मंदिर तो आज बना लें पर दंगों से डर लगता है
बम विस्फोटों का वह मुसलसल मंज़र भूला नहीं है देश
सुप्रीम कोर्ट हो या सरकार अब सब को यह डर लगता है
ढाए जुल्म बनाए चर्च पर मंदिर मस्जिद तोड़ा क्या अंगरेजों ने
मेलजोल का यह ताना बाना हथौड़े से ज़्यादा असर करता है
मक्का मदीना में मंदिर गिरजा बन सकता है क्या
अयोध्या किस लिहाज से बाबर का घर लगता है
रहते रहे हैं सदियों से राम अयोध्या में रहने दो अब भी
वनवास ख़त्म करो उन का यह अंधा सफ़र लगता है
चुनाव लड़ो तुम और हम को तोड़ो रोज हर्ज नहीं है
लेकिन मंदिर मस्जिद पर दिल टूटे तो डर लगता है
पाकिस्तान नहीं गए तुम यह मुल्क पर एहसान नहीं था
फिर रोज रोज यह एहसान जताओ तो जहर लगता है
मंदिर मस्जिद की नित नई इबारत तुम रोज लिखे हो
गंगा जमुनी तहज़ीब की दुहाई भी तो यह कहर लगता है
घोड़े सा दिमाग दौड़ाओ हर्ज नहीं है मेरे भाई दौड़ो और
जाति पाति और धर्म की भट्ठी से बचो यह जहर लगता है
याद करो कबीरा की बानी राम रहीमा एक है
ढाई आखर का प्रेम ही जीवन में सहज लगता है
ढाई आखर का प्रेम ही जीवन में सहज लगता है
[ 30 अक्टूबर , 2018 ]
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (31-10-2018) को "मंदिर तो बना लें पर दंगों से डर लगता है" (चर्चा अंक-3141) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
वर्तमान संदर्भों को चित्रित करती आपकी गज़ल को जनरल सैलूट सर,प्रारब्ध से अंत तक एक सांस में पढ़ लिया, इस प्रकार की गज़ल पय पिपासा से आप ही तृप्त कर पाएंगे,प्रतीक्षारत रहूँगा|
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