लखनऊ में उत्तराखंड के बहुत सारे लोग रहते हैं । इन में लेखक , पत्रकार और कलाकार भी हैं । इन उत्तराखंड के लोगों की एक बड़ी ख़ासियत यह है कि इन में आपसी एकता बहुत होती है । इतनी कि क्षेत्रवाद जैसा शब्द भी इन की एकता के आगे शर्मा जाए । एक उत्तराखंडी , दूसरे उत्तराखंडी को देखते ही कबूतर की तरह फड़फड़ाने लगता है । आपस में मिल कर ही उन को चैन मिलता है । उत्तराखंड के लोगों ने अपने उत्कर्ष और उन्नयन के लिए कई सारे संगठन भी बना रखे हैं । यह संगठन सक्रिय भी ख़ूब रहते हैं । रीता बहुगुणा जोशी अपने पहाड़ी वोटरों के बूते ही लखनऊ से चुनाव लड़ती और जीतती हैं । बात यहां तक पहुंची है कि मुख्य मंत्री योगी भी उत्तराखंड से हैं सो उन की ही पसंद से हिंदी संस्थान का सर्वोच्च सम्मान भारत भारती उत्तराखंड के रमेशचंद्र शाह को दिया गया है । जब कि रमेशचंद्र शाह न तो संघी हैं , न भाजपाई , न हिंदूवादी । वैसे भी लेखक , लेखक होता है । संघी , भाजपाई , समाजवादी , वामपंथी , कांग्रेसी आदि-इत्यादि नहीं । सहमति-असहमति अपनी जगह है ।लेकिन उत्तराखंड के लेखक , कलाकार इतने तंगदिल भी होते हैं , इतने गैंगबाज भी होते हैं , यह मुझे नहीं मालूम था । दो दिन पहले मालूम हुआ। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने इस बार अपना सर्वोच्च सम्मान भारत भारती हिंदी के प्रतिष्ठित लेखक रमेशचंद्र शाह को दिया है , यह बात अब कोई खबर नहीं है । लेकिन उन के सम्मान समारोह में किसी उत्तरखंडी का न आना ज़रूर अब ख़बर है ।
रमेशचंद्र शाह रहते भले भोपाल में हैं लेकिन मूल निवासी अल्मोड़ा के हैं । लंबे समय से भोपाल में रहने के बावजूद पहाड़ीपन उन में कूट-कूट कर भरा है । उन की पूरी बाडी लैंग्वेज से पहाड़ीपन छलकता रहता है । उन की बोलचाल में भी । रमेशचंद्र शाह को बीते 24 अक्टूबर को भारती भारती सम्मान सम्मानित किया गया । इस के एक दिन पहले उत्तराखंड के लोगों ने रमेशचंद्र शाह को भारती भारती मिलने पर उन के स्वागत में एक समारोह आयोजित किया । इस समारोह में उत्तराखंड के कुछ लोगों को रमेशचंद्र शाह के हाथों सम्मानित भी करवाया । लेकिन ठीक दूसरे दिन रमेशचंद्र शाह को जब भारत भारती से सम्मानित किया गया तो उस समारोह में लखनऊ में रहने वाला उत्तराखंड का एक भी लेखक , पत्रकार या कलाकार समारोह में नहीं पहुंचा । अगर बहिष्कार ही मकसद था , तो इसी भारत भारती के उपलक्ष्य में एक दिन पहले रमेशचंद्र शाह का भी स्वागत समारोह का क्या औचित्य था ? रमेशचंद्र शाह आखिर लखनऊ के अपने उत्तराखंडी समाज के इस एहसानफ़रामोशी और उपेक्षा की कितनी सिलवटें समेट कर भोपाल लौटे होंगे ? उत्तराखंड के लोग कभी सोच पाएंगे ? हर व्यक्ति जब कुछ पाता है तो चाहता है कि उस के परिजन और उस के लोग भी उस के सुख के , उस के सम्मान के साक्षी बनें। उन के अपने , उन के साथ रहें ।
यह ठीक बात है कि किसी भी का कहीं आना , जाना उस के अपने विवेक पर मुन:सर करता है । किसी के लिए कोई बाध्यता नहीं होती । फिर भी गौरतलब है कि उत्तराखंडियों के अलावा लखनऊ के और भी कई लेखकों ने भी अघोषित बहिष्कार किया । ख़ामोश बहिष्कार । देश की सब से बड़ी संसद में , विधान सभाओं और अन्य जगहों पर भी सभी विचारों के लोग अपनी सहमति और असहमति के साथ एक साथ बैठ सकते हैं , बैठते ही हैं । क्यों कि जैसे धरती , जैसे आकाश , जैसे जल , जैसे हवा है , हर किसी का है वैसे ही हमारी संसद , विधान सभाएं भी हमारी साझी हैं । इसी तरह साहित्य अकादमी , उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान जैसी संस्थाएं भी हमारी साझी हैं । हमारे दिए हुए टैक्स से संचालित होती हैं । सो किसी विचारधारा , किसी सरकार की जागीर नहीं हैं यह संस्थाएं । लेकिन हमारे लेखक , पत्रकार और कलाकार घृणा और नफ़रत के खेल में इतने बड़े उस्ताद हैं कि पूछिए मत । यह कहीं किसी और के साथ कभी नहीं बैठ सकते । दुनिया बदल गई है , तकनीक और तमाम चीज़ें आमूल चूल बदल गई हैं लेकिन इन की कुंठा और हीनता नहीं बदली । इन की गैंगबाजी नहीं बदली । बड़े-बड़े अपराधी गिरोह शर्मा जाएं इन की गैंगबाजी के आगे । दुनिया ग्लोबलाईज हो गई है लेकिन इन को अपने बंद कुएं से निकलने का अवकाश नहीं है । इस जहरबाद के चलते पाठक छितरा कर कोसों दूर भाग गया है लेकिन आकंठ अहंकार में डूबे इन लोगों के आंख और कान बंद हैं । सो सोचने , समझने की क्षमता कुंद हो गई है ।
इन की मौकापरस्ती , समझौते और कदम-कदम पर झुकने की , घुटना टेकने की बहुत सी कहानियां हैं मेरे पास। सप्रमाण । लेकिन शालीनता और औपचारिकता भी एक तत्व होता है , यह लोग बिलकुल नहीं जानते । मिट चुके हैं अपने इस अहंकार , ज़िद और सनक में । पाठकों से महरूम हैं । सवा सौ करोड़ की आबादी में हज़ार पांच सौ छपने वाली किताबों और पत्रिकाओं में सीमित हो गए हैं । ख़ुद ही लिखते हैं , खुद ही पढ़ते हैं । वह इन की पीठ खुजाते हैं , यह उन की । लेकिन वह कहते हैं न कि रस्सी जल गई है , बल नहीं गया । इन मित्रों को जानना चाहिए कि वैचारिकता , सहमति , असहमति आदि अपनी जगह है , औपचारिकता , शालीनता आदि अपनी जगह । यह एक अजीब किस्म की छुआछूत है । नफ़रत और घृणा की यह दीवार अगर आप अपने समुदाय में इस कदर रखते हैं तो पूरे समाज में आप क्या परोस रहे होंगे , यह जानना कुछ बहुत कठिन नहीं है । इस लिए दोस्तों , देर-सवेर इस छुआछूत , हीनता और कुंठा आदि से तौबा कर लेना ही गुड बात है।
गुड लिखा। सत्य। बधाई।
ReplyDeleteसर आजकल नियमित लिख रहे हैं. क्या बात :)
ReplyDelete'हमार कजरा के निहारी ए राजा'लेखकों,साहित्यकारों,संगीतकारों या समाज के अन्य कलाधर्मियों का यदि अपने ही लोग निरादर करने लगेंगे तो हमें बालेश्वर याद आते हैं-की"अपने त बनल पुजारी ये राजा,हमार कजरा के निहारी ए राजा"|सच से रूबरू कराती आपकी लेखनी को साधुवाद |
ReplyDeleteSurya ke samne hatheli lagaker koi is bhram m Rahe ki hammer Surya ka Prakash to Diya h to uske aham ko tusti mil jati h.karpany dish se grasit h log.fir Pahari mansikta per kya kaha Jay.afsos hi Kiya ja salts h
ReplyDelete@kanta sah nicely stated
Delete