Tuesday 15 March 2016

लेकिन राष्ट्रपति को लिखी कृष्णा सोबती की इस चिट्ठी के मायने भी क्या हैं ?

कृष्णा सोबती


एक मशहूर चीनी कहावत है कि इतने उदार भी मत बनिए कि अपनी बीवी किसी को गिफ्ट कर दीजिए । तो  सेक्यूलर और लिबरल होने की भी एक हद होती है । कोई खुले आम देशद्रोही नारे लगाए , अफजल को शहीद बताए, कश्मीर की आज़ादी मांगे और भारत तेरे टुकड़े होंगे इंशा अल्ला , इंशा अल्ला , भारत तेरी बरबादी तक जंग रहेगी जैसी बेहूदी बातें करेगा या कोई दूसरा उस की बगल में खड़ा उसे शह  देगा , सहमति और समर्थन देगा और फिर आप उस की पैरवी में प्राण प्रण से तमाम बेहूदा तर्क देते हुए खड़े हो जाएंगे तो माफ़ कीजिए दोस्तों हम आप की इस बेहूदगी के खिलाफ खड़े हैं । आप होंगे साहित्य के ख़ुदा , बने रहिए पर इस मुददे पर हम आप को ख़ुदा मानने से इंकार करते हैं । आप दे दीजिए संघी होने की गाली , बता दीजिए भाजपाई । कोई फ़र्क नहीं पड़ता । आप कर लीजिए राष्ट्र , साम्राज्य आदि को अपने चौखटे में परिभाषित । आप के इस चौखटे को हम तोड़ते हैं । अभी हिंदी की लेखिका आदरणीया कृष्णा सोबती का राष्ट्रपति को संबोधित एक पत्र सोशल साईट पर दौड़ रहा है । पूरी रफ़्तार से लोग इसे बांट रहे हैं प्रसाद की तरह ।  देशमोह और देशद्रोह के शोर से आतंकित बता कर प्रार्थना के रुप में । क्या बेहूदा मजाक है यह भी ।

लेकिन इस चिट्ठी के मायने भी क्या हैं ? यह लेखक देश और समाज की भावना से इतने ऊपर हो गए हैं ? क्यों भाई ? क्या खाते पीते हैं आप और क्या पहनते हैं जो इतने उदार हो गए हैं ? आप की उदारता का यह कट्टर पाठ अब आजिज कर रहा है । एकतरफा बातें किसी भी समाज को फासिज्म की तरफ ही धकेलती हैं । एक राजनीतिक पार्टी का विरोध आप को देश  खिलाफ क्यों खड़ा कर दे रहा है ? कि आप को किसिम किसिम का कुतर्क सामने रखना पड़ रहा है । खुल कर नरेंद्र  मोदी का राजनीतिक विरोध कीजिए । ईंट से ईंट बजा दीजिए । जनमत आप के साथ खड़ा मिलेगा । लेकिन सेना को बलात्कारी बताने की मुहिम में आप ख़ुद शामिल हो जाएंगे , देशद्रोही नारों को जस्टीफाई कर राजनीतिक विरोध करेंगे तो देश आप पर थूकेगा । जैसे कि इन दिनों थूक रहा है । ओवैसी कहता है कि हम भारत माता की जय नहीं बोलेंगे । आप चुप हो जाते हैं ।  कश्मीरी पंडितों या आतंकवाद की बात आती है आप चुप हो जाते हैं ।  कतरा कर निकल जाते हैं । तुर्रा यह कि आप सेक्यूलर हैं । सच यह है कि आप सेक्यूलर नहीं हिप्पोक्रेट हैं । फासिस्ट हैं । आप की चुनी हुई चुप्पियां और चुने हुए विरोध की मानसिकता पर , इस माइंड सेट पर अब चोट बहुत ज़रूरी है । निर्णायक चोट ।

अभी बहुत दिन नहीं हुए जब पाखी ने तमाम तर्क और प्रमाण के साथ महुआ माजी के उपन्यास मैं बोरिशा इल्ला के उपन्यास पर चोरी का आरोप लगाया था। इस उपन्यास का ब्लर्ब लिखने वालों में एक नाम प्रतिष्ठित लेखिका कृष्णा सोबती का भी था। लेकिन जब चोरी के विवाद का बवंडर उठा तो पाखी ने उन से इस बाबत पूछा था तो उन्हों ने पूरी ईमानदारी से कहा था कि अब उम्र ज़्यादा हो जाने के कारण वह बहुत पढ़ नहीं पातीं । प्रकाशक ही कुछ लिख कर लाए थे , मैं ने सहमति दे दी थी । 

नामवर सिंह
इसी तरह लगभग उन्हीं दिनों एक लेखिका ज्योति कुमारी भी तहलका मचा रही थीं । दो सौ किताब बिक जाने पर बेस्ट सेलर का तमगा पा रही थीं । और यही वृद्ध लेखक अपनी बुजुर्गियत हंसी उड़वा कर ज्योति कुमारी के कसीदे पढ़ रहे थे , दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में । जितनी आमदनी किताब बिकने से नहीं हुई होगी उस से हज़ार गुना खर्च प्रकाशक इस समारोह पर खर्च कर गया था । पर यह सब तो बाद की बात है । इस के पहले दिल्ली में प्रगति मैदान के पुस्तक मेले में ज्योति कुमारी के इसी कहानी संग्रह दस्तखत के विमोचन में नामवर से लगायत राजेंद्र यादव आदि-आदि तक उपस्थित थे । जिस पर विमोचन में ही तुरंत एक विवाद उपस्थित हुआ । इस किताब की भूमिका नामवर सिंह के नाम से छपी थी । लेकिन अपने अध्यक्षीय भाषण में नामवर सिंह ने साफ कहा कि दस्तखत पर मेरे दस्तखत नहीं हैं । दिलचस्प यह था कि यह दस्तखत कहानी संग्रह वाणी प्रकाशन ने दो दिन के भीतर छापा था । इस के पहले यही संग्रह राजेंद्र यादव के आशीर्वाद से राजकमल प्रकाशन छापने वाला था । कहा जाता है राजकमल ने ज्योति कुमारी का यह संग्रह छाप भी दिया था पर संग्रह का नाम बदल दिया था । जिस पर ज्योति कुमारी नाराज हो गईं । और संग्रह वापस ले लिया । लेकिन किताब के विमोचन आदि की तारीख़ घोषित थी । सो उसी तारीख़ पर दो दिन के भीतर कहानी संग्रह छपा और विमोचित हुआ । दिलचस्प यह कि राजकमल प्रकाशन के भाई वाणी प्रकाशन ने छापा । जिस में नामवर ने कहा कि दस्तखत पर मेरे दस्तखत नहीं हैं । लेकिन हफ्ते भर में नामवर का बयान बदल गया । उन्हों ने कहा कि यह भूमिका मुझ से हुई बातचीत के आधार पर लिखी गई है । लेकिन अगले हफ्ते नामवर का बयान फिर बदल गया । नामवर ने लिख कर बयान जारी किया कि असल में तब के दिनों जाड़ा बहुत था , मेरा हाथ कांप रहा था सो बोल कर भूमिका लिखवाई । आखिर नामवर पर ऐसा कौन सा दबाव था जो उन्हें बार-बार अपनी बात बदलनी पड़ी ? ज़िक्र ज़रूरी है कि यह वही ज्योति कुमारी हैं जो राजेंद्र यादव के अंतिम समय में उन के छीछालेदर का सबब बनीं और अंततः उन की मृत्यु का सबब भी । तो बुजुर्ग लेखक ऐसे ही लोगों की भावनाओं , प्यार और आदर के वशीभूत आ जाते हैं और लोग जो चाहते हैं , आशीर्वाद रुप में प्राप्त कर लेते हैं । कृष्णा सोबती की राष्ट्रपति को लिखी इंटरव्यूनुमा इस चिट्ठी को भी मेरी राय में इसी रुप में आदर सहित लिया जाना चाहिए । लेखकों ने अपने लिखे , अपने कहे की गरिमा किस तरह और कितनी बार धोई है , कि अब वह शेष भी कहीं नहीं है , यह भी कोई बताने की बात है भला ? एक अभिनेता अनुपम खेर इन लेखकों की ज़िद की सारी जिल्द उतार देता है , देश की आवाज़ बन जाता है । उस टेलीग्राफ़ अख़बार के समारोह में जो घोषित रुप से असहिष्णुता मुद्दे पर अभियानरत है , आज़ादी मुद्दे पर एक्टिविस्ट की तरह काम कर रहा है । लेकिन अनुपम खेर नामक अभिनेता वहां सब को चुप करवा देता है । इस लिए कि वह देश की आवाज़ बन कर बोलता है । पर हिंदी का लेखक रिरिया भी नहीं पाता ठीक से । क्यों कि वह अपनी अकड़ और ज़िद में देश की ज़ुबान और भावना भूल गया है । अपनी ज़मीन से कट गया है । अपने से असहमत होने वाले सभी लोगों को संघी और भाजपाई होने का कुतर्की तमगा थमा कर रेत में सिर धंसा चूका है । इसी लिए अब न उस को कोई पढ़ता है , न उस की कोई बात सुनता है । अपनी इन्हीं करतूतों से हिंदी का लेखक अब हाशिये पर भी नहीं रह गया है । समाज में मज़ाक का सबब बन गया है । 

ख़ास कर तब और जब अब  जे एन यू की जांच कमेटी ने कन्हैया समेत पांच छात्रों को देशद्रोही नारे मामले में दोषी पा कर उन्हें जे एन यू से निकालने की सिफारिश कर दी है । दिल्ली हाईकोर्ट की न्यायमूर्ति प्रतिभा रानी द्वारा कन्हैया को दिए गए अंतरिम ज़मानत के बाबत दिए गए आदेश में भी इस मामले में कन्हैया सहित जे एन यू को तमाम नसीहत और जे एन में सर्जरी की सलाह भी हमारे सामने है । तो कृष्णा सोबती जी के इस पत्र की प्रासंगिकता स्वत: समाप्त हो जाती है । इस बाबत संघी फंगी साज़िश की बात करने की बात सिर्फ़ बेहूदगी है । फासिज्म है । असहिष्णुता से शुरू हुई , हांफती हुई एक फासिस्ट यात्रा का पड़ाव भर है , और कुछ नहीं । कि अब आप को 91 वर्ष की एक आदरणीय लेखिका का कंधा भी लेना पड़ गया है । चिट्ठी प्रायोजित करनी पड़ गई है । मंज़र भोपाली का एक शेर है , अपने बल पे लड़ती है अपनी जंग हर पीढ़ी / नाम से बुजुर्गों के अज्मतें नहीं मिलतीं । बल्कि मंज़र भोपाली की यह पूरी ग़ज़ल यहां बहुत मौजू है

बेअमल को दुनिया में राहतें नहीं मिलतीं
दोस्तों दुआओं से जन्नतें नहीं मिलतीं

इस नए ज़माने के आदमी अधूरे हैं
सूरतें तो मिलती हैं, सीरतें नहीं मिलतीं

अपने बल पे लड़ती है अपनी जंग हर पीढ़ी
नाम से बुजुर्गों के अज्मतें नहीं मिलतीं

जो परिंदे आंधी का सामना नहीं करते
उनको आसमानों की रफतें नहीं मिलतीं

इस चमन में गुल बूटे खून से नहाते हैं
सब को ही गुलाबों की किस्मतें नहीं मिलतीं

शोहरतों पे इतरा कर खुद को जो खुदा समझे
मंज़र ऐसे लोगों की तुर्बतें नहीं मिलतीं

वैसे दिलचस्प यह भी है कि असहिष्णुता के चैम्पियन  अशोक वाजपेयी कामरेड कन्हैया और जे एन यू में बीते 9 फरवरी को लगे देशद्रोही और जहरीले नारों पर सिरे से चुप हैं । उन की यह चुप्पी सालती बहुत है । कोई जाए भी अशोक वाजपेयी के भी पास और लिखवाए एक चिट्ठी उन से भी । फ़िलहाल तो कृष्णा सोबती की चिट्ठी पढ़िए । जिसे जाने किस विद्वान ने ड्राफ़्ट किया है । क्यों कि यह चिट्ठी बहुत बेतरतीब और बहुत बिखरी-बिखरी है । न धार है न केंद्रीय बिंदु । सिर्फ़ लफ्फाजी है और कृष्णा सोबती का नाम है । राष्ट्रपति इस का संज्ञान भी खैर क्या लेंगे लेकिन आप तो यहां पढ़ ही सकते हैं । मंज़र भोपाली के इस शेर की रौशनी में :

बेअमल को दुनिया में राहतें नहीं मिलतीं
दोस्तों दुआओं से जन्नतें नहीं मिलतीं



कृष्णा सोबती की चिट्ठी

महामहिम की सेवा में कृष्णा सोबती का निवेदन

महामहिम राष्ट्रपति जी की सेवा में


सम्प्रभुतापूर्ण भारत देश राष्ट्र की कोटि-कोटि सन्तानों के पुरोधा राष्ट्रपति जी!

आप हमारी वैचारिक, लोकतांत्रिक और संस्कृति के संरक्षक हैं —

हम भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों में आस्था रखनेवाले नागरिक आपके सन्मुख इस प्रार्थना के साथ उपस्थित हैं कि देश आज जिस संकट के सामने है, आप उसे गंभीरतापूर्वक देखें। देश को विभाजित करनेवाले कोलाहल की हर प्रतिध्वनि आप तक पहुँचती है, जो आज हो रहा है और जिसके कारण देश तनाव में है–उसके सम्मिलित स्वर को लेकर हम आपके सामने हाजिर हैं।

राष्ट्र की राजनीतिक-सामाजिक गतिविधियों का लेखा-जोखा और संवैधानिक-नैतिक व्यावहारिकता की राजनैतिक पुष्टि और उल्लंघन, दोनों आप तक लगातार पहुँचते हैं।

महामहिम, इस सन्दर्भ में हैदराबाद विश्वविद्यालय के दलित छात्र रोहित की आत्महत्या का दुखदायी प्रकरण और इसके पीछे आतंकित करते दलित छात्र-दमन जैसे कई मामले हमारे लोकधर्म को पछाड़ने की भरसक कोशिश में हैं।

हम भारत की साधारण प्रजाएँ–एक साथ पुरानी विसंगतियों और विषमताओं से उबरते हुए लोकतंत्र की उन बरकतों को छूना चाहते हैं जो संविधान के अनुरूप भारतीय लोकतांत्रिक जीवन-शैली से उभर रही हैं। हम भारतवासी संविधान द्वारा प्रदत्त नागरिक बराबरी और मानवीय अस्मिता के सम्मान को प्रतिष्ठित करना चाहते हैं।

देश में निवास करते पिछड़े, दलित और विभिन्न दलित समूह विश्वविद्यालयों में कैसी परिस्थितियों का सामना कर रहे हैं, वह आज सर्वविदित है।

इन क्रूर स्थितियों, परिस्थितियों का इतिहास कम लम्बा नहीं।

राष्ट्रपति जी, हमारे देश का लोकतंत्र जिस मानवीय बिरादरी में आस्था रखता है, भारत का हर नागरिक वहाँ तक पहुँचना चाहता है।

संविधान ने हर हिन्दुस्तानी को बराबरी का अधिकार दिया है।

हर हिन्दुस्तानी अपने देश के संविधान से बँधा हुआ है। उसके गुणों में आस्था रखता है।

महामहिम, भारत के ऊँचे, सफल, पिछड़े सभी प्रजाजन देश के संविधान के जनक अम्बेडकर जी को शत-शत प्रणाम करते हैं जिन्होंने राष्ट्र के लोकतांत्रिक संस्कार को संविधान में बाँधकर यह वरदान दिया।

आपके सामने नतमस्तक हो विनम्रतापूर्वक यही प्रार्थना है कि आज लोकतंत्र में जो विद्रूप और अमानवीय विसंगतियाँ उभर रही हैं, उनका राजनैतिक समाधान आप करें।

महामहिम आप राष्ट्र के सत्तातंत्र के सर्वोपरि हैं। राष्ट्र की विचारधारा किस ओर जा रही है, वह आप देख ही रहे हैं।

अपने देश का भूगोल, इतिहास भारतवासियों के एकत्त्व में गुँथा है। उसे तानाशाही राष्ट्रवाद की ओर बढ़ते देख, हम नागरिक चिन्ता में हैं।

भारतीय विवेक सदियों-सदियों से विभिन्नताओं में भारत के एकत्त्व को रचता आ रहा है। इसकी यह संरचना विश्वप्रसिद्ध है।

एक स्वतंत्र देश के नागरिक के रूप में भारत का हर विशेष और साधारण जन इन्हीं मानवीय सम्बन्धों को गरमाहट से जीना चाहता है।

हम साधारण नागरिक यह समझने में असमर्थ हैं कि जेएनयू जैसे विश्वविद्यालय के छात्र नेता-कन्हैया से पुलिस द्वारा पूछताछ करने के दौरान उसे बगैर गुनाह साबित हुए क्यों पीटा गया और पटियाला हाउस में वकीलों ने किस विचारधारा से प्रेरित हो उस पर हमला किया।

मान्यवर, लोकतंत्र की राष्ट्रीय विरासत कन्हैया जैसे युवाओं को पीटने, धमकाने और सजा देने में नहीं, उनकी प्रतिभा को देश के लिए इस्तेमाल करने में हैं।

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय और उस जैसे अन्य विश्वविद्यालयों में पनप रही विचारधाराएँ इस बात का प्रमाण हैं कि आज के भारत का युवा-समाज आत्मनिरीक्षण से अपनी चेतना को स्फूर्त करता है, संकुचित आत्ममुग्धता से नहीं। वह अपनी सुयोग्यता से सार्वजनिक जीवन में अनुशासन और आत्मविश्वास से अग्रसर होता है।

महामहिम भारत देश के बहुजातीय, बहुधर्मी, बहुभाषी समाजों की अस्मिता को किसी संकीर्ण सांस्कृतिक विचारधारा से नत्थी करना सेहतमन्द पक्षधरता का प्रतीक नहीं।

जिस वैचारिक नियंत्रण की यह भूमिका है, वह हमारे देश की उभरती पीढ़ियों की लोकतांत्रिक अवधारणाओं और विश्वासों के विपरीत है।

महामहिम, लोकतंत्र के नाम पर ही अगर विश्वविद्यालय में लोकधर्म का अंग-भंग होगा तो यह नागरिक समाज की लोकतांत्रिक आस्था को भी घायल करेगा और यह संकीर्णता देश की बौद्धिक प्रतिभा और ऊर्जा का भी ह्रास कर देगी।

महामहिम आज हम जो भी लगातार सुन-पढ़ रहे हैं, वह लोकतांत्रिक मूल्यों के नितान्त विपरीत है। हम लाखों-लाखों नागरिक राष्ट्र के भविष्य के लिए चिन्तित हैं।

          

आपकी सेवा में

भारत के नागरिक समाज की एक प्राचीन सदस्य

कृष्णा सोबती

( वो नागरिक जो देशमोह और देशद्रोह के शोर से आतंकित हैं वह हमारी प्रार्थना में शामिल हों और अपनी नागरिक संज्ञा का नाम दें )

 कृष्णा सोबती की यह चिट्ठी शब्दांकन से साभार ली गई है। इस का मूल लिंक यह है :  

http://www.shabdankan.com/2016/03/krishna-sobti-letter-to-president.html

3 comments:

  1. मूल समस्या "इंडिया इंटरनेशनल सेंटर" का सुख भोगने वाले जो अप्रत्यक्ष तौर पर खुद को भारत भाग्य विधता मानते है क्युकि देश के पैसे पर सुख भोगते २ जो अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्ध बनाये है वो कहीं न कहीं देश को प्रभावित करता है

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  2. सही बात है पांडे जी! आज खुद को आधुनिक और निष्पक्ष विचारक दिखाने के चक्कर में कुछ लोग देश के खिलाफ खड़े होने में भी हिचक महसूस नहीं कर रहै।

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  3. सर,आज so called सेकुलर लेखको को भारत की चिंता बहुत हो गई है.हमें तो इन पर तरस ही आ रही है.

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