोस्टर भी तैर रहा है। बाक़ी रमानाथ अवस्थी की गीत पंक्ति है : किसी से कुछ कहना क्या , किसी से कुछ सुनना क्या , अभी तो और चलना है ! अभी तो और थकना है।

Wednesday, 18 June 2025

सोने की टोटी वाला सद्दाम हुसैन जब भिखारियों की तरह मिला

दयानंद पांडेय

एक समय था कि इराक़ का तानाशाह सद्दाम हुसैन अपने बाथरूम में सोने की टोटी लगाए था l सोने के टोटी से आए पानी से नहाता था l पर अपने अंतिम समय में अखिलेश यादव की तरह सोने की टोटी , टाईल नहीं ले जा पाया l लेकिन तब के दिनों अमरीका और उस के 35 मित्र राष्ट्रों को लंबे समय तक छकाता रहा l मित्र राष्ट्र की सेनाएं रोज़ ऐलान करतीं कि आज इतने टैंक मारे l यह किया , वह किया l पर सचमुच कुछ नहीं l क्यों कि सद्दाम हुसैन ने जगह-जगह रबर के टैंक खड़े किए था l रोज़ यही खड़े कर देता था l

अमरीका और मित्र राष्ट्र हवाई हमला कर ख़ुश रहते l पर सद्दाम हुसैन का यह झांसा बहुत दिन नहीं चल पाया l अपना भूमिगत महल छोड़ कर सद्दाम हुसैन को भागना पड़ा l अमरीकी सैनिकों ने जब सद्दाम हुसैन को गिरफ़्तार किया तब वह एक कच्चे , मिट्टी वाले बंकर में लेटा हुआ मिला l बंकर क्या लगभग कब्र थी वह l ऊपर लकड़ी के पटरे से ख़ुद को ढँक कर छुपा पड़ा था l दीनहीन दशा में l भिखरियों की तरह l लस्त-पस्त l

यहाँ तक कि गिरफ़्तार होने के बाद भी वह लगातार बताता रहा कि मैं सद्दाम हुसैन नहीं हूं l लेकिन भिखारियों की तरह दिखने वाला वह सद्दाम हुसैन ही था l अंतत: सद्दाम हुसैन को फाँसी हुई l

मुस्लिम जगत में मातम मना l

अब वह एक था सद्दाम हुसैन कहलाने के क़ाबिल भी नहीं रहा l मुस्लिम जगत ही उसे भूल चुका है l सद्दाम हुसैन को अपने रासायनिक हथियारों पर बड़ा भरोसा था l मुस्लिम ब्रदरहुड पर बड़ा भरोसा था l और सब से बड़ी बात कि तेल के कुएं पर बड़ा नाज़ था l पर उस की ज़िद , सनक और तानाशाही में कुछ काम न आया l

ईरान के ख़ोमाईंनी भी अब सद्दाम हुसैन की राह पर चलते हुए उसी दुर्गति को प्राप्त होने को उत्सुक दिखते हैं l किसी अज्ञात बंकर में छुपे हुए l एक पुरानी कहावत याद आती है कि बातें चाहे कोई जितनी और जैसी भी कर ले पर उछलना अपने ही दम पर चाहिए l इस लिए भी कि मुस्लिम ब्रदरहुड की सरहद सिर्फ़ आतंक तक ही है l

सीधी लड़ाई में अब मुस्लिम ब्रदरहुड अपनी हैसियत जितनी जल्दी जान ले बेहतर है l तेल के कुएं अब उस का कवच-कुंडल बनने को तैयार नहीं हैं l तेल के कुएं , आतंक और ख़ून खराबा करने का लाइसेंस जब देते थे , तब देते थे l अब वह दिन विदा हुए l

विदा हुए वह दिन जब तलवार के दम पर पारसियों के ईरान को मुस्लिम ईरान बना कर उसे जहन्नुम बना दिया l आतंक का पर्याय बना दिया l यह तलवार नहीं , विज्ञान , तकनीक , डिप्लोमेसी और बुद्धि का दिन है l मनुष्यता और व्यवसाय का है l अब हर चीज़ का विकल्प है l तेल और तेल के कुएं का भी l सर्वदा आतंक की ध्वजा फहराने वाले मुस्लिम ब्रदरहुड के तहस-नहस का भी l

ट्रंप और नेतन्याहू मोदी की तरह ढकोसलेबाज़ नहीं हैं

दयानंद पांडेय


यह अच्छा ही है कि नेतन्याहू और ट्रंप नरेंद्र मोदी की तरह सब का साथ , सब का विकास और सब का विश्वास जैसे ढकोसले में नहीं पड़ते l अर्जुन की तरह सीधे मछली की आंख देख रहे हैं l उन की नज़र में ही नहीं , उन की कार्रवाई में भी आतंकी , आतंकी दिख रहा है l ईरान जिस तरह तमाम इस्लामिक आतंकी संगठन खड़े कर दुनिया में आतंक का तराना गाता रहता है , उसे करेक्ट करना बहुत ज़रूरी है l बहुत ज़रूरी l

नेतन्याहू ने खोमैनी को आगाह किया है कि सद्दाम हुसैन जैसी दुर्गति हो सकती है l ख़बर यह भी है कि खोमैनी , ट्रंप की हत्या की फ़िराक़ में था l ट्रंप और अमरीका दोनों ही गुंडई में मास्टर हैं l नेतन्याहू जुनून से लबालब l इस्लामिक ब्रदरहुड के नाम पर आतंक का सफाया बहुत ज़रूरी है l इस दुनिया से विदा होना ही चाहिए आतंक का हर कोना l हर हाल होना चाहिए l

मनुष्यता और शांति के लिए यह बहुत ज़रूरी है l तेल के कुएं, मनुष्य का ख़ून बहाने का लाइसेंस नहीं है , यह बात हर किसी को जान लेने में ही भलाई है l

अलग बात है इस पूरे परिदृश्य में भारत की स्थिति त्रिशंकु जैसी है l भारत , चीन , टर्की और पाकिस्तान को छोड़ कर हर किसी के साथ है l रूस के साथ भी , अमरीका के साथ भी l ईरान के साथ भी , इजराइल के साथ भी l

लिख कर रख लीजिए कि तमाम इफ बट के बावजूद तीसरा विश्व युद्ध नहीं होना है , न परमाणु युद्ध l लेकिन इस्लामिक आतंकवाद इतना ख़तरनाक है कि अगर उस के पास परमाणु बम हो तो जाने क्या कर दे l

पाकिस्तान के परमाणु बम की कुंजी , अमरीका के हाथ है इस लिए उस के हाथ बंधे हुए हैं l ईरान , परमाणु बम बनाए , अमरीका इसी लिए नहीं चाहता l उस की दादागिरी को घाव भी लगता है l इजराइल इस मुहिम में अमरीका का सहचर है l रूस और चीन, अमरीका के ख़िलाफ़ होते हुए भी , प्रेक्षक l भारत त्रिशंकु ! इधर का होते हुए भी उधर का दिखाई देता है l उधर का होता हुए भी इधर का दिखाई देता है l

सरकार अगर मोदी की नहीं , किसी और की होती तब भी शायद यही मंजर होता l आप्रेशन सिंदूर प्रसंग में कांग्रेस तो तुर्कीए का नाम लेने में भी कांप जाती है l नहीं लेती l मुस्लिम वोट बैंक का भय है कांग्रेस को l भारत से ही आज काले कपड़े पहने एक समूह का वीडियो आया है l जिस में नारा लग रहा है : ईरान से आवाज़ आई , शिया-सुन्नी भाई-भाई ! इस लिए मोदी सरकार मुसलमानों के दंगे और हिंसा से डरती है l बुरी तरह भयभीत !

और दुनिया ?

इस्लामिक आतंकवाद से तो समूची दुनिया डरती है l चीन और रूस भी l कई मुस्लिम देश भी l

Friday, 6 June 2025

भारत की डिप्लोमेसी का यह सूर्य समूची दुनिया में चमक रहा है

दयानंद पांडेय


एलन मस्क और ट्रंप कुत्ते-बिल्ली की तरह लड़ने लगे हैं। ट्रंप के स्त्रियों के साथ आपत्तिजनक वीडियो बाज़ार में उतर चुके हैं। एलन मस्क ने ट्रंप को चंदा देने से इंकार कर दिया है। एलन मस्क की कंपनी स्टार लिंक को आज भारत ने सेटेलाइट इंटरनेट का लाइसेंस दे दिया है। आज ही कनाडा के राष्ट्रपति ने जी सेवन में हिस्सा लेने के लिए प्रधानमंत्री को निमंत्रण दे दिया है। आज ही चीन का जानी दुश्मन ताइवान , भारत से हथियार ख़रीदने भारत आ गया है। एप्पल ने डोनाल्ड ट्रंप की 25 प्रतिशत टैरिफ की धमकी के बावजूद भारत में अपनी रणनीति को मजबूत करते हुए टाटा ग्रुप को आईफोन और मैकबुक की मरम्मत का बड़ा जिम्मा सौंप दिया है। टाटा, जो पहले से ही भारत में आईफोन असेंबल करता है। अब कर्नाटक में विस्ट्रॉन की इकाई के साथ मिलकर आफ्टर-सेल्स सर्विस प्रदान करेगा। राफेल का महत्वपूर्ण हिस्सा अब भारत में बनेगा। शशि थरुर , सलमान खुर्शीद , असदुद्दीन ओवैसी , सुप्रिया सुले जैसे तमाम लोग भारत और आपरेशन सिंदूर के यशोगान में हर्षित हैं। और भी बहुतेरी बातें हैं। क्या - क्या गिनवाएं। इस तरह भारत की डिप्लोमेसी का यह सूर्य समूची दुनिया में चमक रहा है।

ताइवान भारत से वही हथियार ख़रीदने आया है , जिन्हों ने आपरेशन सिंदूर में पाकिस्तान को और चीनी हथियारों को उन का रसगुल्ला घुमा कर खिला दिया। सिंधु जल के लिए पाकिस्तान चिट्ठी पर चिट्ठी लिख कर रोज गिड़गिड़ा रहा है। फिर भी एक श्वान बहादुर गांधी निरंतर नरेंदर , सरेंडर की काल्पनिक अंत्याक्षरी के नशे में धुत्त हो कर कह रहा है कि मोदी कुछ बोल नहीं रहा है। इस श्वान बहादुर गांधी को नहीं मालूम कि डिप्लोमेसी भी एक तत्व है। श्वान बहादुर गांधी की तरह सर्वदा पृष्ठ भाग से नहीं भौंका जाता। हताशा में अग्र भाग से शौच नहीं किया जाता। सकारात्मक परिणाम पाने के लिए चालें चुपचाप चली जाती हैं।

जिस कश्मीर को लोग पत्थरबाजी और आतंक के कारण जानते थे , उसी कश्मीर में दुनिया का सब से ऊंचा , पेरिस के एफिल टॉवर से भी ऊंचा , चिनाब पुल भी इस श्वान बहादुर गांधी को नहीं दिखता। श्वान बहादुर गांधी के इस बेसुरे गायन में कुछ लेखक , पत्रकार भी मिले सुर मेरा तुम्हारा के गायन में गच्च हैं। इन नितंब नरेशों ने भेड़ की भीड़ बनने में ही अपने को खर्च करने में व्यस्त कर रखा है। आपरेशन सिंदूर की पीड़ा में उपजे इस आपरेशन को आप क्या नाम देना चाहेंगे ?

यह भी कि श्वान बहादुर गांधी , पाकिस्तान और इन लेखकों , पत्रकारों की युगलबंदी को कौन सा सलाम देना चाहेंगे ? लाल सलाम , कि हरा सलाम ! कि कोई और सलाम !

कि बकरीद मनाने के लिए गटर का ढक्कन चुराने वाले पाकिस्तानियों की बारात में बैंड बजाने के लिए भेज देंगे ? हरिशंकर परसाई का वह लिखा याद कीजिए :

इस देश के बुद्धिजीवी सब शेर हैं। पर वे सियारों की बारात में बैंड बजाते हैं।

आज की तारीख़ में पाकिस्तान वही सियार है और भारत के बुद्धिजीवी वही शेर !

Saturday, 31 May 2025

स्क्रिप्ट से बाहर

दयानंद पांडेय 


देवदार के वृक्ष और पर्वतमाला से घिरे शिमला में भीड़ बहुत है। जगह - जगह ट्रैफिक जाम। रिज मैदान पर वह टहल रहा है। यहां कोई ट्रैफिक जाम नहीं है। क्यों कि कोई भी वाहन प्रतिबंधित है। पर मैदान भरा हुआ है। शहर की ऊंचाई पर बने इस मैदान में दूर - दूर तक कोई दुकान नहीं। सिर्फ़ घोड़े हैं। एक तरफ , चर्च की तरफ। चर्च पर म्यूजिकल प्रोग्राम जारी है। मैदान बड़ा है। इस मैदान में मिट्टी नहीं है। मैदान क्या है सड़क है। सेब बागान छोड़ दीजिए तो शिमला में इस से ज़्यादा खुली जगह कोई और नहीं। मैदान बड़ा है लेकिन यहां बना गेटी थिएटर बहुत छोटा है। ब्रिटिश पीरियड का। लेकिन है ख़ूबसूरत। किसी लड़की की तरह।वह थिएटर में घुस जाता है। कोई म्यूजिकल कार्यक्रम  चल रहा है। थोड़ी देर में बोर हो कर थिएटर से बाहर  निकल कर सड़क पर आ जाता है। यह माल रोड है। लाल टीन की छत वाले ऊबड़ - खाबड़ मकानों को देखते हुए वह सामने सड़क पार की दुकान से सिगरेट ख़रीदता है। सिगरेट सुलगाना चाहता है। दुकानदार टोकते हुए रोकता है , '  यहां मत सुलगाइए। ' 

' क्यों ? ' 

' चालान हो जाएगा। '

' कौन करेगा ? ' वह कहता है , ' पुलिस तो यहां नहीं है। '

' सी सी कैमरे पर देख रही है। सिगरेट सुलगाते ही आ जाएगी। पांच सौ रुपए का चालान। ' 

' तो ? ' 

' नीचे गली में उतर जाइए , सीढ़ियों से। ' 

' ओ के। '

ऊपर सड़क जितनी साफ़ है , गली की सीढ़ी उतनी ही गंदी। ज़्यादा गहरी। सीधी चढ़ाई वाली। चढ़ने - उतरने में सिगरेट से ज़्यादा ख़ुद के सुलग जाने की आहट है। सो सीढ़ी नहीं उतरता। सिगरेट सुलगा नहीं पाता। लौट कर दुकानदार को वापस दे देता है। बगल के बार में घुस जाता है। बोदका मंगा लेता है। उसे मालूम है कि थोड़ी देर बाद उस का नाटक है। नाटक में उस की भूमिका है। रोमेंटिक रोल। फिर भी वह बोदका पी रहा है। जानता है कि बोदका ज़्यादा बदबू नहीं करती। ज़्यादा चढ़ती नहीं। लेडीज ड्रिंक इसी लिए कहा जाता है। धीरे - धीरे तीन पेग हो जाता है। वाट्सअप पर डायरेक्टर का मेसेज आ गया है , ' कहां हो ? ' वह रिप्लाई नहीं करता। थोड़ी देर बाद फिर मेसेज आता है , ' सभी आ गए हैं। तुम्हीं मिसिंग हो। ' वह बार से बाहर आ जाता है। लेडीज ड्रिंक झटका मार रही है। शायद जल्दी - जल्दी के चक्कर में पिकअप ले रही है। वह नीबू पानी खोज रहा है। नहीं है , कहीं। वह धड़धड़ा कर गेटी हाल में घुस जाता है। पहले वाला ही म्यूजिकल कार्यक्रम जारी है। वह घड़ी देखता है। आधा घंटा बाद उस का नाटक है। डायरेक्टर को वाट्सअप करता है , ' मैं यहीं हाल में बैठा हूं। डोंट वरी। '

' ग्रीन रूम में आ जाओ। ' 

वह मेसेज इग्नोर कर जाता है। बैठे - बैठे सो जाता है। भीड़ भड़भड़ा कर बाहर जा रही है। वह उठ कर खड़ा हो जाता है। मोबाईल देखता है। ग्रीन रूम में पहुंचने के कई सारे मेसेज हैं। डायरेक्टर सहित कई और के। जनता बाहर जा रही है , वह स्टेज की सीढ़ी चढ़ रहा है। बोदका का असर उतर रहा है। वह ख़ुश हो रहा है कि नशे में नहीं है। वह ग्रीन रूम में घुसता है। सब एक सुर में शुरू हो जाते हैं , ' आ गया , आ गया ! ' 

वह लड़की जिस के साथ उस का रोमेंटिक रोल है अचानक धीरे से बोलती है , ' एक छोटा सा रिहर्सल एक बार फिर कर लें अभी ? ' 

' कोई ज़रूरत नहीं। ' वह जोड़ता है , ' बहुत रिहर्सल कंफ्यूज करता है। बस तुम अपने डायलॉग थोड़ा सा दोहरा लो अकेले में। ' वह भी उस से धीरे से बोला। वह मुंह फुला कर किनारे हो गई। 

' अब नींद नहीं आती तो तुम भी नहीं आते। ' वह बुदबुदा रही है , ' नींद आती तो सपने आते। सपने में फिर तुम आते। ' वह उसे लगभग घूरती हुई अपने डायलॉग दुहराने में लग गई है , ' कभी बिना सपने के भी आया करो ! '

मेकअप शुरू हो गया है उस का। मेकअप करने वाला पूछ रहा है , ' कुछ पी कर आए हो क्या ? ' वह उसे अनसुना कर देता है। मेकअप ख़त्म होते ही एक साथी से कहता है , ' यार कहीं से नीबू पानी जुगाड़ सकता है ? ' 

' ईनो है लोगे ? ' वह धीरे से बोलता है , ' डाइजीन भी है और पुदीन हरा , हाजमोला भी। ' 

' चूतिए हो ! ' वह बुदबुदाता है। 

' क्या ? ' वह भड़कते हुए पूछता है। 

' कुछ नहीं। ' कह कर वह कास्ट्यूम पहनने लगता है। एक साथी की ज़ेब से सिगरेट निकाल कर सुलगा लेता है। ख़ुद भी सुलगने लगता है। सिगरेट ने मूड ठीक कर दिया है और बोदका का रंग भी खिल गया है। अब वह उत्साह में है। तनाव उतर कर कहीं शिमला की किसी लाल टीन की छत पर आड़े - तिरछे पसर गया है। 

' यार यह थिएटर है भले नन्हा सा पर इस का आर्किटेक्ट और डिजाइन बहुत ही खूबसूरत है। ' 

' ठुमक चलत राम चंद्र बाजत पैजनिया जैसा ! ' एक दूसरा साथी बात पूरी करता है। 

' बिलकुल ! ' यह तीसरा साथी है। 

नाटक शुरू हो गया है। अब वह अपने सीन की प्रतीक्षा में है। स्क्रिप्ट में अपने डायलॉग पढ़ता हुआ। सिगरेट फूंकता हुआ। सोचता है कि काश वह यह सिगरेट माल रोड या रिज मैदान पर टहलते हुए बेधड़क पी सकता। जैसे अपने शहर की सड़कों और पार्कों में पी लेता है। पर यहां तो कर्फ्यू है सिगरेट पर। नैनीताल की माल रोड पर , मसूरी की माल रोड पर , दिल्ली की माल रोड पर तो सिगरेट के लिए कर्फ्यू नहीं है। फिर शिमला में ही क्यों ? 

उस का सीन आ गया है। सिगरेट बुझा कर वह खड़ा हो जाता है। स्टेज पर पहुंचते ही उसे माशूक़ा के साथ गलबहियां करनी है। रोमांस की बरसात करनी है। रूठना , मनाना है। मासूम प्रेमी की भूमिका है। जिसे उस की माशूक़ा ही चुनती है , प्रेम के लिए। वह नहीं। उसे बस प्रेम नदी में बहते रहना है। ऐसे जैसे कोई भरी नाव चलती है नदी के किनारे - किनारे। चलना है और बहना है प्रेम में। वह स्टेज पर है। माशूक़ा का डायलॉग चल रहा है। वह भावातिरेक में है उसे देखता हुआ और सोच रहा है कि काश एक पेग बोदका अभी मिल जाती। वह प्यार करते हुए सिप लेता रहता धीरे - धीरे। उस के नयनों में झांकता हुआ। उस के कपोल पर किंचित अपना कपोल रखते हुए। अधरों से अधर भी मिला लेता। भले यह स्क्रिप्ट में नहीं है। 

' तुम सपनों की बात क्यों करती हो , मैं हूं न तुम्हारे साथ , तुम्हारी हर सांस में ! ' उसे हौले से बाहों में भरते हुए , प्रेम की उम्मीद की रौशनी भरते हुए कहता है , ' कितना तो बेचैन हूं किसी नदी की तरह तुम्हारे प्यार के सागर में समा जाने के लिए। ' उसे आहिस्ता से चूम लेता है। लड़की ठिठक जाती है। बांहों में उलझी हुई , अफनाई हुई , फुसफुसाती है , ' तुम होश में नहीं हो। यह स्क्रिप्ट में नहीं है। '  

' होश कहां रहता है , जब तुम्हें देखता हूं। ' 

परदे के पीछे बैठे लोग यह डायलॉग सुन कर हैरत में हैं। प्रांप्टर बुदबुदाता है , ' स्क्रिप्ट से बाहर निकल गया यह तो। ' डायरेक्टर कहता है , ' लेकिन ठीक जा रहा है। ' वह कहता है , ' डायरेक्टर को ही नहीं , एक्टर को भी कभी - कभी अधिकार होता है स्क्रिप्ट से बाहर निकलने का। कुछ और जोड़ने का। ' 

लड़की ने भी डायलॉग नया गढ़ लिया है , ' इसी लिए तो मैं ख़ुद को तुम्हारे भीतर खोजती रहती हूं। '

' लगता है इन दोनों का लफड़ा आफ स्टेज भी चल रहा है। ' प्रांप्टर बुदबुदाता है। पर अगले ही सीन में दोनों स्क्रिप्ट में लौट आते हैं। सीन चटक हो गया है। ऐसे जैसे कोई हिरणी कुलांचे मार रही हो , लड़की उछलती हुई चल रही है। जैसे कोई तनवंगी नदी। पहाड़ी नदी। जिस पर जल का कोई भार न हो। सिर्फ़ धारा हो। पूरे वेग में बहती धारा। उस के देहाभिनय में लोच आ गया है। मुखाभिनय में प्रेम की ललक। नयनों में कोई नदी उतर आई है। नयनों की नदी में जैसे कोई बाढ़ आ गई है। बाढ़ की छटपटाहट में डूबे नयन से जैसे काजल बह जाना चाहता है। परदे के पीछे बैठा डायरेक्टर बुदबुदाता है , ' एक्सीलेंट ! ' प्रांप्टर और अन्य साथी ख़ामोश। वह सोच रहा है कि क्या यह भी बोदका पी कर आई है ?

सीन बढ़ता जा रहा है। स्क्रिप्ट से बाहर। सीन ख़त्म होने पर वह सीधे ग्रीन रूम में घुस जाता है। प्रांप्टर टोकता है , ' बाहर भी यह कृष्णलीला चल रही है क्या ? ' वह अनसुना कर देता है। डायरेक्टर देखता है प्रशंसा भाव में पर कुछ कहता , टोकता नहीं। थोड़ी देर बाद फिर सीन है। चिक - चिक में वह मूड ख़राब नहीं करना चाहता। सिगरेट सुलगा कर स्क्रिप्ट पर आंख गड़ा देता है। लड़की आती है। वह कुछ कहे-कहे उसे इशारे से स्क्रिप्ट पढ़ने को कह देता है। उस के गाल और बाल सहलाती हुई लड़की भी स्क्रिप्ट में घुस जाती है। ग्रीनरूम में उपस्थित लोग इस दृश्यबंध को भी नोट कर रहे हैं , ललचाई हुई आंखों से। कनखियों से। थोड़ी देर में उस का सीन फिर आ गया है। 

अब की वह दोनों स्क्रिप्ट में हैं। और लय में भी। सीन ख़त्म होने को है। अचानक वह फिर स्क्रिप्ट से बाहर हो गया है। पूछता है नायिका से , ' कभी किसी घर में दो पल्ले वाला दरवाज़ा देखा है ? ' 

' देखा तो है। ' 

' जानती हो , इस में से कोई एक पल्ला भी ख़राब हो जाए तो दरवाज़ा बंद नहीं होता। ' 

' अच्छा ! ' नायिका पुलक कर बोली। 

' हमारा प्यार भी दो पल्लों वाले दरवाज़े की तरह है। एक साथ बंद होने के लिए दोनों बेक़रार रहते हैं। खुलते भी साथ हैं। ' वह बाहें फैलाते हुए बोला , ' आओ हम ऐसे ही बंद हो जाएं और उड़ जाएं नीले आकाश में किसी पक्षी की तरह। ' नायिका भी किसी समुद्री लहर की उछलती हुई आ कर उस की बाहों में झूल गई। धरती पर जैसे कोई आकाश झुके , वह नायिका को बाहों में लिए आहिस्ता से उस पर झुक गया है l दृश्य ऐसा बना जैसे किसी धनुष की प्रत्यंचा खिंच गई हो l किसी बरसात में जैसे हल्की धूप में इंद्रधनुष बन गया हो। ऐसे जैसे राजकपूर और नरगिस वाला आर के फ़िल्म का लोगो। नाटकों में ऐसे दृश्यबंध से डायरेक्टर , एक्टर परहेज करते हैं। ख़ास कर ऐक्ट्रेस। पर यह दृश्य हुआ। अनायास हुआ। स्क्रिप्ट से बाहर हुआ। 

पूरा गेटी हाल तालियों से गूंज गया। परदे के पीछे भी तालियां बज रही थीं। 

नाटक ख़त्म होने पर दर्शकों के सामने साथी कलाकारों के साथ दर्शकों का आभार जताने के लिए खड़े हो कर हाथ जोड़े , सिर झुकाए सोच रहा था कि स्क्रिप्ट से बाहर के अनायास बोले गए संवाद क्या इतना कमाल कर सकते हैं। तीन पेग बोदका का उतरता हुआ नशा क्या एक नया नशा दे सकता है कि संवाद अचानक नए सूझ जाएं। ऐसा भी हो सकता है। कि एक अभिनेता स्क्रिप्ट छोड़ कर भी डायलॉग बोल दे। अभिनेत्री साथ दे दे और दर्शक झूम जाएं। डायरेक्टर को ऐतराज भी न हो ! यह सब कुछ तो हो गया है। छात्र था वह जब तब भी कोर्स से ज़्यादा कोर्स से बाहर की किताबें पढ़ता था। पर यह लड़की ? 

क्या पता !

प्रायोजक ने कलाकारों के रहने का प्रबंध शिमला शहर के किसी होटल में करने के बजाय शिमला से कोई 25-30 किलोमीटर दूर किसी गांव स्थित होटल में किया है। कहने भर को गांव है पर होटल चकाचक है। शहर के होटल से बीस ही है , उन्नीस नहीं। दो दिन अभी शिमला में ही रहना है। शिमला ही घूमना है। दो दिन बाद मुंबई जाना है , यही नाटक करने। चंडीगढ़ से फ़्लाइट है। रात हो रही है। कलाकारों को होटल ले जाने के लिए बस रिज मैदान से एक किलोमीटर दूर खड़ी है। वहां तक पैदल ही जाना है। रिज मैदान पार करते ही रास्ते में छुटपुट दुकानें हैं। सड़क के दोनों तरफ। कहीं कुछ , कहीं कुछ। ऐसे जैसे कोई कस्बा हो। गंवई दुकानें। छोटी - छोटी। ठेले - खोमचे भी। वह सोचता है , यह शिमला है ? सड़क किनारे भुट्टा भूजती एक औरत दिखती है। वह भुट्टा ले लेता है। एक साथी दुकान - दुकान कुछ खोज रहा है। मजा लेते हुए पूछता है वह , ' क्या खोज रहे हो ? '

' टी बैग ! ' 

' अरे चाय तो होटल में भी मिल जाएगी। '

' हां , लेकिन मैं अपनी ही ब्रैंड पीता हूं। ' साथी की ख़ासियत है कि गले में अंगोछा लटकाए वह अपने बैग में बड़ी सी गिलास , पानी की बोतल , शराब की बोतल , सिगरेट , लाइटर और टी बैग हमेशा अपने साथ रखता है। वह कहता भी रहता है , ' अपने बूते रहता हूं। किसी और के भरोसे नहीं। ' 

होटल में कॉकटेल डिनर की तैयारी है। प्रायोजक ने बढ़िया व्यवस्था कर रखी है। हर कोई अपने - अपने जाम में व्यस्त है। कोई - कोई मोबाईल में भी। डायरेक्टर अचानक उस के पास आता है। कहता है , ' तुम्हारे एक्स्ट्रा डायलॉग अच्छे रहे। इसे स्क्रिप्ट में भी डाल देता हूं। '

' ऐज यू विश , सर ! ' कह कर वह डायरेक्टर को जैसे सैल्यूट करता है। दोनों जाम से जाम लड़ाते हैं। यह देख कर कुछ कुढ़ जाते हैं। लड़की आती है , बरबस उस से लिपट जाती है। ऐसे गोया उसे क्या मिल गया हो। वह उस के कपोल आहिस्ता से चूम लेता है। अधरों पर अधर रख देता है। लोग अपलक देखते रह जाते हैं। 

दूसरे दिन शिमला घूमने का प्लान है। वह शिमला का राष्ट्रपति भवन भी देखना चाहता था। पर पास बन नहीं पाया है। सेब के बागान भी देखने हैं। 


[ शब्द-वृक्ष में प्रकाशित ]


तुम्हारे बिना


दयानंद पांडेय  

 

जो ज़िंदगी बन के जीवन में उपस्थित रहा हो , आहिस्ता-आहिस्ता रास्ता बना कर ज़िंदगी से पूरी तरह बाहर हो जाए तो ? लगता है जैसे कोई दर्पण हो , जिस में आप ख़ुद को देखते रहे हों , वह दर्पण ही झन्न से टूट कर चकनाचूर हो गया हो। अब देखूं तो कैसे देखूं भला ख़ुद को। समझ नहीं आता। तुम थी ज़िंदगी में तो जैसे लगता था कि ऐसी ख़ूबसूरत ज़िंदगी कैसे मिल गई मुझे। उस समय के दर्पण में तुम थी , मैं था। किसी हवा की तरह ज़िंदगी में दाख़िल हो कर किसी बेची गई ज़मीन की मानिंद इस तरह दाख़िल खारिज हो जाओगी , कहां जानता था भला। अब जब तुम ज़िंदगी से दाख़िल खारिज हो कर निकल गई हो तो बारंबार ख़ुद से पूछता रहता हूं कि तुम ज़िंदगी थी कि कोई सपना। टूट जाने वाला सपना। 

किरिच-किरिच टूट कर बिखरती रहती हो। रिस-रिस कर कर चूती रहती हो यादों में। गोया कोई खपरैल की छत जगह-जगह से चू रही हो। किसी भारी बारिश में। इतना कि घर में कहीं खड़े होने की जगह भी नहीं मिले। भीगना लाजमी हो जाता है इस चूते हुए पानी में। याद है , तुम्हें बारिश कितनी पसंद थी। बारिश में मेरे साथ चिपके रहना कितना पसंद था। बारिश होती थी और बारिश में भीगता हुआ आंगन में वह दशहरी आम का पेड़ हम देखते रहते और भीगते रहते प्रेम की बारिश में। तुम जानती हो कि मुझे दशहरी आम बहुत पसंद है। दशहरी आम का चूसना और उस की मिठास में डूब कर ही स्त्री के प्रेम की मिठास में डूबा जा सकता है। इस स्वाद के क्या कहने। इतना कि तुम्हारे वक्ष को भी मैं दशहरी कहने लगा था। दशहरी कहते ही तुम पुलक जाती थी और मुझे भरपूर प्रेम करने लगती थी। 

तुम्हारी दशहरी को चूसना , उस की मिठास का भास, एहसास और दशहरी की नशीली खुशबू में तर वह मादक साथ तुम्हारा आज भी सोचता हूं तो भर जाता हूं , तुम्हारे प्यार से। ऐसे जैसे कोई स्त्री पनघट से गगरी भर कर चल रही हो , वैसे ही हुमक-हुमक कर , ठुमक-ठुमक कर चलने लगता हूं। लगता है जैसे मदमस्त हो कर नदी के पुल पर , पूर्णमासी की रात पूरा चांद देखती हुई मेरा हाथ पकड़े तुम अभी भी खड़ी हो। और मैं तुम्हें देख रहा हूं। कभी नदी , कभी चांद , कभी नदी में चांद को , कभी तुम को। आते-जाते लोग , आस-पास खड़े लोग हमें देख रहे हों। जब यह मंज़र याद आता है तो यही सोचता हुआ नदी के पुल पर जा कर खड़ा हो जाता हूं। अकेले। पूर्णमासी हो , न हो। तुम्हारी याद हर रात पूर्णमासी की रात हो जाती है। तुम्हारा दर्पण , तुम्हारे प्यार का दर्पण टूट गया है पर नदी के जल का दर्पण ? नदी से पूछता हूं। नदी कोई उत्तर नहीं देती। 

तुम भी अब उत्तर कहां देती हो। यू डोंट का ताला लगा दिया है , सो अलग। और मैं तुम्हें दिए वायदे के ताले में बंद हूं। कि यस मी डोंट। सो नो फ़ोन , नो मेसेज। नो मुलाक़ात। मैं बहुत डिफरेंट क़िस्म का प्रेमी हूं। दिया हुआ वादा कभी तोड़ता नहीं। घर की शांति को तोड़ता नहीं। सन्नाटा बुन लेता हूं। कोई आवाज़ नहीं देता। लेकिन पल-प्रतिपल आती तुम्हारी याद का क्या करुं भला। शुक्र है कि इस पर तो यू डोंट का ताला नहीं लगाया है तुम ने। तुम्हारी याद क्या आती है , विरह की चिता पर किसी सती की तरह बैठ जाता हूं। धू-धू कर जलने लगता हूं। विरह की इस चिता से सिर्फ़ तुम ही मुझे निकाल सकती हो। लेकिन नहीं निकालोगी , यह बात भी अच्छी तरह जान गया हूं। पर तुम्हारी याद ?

आह , यह तुम्हारी याद और विरह की यह चिता। 

याद है तुम्हें जब भी कभी तुम मिलती थी तो बरखा बन कर। और मैं भी बारिश बन कर बरसने लगता था तुम्हारे भीतर। तुम्हारे भीतर जैसे कोई संगीत बजने लगता था। मद्धम-मद्धम। और मैं किसी जलतरंग की तरह तुम्हारी देह में उतरता था। धीरे-धीरे। तुम्हारे देह सरोवर में। तुम्हारे देह सरोवर में मन की देहरी पुलक-पुलक जाती थी। प्रेम की इस बरखा में भीज कर तुम जैसे वसुंधरा हो जाती थी। भरी-पुरी वसुंधरा। प्रकृति हमें दुलराने लगती थी। सावन की बरखा की तरह। प्रेम की इस बरखा में नहाई हुई धुत्त तुम्हारी निर्वस्त्र देह जैसे कोई अलसाई हुई निढाल सांझ बन जाती थी। ऐसे जैसे पूर्ण चंद्रमा , नदी में उतर आता था। डुबकियां मारता हुआ। कभी डूबता , कभी उतराता। लहरों के बीच खो-खो जाता है जैसे चांद। तुम कहती थी कभी-कभी कि लहरों पर कभी भरोसा मत करना। मैं पूछता था क्यों ? तो तुम कहती थी कि लहरें यहां-वहां छोड़ देती हैं। लहरों का स्वभाव ही है छोड़ देना। लहरों को बस यही आता है। तो क्या तुम भी कोई लहर ही थी। जो मुझे छोड़ कर चली गई। अनायास। नदियां अपने किनारों से मिलती रहती हैं। कभी तो नदी बन जाओ और अपने इस किनारे से मिल जाओ। भले लहर की तरह फिर छोड़ कर चली जाना। 

तुम्हारी यादों का एक पूरा लश्कर है। 

याद है तुम जब भी मिलती थी बाहों में मिलती थी। कभी अवकाश ही नहीं देती थी तुम कि कभी तो अपने आप से भी मिलूं। महकती मीठी यादों में अब भी मिलती हो। बाहों में। काश कि महकती मीठी यादों में समा जाओ हरसिंगार सा अनगिन रंग और उमंग लिए। आ जाओ। तुम कहां हो। हरी घास पर बिछ गए गुलमोहर के नरम फूलों पर बैठ कर बतियाना याद आता है। तुम्हारे गुलमोहर से दहकते होठ याद आते हैं। गुलमोहर के शहद में फिर से डूब जाने को मन करता है। तुम्हारे विशाल और सुडौल उरोज , मृदंग जैसे तुम्हारे नितंब गरदन के पीछे से झांकती तुम्हारी पीठ याद आती है। यू डोंट के तुम्हें दिए गए वादे में बंध तो गया हूं लेकिन लेकिन लगता है कुछ छूट गया है वहां तुम्हारे पास। ऐसे कि जैसे ख़ुद ही छूट गया हूं। वहीं तुम्हारे पास ही। जाने क्या-क्या छोड़ आया हूं।वह धूप, वह बादल , वह बारिश। वह आंखें, वह सपने , वह साज़िश भी। तुम्हें पाने के लिए जिन्हें हज़ार बार तोड़ता रहा। जोड़ता रहा अपने नेह से तुम्हारे भीतर बसे मेह से। यह नेह , वह मेह और उस की शीतल फुहार। तुम्हारे वक्ष पर कपोल रख कर वह मदमाती मनुहार। यह सब भी तो तुम्हारे पास ही छोड़ आया हूं। तुम देखना मेरी अंगुलियां।वहीं कहीं तो नहीं रह गईं। तुम्हें हेरती , तुम्हें सहेजती। तुम्हें थपकी देती। मेरी हथेलियां भी शायद वहीं रह गई हैं। दशहरी को टटोलती। वह मेरे अधर जिन पर तुम ख़ुद बांसुरी बनती नहीं अघा रही थी। और कहती थी तुम कि ऐसे ही मद्धम-मद्धम बजना चाहती हूं तुम्हारे भीतर। कि जैसे मालकोश। क्यों कि इस में ऋषभ और पंचम स्वर नहीं लगते। इसमें गंधार धैवत और निषाद कोमल लगते हैं। रात्रि के तीसरे प्रहर राग भैरवी थाट से निकले। इस मालकोश में तुम हरदम निबद्ध होना चाहती थी। मद्धम-मद्धम। हो सके तो इन सब को सहेज , संभाल कर रखना।किसी सुई-धागे की तरह। क्यों कि बहुत कुछ छूट गया है तुम्हारे पास। बेहिसाब इस मालकोश को भी उस के भैरवी थाट में ही शेष रखना। क्यों कि मैं फिर-फिर आऊंगा। किसी रात्रि के तीसरे प्रहर। तुम्हारे भीतर मद्धम-मद्धम उतरने। उतर कर तुम्हें निबद्ध करने। 

देखो फिर से। कुछ छूट गया है। कि कुछ टूट गया है। वहीं तुम्हारे पास ही। कि टूट गया हूं मैं ही। तुम्हारे पास छूट कर। देखो , मुझे बचा कर रखना। ज़रा देखना तो। कि और क्या-क्या छूटा है वहां। क्यों कि तुम्हें देखने और तुम से बिछड़ने के द्वंद्व में। कुछ ला नहीं पाया अपने साथ। लाता भी भला कैसे कुछ। ख़ुद को तोड़ कर छोड़ आया हूं तुम्हारे पास। तुम्हें याद है जब सर्दियों की धूप में मिलती थी तुम तो तुम्हारे नर्म और गर्म हाथ मेरे हाथ में आ कर कैसे तो पिघलने लगते थे। हमारी सारी सीमाएं टूट जाती थीं। शुरुआती दिनों में हम जब किसी रेस्टोरेंट में चोरी-चोरी मिलते थे तो मैं बहुत परेशान हो जाता था। अच्छा जब एक बार मेट्रो में एकांत पा कर तुम्हें अचानक चूम लिया था , तुम्हें याद है कि तुम सिहर उठी थी। भीड़ के सागर में चलते-चलते जब कभी तुम्हें छूता था तो तुम चिहुंक जाती थी। चिहुंक कर नितांत अपरिचित बन जाती थी। बहुत बाद में तुम ने बताया था कि कई बार तुम्हारा भी मन हुआ मुझे चूम लेने का। लेकिन मारे लाज के स्त्री सुलभ संकोच के कारण सारी इच्छाओं को दबा लेती थी। और हां उस कोहरे भरी दोपहर में हम जब नदी किनारे हाथ में हाथ लिए बैठे थे तभी जल में एक मछली निकल कर छपाक से नदी में फिर कूद गई थी और तुम ज़ोर से चिल्लाई थी , अरे ! और मेरी गोद में गिर गई थी। ऐसे जैसे कोई दीवार गिर जाए। 

बड़ी देर तक मैं तुम्हारी पीठ को थपकी देता रहा। हाथ जब अनायास पीठ से होते हुए , पहले नितंब पर थपकी देने लगे और सहसा , अनायास  वक्ष की तरफ बढ़ गए तो तुम चिहुंक कर उठ बैठी थी। और बहुत सख्ती से बोली थी , नो ! थोड़ी देर बाद अपनी शॉल मुझ से शेयर करती हुई तुम ने धीरे से पूछा था , कोहरे में ठंड नहीं होती क्या।  मैं ने धीरे से ही बताया भी था कि नहीं होती। तो तुम बुदबुदाई थी कि हां , जानती हूं कि जब मैं साथ होती हूं तो तुम्हें ठंड नहीं लगती। फिर पलट कर पूछा था लेकिन भूख क्या भूख भी नहीं लगती ? जवाब में मैं ने कहा था कि इस मस्त कोहरे में तुम्हें ठंड और भूख की याद भी कैसे आ गई भला। इस के बाद तुम्हारे मादक स्पर्श ने मुझे रोमांचित कर दिया था। हम वापस कार में आ गए थे। और बेतहाशा चुंबन की बौछार कर दी थी मैं ने। तुम ने भी संयम तोड़ दिया था। और हम कार में ही प्यार की पराकाष्ठा तक पहुंच गए। बाद में अकसर हम लोग कार का इस्तेमाल करने लगे। जिसे बाद में तुम अकसर कार सेवा कहने लगी। खुल कर कहने लगी , आज कार सेवा के लिए समय निकालते हैं। याद है तुम को मुझ पर घुड़सवारी भी बहुत पसंद थी तुम को। अकसर तुम फ़ोन करती और कहती कि आज घुड़सवारी का बहुत मन हो रहा है। आज समय निकाल कर आइए। पहला तो नहीं पर समापन सत्र तुम्हारी घुड़सवारी से ही होता। संभोग का जैसे स्वाद ही बदल दिया था तुम ने। एक देर शाम जब कोहरा घना हो गया था और चांदनी नर्म। कोहरा ऐसे घेर रहा था मुझे जैसे मेरी बांहें तुम्हें घेर लेती हैं और तुम रीझ गई थी। हमारे भीतर प्रेम की एक नदी बहने लगी और एक दूसरे से जोड़ गई। लगा जैसे तुम को ही नहीं , मैं ख़ुद को भी पा गया हूं। तुम्हें याद है वह ओस में भीगी हुई सुबह। जब मैं तुम्हारे प्यार की नर्म ओस में भीग गया था। वह ओस आज भी टटकी है। मेरे मन में। याद है तुम्हें  तुम्हारी आंखों और होठों का कोलाज जब तुम्हारे कपोलों पर रच रहा था तभी ओस की एक बूंद गिरी और मैं नहा गया तुम्हारे प्यार में। यह ओस की बूंद थी कि तुम्हारा नेह था जो ओस बन कर टपकी थी।

मालूम है तुम्हें जब तुम मिलती थी तो मन जैसे अमृत से भर जाता था लबालब। अमृत-अमृत हो जाता था मेरा मन और तुम्हारी देह नदी बन जाती थी। नदी में प्रेम की मछली कुलांचे मारती रहती। तुम मिलती थी तो मन पृथ्वी बन जाता था। इच्छाओं के पल-छिन में अनगिन फूल खिल उठते थे। एक आग सी सुलग जाती थी हमारी प्रेम की झोपड़ी में। तुम मिलती थी तो मन नील गगन बन जाता था। प्यार पक्षी। सांझ जल्दी हो जाती थी। उड़ती हुई चिड़िया ठहर जाती थी। झुंड की झुंड चिड़िया किसी तार पर बैठी दिखतीं तो तुम चल देती थी अचानक। प्रेम की इस बेला में घड़ी की सुई जैसे ठहर जाती थी। नदी जैसे विकल हो जाती थी। तापमान शून्य हो जाता था। तापमान का यह शून्य तोड़ देता था मेरे मन को। प्रेम की बहती नदी बर्फ़ बन जाती थी। बिछोह बन जाता था ग्लेशियर का टुकड़ा। ठिठुर कर सुन्न हो जाता था हमारे प्रेम का गीत। तुम फिर कब मिलोगी। पूछता था आहिस्ता से। तुम कुछ बोलती नहीं थी। बर्फ़ के पिघलने की प्रतीक्षा में प्रेम जैसे अवकाश ले लेता। फूल की तरह फिर खिलने की प्रतीक्षा में। प्रतीक्षारत हो जाता हमारा प्रेम। प्रेम जो अमृत हो जाना चाहता था।

यही वह दिन थे जब है अपना दिल तो आवारा , न जाने किस पे आएगा। हर ग़म फिसल जाए , जब तुम साथ हो। मौसम ये रूठने मनाने का है। अपने दामन की ख़ुशबू बना ले मुझे। अलग-अलग समय के यह तीनों फ़िल्मी गाने एक साथ गाने लगा था। सुनने लगा था। यह कौन सा मनोविज्ञान था भला। न जाने क्यों , न जाने क्यों। गाने बहुत हैं हमारे जीवन में। लेकिन तुम से बड़ा गाना कभी नहीं मिला जीवन में। गाता रहता हूं अब भी तुम्हें। देखता रहता हूं।  तुम्हारी यादों में जीता रहता हूं। ऐसे जैसे कोई एबस्ट्रेक्ट पेंटिंग देख रहा होऊं। अभी हवा में ढूंढ रहा था तुन्हें। तो बादल मिल गया तो उसी से तुम्हारा पता पूछ लिया। बादल बोला , पता तो मुझे मालूम है। पर बहुत जल्दी में हूं सो पता बता पाना मुश्किल है। बरस सकते हो तो बरसो मेरे साथ। पता ख़ुद-ब-ख़ुद मिल जाएगा। पहुंच जाओगे उस के पास अनायास। जिस का पता पूछ रहे हो। सो अब बादल नहीं , मैं बरस रहा हूं। तुम तक पहुंचने के लिए। 

बारिश का मौसम है इन दिनों शहर में। जब बारिश में शहर झील बन जाता है तो इस विपदा में भी तुम्हारी आंखें याद आती हैं। आते जाते देखता हूं तो तुम्हारी आंखें झील सी नज़र आती हैं। सॉरी , शहर की सारी झील तुम्हारी आंखें बन जाती हैं। तो क्या मैं बारिश बन जाता हूं। तो क्या मेरी यादों की बारिश से तुम्हारी आंखें झील बन जाती हैं।बारिश जब ज़्यादा हो जाती है तो शहर में बाढ़ आ जाती है। आबादी बाढ़ में डूब जाती है तो क्या मैं ज़्यादा बरसने लगा हूं। तुम डूब गई हो। प्यार की बाढ़ में। शहरों का तो बिगड़ गया है। प्यार में भी पर्यावरण संतुलन बिगड़ता है क्या। बिगड़ता है तो और बिगड़ जाने दो। जैसे गिरती है धरती पर ओस। तुम मेरी गोद में गिरो। जैसे अंधेरे में दिखती है कोई रोशनी। तुम मेरी आंख में दिखो। किसी कौतुहल की तरह। जैसे चांदनी में बहती है कोई नदी। चलती है उस में नांव। जलता है कोई दीप। नदी के किसी द्वीप पर किसी नाविक के उम्मीद की तरह। ऐसे ही मेरे मन में बहो। चलो नाव की तरह मंथर-मंथर। और जलो दीप बन कर। किसी उम्मीद की तरह। मैं नदी का वही नाविक हूं। मुझे राह दो प्यार की। दुलार की वह सांझ दो। मनुहार का वह मान भी। जो देती है धरती , सूर्य की पहली किरन को। मैं मिट्टी हूं , मुझे गढ़ो। किसी मूर्तिकार की तरह। अपने प्यार के पानी में सान कर। किसी कुम्हार की तरह मुझे रुंधो। तरसो नहीं , बरसो। मुझे प्यार के पानी से भरो। किसी तालाब की तरह। सिंघाड़े की लतर की तरह फैल जाओ मेरे सर्वस्व पर। मैं ऐसा ही चाहता हूं। याद है तुम्हें कि कभी यही तुम्हारी आंखें मेरा नगर हुआ करती थीं। इस नगर की नदी में नहा कर गंगा नहा लेता था। तुम्हारी सी बी आई जैसी आंखों में कभी कुछ छुप नहीं पाता था। मुझ को सब कुछ बता देती थीं। तुम्हारी समुद्र सी गहरी आंखों की सिलवट देख कर पूर्णिमा की चांदनी मन में उतर जाती थी। कहीं बहुत गहरे। 

पर अब कहां ? तुम तो अब मिलती ही नहीं। बतियाती तक नहीं। भूल गई हो कि तुम्हारी आंख के नगर का एक निवासी मैं भी हूं। निवासी हूं कि प्रवासी। कि तुम्हारी आंखों की नदी ने संन्यास ले लिया है ? 

और तुम्हारे अधर और तुम्हारी वह खिलखिलाती हंसी। एक बार तम्हारे होठ चूसते हुआ कहा था तुम से कि यह अधर हैं या बनारसी पान की गिलौरी। मन करता है गप्प से इन्हें खा जाऊं। किसी गोलगप्पे की तरह। और कूंच -कूंच कर खाऊं पान की तरह। फिर तुम्हें बांसुरी की तरह बजाऊं। तुम्हारे अधर की बांसुरी बजे। मैं तुम्हारे अधर के आकाश में खो जाऊं। यह सुन कर किसी षोडशी की तरह तुम पुलक गई थी। पर करता भी क्या। तुम्हारे होठ किसी बांसुरी की धुन से भी ज़्यादा मीठे हैं। किसी फूल से भी ज़्यादा मादक यह तुम्हारे रसीले होठ , ज़्यादा मोहक, ज़्यादा दिलकश और शहद से भी ज़्यादा मिठास घोले तुम्हारे यह होठ मेरी सर्वदा कमज़ोरी रहे। इन होठों में जादू जगा कर जब तुम हंसती थी तो इन होठों में कितने तो गुलाब , एक साथ खिल पड़ते थे। लगता था कि चंडीगढ़ का रोज गार्डेन हमारे भीतर उतर आया है। इन की सुगंध में मैं डूब जाता था तब। इन होठों के दरमियां कितने कनेर , कितने कचनार खड़े हो जाते थे तब। याद है कुछ ? तब तो मन में बेला उमग जाती थी। रातरानी खिल जाती थी। हरसिंगार का फूल झरने लगता था। मन फागुन , वसंत हो जाता था। ऐसे गोया तुम्हारे नयन फागुन हों , अधर वसंत। इन अधरों के इंद्रधनुष में इतना मोहित रहता था कि सारा दुःख भूल जाता था। हमारा संसार सुनहरा बन जाता था। 

तुम्हें याद करता हूं तो तुम्हारे साथ बिताई सर्दियां याद आ जाती हैं। थोड़ी लकड़ी , थोड़ी आग। बैठ कर तुम्हारे साथ ली गई कुछ सांस। तुम्हारी बांह में ली गई उच्छवास याद आ जाती है। इस चांदनी रात में और क्या चाहिए।  मन करता है कि तुम से कहूं कि यह मन नहीं , एक धरती है। तुम मेरे मन में पसर जाओ। जैसे पसरती है धरती पर चांदनी। जैसे पसरता है कोहरा किसी झील पर। फैलती है ख़ुशबू किसी मधुबन में आधी रात। यह रात नहीं है , रात का रंग है। तुम्हारे कंधे और गरदन के बीच रगड़ खाती मेरी नासिका में फैल रही सुगंध है। यह तुम्हारा खिल-खिल मन और मौन है। तुम्हारी चूड़ियों की तरह खिलखिलाता हुआ। समय का कैमरा दर्ज कर ले। इस चांदनी की ख़ुशबू को। इस चांदनी रात में तुम्हें देखने को। इस चांदनी रात में तुम्हें चीन्ह कर। याद की गठरी में बांध ले। चांदनी मचल ले ज़रा तुम्हारे रूप जाल में। तुम्हारे घने बाल में , रुको मेरी बांह में। इस सर्द रात में तुम्हारी आग बहुत ज़रूरी है। जीने के लिए। तब तक रुको। पर कहां भला। 

तुम्हें याद है कि कितना तो मन था कि कभी किसी चांदनी रात को किसी छत पर तुम्हारे साथ रात गुजारुं। ठंडी सफ़ेद चादरों पे जागें देर तक / तारों को देखते रहें छत पर पड़े हुए वाला गाना गुनगुनाते हुए। छत पर पड़े हुए , गाते हुए। तुम से अकसर कहता रहता। पर पूर्णमासी का चांद तो तुम देखती-दिखाती रहती। कभी नदी किनारे से। कभी किसी फ़्लैट की बालकनी से। लेकिन कभी कोई चांदनी रात मयस्सर नहीं हुई किसी छत पर कि तुम्हारी गुदाज देह के साथ निरापद हो कर उस चांदनी में नहाता और तुम्हें अपने प्यार में नहलाता। पर यह सपना अधूरा रह गया तो अधूरा ही रह गया। 

सपनों में तो तुम आज भी मिलती हो। तुम मिलती हो ऐसे जैसे नदी का जल और छू कर निकल जाती हो। मुझे भी क्यों नहीं साथ बहा ले चलती। सपने में ही सही तुम्हारे मिलने के रूप भी अजब-गज़ब हैं। कभी किसी नदी में आई बाढ़ सी भरी-भरी हुई। कभी जमुना के पाट की तरह फैली और पसरी हुई। कभी सरयू की तरह घाघरा को समेटे सीना ताने गीत गाती हुई। कभी तीस्ता की तरह चंचला तो कभी व्यास की तरह बहकी हुई। कभी झेलम और पद्मा की तरह सरहदों में बंटती और जुड़ती हुई। नर्मदा और साबरमती की तरह रूठती-मनाती हुई। कभी कुआनो की तरह कुम्हलाई हुई। कभी गोमती की तरह बेबस। कभी वरुणा की तरह खोई और सोई हुई। कभी गंगा की तरह त्रिवेणी में समाई हुई। हुगली की तरह मटियाई और घुटती हुई। रोज-रोज ज्वार-भाटा सहती हुई। कभी यह , कभी वह बन कर। छोटी-बड़ी सारी नदियों को अपना बना कर। सारा दुःख और दर्द अपने में समोए हुई। सागर से मिलने जाती हुई। निरंतर बहती रहती हो मेरे मन की धरती पर। इतनी हरहराती हो , इतना वेग में बहती हो कि मैं संभाल नहीं पाता , न तुम को , न खुद को। तुम्हारे भीतर उतरता हूं तो जल ही जल में घिरा पाता हूं। जल का ऐसा घना जाल तुम्हारे भीतर की नदी में ही मिलता है। कभी कूदा करता था नाव से बीच धार नदी में झम्म से। नदी का जल जैसे स्वप्न लोक में बांध लेता था। भीतर जल में भी तब सब कुछ साफ दीखता था। बीच धार नदी के जल में धरती तक पहुंचने का रोमांच ले कर कूदता था। पर कभी पहुंच नहीं पाया जल को चीरते हुए धरती तक। आकुल जल ऊपर धकेल देता था कि मन अफना जाता था। कि अकेला हो जाता था उस विपुल जल-राशि में। आज तक जान नहीं पाया। लेकिन पल भर में ही जल के जाल को चीरता हुआ झटाक से बाहर सर आ जाता था। जल के स्वप्निल जाल से जैसे छूट जाता था। फिर नदी में तैरता हुआ , धारा से लड़ता हुआ। इस या उस किनारे आ जाता था। यह मेरा आए दिन का खेल था। कि हमारा और नदी का मेल था। लोग और नाव का मल्लाह रोकते रह जाते, बरजते रह जाते।लेकिन स्वप्निल जल जैसे बुला रहा होता मुझे। और मैं नाव से नदी में कूद जाता था झम्म से , बीच धार। नदी की थाह नहीं मिलती थी। कोई कहता पचीस पोरसा पानी है , कोई बीस  , कोई पंद्रह। एक पोरसा मतलब एक हाथी बराबर यानी सैकड़ो फीट गहरे पानी में उतरने का रोमांच था वह। तुम्हारी भी थाह नहीं मिलती। तुम को पा कर भी कहां पा पाया। पर तुम से जुड़ने का रोमांच तो विरह की इस चिता में जलते हुए भी महसूस करता रहता हूं। 

बरसों पहले पहली बार जब हवाई जहाज में बैठा था तो रोमांचित होते हुए एक सहयात्री ने बताया था कम से कम बीस-पचीस हज़ार फीट ऊंचाई पर हम लोग हैं। आकाश इतना ऊंचा हो सकता है। और ज़्यादा ऊंचा हो सकता है होता ही है अनंत। पर नदी इतनी गहरी नहीं होती , न इतनी चौड़ी। ब्रह्मपुत्र नद भी नहीं , समुद्र भी नहीं। हेलीकाप्टर ज़रूर ज़्यादा ऊंचा नहीं उड़ता। धरती से जैसे क़दमताल करता उड़ता है। दोस्ताना निभाता चलता है। सब कुछ साफ-साफ दीखता है। धरती भी , धरती के लोग भी। हरियाली तो जैसे लगता है अभी-अभी गले लगा लेगी। जैसे तुम्हें देखते ही मैं सोचता हूं कि गले लगा लूं। समुद्र की लहरों की तरह तुम्हें समेट लूं। लेकिन तुम तो समुद्र की विशालता देख कर भी डर जाती हो। तुम्हें याद है समंदर के रास्ते में जब हम स्टीमर पर थे। सुबह होना ही चाहती थी , पौ फट रही थी। तुम ने खिड़की से बाहर झांक कर देखा था। और लोक-लाज छोड़ मुझ से चिपकते हुए सिहर गई थी। पूछा था मैं ने मुसकुरा कर कि क्या हुआ। चारो तरफ सिर्फ़ पानी ही पानी है , दूर-दूर तक कहीं कुछ नहीं। 

सहमती हुई , अफनाती हुई , आंख बंद करती हुई तुम बोली थी। ऐसे जैसे तुम नन्ही बच्ची बन गई थी। जाने क्यों प्रेम हो या डर आदमी को बच्चा बना ही देता है। लेकिन तुम्हारे भीतर उतरने का रोमांच। बार-बार उतरने का रोमांच सैकड़ो या हज़ारो फ़ीट गहरे उतरने का तो है नहीं। अनंत की तरफ जाने का है जहां कोई माप नहीं। मन के भीतर उतरना होता है। और तुम हो कि नदी के जल की तरह हौले से छू कर निकल जाती हो। कि इस एक स्पर्श से जैसे मुझे सुख से भर जाती हो। लगता है कि जैसे मैं फिर से नदी में कूद गया हूं झम्म से। प्रेम की नदी में। तुम मुझे छू रही हो और मैं डूब रहा हूं। जैसे उगते-डूबते सूरज की परछाईं नदी में डूब रही है। तुम्हारे भीतर की धरती मुझे छू रही है। 

लेकिन इतना सारा प्रेम का अमृत पीते हुए भी हम जानते थे कि विवाहेतर प्रेमियों की कोई पहचान नहीं होती। इस तथ्य को हम दोनों ही जानते थे। सो अपने प्रेम की सीमा भी जानते थे। सब के सामने अपरिचय की सुरंग में छुपना भी जानते थे। परछाईं भी जैसे हम से हमारी आंख चुरा लेती थी। प्रेम का उफान जैसे रुक जाता था। हमारा प्रेम जैसे डर जाता था। हमारा प्रेमी चोर बन जाता था। दुःख-सुख में हम साथ होते हुए भी साथ नहीं दीखते थे। लोकलाज की चादर में लजाए रहते थे। हम मर-मर जाते थे पर न हमारा मरना कोई देख पाता था , न कोई धुआं। तुम तरसती रहती थी। हमारे एक क्षणिक स्पर्श के लिए सुलगती रहती थी। और एक स्पर्श पाते ही , प्यार भरे क्षणिक स्पर्श में तुम्हारी दुनिया संवर जाती थी। किसी फूल से भी ज़्यादा खुशबू से भर जाती थी। शहद से भी ज़्यादा मिठास से भर जाती थी तुम। ख़ूब-खूब ख़ुश हो जाती थी। तुम्हारी इस ख़ुशी की खुशबू में नहा कर न्यौछावर हो जाता था मैं। 

इसी मिठास में जीवन गुज़ार दिया है। जां निसार हूं। पूस के धूप में तुम्हारे रुप पर न्यौछावर मैं था ही कि अचानक क्या हुआ कि तुम बदलने लगी। प्रेम की नदी का किनारा और बल खाती लहरों और कूदती उछलती मछलियों की तरह जाने कैसे मुझ से खोने लगीं। लगता कि बंद मुट्ठी में रेत की तरह मुझ से फिसलती जा रही हो। चैत की चांदनी सा सुख , रातरानी सी गमकती रातों जैसा प्रेम का पाग अब बिसरता जा रहा है हमारे बीच से। जीवन के जंगल से सट कर बहती हमारे प्रेम की निर्मल नदी , हमारे नसीब से छूट रही थी। कि शायद जीवन की सड़क पर प्रेम के ट्रैफिक को हम संभाल नहीं पाए। आज तक नहीं जान पाए। नहीं वह दिन भी थे कि मैं तुम्हें सुंदर कहता और तुम मगरूर हो जाती थी। तुम्हें ज़िंदगी और ज़िंदगी का सब से बड़ा अरमान कहता और तुम अकड़ कर चूर हो जाती थी। तुम को चांद कहता तो तुम चांदनी बन जाती। जान कहता तो तुम मदहोश हो जाती। ज़िंदगी कहता तो चमक कर शमशीर हो जाती। तुम हमारा नशा बन गई। नदी की किसी धार की तरह , सागर में मिलती किसी नदी की तरह मेरी ज़िंदगी में समाने लगी क्या समा गई। सुमन और सुगंध की तरह हम एक हो गए। लगा कि हमने प्यार कर के जग जीत लिया है। 

फिर क्या था जब तुम कभी आती झूमती-झामती हुई तो लगता कि बरखा की पहली बूंद आ रही हो। मस्त हवा की तरह , फूल की खुशबू की तरह आती और किसी अबोध बच्चे की तरह मेरे गले में दोनों हाथ डाल कर झूम जाती। मन में प्यार का मौसम मचल जाता। तमाम दुःख मर जाते और मन में रातरानी खिल जाती। गहरी झील में किसी हंसिनी की तरह अपनी ही छाया में उतरती जाती तुम। गौरैया की तरह फुदकती हुई , औचक सौंदर्य का इंद्रधनुष रचती हुई मुझ पर छा जाती। प्रेम को पर्वत की तरह जीती हुई , देवदार की तरह सिर उठा कर जीती हुई , अपने देह-सरोवर में मुझे डुबोती हुई , प्रेम की चांदनी खिलाती हुई तुम क्या से क्या हो जाती थी , यह तुम क्या जानो भला। जैसे कोई औरत पकाती है धीमी आंच पर खाना , वैसे ही तुम चाहती थी कि मैं तुम से प्यार करुं। यही अंदाज़ प्रेम का मुझे पसंद था तुम्हारे साथ। प्रेम को सिर उठा कर करना सीखा था तुम ने मेरे साथ। दासी की तरह नहीं। प्रेम में बराबरी बहुत ज़रुरी है। दासी बना कर स्त्री के साथ न प्रेम हो सकता है , न सफल संभोग। प्रेम और सेक्स का सुख बराबरी में ही मुमकिन होता है। यह बात कम पुरुष जानते हैं। एकतरफा सेक्स को ही प्रेम मानने की मूर्खता करना पुरुष की आम प्रवृत्ति है। स्त्रियों को यह पसंद नहीं। लेकिन वह यह कह नहीं पातीं। तुम भी लोकलाज में फंस कर कभी अपने पति से यह बात नहीं कह पाई। मुझ से लेकिन कहती रहती। मुझ से यह सब कहने के लिए तुम किसी बंधन में नहीं थी। दासी नहीं , प्रेयसी हो तुम हमारी यह बात जब मुझ से तुम ने सुनी तो भाव-विह्वल हो गई। लगा कि तुम क्या पाओ , क्या दे दो मुझे। तुम ने मुझे दिया भी। अपना अगाध प्रेम। अविरल और अलौकिक प्रेम। तुम्हारे पास अगाध प्रेम था मेरे लिए , तुम ने मुझे दिया। तुम नहीं जानती , तुम आज भी भले न मिलो , न बात करो पर तुम्हारा वह अगाध और निश्छल प्रेम तो है मेरे पास ही। प्रेम के बीज को वृक्ष में विरूपित इसी भाव और विशवास में ही तो हम ने किया था। 

मेरा बराबरी से मिलना तुम्हें भा जाता था। 

स्त्री को मैं गुलाम नहीं समझता , यह तुम्हें अच्छा लगता। तुम कहती कि भले मैं ने प्रेम विवाह किया है पर प्यार तो आप से ही मुझे मिला है। विवाह से मुझे सेक्स सुख का तो पता चला पर प्रेम का सुख नहीं। बाद में यह सेक्स सुख भी सिर्फ़ पति के ही हिस्से में रह गया। पति का आदेश , पति की इच्छा ही सेक्स हो गया। मेरी ज़रुरत क्या है , मेरी भी कोई इच्छा है , पति को आज तक नहीं पता। मैं औरत नहीं सेक्स का इंस्ट्रूमेंट हूं। सेक्स का खिलौना हूं , पति के लिए। बस। तुम्हारी यह यातना ही शायद तुम्हें मुझ तक खींच कर ले आई। तुम ने प्यार किया और चली गई। जैसे प्रेम से तुम्हारा पेट भर गया। लेकिन अपने प्रेम में मुझे क़ैद कर गई। इस प्रेम की क़ैद में गिरफ़्तार तुम्हारे प्रेम की कचहरी में तुम्हारी पैरवी करता हुआ मैं एक वकील की तरह नहीं एक मुलजिम की तरह पेश हूं। 

बिजली जाती है , आ जाती है। नेटवर्क जाता है , आ जाता है। तुम क्यों नहीं आती। 

काश कि इंश्योरेंस एजेंसियां हेल्थ की तरह प्रेम का भी इंश्योरेंस करती होतीं। और हम कैशलेश क्लेम ले कर अपने खोए प्रेम को पा जाते। कई बार सोचता हूं कि कहीं ऐसा तो नहीं कि जिसे हम लोग मोहब्बत कहते हैं , वह महज़ एक ज़रुरत भर है। ज़रुरत ख़त्म , मोहब्बत ख़त्म। सो सच-सच बताना प्रिये कि मैं ज़रुरत था कि मोहब्बत। सच बताओगी तो बुरा नहीं लगेगा। क्यों कि जो स्त्री प्रेम के लिए पिता और पिता का घर सर्वदा के लिए छोड़ सकती है , वह अगर प्रेम में है , तो पति का घर भी तो छोड़ ही सकती है। इतना साहस तो कर ही सकती है। कि सारा साहस पिता के लिए ही था। तो क्या यह सचमुच मोहब्बत थी ? मोहब्बत थी कि ज़रुरत ? ज़रुरत को लोग मोहब्बत का नाम देते ही क्यों हैं , समझ नहीं आता। ज़रुरत ख़त्म , मोहब्बत ख़त्म। ज़िंदगी का यह अजीब सिलसिला है। तुम को याद ही होगा कि प्रेम के लिए मुझे तुम ने ही चुना था। तलाश तुम्हीं ने किया था। शायद संभोग का स्वाद बदलने के लिए। प्रेम की प्यास बुझाने के लिए। जो भी हो , तुम ही जानो। मैं तो बस तुम्हारे प्रेम की नदी की धार में अनायास ही समा गया था। जैसे नदी कंकड़ , पत्थर , हीरा , मोती सभी कुछ साथ बहा ले जाती है। वैसे ही मैं भी तुम्हारी प्रेम नदी की धारा में बहता रहा। अब तुम्हारी नदी की कोई लहर किसी किनारे पर मुझे छोड़ कर आगे बढ़ गई है तो मेरा क्या दोष। प्रेम नदी के किनारे अभी भी बहने की प्रत्याशा में प्रत्याशी की तरह उपस्थित हूं। मन ही मन बहता जा रहा हूं। 

तुम नहीं जानती तो अब से जान लो प्रेम मां की तरह होता है। मां का दुलार कभी खत्म नहीं होता। प्रेम किसी का भी हो , प्रेम खत्म नहीं होता। समय-समय पर तुम्हारे साथ मिले वह पक्षी , वह कोयल वह वृक्ष , वह वनस्पतियां वह किसिम-किसिम के फूल , वह तुलसी का चौरा वह बारिश , वह पुरवा वह धूप , वह चांदनी वह आम्र मंजरियां , वह पल्लव , बारिश में भीगता , आंगन का वह दशहरी का पेड़ , हरी घास पर बिखरे वह गुलमोहर के फूल भी कभी तुम्हें नहीं भूलेंगे। नहीं भूलेगी वह मछली भी जो हमें तुम्हें देखते हुए , नदी में छपाक से कूदी थी। वह कोहरा , वह ओस की बूंद सब की यादों में तुम ठहरी हुई हो। इन सभी की याद में भी तुम रहोगी। वह नदी भी तुम्हें कहां भूलेगी भला जहां , जिस पर बने पुल पर खड़े हो कर हम पूर्णमासी का चांद देखा करते थे। पूर्णमासी के चांद में हम तुम जैसे दर्ज हैं। सर्वदा के लिए। हम ही नहीं , यह सभी तुम से प्रेम करते हैं। और प्रेम किसी का भी हो , प्रेम खत्म नहीं होता। कभी नहीं होता। 

मेरी मुश्किल देख कर लोगबाग़ पूछते रहते हैं , क्या हुआ ? लोगों को बताता रहता हूं कि एक औरत थी जो मुझे जवान बनाए रखती थी। वह मुझे छोड़ कर चली गई। लोग मुझ पर हंसते हुए निकल जाते हैं। याद है तुम्हें पाने की हड़बड़ाहट में कार की लाइट आफ करना भी कई बार भूल जाता था। वापसी में बैटरी डाऊन हो जाने के कारण कार स्टार्ट नहीं होती तो तुम्हें अकेले लौटना होता था। झल्लाती हुई लौटती थी तुम। प्यार का सारा हरसिंगार झर कर बिखर जाता था। ऐसे ही बिखर गया हूं , तुम्हारे बिना। ज़िंदगी की बैट्री डाऊन हो गई है। प्रेम की मछली तड़प रही है , तुम्हारे प्यार के पानी बिना। 

 





 तुम्हारे बिना 

पृष्ठ - 144 

मूल्य : 375 रुपए 

प्रकाशक : अमन प्रकाशन 

104 ए / 80 सी , रामबाग़ , कानपुर -208012 

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