दयानंद पांडेय
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः । ।
[ यह आत्मा न तो कभी किसी शस्त्र द्वारा खण्ड-खण्ड किया जा सकता है, न अग्नि द्वारा
जलाया जा सकता है, न जल द्वारा भिगोया या वायु द्वारा सुखाया जा सकता है । ]
पहले कमज़ोर हो कर हड्डी ने साथ छोड़ा , फिर चेतना ने , फिर आवाज़ ने और अंतत: अम्मा ने हमारा साथ छोड़ दिया । और महाप्रस्थान कर गई । जब वह विदा हुई तो उस का हाथ मेरे हाथ में ही था । उस के ममत्व की समूची ऊष्मा मेरे साथ थी । सांस उलटी हो चली थी , आंखें मुंद गई थीं । लेकिन वह जो कहते हैं भावनात्मक अनुभूति वह हमें जोड़े हुई थी । गर्भ और नाल की कड़ी जोड़े हुई थी । घने कोहरे में लिपटी वह सुबह जैसे मन के भीतर भी कोहरा रच रही थी । डूबते-उतराते मन के बीच मैं अम्मा-अम्मा गुहराता रहा , अम्मा का सिर बेचैनी में इधर-उधर घूमता रहा पर उस की खनकदार आवाज़ गुम थी । अम्मा के पलंग के बगल में कुर्सी पर बैठा , अम्मा का हाथ , हाथ में लिए ही मैं ने छोटे भाई से कहा कि अस्पताल या किसी डाक्टर के यहां चलते हैं । भाई बोला , इस समय इतनी सुबह कोई सीनियर डाक्टर किसी अस्पताल में भी कहां मिलेगा , कोई फ़ायदा नहीं । कुछ समय तक मैं अम्मा - अम्मा गुहराता रहा । लेकिन बात-बेबात हमेशा बोलती रहने वाली अम्मा एक चुप , हज़ार चुप की इबारत लिख रही थी । अचानक पत्नी आ कर बड़े विश्वास के साथ अम्मा के बगल में बिस्तर पर बैठ गईं और अम्मा के गाल सहलाती हुई कहने लगीं , ' ए अम्मा बोलीं न , अम्मा बोलीं न ! ' इस उम्मीद के साथ कि और किसी के बुलाए भले न बोलें अम्मा लेकिन मेरे बुलाए तो बोल ही देंगी । गुमान था कि वह अम्मा की बहू ही नहीं , बेटी भी हैं । लेकिन यह गुमान भी पत्नी का टूट गया । अम्मा नहीं बोली । बल्कि लेटे-लेटे आहिस्ता से गरदन दाहिनी तरफ मोड़ दिया । मुंह से हल्की सी ब्लीडिंग हुई । रुमाल से खून पोछा । और यह देखिए अम्मा के प्राण-पखेरू उड़ गए । जैसे पत्नी के स्पर्श के लिए ही वह उस समय अगोर रही थी । पत्नी अम्मा - अम्मा कहते हुए बिलख पड़ीं । अम्मा का हाथ अब भी मेरे हाथ में ही था । निस्तेज । मुझे अभी भी अम्मा के शेष रहने का भरोसा था । लेकिन अम्मा अब स्मृति-शेष हो चुकी थी । छोटे भाई ने जैसे मुहर लगाई और बोला , भैया , अम्मा अब नहीं रही । भाई सब रोने लगे । पत्नी , भाई की बहू रोने लगे । बच्चे रोने लगे । अम्मा के लिए जान देने वाला मैं तब बिलख कर रो नहीं पाया । बस आंसू झर-झर बहने लगे । नि:शब्द था मैं । घड़ी देखी ।सुबह के पौने सात बज रहे थे । भाइयों ने फ़ोन पर सब को सूचना देनी शुरू कर दिया । पहली सूचना गांव में पिता जी को । मैं अम्मा का हाथ , हाथ में लिए उसे अवाक देखता रहा । कुछ समझ नहीं आ रहा था । भीतर कुछ गहरे टूट गया था । टूट कर चूर-चूर हो गया था । अम्मा की अनगिन यादों की रील और आंसू एक साथ चल रहे थे । मैं डूब सा गया । गोया किसी गहरे समंदर में ।
सिर्फ़ भावनाओं से मन भले चलता हो , जीवन भले चलता हो पर इस से परे भी ज़िंदगी चलती है । गांव से छोटे भाई का फ़ोन आया तो इस समंदर से यकबयक बाहर निकला । भाई पूछ रहा था कि , भैया क्या तय किया ? उस का मतलब अंत्येष्टि से था । तीन बिंदु थे । बनारस , अयोध्या कि गोरखपुर का बड़हलगंज । पहले बनारस का ही खयाल आया । पर बनारस के मणिकर्णिका घाट पर होने वाली अफरातफरी और बदइंतजामी की सुनी इबारतें खयाल आ गईं । दूसरे , घना कोहरा , भारी ठंड और पिता जी की उम्र और उन के दाम्पत्य विछोह की कचोट भी सामने आ गई । फिर अयोध्या की बात आई । पर अयोध्या में भी पिता जी को गोरखपुर के गांव से आना था । भाई की राय थी कि हम लखनऊ से अम्मा को ले कर अयोध्या पहुंचें और वह पिता जी को और गांव के लोगों को ले कर अयोध्या पहुंचेगा । थोड़ा इफ़-बट तो था लेकिन मैं ने फ़ैसला लेने में बहुत देरी नहीं की । भाई को बता दिया कि हम अम्मा को ले कर सीधे गांव पहुंच रहे हैं । बड़हलगंज के मुक्तिपथ पर ही अंत्येष्टि करेंगे । सरयू नदी अयोध्या में भी है और बड़हलगंज में भी । इस भारी ठंड और कोहरे में पिता जी को भी आने जाने के कष्ट से मुक्ति मिलेगी । फिर गांव के लोग भी अम्मा के अंतिम दर्शन कर लेंगे । गांव के वह लोग जो अम्मा की दुनिया थे । ग्राम जीवन ही अम्मा का जीवन था । वह कहीं भी रहे उस के सांसों की डोर जैसे गांव से ही बंधी रहती थी । सो सुबह के पौने सात बजे अम्मा ने प्राण त्यागे थे । सब को ख़बर करते-कराते , तैयारी करते-कराते , रोते-रुलाते अम्मा को ले कर पौने दस बजे हम गांव के लिए चल दिए । लखनऊ में भी अम्मा को विदा करने के लिए तब तक ढेर सारे लोग बटुर गए थे । लखनऊ से गोरखपुर की सड़क अच्छी होने के कारण भारी ठंड और घने कोहरे को चीरते हुए साढ़े तीन बजे दिन में हम लोग गांव पहुंच गए । गांव में उपस्थित छोटे भाई ने सारी व्यवस्था और तैयारी पहले ही से पूरी कर ली थी । बल्कि हमारे गांव बैदौली के लोग पिता जी के साथ सड़क पर खड़े हो कर जैसे अम्मा की बारात की अगुवानी के लिए उपस्थित थे । अम्मा पहले घर ले जाई गई । दुआर पर लिटाई गई । रोती - बिलखती हुई गांव की विह्वल स्त्रियों ने जैसे चीख पुकार और रुदन का भावुक मंज़र परोस दिया । क्या स्त्री , क्या पुरुष , क्या बच्चे , समूचा गांव जैसे अम्मा को अंतिम विदाई देने के लिए उपस्थित था । पिता जिन्हें हम घर में बबुआ कह कर संबोधित करते हैं , अम्मा के पार्थिव शरीर के बगल में शोक में डूब कर बैठे हुए थे । चुप-चुप । रिश्तेदार , परिजन और मित्र भी आ चुके थे । बुआ और मौसी लोग भी । रोते-गाते घर की स्त्रियों ने अम्मा को नहला-धुला कर , परंपरा के मुताबिक़ पूरी देह पर घी का लेप लगा कर , टीक - मटीक कर , भर मांग सिंदूर भर कर , किसी दुल्हन की तरह सजाया । फिर बैंड बाजे के साथ अम्मा की बारात विदा हुई । चुप और भावुक पिता को पहली बार अम्मा के लिए झर -झर आंसू बहाते देखा । पंडित जी के निर्देश पर पिण्डा पारते , चुपचाप आंसू बहाते पिता का यह रुप इस सर्दी में मुझे और सर्द बना रहा था । मैं वैसे भी रोने के मामले में बहुत कमज़ोर हूं । बात-बेबात रोने वाला आदमी हूं । तो लोगों को सहेजता जा रहा था , निर्देश देता जा रहा था , रोता जा रहा था । फिर पिता को झुक कर पिण्डा पारने में तकलीफ हो रही थी तो उन्हें पिण्डा पारने में , पिण्डा बनाने में मदद भी करनी थी । इस लिए निरंतर देख रहा था कि कठोर छवि वाले पिता , ख़ास कर अम्मा के लिए और मेरे लिए निरंतर और सर्वदा कठोर रहने वाले पिता कैसे तो किसी नारियल की तरह फूट कर द्रवित हो रहे थे , किसी झरने की तरह । विकल और चुप । पहुंचे हम लोग बड़हलगंज के सरयू तट पर स्थित मुक्तिपथ पर । वहां और भी बहुत सारे परिजन , रिश्तेदार , मित्र पहले से उपस्थित थे घनघोर जाड़ा और घने कोहरे के बावजूद । हमारी एक दिवंगत बुआ की बेटी भी सपरिवार रोती-गाती उपस्थित थीं मुक्तिपथ पर , अपनी मामी को विदा करने के लिए । हमारे एक छोटे मौसेरे भाई जो बिहार के बेतिया में सिविल जज हैं , वह भी बेतिया से चल कर अपनी मौसी को विदा देने आ गए थे । बाकी मौसेरे और ममेरे भाई भी । हमारे दूसरे गांव शिवराजपुर जो हमारी पाही है , जिसे छावनी भी कहते हैं , उस गांव से भी बहुत से लोग उपस्थित थे अम्मा को विदा करने के लिए । पूर्व मंत्री राजेश तिवारी भी आए अम्मा को विदा देने और रजनीश चतुर्वेदी भी । गांव से तिवारी चाचा के बेटे ने पहले ही मुक्तिपथ पर पहुंच कर लकड़ी आदि की व्यवस्था कर दी थी । बल्कि चिता सज कर तैयार थी । रजिस्ट्रेशन की औपचारिकता हुई और अम्मा को चिता पर लिटा दिया गया । अम्मा चिता पर चंदन की लकड़ियों के बीच ऐसे लेटी थी गोया कोई महारानी । ऐसे जैसे बोल पड़ेगी । पंडित जी ने मंत्रोच्चार के बीच धार्मिक और पारंपरिक औपचारिकताएं पूरी करवाईं फिर सभी भाइयों और बच्चों ने पिता के साथ अम्मा की परिक्रमा की । पिता ने अम्मा को मुखाग्नि दी । थोड़ी देर में धू-धू कर जलती हुई अम्मा विदेह हो गई । सूरसागर में सूरदास का एक पद याद आता है :
जा दिन मन पंछी उड़ि जैहै।
ता दिन तेरे तन-तरुवर के सबै पात झरि जैहैं।
या देही कौ गरब न करियै, स्यार-काग-गिघ खैहैं।
तीननि मैं तन कृभि, कै बिष्टा, कै ह्वै खाक उड़ैहै।
कहँ वह नीर, कहाँ वह सोभा, कहँ रँग-रूप दिखैहै।
जिन लोगनि सौं नेह करत है, तेई देखि घिनैहैं।
घर के कहत सवारे काढ़ौ, भूत होइ धरि खैहैं।
जिन पुत्रनिहिं बहुत प्रतिपाल्यौ, देवी-देव मनैहैं।
तेई लै खोपरी बाँस दै सीस फोरि बिखरैहैं।
अजहूँ मूढ़ करौ सतसंगति, संतनि मैं कछु पैहै।
नर-बपु धारि नाहिं जन हरि कों, जम की मार सो खैहै।
सूरदास भगवंत-भजन बिनु बृथा सु जनम गँवैहै।।
अंत्येष्टि के बाद की सभी रस्में पूरी कर घर लौटे हम लोग । अब बारह दिन तक तमाम सारे निषेध के बीच पारंपरिक और वैदिक रस्में चलती रहीं । सुबह की शुरुआत ही होती घर से बाहर नहाने की । घनघोर कोहरे और भारी ठंड के बीच यह सुबह का नहाना जैसे तपस्या सी बात हो गई थी । घर की सारी स्त्रियों को भी घर से बाहर ही नहाना होता था । गीजर , गरम पानी सपना हो गया था । दिन फलाहार में बीतता । रात को उबला भोजन । यह सब तो ठीक था । परंपरा का हिस्सा । लेकिन सब से कठिन था ठंड से लड़ना । दो ही रास्ते थे । निरंतर आग के पास रहना या फिर रजाई की शरण में रहना । कोयले और लकड़ी की पर्याप्त व्यवस्था थी । लेकिन चौरासी वर्षीय पिता जी एक साथ दो मोर्चे पर लड़ रहे थे । एक अम्मा का विछोह दूसरा ठंड । समझना कठिन ही था कि ठंड से उन्हें ज़्यादा तकलीफ है या कि अम्मा के विछोह से ज़्यादा तकलीफ है । एक सुबह नहाने के बाद अलाव के पास बैठे-बैठे पिता जी एक छोटे भाई से कहने लगे , तुम्हारी अम्मा चली भले गईं लेकिन जाने के बाद भी कड़ी परीक्षा ले रही हैं । जाड़ा उन पर ज़्यादा भारी था । लगभग अत्याचार की हद तक । सो वह अम्मा के विछोह और जाड़े में टूट रहे थे ।
जब दिल्ली में रहता था तब की अम्मा के साथ की एक फ़ोटो |
अब और वह सह नहीं सकती यह मुनादी कर दी है
अम्मा ने बुढ़ौती में पिता से खुल कर बग़ावत कर दी है
चंद्रमुखी थी , सूरजमुखी हुई उपेक्षा की आग में जल कर
अब ज्वालामुखी बन कर पिता की हालत ख़राब कर दी है
जैसे दबी-दबी स्प्रिंग कोई मौक़ा मिलते ही बहुत ऊंचा उछल जाए
सहमी सकुचाई अम्मा ने अचानक उछल कर वही ऊंची कूद कर दी है
पिता एकदम से ख़ामोश हैं अम्मा का भाषण मुसलसल जारी है
इस तेजाबी भाषण ने घर की बाऊंड्री में बारूदी हवा भर दी है
घर बचे या जल कर भस्म हो जाए परवाह नहीं किसी बात की उस को
यह वही अम्मा है जिस ने इस घर के लिए अपनी ज़िंदगी होम कर दी है
अब वह सिर्फ़ घर नहीं , बच्चे नहीं ,अपनी अस्मिता भी मांगती है
पिता जो कभी सोच सकते नहीं थे वह मांग उस ने आगे कर दी है
पुरुष सत्ता जैसे झुक गई है स्त्री की इस आग और अंदाज़ के आगे
जो झुकती नहीं थी कभी उस ने चुप रहने की विसात आगे कर दी है
पिता की तानाशाही उम्र भर चुपचाप भुगती कभी कुछ नहीं बोली
अब बोली है तो जैसे अन्याय के उस सूर्य की ही फ़ज़ीहत कर दी है
बच्चे ख़ामोश हैं , हैरान भी , न्यूट्रल भी माता पिता की इस इगो वार में
जवानी में जो करना था बुढ़ौती में अम्मा ने वह झंझट खुले आम कर दी है
अम्मा रोज भजन गाती थी तो घर खुशबू से भर जाता था , हम लोग महकते थे
घर में कर्फ्यू है , कोहरा है , इमरजेंसी से हालात ने सब की ऐसी-तैसी कर दी है
गंगा में जैसे बाढ़ आई हो , बांध और बैराज तोड़ कर शहर में घुस आई हो
अम्मा ऐसे ही कहर बन कर टूटी है पिता पर और जीना मुहाल कर दी है
हवा गुम है इस परवाज के आगे , चांद गुमसुम है , सूरज सनका हुआ सा
सीता वनवास से लौट आई है जैसे और राम की शेखी खंडित कर दी है
तब जब कि पहले के समय हमारी अम्मा ऐसी नहीं थी । धैर्य , धीरज , त्याग और समर्पण की प्रतिमूर्ति हमारी अम्मा एक मिसाल थी । हमारे परिवार में , हमारे गांव और समाज में । चुप-चुप रहने वाली हमारी अम्मा जैसे नीलकंठ विषपायी थी । अम्मा के विषपायी होने की कथाएं अनंत हैं । जाने कितने दर्द , अपमान , लांछन , यातना और पीड़ा में जलते मैं ने उसे बचपन में देखा है । साझा किया है यह सब । चुप-चुप । शायद यह गांव में संयुक्त परिवार की त्रासदी थी । जो मर्यादा और परंपरा की चादर तले अम्मा भुगतती रही थी । लेकिन जब हम सभी भाई जैसे-जैसे बड़े होते गए , अपने पैरों पर खड़े होते गए , अम्मा की यातना और पीड़ा की चादर कमज़ोर होती गई । अम्मा का स्वाभिमान और सम्मान सबल होता गया । सिर झुका कर गलत-सही सब कुछ सह जाने वाली हमारी अम्मा में हम भी मुंह में जुबान रखते हैं , वाला भाव आने लगा । अब उस का स्वर भी सुना जाने लगा । घर में , गांव में । दुःखियारी और दब्बू रहने का उस का भाव समाप्त हो गया था । यह मेरे लिए हर्ष का विषय था । अभी तक अम्मा सिर्फ बच्चों , रसोई , घर के कामकाज संभालती थी । अब घर की व्यवस्था भी संभालने लगी । राजनीतिक भाषा में कहूं तो श्रम मंत्री के साथ-साथ अब वह गृह मंत्री भी हो गई थी । अम्मा हमारी पढ़ी-लिखी नहीं थी लेकिन प्रबंधन के मामले में अच्छे से अच्छे एम बी ए को मात देती थी । घर में जब तक उस का प्रबंधन चला पूरे घर को भावनात्मक रूप से एक सूत में बांध कर रखा । यह भावनात्मक सूत इतना मज़बूत था कि कोई आंधी-तूफ़ान भी इस का बाल-बांका नहीं कर सका । सालों-साल अम्मा का यह प्रबंधन चला । मजाल क्या था कि जो काम वह ठान ले , वह काम न हो । और कि जिस भी किसी के जिम्मे जो काम वह तय कर दे , वह वह काम न करे । सभी भाई तो उस के अपने बेटे थे , अम्मा की बात सभी सिर झुका कर स्वीकार कर लेते थे । यहां तक कि अलग-अलग पृष्ठभूमि से आई , अलग-अलग मिजाज वाली सभी बहुएं भी अम्मा के भावनात्मकता के एक सूत में बंधी रहती थीं । यह बहुएं भी अम्मा की बात को राणा प्रताप के चेतक की तरह ख़ुशी ख़ुशी करती दिखती थीं । राणा की पुतली फिरी नहीं , चेतक तुरंत मुड़ जाता था ! के भाव में । यह सब देख कर पिता जी कई बार अम्मा को हर्ष भरा ताना देते कि , बेटों ने तुम्हारा दिमाग ख़राब कर दिया है , जाओ जो करना है , करो ! और बाद के दिनों में तो मैं ने देखा कि पिता जी को भी कोई काम कहना होता तो वह सीधे मुझ से कहने के बजाय अम्मा से ही कहलवाते । क्यों कि कई बार कुछ काम को ले कर अम्मा से कहता , अम्मा एह चक्कर में तू न फंस , बबुआ पर छोड़ द ! तब वह लाचार हो कर कहती , त ए बाबू , ई तोहरे पिता जी क ही फरमाइश है !
पिता जी के साथ के कुछ चित्र |
जब बीमार थी आमा तब के समय पिता जी के साथ |
अम्मा के साथ एक बात यह भी थी कि घर में कोई कहीं भी हो अगर बीमार पड़ जाए , कोई हादसा हो जाए , कोई दिक़्क़त हो जाए तो बिना किसी फोन , किसी सूचना के उसे मालूम हो जाता । वह खाना-पीना छोड़ देती । वह बिना कुछ जाने कहती कि , कहीं कुछ गड़बड़ भइल बा , केहू हमें बतावत नाहीं बा ! पिता जी फोन कर के पूछते , कि तुम्हारी अम्मा ने खाना-पीना छोड़ दिया है , कुछ हुआ है क्या ? सचमुच कुछ न कुछ हुआ ही होता । जो सिर्फ और सिर्फ अम्मा से इस लिए ही छुपाया जाता कि वह खाना-पीना छोड़ देगी । लेकिन वह तो छोड़ ही देती , बिना किसी सूचना के । जाने कौन सा सिस्टम था उस के पास , जाने कौन सा इंटियूशन था । तब भी जब फोन , मोबाईल नहीं था , सिर्फ चिट्ठी थी और अब भी । दिल्ली , लखनऊ कहीं भी रहूं । मैं बीमार पडूं या बच्चे । भाई या भाई के बच्चे । उसे पता चल जाता । कुछ भी उस से छुप पाता । निदा फाजली ने जैसे हमारी अम्मा के लिए ही लिखा था , दुःख ने दुःख से बात की , बिन चिट्ठी , बिन तार । लेकिन इधर कुछ समय पहले जब पिता जी अचानक लखनऊ में ही मेमोरी लास में चले गए तब अम्मा को कुछ पता नहीं चला । यह उस का दूसरा संकेत था विदा होने का लेकिन तब हम ने इस पर गौर नहीं किया । पहला संकेत उस ने जून में दिया था । जब बड़ी बेटी के विवाह के बाद ऑस्ट्रेलिया से लौटने के बाद उस को ले कर गांव गया था । अम्मा से मामा के घर चलने की बात कही । तो पहले तो वह तैयार हो गई । लेकिन जब चलने लगा तो अम्मा ने हाथ खड़े कर दिए । तक जाने की बात कहने लगी । क्यों कि उसी दिन थोड़ी देर में ही लौट आना था । यह पहली बार था उस के जीवन में कि वह मामा के घर जाने की बात पर खुश तो हुई लेकिन जा नहीं पाई । क्यों कि वह रहती भले हमारे गांव बैदौली में थी , पर उस की आत्मा अपने मायके जैती में ही रहती थी । प्रिया का जनकपुर शीर्षक कविता में मैं ने अम्मा के इस जनकपुर भाव का विस्तार से ज़िक्र किया है । वैसे भी मामा के गांव जाने के लिए वह कुछ भी कर गुज़रने को तैयार रहती थी । पर अब वह हार गई थी , अपने स्वास्थ्य से । तो अब पिता जी का हाल जानने को भी वह बहुत उत्सुक नहीं हुई । बस यही पूछती रही फ़ोन पर कि कब अइहैं ? कब ले उहां मौज करिहैं ? बाद के दिनों में बहुत इलाज के बाद जब पिता जी की आधी-अधूरी याददाश्त लौटी तब पिता जी में अदभुत बदलाव आ गया । वह अचानक से अम्मा की बहुत फ़िक्र करने लगे । अम्मा को जब कि उन की फिक्र नहीं रह गई थी । बिलकुल नहीं । एक बार तो इस बीच अम्मा - पिता जी दोनों लोग बीमार पड़ कर लखनऊ में एक साथ आ गए । तब भी पिता जी ही अम्मा का ख्याल करते रहे , अम्मा को उन की सुधि नहीं थी । तब जब कि पिता जी भी चेतना के स्तर पर मुश्किल में थे । पर उन की जब भी याददाश्त लौटती तब वह यही इच्छा जताते कि बस तुम्हारी अम्मा हमारे रहते चली जाएं । संयोग से अम्मा-पिता जी दोनों ही लखनऊ आते-जाते तो रहते लेकिन यहां इलाज के लिए ही आते । रहना बिलकुल ही नहीं चाहते थे । गांव में ही दोनों लोगों को अच्छा लगता था । दोनों की आत्मा और ख़ुशी जैसे गांव में ही रहती थी । पिता जी अभी भी गांव में ही रहना चाहते हैं । खैर दोनों लोग लौट गए बीते अक्टूबर के आखिर में । नवंबर में अचानक अम्मा रह-रह कर हमारे सामने खड़ी हो जाती । मैं परेशान हो गया । मैं समझ गया कि अम्मा याद कर रही है । पहुंच गया गांव । यह 26 नवंबर , 2017 का दिन था । अम्मा मुझे देख कर खुश हो गई । दूसरे दिन चलने लगा तो वही पुरानी बात कि , बाबू , अब कब अइबs ! मैं ने कहा , जल्दी आइब अम्मा ! वह खुश हो गई । जब भी मैं घर से चलता था तब अम्मा घर से निकल कर सड़क तक मुझे छोड़ने आती थी । हर बार अम्मा से कहता अम्मा , यहीं रह , हम चलि जाइब ! लेकिन अम्मा नहीं मानती थी , सड़क तक आ जाती थी । इस बार भी अम्मा को रोका कि अम्मा यहीं रुक , हम चलि जाइब ! अम्मा इस बार रुक गई , घर में ही । बचपन में गोरखपुर जाते समय जिस दरवाजे के पीछे बैठ कर वह मेरे आने के प्रतीक्षा करती थी , ठीक उसी जगह दोनों दरवाजों के बीच वह रुक गई । मैं समझ गया अम्मा की लाचारी । उस का चलना भी अब मुश्किल हो रहा था । मन में आया कि अब भगवान उसे बुला ही लें । दिसंबर में ही उस की तबीयत बिगड़ी । इलाज के लखनऊ आ गई । हर बार लखनऊ आते ही गांव की तैयारी कर लेती थी , बाबू कब पहुंचइब ! जैसे रट सी लगा लेती थी । वापस जा कर ही दम लेती थी ।इस बार लखनऊ आने पर उस ने गांव पहुंचाने की बात नहीं की । गई गांव ही , लेकिन अंतिम विदा ले कर ही , फिर कभी न आने के लिए । अभी मैं ने बताया था कि कहीं कुछ गड़बड़ या अप्रिय होता था तब अम्मा को बिना सूचना के ही खुद ब खुद सूचना हो जाती थी । इस बार भी ऐसी ही एक घटना हुई गांव में । जिस की सूचना उसे नहीं दी गई । गांव में सड़क किनारे भी हमारा एक घर था । जो फोर लेन सड़क बनने में चला गया । अम्मा का उस घर से बहुत लगाव था । पट्टीदारी के लंबे झगड़े और मुकदमे के बाद वह जगह मिली थी इस लिए भी । हमारा कारगिल था वह । चार साल पहले पिता जी ने बड़े शौक से वहां नया घर बनाया था । उस घर की बाउंड्री बीते 29 दिसंबर से टूटनी शुरू हुई । 29 को ही अम्मा की तबीयत गंभीर हुई । रात होते-होते उस की खनकदार आवाज़ डूबने लगी । आवाज़ गई और उलटी सांस चलने लगी । 30 दिसंबर की सुबह वह पौने सात बजे महाप्रस्थान कर गई । तो क्या उसे बिन बताए ही पता चल गया था कि घर गिराया जाने लगा है ? क्या पता ?
पर इतना तो पता ही है कि घर की बाउंड्री क्या गिरी हमारे सिर से मातृत्व की छाया गिर गई । घर तो हम बहुत बना लेंगे , पर अम्मा को अब हम कहां से और कैसे लाएंगे भला ?
अम्मा के श्राद्ध के बाद तीसरे दिन जब अब जीवित दोनों बुआ को पत्नी और बहुएं विदा करने लगीं तो दोनों ही बुआ जिस तरह फफक-फफक कर रोने लगीं , भौजी-भौजी गुहराते हुए बहुत देर तक सिसकती रहीं। बुआ लोगों का यह विलाप देख कर पूरा घर फिर से रो पड़ा । बुआ लोग रोते हुए ही कहने लगीं , भौजी रहलीं त नइहर बनल रहल । माई क कमी कब्बो महसूस नाहीं भइल । चलत के समय भौजी हरदम कहत रहलीं , बहिनी अब कब अइबैं ! अब ई के पूछी , कि बहिनी अब कब अइबैं ! सच तो यही है कि बुआ ही लोग क्या , कोई भी हो , अम्मा सब से ही यह पूछती रहती । हम से भी कि , बाबू अब कब अइबs ! अब बुआ लोगों से ही नहीं , मुझ से भी अब यह कोई पूछने वाला नहीं रहा , बाबू , अब कब अईबs !
असल में अम्मा का भावनात्मक प्रबंधन तो ताकतवर था ही उसे दो तीन चीज़ों का नशा भी ज़बरदस्त था । एक संचय का , दूसरे दान-पुण्य और व्रत उपवास का , तीसरे सफाई का । सफाई के बहाने छुआछूत का । इन तीन चीज़ों पर उस की आसक्ति ज़िद की हद तक थी । दान-पुण्य सिर्फ ब्राह्मणों को ही नहीं , निर्बल-दुर्बल और अक्षम लोगों को भी । यह चीज़ अम्मा ने हमारे नाना यानी अपने पिता से सीखी थी या कहूं कि विरासत में पाई थी । हमारे नाना अपने समय के प्रकांड पंडित थे । संस्कृत भाषा में आचार्य की डिग्री तो थी ही उन के पास लेकिन वह आचार्यों के भी आचार्य थे । बेहद पूजा पाठी और अनुशासन प्रिय । चंदन घिस कर रोज माथे पर लगाने वाले , बिना भोग लगाए भोजन नहीं करने देते किसी को घर में । वेश भूषा भी उन की सामान्य नहीं होती थी । मिर्जई पहन कर पगड़ी बांधे कर ही वह घर से निकलते थे । कभी घोड़े से , कभी पालकी से । अपने समय में ही उन्हों ने एक फार्म हाऊस बना कर सपरिवार रहना शुरू कर दिया था । लेकिन कई बार वहां डकैती पड़ जाने के बाद वापस फिर एक गांव में घर बना कर रहने लगे । नाना के आचार्यत्व का डंका पूरे इलाक़े में था । वह उर्दू और फ़ारसी के भी जानकार थे । हमारे बाबा भी स्कूल में हेडमास्टर थे । गणित और उर्दू पढ़ाते थे । अपने समय के मशहूर अध्यापक । लेकिन नाना की विद्वता के आगे बाबा भी नत हो जाते और उन्हें बड़ी विनम्रता से आचार्य जी , आचार्य जी कह कर ही संबोधित करते । नाना जब तक जीवित रहे , बाबा के लिए अकसर दूध देती गाय , भैंस उपहार में भेजते रहते थे । ज़्यादातर गाय । गऊ दान का महत्व वह जानते थे । नाना के घर तो गाय , बैल और भैंस की बहुतायत थी ही , हमारे घर भी कम से कम दो गाय , एक भैंस रहती ही थी । हमारे दो गांव हैं । तो दोनों ही गांव पर । दूध , दही , घी की कमी नहीं रहती । पर अब तो यह सब सपना है । तो नाना की दान-पुण्य की परंपरा को अम्मा ने निरंतर जारी रखी । अम्मा को आचार्य जी की बेटी होने का एक समय बहुत गुमान भी था । कभी कोई बात आती तो वह कहती भी कि हमहूं आचार्य जी क बेटी हईं !
अम्मा के साथ के कुछ चित्र |
बड़ी बेटी अनन्या जब शादी के बाद आस्ट्रेलिया से पहली बार जब गांव लौटी तो पारंपरिक रुप से स्वागत करती अम्मा |
गांव की गरीब और लाचार स्त्रियां अम्मा के पास आतीं , अपने दुखड़े , अपनी समस्याएं बतातीं अम्मा उन की मदद को खट तैयार हो जाती । स्त्री किसी भी जाति की हो । किसी का कोई प्रशासनिक काम फंस रहा हो तो अम्मा मुझे फ़ोन करती । और फ़ोन अगले को थमा देती , यह कह कर इन से बात समझ ल ! कई बार मैं कहता , अम्मा काहें एतना बवाल पालेलू ? तो वह कहती , ई बवाल नाहीं , आपन लोग है ! इसी लिए अम्मा की अंत्येष्टि की जब बात आई तो मुझे लखनऊ से उस का पार्थिव शरीर गांव ले जाना ही उपयुक्त लगा और ले गया । कि वह अपने लोगों के बीच से अंतिम विदा ले । पंडित जी आते उसे कोई दान समझा देते और वह फौरन तैयार हो जाती । गऊ दान तो सभी करते हैं , वह भी जब तब करती रहती । पर हमारी अम्मा तुला दान , पहाड़ दान जैसे तमाम दान भी करती गई । जो काफी खर्चीले होते हैं । कई कुंतल अनाज और श्राद्ध के सेज्जा वाली सारी सामग्री आदि भी होती है । हर बार वह यह सब समारोह पूर्वक करती रहती । हम सभी भाई लखनऊ से सपरिवार गांव पहुंचते । वह बहुत मनुहार से सभी को बुलाती । सब का आना सुनिश्चित करती । अयोध्या में एक बार सवा लाख दीपदान करने भी हम सब को ले गई । छोटे मोटे दान-पुण्य तो उस की नियमित दिनचर्या की बात थे । हर चीज़ को वह पाप-पुण्य के खाने में रख कर तौलती । पाप से उसे घृणा थी । पाप न करती थी , न किसी को करने देती थी । व्रत-उपवास से तो जैसे उस का याराना था । शायद ही कोई व्रत हो जो वह न करती रही हो । तीन-तीन , चार-चार दिन लगातार निराजल करते भी अम्मा को मैं ने देखा है । और बिना किसी हाय तौबा के । घर के सारे काम करते हुए । अजब सहनशक्ति थी उस में । भूख -प्यास को नियंत्रित करने की अदभुत क्षमता । वह लंबी यात्राओं में अपना संयम बनाए रखती । लगभग तपस्या करती । सोचिए कि जब मैं दिल्ली रहता था तब वह गोरखपुर से दिल्ली जब जाती तब पूरे रास्ते वह कुछ भी खाती-पीती नहीं थी । पानी भी नहीं । वैष्णो देवी की यात्रा में तो बारह किलोमीटर की पहाड़ी चढ़ाई भी वह पैदल चलती । पहली यात्रा में बड़ी मुश्किल से वह पानी पीने पर तैयार होती । फलाहार के लिए किसी तरह मान गई । घर के कई सारे लोग तब की बार साथ थे । कोई चौदह लोग । दो बुआ , फूफा , एक मौसी , मामा , एक चाचा चाची , अम्मा , पिता जी , भाई , हम हमारी पत्नी और बच्चे । अम्मा की देखा देखी चाची और मौसी , मामा ने भी कुछ खाना पीना स्थगित कर रखा था । चाची तो अम्मा की जेठानी भी लगती थीं । सो देवरानी न खाए और जेठानी खा ले , यह भला कैसे मुमकिन था । सो लाचारी में ही सही वह भी अपने को खाने-पीने से रोके हुई थीं । लेकिन भला कब तक रोकतीं ? दूसरे दिन सुबह-सुबह वह एक रेस्टोरेंट में चाचा के साथ राजमा चावल खाती दिखीं । अचानक मुझे वहां देख कर सकुचा गईं । मुझ से कहने लगीं , बाबू अब हम से रहि नाहीं जात रहल , का करीं । वह हाथ जोड़ कर बोलीं , लेकिन अपने अम्मा से जनि बतइह ! मैं ने यह बात अम्मा को क्या किसी भी को नहीं बताई । लौटते-लौटते मामा और मौसी का भी धीरज टूट गया । लेकिन अम्मा नहीं डिगी तो नहीं डिगी । वैष्णो देवी की यात्रा आगे भी कई बार अम्मा ने की और हर बार , हर यात्रा में वह खाने-पीने का अपना संयम बनाए रखी । तब जब कि वैष्णो देवी की यात्रा में आना-जाना ले कर सात-आठ दिन तो लग ही जाता था । इसी तरह गंगा सागर की यात्रा में हम सोलह लोग थे । अम्मा का खाने-पीने का हाल तब भी वही था । हालां कि हम लोग उस बार कोलकाता में खाने-पीने का सारा सामान ले कर गए थे और एक पूरा फ़्लैट किराया पर ले लिया था । गंगा सागर की इस यात्रा में भी सर्वदा की तरह वह सब को खिला कर ही कुछ ग्रहण करती । तो भी भय बना रहता कि कब क्या उस को खटक जाए और भोजन लेने से वह मना कर दे इस बिना पर कि रसोई तो अपवित्र हो गई । अम्मा की ऐसी अनेक कहानियां , अनेक खट्टी-मीठी यादें किसी सागर की तरह मन में हिलोर मारती रहती है । जब लखनऊ में वह होती तो बच्चे किचेन में जाने से पहले चार बार अम्मा को देखते और कहते , दादी देखिए चप्पल नहीं पहने हैं ! किचेन इलाके में जैसे कर्फ्यू सा लगा रहता। बाक़ी टोका-टाकी भी चलती रहती । अम्मा की आदत थी भोर में ही नहा लेने की । उस का नहाना , उस का खाना शुरू के दिनों में कोई नहीं जान पाता था । यह उस के घूंघट वाले दिनों की बात है । नहाना उस का बाद के दिनों में भी कोई नहीं जान पाता था । लेकिन जब वह इधर वृद्धावस्था की मुश्किलों से दो चार होने लगी तो भी भोर में नहा लेने का उस का जूनून नहीं गया। कई बार वह शाम को भी सुबह मान कर नहाने को तत्पर हो जाती । यह फ़्लैट में रहने की मुश्किल भी थी । इधर उस की दिनचर्या भी उलट-पुलट गई थी । दिन उस के सोए हुए होते , रातें जगी-जगी । इस दिनचर्या की दुश्वारी भी कह सकते हैं । मुझे बहुत समय तक यही लगता रहा कि अम्मा की यह छुआछूत और सफाई की जुगलबंदी ब्राह्मण होने की और गांव में जीवन बिता देने वाली ग्रंथि है । आचार्य जी की बेटी होने का दर्प है । लेकिन आखिर के दिनों में एक मित्रवत डाक्टर साहब ने बताया कि यह समस्या नहीं बीमारी है , जिसे वाशिंग मेनिया कहते हैं ।
बड़ी बेटी की शादी के किसी रस्म पर अम्मा को डांस करवाती छोटी बेटी , हंसती हुई एक बुआ |
अम्मा विदा लेने के पहले इन पांच - छह महीनों में दो हार्ट अटैक को धता बता चुकी थी । लेकिन असल दिक्कत उसे अपनी हड्डियों के कमज़ोर हो जाने की थी । वह डरी-डरी कहती कि , अंतिम समय में भगवान पता नहीं का चाहत हवैं । उस को अपने अचलस्त होने का भय सताता रहता । और कहती रहती , पता नहीं का होई ! के सेवा करी ! वह भगवान से मनाती रहती कि बिस्तर पकड़ने से पहले ही बुला लें । और संयोग देखिए कि सिर्फ महीने , दो महीने की दिक़्क़त और हफ्ते भर ही बिस्तर पर रहने के बाद ही वह महाप्रस्थान कर गई । वह चौबीस दिसंबर , 2017 की शाम थी जब अम्मा भाई की एक बेटी से उठा कर बैठाने के लिए कह रही थी । भाई की बेटी ने अम्मा से लापरवाही से पूछा क्या काम है ? अम्मा ने बहुत कातर हो कर उस से कहा कि , कौनौ काम न रही , टी उठ नाहीं सकेलीं ? भाई की बेटी ने मुझे यह देखते नहीं देखा , नहीं तो शायद ऐसा नहीं करती या कहती । लेकिन अम्मा की यह दशा देख कर मैं दहल गया । भगवान से हाथ जोड़ कर मनाने लगा कि भगवान अब तो अम्मा को बुला ही लीजिए । इस लिए भी कि एक बार इस यातना से अपने एक पुराने एक्सीडेंट में गुज़र चुका था । कोई उठाए तो उठूं , कोई बैठाए तो बैठूं । खुद से करवट लेना भी दूभर था । मन में यही आता था कि क्यों ज़िंदा हूं ? मर गया होता तो इस से अच्छा होता । अपनी लाचारी पर तरस आता । तो अम्मा की यह लाचारी मुझ से देखी नहीं गई । और अम्मा को बुला लेने की भगवान से मन्नतें मांगने लगा । इस के पहले जब भी अम्मा कहती कि , भगवान के इहां हमार टिकट पता नहीं कब कटी । तो हम उस को समझाते कि , अम्मा अबहिन कहां । बताता उस को कि छोटी बेटी की शादी देखनी है । वह फीकी हंसी हंस कर रह जाती और कहती , पहिले तय त कर । और अब यह समय था कि मैं ही भगवान से मना रहा था कि वह अम्मा को अब बुला लें । अम्मा की और हमारी भगवान ने जल्दी ही सुन ली । हफ्ते-दस दिन की सेवा और देख-रेख में वह विदा हो गई । अम्मा से बिछड़ने का गम तो बहुत है लेकिन उस को कष्ट से मुक्ति मिली इस बात का संतोष भी है और सुख भी । इसी लिए उस की अंतिम बारात को बैंड बाजा के साथ धूम-धाम से विदा किया । अम्मा का श्राद्ध भी इसी तरह धूम-धाम से किया ।
गांव में बेटे के यज्ञोपवीत पर अम्मा के साथ |
अम्मा चली गई । अपने साथ अपनी दो तीन इच्छाएं भी लेती गई । जैसे कि अंतिम समय में उस की बड़ी इच्छा थी कि सभी भाई और भाइयों का पूरा परिवार एक बार गांव में उस के साथ कुछ दिन रह ले । बीती दीपावली के पहले तय हुआ कि सभी लोग दीपावली गांव पर मनाएंगे । लेकिन अचानक एक भाई के बच्चों का कोई इम्तहान आ गया । टल गया अम्मा के साथ सभी का एक साथ गांव पर रहना । जो अब कभी संभव नहीं हो पाएगा । अम्मा के पांच बेटे थे , कोई बेटी नहीं । अपनी बेटी की कमी वह मेरी पत्नी में पूरी करती थी । लेकिन कन्यादान की उस की इच्छा बड़ी बलवती थी । उस ने किए थे दो कन्यादान घर की दो बेटियों के । वह मेरी बेटियों के भी कन्यादान करना चाहती थी । लेकिन जब बड़ी बेटी की शादी हुई तो अम्मा का स्वास्थ्य उस का साथ छोड़ने लगा था । खास कर पेशाब पर उस का नियंत्रण नहीं रह गया था । वाणी पर भी नियंत्रण नहीं रहा था । इन सब चीज़ों को देखते हुए पिता जी ने मना कर दिया । उस समय तो अम्मा चुप रह गई । लेकिन बाद में मुझ पर एक बार बिगड़ गई । कहने लगी , तू हमार हक़ छीन लेहल ! यह सुन कर मैं धक से रह गया । मन मसोस कर रह गया । मैं ने कहा , घबरा मत अम्मा , अबहिन छोटकी बेटी बा , ओकर कन्यादान कै दीह ! वह भड़क गई , जब रहब तब न ! हम ने कहा , अम्मा रहबू , घबरा मत ! लेकिन अम्मा चली गई । अम्मा की इन दो इच्छाओं को पूरा न कर पाने का मलाल अब जीवन पर्यंत बना रहेगा । नहीं हमारे साथ स्थिति तो यह थी कि सारी दुनिया एक तरफ , हमारी अम्मा एक तरफ । अम्मा की बात सर्वोपरि रहती थी मेरे लिए । इस लिए भी कि जमील ख़ैराबादी का एक शेर मैं सर्वदा अपने मन में रखता हूं :
इक इक सांस अपनी चाहे नज्र कर दीजे
मां के दूध का हक़ फिर भी अदा नहीं होता ।
दिल्ली में जब रहता था तब की अम्मा के साथ की फ़ोटो |
अम्मा की यादों की एक लंबी नदी है बिलकुल गंगा की तरह जो सागर में ही मिलती है , पर खत्म ही नहीं होती । यादों की इस बहती नदी को , यादों की नदी की इबारत को एक दिन में नहीं बांचा नहीं जा सकता । बांचता रहूंगा जब-तब ।
अम्मा के महाप्रस्थान पर अनगिन मित्रों ने शोक संवेदना भेजी , फोन किया । कुछ लोग तो रो पड़े । लेकिन हमारे अरविंद कुमार जी ने जो लिख कर भेजा , वह अप्रतिम था । उन के लिखे ने जैसे मुझ टूटते हुए को जैसे उबार लिया । अरविंद जी ने लिखा :
सुबह-सुबह फ़ेसबुक पर देखा यह दु:खद समाचार । रस्मी बातें नहीं कहूंगा । जब गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं, आत्मा शरीर बदलती है तो दुःख कैसा । वह असली बात नहीं कहते - दुःख बिछड़ने का होता है । और मां से बिछुड़ना - इस से बड़ा दुःख और क्या होगा । मां शब्द अपने आप में पूरी कविता है ।
और मेरे लिए तो हमारी अम्मा कविता भी थी , कहानी भी , उपन्यास भी । सब कुछ थी ।
सेवा भाव भी अम्मा में अदभुत था । अपने बच्चों की ही नहीं , घर में , परिवार में किसी भी को कोई दिक्कत हो अम्मा एक पांव पर खड़ी हो जाती । कोई भी हो घर आए और अम्मा उसे बिना भोजन के जाने दे , ऐसा हो नहीं सकता था । यथा संभव वह विदाई भी ज़रुर देती थी ।
हमारी एक बड़ी बुआ थीं । अपने आखिरी समय में वह संतान मोह में फंस गईं । जुआरी और शराबी दामाद ने उन को भरमा दिया । अपने घर ले गया और उन की सारी जायदाद , खेती बारी लिखवा लिया । बेटी को कैंसर था , वह मर गई । अब दामाद ने उन की जो दुर्दशा की , जो मार-पीट और अत्याचार , अनाचार किया , भूखों रखा , उस की कोई हद नहीं थी । मैं अकसर बुआ से मिलने जाता था । एक बार लखनऊ से गांव जाते समय गया । बुआ रास्ते में ही पड़ने वाले सहजनवा में रहती थीं । गया बुआ से मिलने । अम्मा भी साथ थी । बुआ की दुर्दशा देखी नहीं गई । अम्मा से पूछा , इन के ले चलीं अम्मा ? अम्मा ने छूटते ही कहा , हां ! और हम बुआ को ले आए । बुआ दो तीन साल बिस्तर पर ही रहीं । यह और ऐसी अनगिन कथाएं हैं अम्मा की सेवा की त्याग और समर्पण की । लोगों का साथ देने की ।
आज अम्मा को हम से बिछड़े एक महीना हो गया । आज अगर अम्मा होती तो वह अपने पहले मातृत्व का साठवां साल मना रही होती और मैं उस का ज्येष्ठ पुत्र अपना साठवां जन्म-दिन । जो हो न सका । अम्मा का आंचल कितना ताकतवर था , अम्मा की छाया का जादू क्या था , यह आज कोई मुझ से पूछे । तब जब आज मेरी अम्मा हम से बिछड़ गई हैं । साठ वर्ष का होने का पाठ मैं ने 30 जनवरी 2018 को पढ़ लिया । चुपचाप । हालां कि कुछ मित्रों ने तय किया था कि इस साठ को समारोहपूर्वक मनाया जाएगा । मैं ने खुद भी एक पारिवारिक समारोह अलग से सोच रखा था जिसे अम्मा-पिता जी की गरिमामयी उपस्थिति में आयोजित होना था । लेकिन समय को यह मंजूर नहीं था । 30 दिसंबर , 2017 को अम्मा महाप्रस्थान कर गई । सब कुछ शोक में डूब गया । मातृशोक से बड़ा कोई शोक नहीं होता । सो जब जन्मदात्री ही नहीं रही तो जन्म-दिन समारोह भला कैसा । सब कुछ रद्द कर दिया गया । फिर भी फेसबुक पर हज़ारों मित्रों ने बधाई संदेश भेजा , फ़ोन पर , वाट्स अप पर शुभकामनाएं परोसीं । आप सभी मित्रों का बहुत आभार । विनत हूं , कृतज्ञ हूं । आप सभी को प्रणाम करता हूं । उस दूर देश चली गई अम्मा को भी प्रणाम करता हूं । हालां कि अम्मा-पिता जी का आशीर्वाद ले कर इस साठवें जन्म-दिन को माता-पिता की उपस्थिति में साठ का होने का महत्व ही कुछ और होता , गुरुर और गौरव ही कुछ और होता । जन्मदात्री के साथ साठ का होने की उस स्वर्गिक अनुभूति की कल्पना ही कुछ और थी । मन था कि अम्मा की गोद में बैठ कर , उस का आशीर्वाद ले कर षष्ठपूर्ति की पूर्ति करुंगा । लेकिन समय को यह मंजूर नहीं था । अम्मा महाप्रस्थान कर गई , स्वर्गारोहण पर विदा हो गई । आप पूछ सकते हैं कि स्वर्गारोहण पर ही कैसे ? हमारे गांव में एक परंपरा सी रही है कि ब्रह्मभोज की रात चूल्हे की राख रसोई में ढंक कर रख दी जाती है । दूसरी सुबह उस राख को चलनी से चाला जाता है , आटे की तरह और बगल में एक कटोरी चावल रख दिया जाता है । माना जाता है कि मृत्यु पाए को जो अगला जन्म मिलता है उस राख में उस की छवि दिख जाती है । लेकिन हमारी अम्मा के लिए इस राख में कोई छवि नहीं मिली । मान लिया गया कि उस का नया जन्म नहीं हुआ । वह सीधे स्वर्ग गई । तो वह स्वर्ग गई । कटोरी से चावल भी गिरा अपने आप । यह शुभ माना जाता है । चावल के गिरने का मतलब होता है कि घर आगे जाएगा यानि तरक्की करेगा । यह सब घर की स्त्रियां ही करती-धरती हैं । चुपचाप । मुझे इस बारे में इस के पहले कभी कुछ मालूम नहीं था । लखनऊ लौट कर पत्नी ने यह सब बताया ।
आप कह सकते हैं कि यह सब तो अंध विश्वास है । तो स्वर्ग या ज़न्नत की कल्पना भी क्या है ?
सच यह है कि अम्मा थी तो घर जन्नत था । अब घर काट खाने को दौड़ता है ।
सच यह है कि अम्मा थी तो घर जन्नत था । अब घर काट खाने को दौड़ता है ।
बड़ी बेटी के विवाह के समय की एक पारिवारिक ग्रुप फ़ोटो |
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरूवार (01-02-2018) को "बदल गये हैं ढंग" (चर्चा अंक-2866) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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आऐदरणीया माता जी को नमन।।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बेहद मार्मिक
ReplyDelete''अम्मा की यादों की एक लंबी नदी है बिलकुल गंगा की तरह जो सागर में ही मिलती है,पर खत्म ही नहीं होती । यादों की इस बहती नदी को, यादों की नदी की इबारत को एक दिन में नहीं बांचा नहीं जा सकता । बांचता रहूंगा जब-तब ।''
ReplyDeleteसच में यादों की नदी को बहने से कोई नहीं रोक सकता
माँ को नमन
रुला दिया आपने। कुछ अपनी बेबसी कुछ आपकी जीवंत रचना ने।
ReplyDeleteबहुत आत्मीय मार्मिक संस्मरण ! नमन !
ReplyDeleteअत्यंत भावभीना संस्मरण.. पढ़ते पढ़ते मुझे भी अपनी अम्मा की याद साथ साथ चलने लगीं.. आपकी कलम प्रणम्य हैं..
ReplyDeleteमाँ को सश्रद्ध नमन. प्रणाम..🙏🙏🙏
बहुत ही मार्मिक लेखन। आंसू रोक नही पा रहा हूं। सादर नमन।
ReplyDeleteमार्मिक छित्रण। मां का वियोग बहुत तडपाता है ।
ReplyDeleteसामाजिक परिस्थितियों का सजीव आंकलन है आप का संस्मरण । मां को प्रणाम