नवीन जोशी के रिटायरमेंट के बहाने कुछ सवाल , कुछ बतकही
हिंदुस्तान के लखनऊ में कभी कार्यकारी संपादक रहे नवीन जोशी ने आज अपने रिटायर हो जाने की सूचना फेसबुक पर परोसी है । साथ ही अपने तीन संपादकों को भी बड़े मन से याद किया है । स्वतंत्र भारत के अशोक जी , नवभारत टाइम्स के राजेंद्र माथुर और हिंदुस्तान की मृणाल पाण्डे की । बताया है कि उन को बनाने में इन तीनों का बहुत योगदान रहा है । उन्हों ने लिखा है :
छात्र जीवन में छिट-पुट लिखने की कोशिश करते इस युवक को ठाकुर प्रसाद सिंह और राजेश शर्मा ने बहुत प्रेरित और उत्साहित किया. अशोक जी पहले सम्पादक और पत्रकारिता के गुरु मिले. उन्होंने खूब रगड़ा-सिखाया. नई पीढ़ी अशोक जी के बारे में शायद ही जानती हो. वे दैनिक ‘संसार’ में पराड़कर जी के संगी रहे और उन ही की परम्परा के और विद्वान सम्पादक थे. उन्होंने हिंदी टेलीप्रिण्टर के की-बोर्ड को तैयार करने में बड़ी भूमिका निभाई थी, हिंदी में क्रिकेट कमेण्ट्री की शुरुआत की थी और भारत सरकार के प्रकाशन विभाग में रहते हुए हिंदी में तकनीकी शब्द कोशों के विकास का मार्ग प्रशस्त किया था. फिर राजेंद्र माथुर मिले जिनके मन में आधुनिक हिंदी पत्रकारिता का विराट स्वप्न (विजन) था और ज़ुनून भी जिसे वे अपनी टीम के नवयुवकों के साथ शायद ज़्यादा बांटते थे. 1983 में ‘नव भारत टाइम्स’ का लखनऊ संस्करण शुरू करते वक़्त पत्रकारों की भर्ती के लिए जो विज्ञापन उन्होंने खुद लिखा था उसके शब्द आज भी दिमाग में गूंजते हैं- “…वे ही युवा आवेदन करें जो स्फटिक-सी भाषा लिख सकें और जिन्हें खबरों की सुदूर गंध भी उत्साह और सनसनी से भर देती हो.” (नई पीढ़ी के पत्रकार और पत्रकारिता के छात्र गौर फरमाएं ) आज जब मीडिया में भाषा ही सबसे ज़्यादा तिरस्कृत हो रही हो तो अशोक जी और राजेंद्र माथुर बहुत याद आते हैं. यहां मृणाल (पाण्डे) जी का भी ज़िक्र करना चाहूंगा जिनके साथ अखबार की भाषा (चंद्रबिंदु को लौटा लाने तक की कवायद) पर काम करने से लेकर रचनात्मक और सार्थक पत्रकारिता के सुखद अवसर भी मिले.
नवीन जोशी को मैं भी लिखने के लिए जानता हूं । लेकिन बतौर संपादक उन का क्या योगदान रहा है पत्रकारिता में इस पर अभी पड़ताल करना बाकी है । उन की इस फेसबुकिया टिप्पणी पर प्रमोद जोशी ने एक संक्षिप्त पर चुटीली टिप्पणी की है :
Pramod Joshi शुभकामनाएं। नौकरी और पत्रकारिता दो अलग बातें हैं।
नवीन जोशी को इस दर्पण में भी अपने संपादक को ज़रूर देखना चाहिए । बतौर संपादक नौकरी करना या अशोक जी, राजेंद्र माथुर और मृणाल पाण्डे की तरह कोई अलग से छाप छोड़ना , अखबार पर भी और अपने सहयोगियों पर भी दोनों दो बातें हैं । और पता नहीं क्यों मुझे लगता है कि नवीन जोशी ने बतौर संपादक नौकरी ही की है । संपादक रूप उन का जो दिखना चाहिए हमारे जैसे उन के प्रशंसकों को तो नहीं दिखा । और कि नवीन जोशी से कम से कम मेरी यह अपेक्षा तो नहीं ही थी । नवीन जोशी को मैं एक जागरूक , दृष्टि संपन्न और चेतना संपन्न लेखक के तौर पर भी जानता हूं । दावानल जैसा उपन्यास उन के खाते में दर्ज है । उन की भाषा और उन की शार्पनेस पर मैं मोहित भी हूं । लेकिन उन का संपादक रूप हद दर्जे तक निराश करता है । शायद इस लिए भी कि अब संपादक नाम की संस्था कम से कम हिंदी पत्रकारिता से तो विदा हो ही गई है। हिंदी अखबारों में अब संपादक का काम मैनेजरी और लायजनिंग भर का रह गया है । अखबार से भाषा का स्वाद बिला गया है । सो वह पढ़ने का चाव भी जाता रहा है । एक घंटे के अंदर आप पांच-छ अखबार पलट सकते हैं । क्यों कि पढ़ने लायक कोई पीस जल्दी मिलता ही नहीं कहीं । किसी अखबार में अब शुद्धता और वर्तनी आदि की बात करना अब दीवार में सर मारना ही रहा गया है । और संपादक अब सिर्फ़ और सिर्फ़ प्रबंधन की जी हुजूरी करने, तलवे चाटने और दलाली करने के लिए जाने जाते हैं । बिना इस के कोई एक दशक , दो दशक तो क्या दो दिन भी अब संपादक नहीं रह सकता । किसी भी जगह । आइडियालजी वगैरह अब पागलपन के खाने में फिट हो जाने वाली बात हो चली है । और कि संपादक कहे जाने वाले लोग भी अब अपराधियों की तरह बाकायदा गैंग बना कर काम करते हैं । माफ़ करेंगे नवीन जोशी भी क्यों कि मैं सारे आदर और सारे जतन के बाद भी बहुत जोर से कहना चाहता हूं कि नवीन जोशी ने भी बतौर संपादक इन्हीं सारे ' पुनीत ' कर्तव्यों का निर्वहन किया है । नहीं बेवजह ही प्रमोद जोशी नहीं कह रहे कि ,
'शुभकामनाएं। नौकरी और पत्रकारिता दो अलग बातें हैं।'
ज़िक्र ज़रूरी है कि एक समय प्रमोद जोशी और नवीन जोशी एक ही सिक्के के दो पहलू माने जाते रहे हैं । स्वतंत्र भारत , नवभारत टाइम्स से लगायत हिन्दुस्तान तक में । इन दोनों नाम की तूती सुनी जाती रही है । फर्क सिर्फ यह रहा कि प्रमोद जोशी अपने पढ़े लिखे होने का अहसास कराते रहे हैं और कि नवीन जोशी लिखते पढ़ते भी रहे हैं । लखनऊ के पत्रकारपरम में दोनों के घर भी अगल-बगल थे । अब प्रमोद जोशी लखनऊ छोड़ गए हैं । खैर , बीच में एकाध बार दोनों के बीच मतभेद की भी खबरें उड़ती रहीं । पर जब हिंदुस्तान में मृणाल पाण्डे प्रधान संपादक बनीं और पर्वत राज का जो डंका बजाया वह तो अद्भुत था । शिवानी जैसी संवेदनशील रचनाकार की बेटी जो खुद भी समर्थ लेखिका हैं , विदुषी हैं, विजन भी रखती हैं उन के नेतृत्व में हिंदुस्तान अखबार में जो पर्वतराज का जंगलराज चला और देखा गया वह तो अद्भुत था । जैसे बुलडोजर सा चल गया था तब के दिनों । और इन विदुषी मृणाल पांडे के पर्वतराज के वाहक लेफ्टिनेंट भी कौन थे भला ? अरे अपने यही दोनों जोशी बंधु ! प्रमोद जोशी दिल्ली में तो लखनऊ में नवीन जोशी । उन दिनों हिंदुस्तान में नौकरी पाने और करने की अनिवार्य योग्यता पर्वतीय होना मान ली गई थी । जो इस पर्वत राज के आगे नहीं झुके उन्हें पहले तो ऊंट बनाया गया और फिर भी जो वह अकड़ कर खड़े रह गए तो उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया गया । लेकिन यह मेरी जानकारी में बिलकुल नहीं है कि ऐसे किसी मामले में नवीन जोशी ने इस बुलडोजर का हलके से भी कभी प्रतिवाद किया हो । उलटे छटनी किन की होनी है इस की सूची प्रबंधन को देते रहे । और उस हिंदुस्तान में जहां के बारे में खुशवंत सिंह ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि जब उन्हों ने हिंदुस्तान टाइम्स ज्वाइन किया तो ज्वाइन करने के हफ़्ते भर बाद ही के के बिरला उन से मिले। और पूछा कि काम-काज में कोई दिक्कत या ज़रुरत हो तो बताइए। खुशवंत ने तमाम डिटेल देते हुए बताया कि अल्पसंख्यक नहीं हैं स्टाफ़ में और कि फला-फला और लोग नहीं हैं। ऐसे लोगों को रखना पड़ेगा और कि स्टाफ़ बहुत सरप्लस है, सो बहुतों को निकालना भी पड़ेगा। तो के के बिरला ने उन से साफ तौर पर कहा कि आप को जैसे और जितने लोग रखने हों रख लीजिए, पर निकाला एक नहीं जाएगा।
मनोहर श्याम जोशी जब साप्ताहिक हिंदुस्तान के संपादक थे तब उन के पास भी बहुतों को नौकरी मांगने आते देखा है । वह बहुत प्यार से अगले को बिठाते । चाय-वाय पिलाते, नौकरी पाने के कुछ दूसरे टिप्स और जगहें बताते। मजे-मजे से । उन दिनों दिल्ली प्रेस की तजवीज हर कोई देता था । जोशी जी भी बता देते । क्यों कि वहां लोग आते-जाते रहते थे । फिर वह कहते कि जब तक नौकरी नहीं मिलती है तब तक यहां लिखिए । वह विषय भी सुझाते और समझाते कि कैसे कहां उस बारे में सामग्री मिलेगी, आंख बंद किए-किए ही बताते । सप्रू हाऊस से लगायत अमेरिकन लाइब्रेरी तक के वह अंदाज़ और तरीके सुझाते । बताते कि किस में कहां कौन सी किताब मिलेगी और कि कहां कौन सा रेफरेंस । रेफरेंस लाइब्रेरी तब के दिनों निश्चित रूप से सप्रू हाऊस लाइब्रेरी की ही बड़ी सी थी । इस के बाद टाइम्स आफ इंडिया का नंबर आता था । दिनमान जैसी साप्ताहिक पत्रिका तक में रेफरेंस लाइब्रेरी थी । और कि कुछ रेफरेंस हिंदी में भी मिल जाते थे । कई बार लखनऊ में यह देख कर तकलीफ होती है कि यहां किसी भी लाइब्रेरी या अखबार के दफ्तर में में रेफरेंस लाइब्रेरी ही नहीं है । लाइब्रेरी भी नदारद है अखबार के दफ्तरों में । कहीं कहीं खानापूरी के तौर पर हैं । और तो और अगर ज़रूरत पड़ जाए तो किसी पाठक को तो किसी अखबार की कोई फ़ाइल भी कहीं नहीं मिलती । खुद उस अखबार के दफ्तर में भी नहीं। खैर उस वक्त मनोहर श्याम जोशी से अगर उसी संस्थान में कोई नौकरी मांगता तो वह जैसे तकलीफ से भर जाते और कहते कि भैया यह तो मेरे हाथ में नहीं है । साफ बता देते कि यहां तो सब कुछ ऊपर से तय होता है । राजनीतिक सिफारिश चलती है । आलम यह है कि अगर आफिस आते-जाते कोई दो-चार दिन किसी कुर्सी पर नियमित बैठा मिल जाता है और नमस्ते करता रहता है तो मैं समझ जाता हूं कि यह मेरा नया सहयोगी है । कह कर वह खुद हंसने लगते । लेकिन वह कभी किसी को निकालते - विकालते भी नहीं थे । वैसे भी टाइम्स या हिंदुस्तान जैसे संस्थान में तब के दिनों मान लिया जाता था कि एक बार जो घुस गया नौकरी में तो घुस गया । सरकारी नौकरी की तरह वह रिटायर हो कर या कहीं संपादक हो कर ही निकलता था । मनोहर श्याम जोशी खुद भी दिनमान में थे और साप्ताहिक हिंदुस्तान में संपादक हो कर आए थे । लेकिन अब उसी हिंदुस्तान में बीते कुछ समय से परिदृश्य बदल सा गया है । कब कौन निकाल दिया जाए कोई नहीं जानता । और लगभग हर किसी अखबार में अब यही स्थिति है । कोई किसी से कम नहीं है । कहीं कोई शर्म या क़ानून वगैरह नहीं है । श्रम विभाग जैसे अखबार मालिकों की रखैल की हैसियत में है हर कहीं । कहीं कोई आवाज़ उठाने वाला नहीं। अगर गलती से कहीं कोई आवाज़ उठा भी दे तो कोई सुनने वाला नहीं है । लोग बाऊचर पेमेंट पर काम कर रहे हैं औने-पौने में । हज़ार, तीन हज़ार या पांच हज़ार में । अजीठिया-मजीठिया सब दिखाने के दांत हैं । राजेश विद्रोही का एक शेर है :
बहुत महीन है अखबार का मुलाजिम भी
खुद खबर है पर दूसरों की लिखता है ।
तो उस पर्वत राज के दिनों में जो काम नवीन जोशी लखनऊ में कर रहे थे वही काम प्रमोद जोशी दिल्ली में कर रहे थे । खबर तो यहां तक आई कि प्रमोद जोशी ने एक गर्भवती सहयोगी से भी जबरिया इस्तीफा लिखवा लिया था । नहीं मैं ने तो एक ऐसे संपादक के साथ काम किया है जिस ने अपनी तनख्वाह बढ़ाने से प्रबंधन को सिर्फ़ इस लिए मना कर दिया था क्यों कि सहयोगियों की तनख्वाह नहीं बढ़ा रहा था प्रबंधन । और यह संपादक थे जनसत्ता के प्रभाष जोशी । अब तो एक से एक बड़े घराने के अखबार भी पत्रकार कहे जाने वाले वाले लोग तीन हज़ार, पांच हज़ार रुपए पर काम कर रहे हैं । बंधुआ मजदूर की तरह । कई जगह तो मुफ्त में। इस आस में कि आगे नौकरी मिल जाएगी । अखबारों में एक शब्द चल रहा है आज कल कास्ट कटिंग ! और कास्ट कटिंग के नाम पर सब से गरीब आदमी मिलता है संपादकीय विभाग का आदमी । जितनी काटनी है इसी की काटो ! नहीं कास्ट कटिंग के नाम पर आप कागज का दाम काम कर लेंगे कि बिजली का बिल ? की हाकर का कमीशन काम कर देंगे कि स्याही का दाम काम कर लेंगे ? कि विज्ञापन विभाग, सर्कुलेशन विभाग या लेखा विभागा आदि के लोगों का भी वेतन काम कर लेंगे कि मशीन विभाग का ? किसी भी का नहीं । सिर्फ और सिर्फ संपादकीय विभाग के लोगों का ही जो चाहेंगे कर लेंगे । इस लिए कि बाकी विभागों के टीम के मुखिया अपने विभाग के लोगों का नुकसान नहीं होने देते । लेकिन सब से कायर और नपुंसक होता है अखबार में संपादकीय टीम का मुखिया संपादक । तो क्या किसी संपादक का दिल जलता है इस सब से ? पसीजता है ? आंसू न बहा , फ़रियाद न कर, दिल जलता है तो जलने दे वाली स्थिति है । और कि यह सारा शोषण किसी अखबार में क्या संपादक की मर्जी के बिना होता है ? किसी नवीन जोशी जैसों की आत्मा इस पर क्यों नहीं कलपती ? अब तो आलम यह कि अखबारों में विज्ञापन विभाग का मुखिया पहले ही से संपादक से ज़्यादा वेतन लेता रहा ही है और कि संपादक को इसी बिना पर डिक्टेट भी करने लगा है। और अब तो कला विभाग का मुखिया भी जो पेज डिजाइन करता है वह भी अब संपादक और प्रधान संपादक से बहुत ज़्यादा वेतन पाने लगा है । क्यों कि संपादकों ने सिर्फ सहयोगियों की ही नहीं अपनी भी मिट्टी पलीद करवा ली है । कमजोर टीम का नेतृत्व आखिर मजबूत हो भी कैसे सकता है ?
खैर, कमलेश्वर ने तो एक अखबार के छपने से पहले ही इस लिए इस्तीफा दे दिया था क्यों कि उन से कुछ सहयोगियों को हटाने के लिए प्रबंधन निरंतर दबाव दाल रहा था । और उन्हों ने सहयोगियों को हटाने के बजाय खुद हट जाना श्रेयस्कर समझा । स्वतंत्र भारत के ही एक संपादक थे वीरेंद्र सिंह सिर्फ़ इस बिना पर इस्तीफा दे दिया था कि प्रबंधन ने उन से किसी खबर के बारे में लिखित में जवाब तलब कर लिया था । और वह प्रबंधन को खबर के बाबत जवाब देने के बजाय क्षण भर में ही इस्तीफा लिख बैठे थे । उन्हों ने संपादक पद का मजाक माना था इसे । इतना ही नहीं जब वह नवभारत टाइम्स में रिजर्व रेजीडेंट एडीटर के तौर पर दिल्ली में थे तब मध्य प्रदेश के एक अखबार मालिक ने वीरेंद्र सिंह से संपर्क किया और अपने अखबार में संपादक का पद प्रस्तावित किया । वीरेंद्र सिंह ने उस अखबार मालिक से पूछा कि यह तो सब ठीक है पर आप को मेरे पास भेजा किस ने ? आप मुझे जानते कैसे हैं ? उस अखबार मालिक ने बता दिया कि हमने राजेंद्र माथुर जी से कोई योग्य संपादक पूछा था तो उन्हों ने आप का नाम सुझाया है । वीरेंद्र सिंह उस अखबार में संपादक हो कर तो नहीं ही गए , नवभारत टाइम्स से भी सिर्फ़ इस बिना पर इस्तीफा दे दिया था । कि जब प्रधान संपादक का ही मुझ पर विशवास नहीं है और दूसरे अखबार का प्रस्ताव भिजवा रहा है तो ऐसी जगह वह क्यों रहें भला ? यह और ऐसे अनेक किस्से भारतीय पत्रकारिता में भरे पड़े हैं । पर अब ? किस्से बदल गए हैं । किस्सों की धार और धारा बदल गई है ।
चलिए मान लेते हैं कि आज कल परिवार पालना ज़्यादा ज़रूरी है और कि नौकरी बचाना भी । मैं खुद यही काम बीते डेढ़ दशक से कर रहा हूं, नौकरी बचाता घूम रहा हूं । मुख्य धारा से कट गया हूं कि काट दिया गया हूं यह भी समय दर्ज किए हुए है । और मैं ने तमाम ठोकर खाने के बाद अपने तईं मान लिया है कि नौकरी करना ज़्यादा ज़रूरी है, परिवार चलाना ज़्यादा ज़रूरी है न कि क्रांति करना । लेकिन अपनी नौकरी बचाने के लिए किसी दूसरे की नौकरी खाते रहना भी तो ज़रूरी नहीं है ? आप की नौकरी, नौकरी है और अगले की नौकरी गाजर मूली ! कि जब चाहा काट-पीट दिया ।
चलिए प्रबंधन में रहने की मजबूरी है ? तलवा चाटना ज़रूरी है । मान लिया । लेकिन अगर आप को कोई अशोक जी, कोई राजेंद्र माथुर , कोई मृणाल पांडे मिलीं तो आप कितनों को मिले इस रूप में । ठाकुर प्रसाद सिंह या राजेश शर्मा भी कितनों के लिए बन पाए आप ? अखबार में कितने रिपोर्टर या उप संपादक तैयार किए ? जो कभी आप को भी दस या पांच साल बाद इसी मन से याद करें जैसे कि आप ने इन लोगों को याद किया ?
प्रेमचंद के गोदान की पचहत्तरवीं जयंती का समय था । प्रगतिशील लेखक संघ ने आयोजन किया था । हिंदुस्तान की एक रिपोर्टर ने वीरेंद्र यादव को फ़ोन किया और बताया कि संपादक नवीन जोशी जी ने आप का नंबर दिया है और आयोजन कार्ड पर छपे कुछ नाम के बारे में वह जानकारी मांगने लगीं क्रमश: । वीरेंद्र यादव यह सब अप्रिय लगते हुए भी उसे विनम्रतापूर्वक बताते रहे । पर हद तो तब हो गई जब उस रिपोर्टर ने वीरेंद्र यादव से ही जब यह पूछा कि यह वीरेंद्र यादव कौन है ? तो वीरेंद्र यादव जैसे फट पड़े और बोले कि , 'जिस से तुम बात कर रही हो , वही वीरेंद्र यादव है !' फिर भी वह उन से पूछती रही कि 'कुछ बता दीजिए !' अब क्या संपादक नवीन जोशी का यह काम नहीं था कि उस रिपोर्टर को खुद ही सारा कुछ समझा दिए होते तब वीरेंद्र यादव से बात करने को कहते ? ऐसे ही प्रेमचंद जयंती पर एक बार दैनिक जागरण ने वीरेंद्र यादव को राजेंद्र यादव लिखा और तद्भव के संपादक अखिलेश को रंगकर्मी अखिलेश लिखा । यह और ऐसी तमाम घटनाएं हैं । राजनीति, अपराध और साहित्य से जुड़ी खबरों को ले कर । तो स्पष्ट है कि संपादक नाम की चिड़िया उड़ गई है अख़बार से । संपादक नाम की संस्था अब समाप्त हो गई है । संपादक का मतलब है कि प्रबंधन की जी हुजूरी और लायजनिंग। संपादक मतलब अख़बार मालिक और कर्मचारियों के बीच का बिचौलिया ! अखबार मालिकों की गालियां सुनने वाला ! मंत्रियों , अफसरों के तलवे चाटने वाला और सहयोगियों पर कुत्तों की तरह गुर्राने वाला !
अपने रिपोर्टरों, उप संपादकों से तो अब संपादक लोग मिलते भी नहीं। और पेश ऐसे आते हैं गोया सब से बड़े खुदा वही हों । कभी किसी नवोढ़ा पत्रकार से बात कर लीजिए या बेरोजगार पत्रकार से जो नौकरी की आस में किसी संपादक से मिलता है । अव्वल तो यह संपादक नाम का प्राणी ऐसे किसी व्यक्ति से मिलता ही नहीं और जो मिलता भी है गलती से तो वह उस से कैसे पेश आता है ? जान-सुन कर लगता है जैसे वह बिचारा अपने अपमान का कटोरा हमारे सामने खाली कर रहा है । और किसी तरह अपने को समझा रहा है । अपने घाव पर खुद ही मरहम लगा रहा है । भिखारी से बुरी गति उस की हो गई होती है । लगभग सभी सो काल्ड संपादकों का यही हाल है । नवीन जोशी का भी यही हाल रहा है । कई नए लड़के इन से नौकरी मांगने गए हैं और इन से मिलने का हाल बता कर रो पड़े हैं या गुस्से से लाल-पीले हो गए हैं । इन बिचारों का हाल सुन-सुन कर वो फ़िल्मी गाना याद आ जाता रहा है ज़माने ने मारे हैं जवां कैसे-कैसे ! और यह सब तब है जब नवीन जोशी खुद भी बहुत संघर्ष कर के संपादक की कुर्सी तक पहुंचने वालों में से हैं । पहाड़ के तो वह हैं ही लखनऊ में भी प्रारंभिक जीवन उन का बहुत कष्ट और संघर्ष में बीता है । बिलकुल पथरीली राह से गुज़रा है जीवन उन का। तब यह हाल है ।
हरियाणा के एक राज्यपाल थे महावीर प्रसाद । केंद्र में मंत्री भी रहे हैं। और कि एक समय तो बतौर राज्यपाल हरियाणा के साथ ही पंजाब और हिमाचल का भी वह चार्ज पा गए थे । हमारे गोरखपुर के थे । तो जब वह राज्यपाल थे तो लोग गोरखपुर से उन से मिलने जाते थे । ख़ास कर दलित समाज के लोग । महावीर प्रसाद खुद भी दलित थे । पर वह लोग महावीर प्रसाद से मिल नहीं पाते थे । एक बार वह गोरखपुर गए तो कई लोग उन पर बरस पड़े ! ताना और उलाहना दिया कि, ' हे राज्यपाल, कितने दिन रहेंगे आप राज्यपाल वहां ! घूम फिर कर तो यहीं आना है ! फिर बात करेंगे आप से और आप की औकात बताएंगे तब !'
महावीर प्रसाद हैरान और परेशान !
कि आखिर बात क्या हुई जो लोग इस तरह तल्ख भाषा में बात कर रहे हैं ? तो पता किया उन्हों ने । पता चला कि दलित समाज के लोग राजभवन जाते हैं मिलने और उन से उन का स्टाफ मिलने नहीं देता। दुत्कार कर भगा देता था । महावीर प्रसाद लौटे राजभवन और पूछा कि , ' हम से लोग मिलने आते हैं गोरखपुर से । और आप लोग भगा क्यों देते हैं ? मिलने क्यों नहीं देते ?' उन्हें बताया गया कि. ' ज़्यादातर लोग नौकरी मांगने आते हैं, मदद मांगने आते हैं और चूंकि आप के हाथ में यह सब नहीं है तो आप परेशान न हों इस लिए उन्हें मना कर दिया जाता है ।' तो जानते हैं कि महावीर प्रसाद ने क्या जवाब दिया अपने स्टाफ को ? वह बोले, ' ठीक है कि हम लोगों को नौकरी नहीं दे सकते पर उन को सम्मान और जलपान तो दे ही सकते हैं ! बिचारे इतनी दूर से आते हैं आस लिए और आप लोग इतना भी नहीं कर सकते ?' और उन्हों ने निर्देश दिया बाकायदा कि , 'कोई भी आगंतुक आए उसे पूरा सम्मान और जलपान दिया जाए । हो सके तो मुझ से मिलवाया जाए नहीं ससम्मान विदा किया जाए !' लेकिन अखबारों के संपादक तो जैसे अमरफल खा कर आए हैं वह सर्वदा संपादक ही रहेंगे । वह तो जैसे बेरोजगार होंगे ही नहीं । महावीर प्रसाद अपने दलित समाज की पीड़ा समझ सकते हैं पर संपादक लोग अपने समाज की पीड़ा नहीं समझ सकते । क्यों की वह अपनी ज़मीन से कट गए हैं। संपादक तो संपादक अब तो सुनता हूं संपादकों के पी ए भी लोगों से बदतमीजी से पेश आते हैं ।
खैर अपनी इसी अकड़ में बताइए कि हमारे संपादक गण क्या-क्या नहीं कर रहे हैं अपने ही बेरोजगार साथियों के साथ ? अपमानित तो करते ही हैं भरपूर और पूरा एहसास करवा देते हैं कि तुम निकम्मे हो, भिखारी हो और हम सर्वशक्तिमान । और जब अपनी नौकरी पर आती है तो बिलबिला पड़ते हैं । प्रमोद जोशी के साथ यही हुआ था । जब वह जबरिया रिटायर कर दिए गए थे । बहुतों के साथ यही होता है । लेकिन नवीन जोशी, प्रमोद जोशी नहीं थे । जैसे हम या हमारे जैसे लोग नवीन जोशी को लिखने के लिए जानते हैं वैसे ही उन के सहयोगी लोग , प्रबंधन के लोग उन्हें उन की डिप्लोमेसी और आफिस पॉलिटिक्स के लिए जानते हैं । मानो वह चाणक्य के पिता जी हों ! उन के साथ काम किए लोग बताते हैं कि इतना बारीक काटते हैं नवीन जोशी कि लोग समझते-समझते सो जाते हैं और पूरी निश्चिंतता में ही चारो खाने चित्त !
सो मृणाल जी के जाने के बाद भी बड़े-बड़े लोग उखड़ गए शशि शेखर के आने के बाद पर नवीन जोशी बने रहे । पूरी मजबूती से । बल्कि और ताकतवर हो कर उभरे । तो यह अनायास नहीं था । एक समय वह नियमित लिखते थे तमाशा मेरे आगे ! लिखना लगभग बंद कर दिया । खैर, कुछ लिखना न लिखना उन का अपना विवेक था । पर एक बार तो हद हो गई । तब मायावती मुख्य मंत्री थीं । मायावती का एक कसीदा खूब लंबा चौड़ा छपा हिंदुस्तान में नवीन जोशी के नाम से । कोई आधे पेज से भी ज़्यादा । सबने यह सब देख पढ़ कर नाक मुंह सिकोड़ा । दूसरे दिन एक छोटी सी नोटिस छपी कि मायावती वाले लेख पर गलती से नवीन जोशी का नाम छप गया था। और कि यह लेख उन का लिखा हुआ नहीं था । रेस्पांस यानी विज्ञापन विभाग का लिखा हुआ था। अब बताइए कि किसी अखबार में कोई लेख संपादक के नाम से छप जाए और कि वह दूसरे दिन नोटिस छाप कर कहे कि यह लेख उस का लिखा हुआ नहीं है । तो वह संपादक किस बात का है और कि वह संपादन क्या कर रहा है? कुछ और कहने की ज़रूरत नहीं रह जाती । और वह भी जब यह हादसा दावानल के लेखक के साथ घट गया हो ! और कि फिर यहीं प्रमोद जोशी की वह टिप्पणी गौरतलब हो जाती है कि ,
'शुभकामनाएं। नौकरी और पत्रकारिता दो अलग बातें हैं।'
अब तो कमोवेश सभी अखबारों का आलम यह है कि संपादक के नाम पर जो प्राणी अख़बारों में बिठाए गए हैं या फिर बैठे हुए हैं वह किस को काटा जाए , किस को उखाड़ा जाए , किस को कैसे अपमानित किया जाए , किस अयोग्य को कितना और कैसे मौक़ा दे कर सब के ऊपर बिठाया जाए ताकि लोग जानें कि यह संपादक बहुत मजबूत और शक्तिशाली आदमी है और कि किसी की भी कभी भी ऐसी तैसी कर सकता है , क्यों कि वह भाग्य विधाता है ! आदि-आदि इन चीज़ों से ही फुर्सत नहीं पाता । रहा सहा समय वह प्रबंधन की पिट्ठूगीरी और राजनीतिज्ञों और अफसरों के तलवे चाटने में बरबाद कर खुश होता रहता है । इसी सब से उस की नौकरी चलती है और उस का कद और जलवा बनाता है । सो अब कोई भी किसी भी अखबार का संपादक अखबार की भाषा या सहयोगियों को कुछ सिखाने आदि के लिए समय नहीं निकाल पाता । एक दिक्क़त और है कि उसे खुद भी कुछ नहीं आता तो वह किसी और को क्या सिखाएगा भला? जल का पानी और पानी का जल ? एक अखबार के एक समूह संपादक की हालत तो यह है कि वह इतवार को छपने वाला अपना साप्ताहिक लेख भी किसी न किसी से लिखवाता है क्यों कि उस को खुद कुछ लिखने नहीं आता । और अपने फोटो सहित छापता हा । अभी तक यह दूसरों से अपने नाम से लेख लिखवाने की बीमारी मालिकानों में देखी जाती रही है पर अब कुछ सालों से यह बीमारी संपादकों में भी आ गई है और डंके की चोट पर आ गई है । सोचिए कि एक समय ऐसा भी था कि प्रभाष जोशी अपने दिल का आपरेशन करवाने की तैयारी में अस्पताल में भर्ती थे और आपरेशन में जाने के पहले अपना कालम लिखने की बेचैनी में थे और कि लिख कर ही गए । और अब ऐसे-ऐसे संपादक और समूह संपादक हो गए हैं कि अपना लेख दूसरों से लिखवाने के लिए बेचैन रहते है और कि इस में तनिक भी शर्म नहीं खाते ।
हालत यह है कि सवा करोड़ से अधिक की आबादी वाली दिल्ली में किसी हिंदी या अंगरेजी अखबार का सिटी एडीशन पांच लाख तो छोड़िए दो लाख भी नहीं छपता । लखनऊ जैसे शहर की आबादी भले तीस लाख से ऊपर हो गई हो पर यहां एक से एक अखबार हैं कि किसी के सिटी एडीशन की छपाई एक लाख भी नहीं है । कई अखबार तो पांच हज़ार भी नहीं छपते और फिर भी वह राष्ट्रीय अखबार हैं । इन अखबारों की जहालत और बदमाशी देखिए कि उन की हर साल प्रसार संख्या फर्जी एजेंसियां जारी करती हैं । टी आर पी से भी बड़ा गेम है यहां । किसी भी एक अखबार की हैसियत नहीं है कि अपना रोज का असली प्रिंट आर्डर बता सके । इस लिए भी कि यह अखबार अब जनता जनार्दन के लिए नहीं सत्ता और उन के गुर्गों के लिए छपते हैं जो अखबार मालिकान के हित साधते हैं । अखबार का दाम हरदम बढ़ाते रहते हैं लेकिन धनपशुओं को अखबार फ्री भेजते हैं । कुछ राष्ट्रीय अखबार तो बस मंत्रियों, अधिकारियों और जजों के यहां मुफ्त बांटने के लिए ही छापे जाते हैं। यह अनायास नहीं था कि एक समय सुप्रीम कोर्ट लगातार आदेश पर आदेश जारी कर लखनऊ में अंबेडकर पार्क का निर्माण रोकने की बात करता रहा था और कि मायावती सरकार काम रोक देने का हलफनामा सुप्रीम कोर्ट में देती रही और साथ ही साथ अंबेडकर पार्क का काम भी चौबीसो घंटे करवाती रही । पर यहां के अखबारों में इस बाबत खबरें नहीं थीं । सारे अखबार धृतराष्ट्र बन गए थे । मायावती और मुलायम से यहां के अखबार मालिकान और संपादक इतना डरते हैं कि बस मत पूछिए ।
चलिए मान लिया कि अखबार मालिकान के आगे संपादक बिचारा क्या कर सकता है ?
पर क्या सामाजिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक समाचारों पर भी अखबार मालिकानों का पहरा रहता है ? अखबारों से सरोकार की खबरें भी सिरे से गायब हो चली हैं । सांस्कृतिक और साहित्यिक ख़बरों का भी बुरा हाल है । भोजपुरी के एक कवि थे त्रिलोकीनाथ उपाध्याय । वह अपनी एक कविता में एक किसान का ज़िक्र करते थे और बताते थे कि कैसे पढ़ने के लिए शहर गया उस का लड़का निरंतर आंख में धुल झोंकता रहता था। बबुआ दिन -दिन भर खेल ताश कइसे होबा पास ! कहते हुए वह बताते थे कि लड़का नाऊ और बार्बर , धोबी और वाशरमैन चारो के नाम का बिल लेता था और ऐसे ही तमाम सारे अगड़म बगड़म खर्च बता कर बाप को लूटता रहता था तिस पर वह फेल भी हो जाता था । बाप बड़ी मुश्किल से मेहनत कर के उस के लिए पैसे बटोर कर गांव से शहर भेजता था । पर वह बाप की मेहनत नहीं अपने गुलछर्रे उड़ाने पर जोर देता था । और भले हर बार फेल हो जाता था तो क्या किताब भी वह हर साल खरीदता था । पिता जब पूछता तो वह मारे शेखी के बताता कि कोर्स बदल गया है ! बदल जाता है हर साल ! तो पिता उस कविता में एक बार बहुत असहाय हो कर बेटे से पूछता है कि , ' का डिक्शनरियो हर साल बदलि जाले !'
तो हमारे सारे साक्षर संपादक गण अखबार की डिक्शनरी भी पल-पल बदलने में मशगूल हैं । कोई उन को डिस्टर्ब नहीं करे ! खबरदार ! जनता से उन का कोई सरोकार नहीं । वह सत्ता के साथ हैं । डॉग हैं अखबार मालिकों के, सत्ता और सत्ता के दलालों के पर जनता के वाच डॉग नहीं हैं ! और माफ़ कीजिए नवीन जोशी कि दुर्भाग्य से आप भी इन्हीं संपादकों में अब तक शुमार थे ! इन से किसी भी अर्थ में अलग नहीं थे । पढ़-लिख कर भी, दावानल लिख कर भी आप ऐसे कैसे हो गए थे मैं आज तक जान नहीं पाया । नहीं एक समय वह भी आप को अपना याद होगा कि जब आप नवभारत टाइम्स में मुख्य उप संपादक थे और प्रसिद्ध लेखक जैनेंद्र कुमार का देर रात निधन हुआ था। रात्रि शिफ्ट प्रभारी आप ही थे । यह खबर आप से छूट गई थी । दूसरे दिन आप ने इस्तीफा दे दिया था । मंजूर नहीं हुआ यह अलग बात है । पर आप जल्दी ही नवभारत टाइम्स छोड़ कर स्वतंत्र भारत वापस चले गए थे । लेकिन सिर्फ़ इस मलाल में ही नहीं बल्कि इस मलाल में भी कि रामकृपाल सिंह जैसा साक्षर संपादक आप को बराबर तंग भी करता रहता था । आप की रचनात्मकता को वह पहचानना ही नहीं चाहता था । अफ़सोस है कि आप भी अपने कई सहयोगियों के साथ रामकृपाल सिंह कैसे बन गए! संपादक हो गए थे न ! क्या इस लिए ? सच कहिएगा कभी कि आप के संपादक ने क्या अपने जैसा एकाध लिखने-पढ़ने वाला पत्रकार भी अपनी देख-रेख में तैयार किया क्या जो नवीन जोशी जैसा लिख पढ़ सके ? या इस नवीन जोशी के आस-पास खड़ा हो सके? सच यह जान कर मुझे बेहद खुशी होगी । नौकरी में चमचों - चापलूसों की बात तो जाने दीजिए, वह तो एक ढूढो हज़ार मिलते हैं , पर जिस श्रद्धा से आप ने अशोक जी का नाम लिया, राजेंद्र माथुर का नाम लिया , मृणाल जी का नाम लिया उसी श्रद्धा से कोई नवीन जोशी का भी नाम ले बतौर संपादक जिसे नवीन जोशी ने नौकरी दी या आगे बढ़ाया वह नहीं, बल्कि इस सब के साथ ही वह पत्रकारिता या साहित्य में लिखने के लिए भी जाना जाए और कि इसी तरह कहे और पढ़ सुन कर हम और आप या और लोग भी सही पुलकित हो जाएं ! बातें और भी बहुतेरी हैं होती रहेंगी । समय-समय पर । अभी तो यही कहूंगा कि थोड़ा कहना , बहुत समझना, चिट्ठी को तार समझना ! वाली बात है । और कि आप ने नौकरी से अवकाश पाया है, लिखने से नहीं । खूब लिखते रहें, अपने भीतर का दावानल जीवित रखें और हम जैसे अपने प्रशंसकों का यहां तो दिल नहीं तोड़ेंगे यह उम्मीद तो कर ही सकता हूं !
और हां , यह उम्मीद भी बेमानी तो नहीं ही होगी कि इस बतकही को आप किसी अन्यथा अर्थ में नहीं लेंगे, न ही अपने ऊपर व्यक्तिगत अर्थ में लेंगे । और कि इस बतकही में शामिल तकलीफ को साझा तकलीफ ही मानेंगे , व्यापक अर्थ में ही लेंगे , कुछ और नहीं ।
हिंदुस्तान के लखनऊ में कभी कार्यकारी संपादक रहे नवीन जोशी ने आज अपने रिटायर हो जाने की सूचना फेसबुक पर परोसी है । साथ ही अपने तीन संपादकों को भी बड़े मन से याद किया है । स्वतंत्र भारत के अशोक जी , नवभारत टाइम्स के राजेंद्र माथुर और हिंदुस्तान की मृणाल पाण्डे की । बताया है कि उन को बनाने में इन तीनों का बहुत योगदान रहा है । उन्हों ने लिखा है :
छात्र जीवन में छिट-पुट लिखने की कोशिश करते इस युवक को ठाकुर प्रसाद सिंह और राजेश शर्मा ने बहुत प्रेरित और उत्साहित किया. अशोक जी पहले सम्पादक और पत्रकारिता के गुरु मिले. उन्होंने खूब रगड़ा-सिखाया. नई पीढ़ी अशोक जी के बारे में शायद ही जानती हो. वे दैनिक ‘संसार’ में पराड़कर जी के संगी रहे और उन ही की परम्परा के और विद्वान सम्पादक थे. उन्होंने हिंदी टेलीप्रिण्टर के की-बोर्ड को तैयार करने में बड़ी भूमिका निभाई थी, हिंदी में क्रिकेट कमेण्ट्री की शुरुआत की थी और भारत सरकार के प्रकाशन विभाग में रहते हुए हिंदी में तकनीकी शब्द कोशों के विकास का मार्ग प्रशस्त किया था. फिर राजेंद्र माथुर मिले जिनके मन में आधुनिक हिंदी पत्रकारिता का विराट स्वप्न (विजन) था और ज़ुनून भी जिसे वे अपनी टीम के नवयुवकों के साथ शायद ज़्यादा बांटते थे. 1983 में ‘नव भारत टाइम्स’ का लखनऊ संस्करण शुरू करते वक़्त पत्रकारों की भर्ती के लिए जो विज्ञापन उन्होंने खुद लिखा था उसके शब्द आज भी दिमाग में गूंजते हैं- “…वे ही युवा आवेदन करें जो स्फटिक-सी भाषा लिख सकें और जिन्हें खबरों की सुदूर गंध भी उत्साह और सनसनी से भर देती हो.” (नई पीढ़ी के पत्रकार और पत्रकारिता के छात्र गौर फरमाएं ) आज जब मीडिया में भाषा ही सबसे ज़्यादा तिरस्कृत हो रही हो तो अशोक जी और राजेंद्र माथुर बहुत याद आते हैं. यहां मृणाल (पाण्डे) जी का भी ज़िक्र करना चाहूंगा जिनके साथ अखबार की भाषा (चंद्रबिंदु को लौटा लाने तक की कवायद) पर काम करने से लेकर रचनात्मक और सार्थक पत्रकारिता के सुखद अवसर भी मिले.
नवीन जोशी को मैं भी लिखने के लिए जानता हूं । लेकिन बतौर संपादक उन का क्या योगदान रहा है पत्रकारिता में इस पर अभी पड़ताल करना बाकी है । उन की इस फेसबुकिया टिप्पणी पर प्रमोद जोशी ने एक संक्षिप्त पर चुटीली टिप्पणी की है :
Pramod Joshi शुभकामनाएं। नौकरी और पत्रकारिता दो अलग बातें हैं।
नवीन जोशी को इस दर्पण में भी अपने संपादक को ज़रूर देखना चाहिए । बतौर संपादक नौकरी करना या अशोक जी, राजेंद्र माथुर और मृणाल पाण्डे की तरह कोई अलग से छाप छोड़ना , अखबार पर भी और अपने सहयोगियों पर भी दोनों दो बातें हैं । और पता नहीं क्यों मुझे लगता है कि नवीन जोशी ने बतौर संपादक नौकरी ही की है । संपादक रूप उन का जो दिखना चाहिए हमारे जैसे उन के प्रशंसकों को तो नहीं दिखा । और कि नवीन जोशी से कम से कम मेरी यह अपेक्षा तो नहीं ही थी । नवीन जोशी को मैं एक जागरूक , दृष्टि संपन्न और चेतना संपन्न लेखक के तौर पर भी जानता हूं । दावानल जैसा उपन्यास उन के खाते में दर्ज है । उन की भाषा और उन की शार्पनेस पर मैं मोहित भी हूं । लेकिन उन का संपादक रूप हद दर्जे तक निराश करता है । शायद इस लिए भी कि अब संपादक नाम की संस्था कम से कम हिंदी पत्रकारिता से तो विदा हो ही गई है। हिंदी अखबारों में अब संपादक का काम मैनेजरी और लायजनिंग भर का रह गया है । अखबार से भाषा का स्वाद बिला गया है । सो वह पढ़ने का चाव भी जाता रहा है । एक घंटे के अंदर आप पांच-छ अखबार पलट सकते हैं । क्यों कि पढ़ने लायक कोई पीस जल्दी मिलता ही नहीं कहीं । किसी अखबार में अब शुद्धता और वर्तनी आदि की बात करना अब दीवार में सर मारना ही रहा गया है । और संपादक अब सिर्फ़ और सिर्फ़ प्रबंधन की जी हुजूरी करने, तलवे चाटने और दलाली करने के लिए जाने जाते हैं । बिना इस के कोई एक दशक , दो दशक तो क्या दो दिन भी अब संपादक नहीं रह सकता । किसी भी जगह । आइडियालजी वगैरह अब पागलपन के खाने में फिट हो जाने वाली बात हो चली है । और कि संपादक कहे जाने वाले लोग भी अब अपराधियों की तरह बाकायदा गैंग बना कर काम करते हैं । माफ़ करेंगे नवीन जोशी भी क्यों कि मैं सारे आदर और सारे जतन के बाद भी बहुत जोर से कहना चाहता हूं कि नवीन जोशी ने भी बतौर संपादक इन्हीं सारे ' पुनीत ' कर्तव्यों का निर्वहन किया है । नहीं बेवजह ही प्रमोद जोशी नहीं कह रहे कि ,
'शुभकामनाएं। नौकरी और पत्रकारिता दो अलग बातें हैं।'
ज़िक्र ज़रूरी है कि एक समय प्रमोद जोशी और नवीन जोशी एक ही सिक्के के दो पहलू माने जाते रहे हैं । स्वतंत्र भारत , नवभारत टाइम्स से लगायत हिन्दुस्तान तक में । इन दोनों नाम की तूती सुनी जाती रही है । फर्क सिर्फ यह रहा कि प्रमोद जोशी अपने पढ़े लिखे होने का अहसास कराते रहे हैं और कि नवीन जोशी लिखते पढ़ते भी रहे हैं । लखनऊ के पत्रकारपरम में दोनों के घर भी अगल-बगल थे । अब प्रमोद जोशी लखनऊ छोड़ गए हैं । खैर , बीच में एकाध बार दोनों के बीच मतभेद की भी खबरें उड़ती रहीं । पर जब हिंदुस्तान में मृणाल पाण्डे प्रधान संपादक बनीं और पर्वत राज का जो डंका बजाया वह तो अद्भुत था । शिवानी जैसी संवेदनशील रचनाकार की बेटी जो खुद भी समर्थ लेखिका हैं , विदुषी हैं, विजन भी रखती हैं उन के नेतृत्व में हिंदुस्तान अखबार में जो पर्वतराज का जंगलराज चला और देखा गया वह तो अद्भुत था । जैसे बुलडोजर सा चल गया था तब के दिनों । और इन विदुषी मृणाल पांडे के पर्वतराज के वाहक लेफ्टिनेंट भी कौन थे भला ? अरे अपने यही दोनों जोशी बंधु ! प्रमोद जोशी दिल्ली में तो लखनऊ में नवीन जोशी । उन दिनों हिंदुस्तान में नौकरी पाने और करने की अनिवार्य योग्यता पर्वतीय होना मान ली गई थी । जो इस पर्वत राज के आगे नहीं झुके उन्हें पहले तो ऊंट बनाया गया और फिर भी जो वह अकड़ कर खड़े रह गए तो उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया गया । लेकिन यह मेरी जानकारी में बिलकुल नहीं है कि ऐसे किसी मामले में नवीन जोशी ने इस बुलडोजर का हलके से भी कभी प्रतिवाद किया हो । उलटे छटनी किन की होनी है इस की सूची प्रबंधन को देते रहे । और उस हिंदुस्तान में जहां के बारे में खुशवंत सिंह ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि जब उन्हों ने हिंदुस्तान टाइम्स ज्वाइन किया तो ज्वाइन करने के हफ़्ते भर बाद ही के के बिरला उन से मिले। और पूछा कि काम-काज में कोई दिक्कत या ज़रुरत हो तो बताइए। खुशवंत ने तमाम डिटेल देते हुए बताया कि अल्पसंख्यक नहीं हैं स्टाफ़ में और कि फला-फला और लोग नहीं हैं। ऐसे लोगों को रखना पड़ेगा और कि स्टाफ़ बहुत सरप्लस है, सो बहुतों को निकालना भी पड़ेगा। तो के के बिरला ने उन से साफ तौर पर कहा कि आप को जैसे और जितने लोग रखने हों रख लीजिए, पर निकाला एक नहीं जाएगा।
मनोहर श्याम जोशी जब साप्ताहिक हिंदुस्तान के संपादक थे तब उन के पास भी बहुतों को नौकरी मांगने आते देखा है । वह बहुत प्यार से अगले को बिठाते । चाय-वाय पिलाते, नौकरी पाने के कुछ दूसरे टिप्स और जगहें बताते। मजे-मजे से । उन दिनों दिल्ली प्रेस की तजवीज हर कोई देता था । जोशी जी भी बता देते । क्यों कि वहां लोग आते-जाते रहते थे । फिर वह कहते कि जब तक नौकरी नहीं मिलती है तब तक यहां लिखिए । वह विषय भी सुझाते और समझाते कि कैसे कहां उस बारे में सामग्री मिलेगी, आंख बंद किए-किए ही बताते । सप्रू हाऊस से लगायत अमेरिकन लाइब्रेरी तक के वह अंदाज़ और तरीके सुझाते । बताते कि किस में कहां कौन सी किताब मिलेगी और कि कहां कौन सा रेफरेंस । रेफरेंस लाइब्रेरी तब के दिनों निश्चित रूप से सप्रू हाऊस लाइब्रेरी की ही बड़ी सी थी । इस के बाद टाइम्स आफ इंडिया का नंबर आता था । दिनमान जैसी साप्ताहिक पत्रिका तक में रेफरेंस लाइब्रेरी थी । और कि कुछ रेफरेंस हिंदी में भी मिल जाते थे । कई बार लखनऊ में यह देख कर तकलीफ होती है कि यहां किसी भी लाइब्रेरी या अखबार के दफ्तर में में रेफरेंस लाइब्रेरी ही नहीं है । लाइब्रेरी भी नदारद है अखबार के दफ्तरों में । कहीं कहीं खानापूरी के तौर पर हैं । और तो और अगर ज़रूरत पड़ जाए तो किसी पाठक को तो किसी अखबार की कोई फ़ाइल भी कहीं नहीं मिलती । खुद उस अखबार के दफ्तर में भी नहीं। खैर उस वक्त मनोहर श्याम जोशी से अगर उसी संस्थान में कोई नौकरी मांगता तो वह जैसे तकलीफ से भर जाते और कहते कि भैया यह तो मेरे हाथ में नहीं है । साफ बता देते कि यहां तो सब कुछ ऊपर से तय होता है । राजनीतिक सिफारिश चलती है । आलम यह है कि अगर आफिस आते-जाते कोई दो-चार दिन किसी कुर्सी पर नियमित बैठा मिल जाता है और नमस्ते करता रहता है तो मैं समझ जाता हूं कि यह मेरा नया सहयोगी है । कह कर वह खुद हंसने लगते । लेकिन वह कभी किसी को निकालते - विकालते भी नहीं थे । वैसे भी टाइम्स या हिंदुस्तान जैसे संस्थान में तब के दिनों मान लिया जाता था कि एक बार जो घुस गया नौकरी में तो घुस गया । सरकारी नौकरी की तरह वह रिटायर हो कर या कहीं संपादक हो कर ही निकलता था । मनोहर श्याम जोशी खुद भी दिनमान में थे और साप्ताहिक हिंदुस्तान में संपादक हो कर आए थे । लेकिन अब उसी हिंदुस्तान में बीते कुछ समय से परिदृश्य बदल सा गया है । कब कौन निकाल दिया जाए कोई नहीं जानता । और लगभग हर किसी अखबार में अब यही स्थिति है । कोई किसी से कम नहीं है । कहीं कोई शर्म या क़ानून वगैरह नहीं है । श्रम विभाग जैसे अखबार मालिकों की रखैल की हैसियत में है हर कहीं । कहीं कोई आवाज़ उठाने वाला नहीं। अगर गलती से कहीं कोई आवाज़ उठा भी दे तो कोई सुनने वाला नहीं है । लोग बाऊचर पेमेंट पर काम कर रहे हैं औने-पौने में । हज़ार, तीन हज़ार या पांच हज़ार में । अजीठिया-मजीठिया सब दिखाने के दांत हैं । राजेश विद्रोही का एक शेर है :
बहुत महीन है अखबार का मुलाजिम भी
खुद खबर है पर दूसरों की लिखता है ।
तो उस पर्वत राज के दिनों में जो काम नवीन जोशी लखनऊ में कर रहे थे वही काम प्रमोद जोशी दिल्ली में कर रहे थे । खबर तो यहां तक आई कि प्रमोद जोशी ने एक गर्भवती सहयोगी से भी जबरिया इस्तीफा लिखवा लिया था । नहीं मैं ने तो एक ऐसे संपादक के साथ काम किया है जिस ने अपनी तनख्वाह बढ़ाने से प्रबंधन को सिर्फ़ इस लिए मना कर दिया था क्यों कि सहयोगियों की तनख्वाह नहीं बढ़ा रहा था प्रबंधन । और यह संपादक थे जनसत्ता के प्रभाष जोशी । अब तो एक से एक बड़े घराने के अखबार भी पत्रकार कहे जाने वाले वाले लोग तीन हज़ार, पांच हज़ार रुपए पर काम कर रहे हैं । बंधुआ मजदूर की तरह । कई जगह तो मुफ्त में। इस आस में कि आगे नौकरी मिल जाएगी । अखबारों में एक शब्द चल रहा है आज कल कास्ट कटिंग ! और कास्ट कटिंग के नाम पर सब से गरीब आदमी मिलता है संपादकीय विभाग का आदमी । जितनी काटनी है इसी की काटो ! नहीं कास्ट कटिंग के नाम पर आप कागज का दाम काम कर लेंगे कि बिजली का बिल ? की हाकर का कमीशन काम कर देंगे कि स्याही का दाम काम कर लेंगे ? कि विज्ञापन विभाग, सर्कुलेशन विभाग या लेखा विभागा आदि के लोगों का भी वेतन काम कर लेंगे कि मशीन विभाग का ? किसी भी का नहीं । सिर्फ और सिर्फ संपादकीय विभाग के लोगों का ही जो चाहेंगे कर लेंगे । इस लिए कि बाकी विभागों के टीम के मुखिया अपने विभाग के लोगों का नुकसान नहीं होने देते । लेकिन सब से कायर और नपुंसक होता है अखबार में संपादकीय टीम का मुखिया संपादक । तो क्या किसी संपादक का दिल जलता है इस सब से ? पसीजता है ? आंसू न बहा , फ़रियाद न कर, दिल जलता है तो जलने दे वाली स्थिति है । और कि यह सारा शोषण किसी अखबार में क्या संपादक की मर्जी के बिना होता है ? किसी नवीन जोशी जैसों की आत्मा इस पर क्यों नहीं कलपती ? अब तो आलम यह कि अखबारों में विज्ञापन विभाग का मुखिया पहले ही से संपादक से ज़्यादा वेतन लेता रहा ही है और कि संपादक को इसी बिना पर डिक्टेट भी करने लगा है। और अब तो कला विभाग का मुखिया भी जो पेज डिजाइन करता है वह भी अब संपादक और प्रधान संपादक से बहुत ज़्यादा वेतन पाने लगा है । क्यों कि संपादकों ने सिर्फ सहयोगियों की ही नहीं अपनी भी मिट्टी पलीद करवा ली है । कमजोर टीम का नेतृत्व आखिर मजबूत हो भी कैसे सकता है ?
खैर, कमलेश्वर ने तो एक अखबार के छपने से पहले ही इस लिए इस्तीफा दे दिया था क्यों कि उन से कुछ सहयोगियों को हटाने के लिए प्रबंधन निरंतर दबाव दाल रहा था । और उन्हों ने सहयोगियों को हटाने के बजाय खुद हट जाना श्रेयस्कर समझा । स्वतंत्र भारत के ही एक संपादक थे वीरेंद्र सिंह सिर्फ़ इस बिना पर इस्तीफा दे दिया था कि प्रबंधन ने उन से किसी खबर के बारे में लिखित में जवाब तलब कर लिया था । और वह प्रबंधन को खबर के बाबत जवाब देने के बजाय क्षण भर में ही इस्तीफा लिख बैठे थे । उन्हों ने संपादक पद का मजाक माना था इसे । इतना ही नहीं जब वह नवभारत टाइम्स में रिजर्व रेजीडेंट एडीटर के तौर पर दिल्ली में थे तब मध्य प्रदेश के एक अखबार मालिक ने वीरेंद्र सिंह से संपर्क किया और अपने अखबार में संपादक का पद प्रस्तावित किया । वीरेंद्र सिंह ने उस अखबार मालिक से पूछा कि यह तो सब ठीक है पर आप को मेरे पास भेजा किस ने ? आप मुझे जानते कैसे हैं ? उस अखबार मालिक ने बता दिया कि हमने राजेंद्र माथुर जी से कोई योग्य संपादक पूछा था तो उन्हों ने आप का नाम सुझाया है । वीरेंद्र सिंह उस अखबार में संपादक हो कर तो नहीं ही गए , नवभारत टाइम्स से भी सिर्फ़ इस बिना पर इस्तीफा दे दिया था । कि जब प्रधान संपादक का ही मुझ पर विशवास नहीं है और दूसरे अखबार का प्रस्ताव भिजवा रहा है तो ऐसी जगह वह क्यों रहें भला ? यह और ऐसे अनेक किस्से भारतीय पत्रकारिता में भरे पड़े हैं । पर अब ? किस्से बदल गए हैं । किस्सों की धार और धारा बदल गई है ।
चलिए मान लेते हैं कि आज कल परिवार पालना ज़्यादा ज़रूरी है और कि नौकरी बचाना भी । मैं खुद यही काम बीते डेढ़ दशक से कर रहा हूं, नौकरी बचाता घूम रहा हूं । मुख्य धारा से कट गया हूं कि काट दिया गया हूं यह भी समय दर्ज किए हुए है । और मैं ने तमाम ठोकर खाने के बाद अपने तईं मान लिया है कि नौकरी करना ज़्यादा ज़रूरी है, परिवार चलाना ज़्यादा ज़रूरी है न कि क्रांति करना । लेकिन अपनी नौकरी बचाने के लिए किसी दूसरे की नौकरी खाते रहना भी तो ज़रूरी नहीं है ? आप की नौकरी, नौकरी है और अगले की नौकरी गाजर मूली ! कि जब चाहा काट-पीट दिया ।
चलिए प्रबंधन में रहने की मजबूरी है ? तलवा चाटना ज़रूरी है । मान लिया । लेकिन अगर आप को कोई अशोक जी, कोई राजेंद्र माथुर , कोई मृणाल पांडे मिलीं तो आप कितनों को मिले इस रूप में । ठाकुर प्रसाद सिंह या राजेश शर्मा भी कितनों के लिए बन पाए आप ? अखबार में कितने रिपोर्टर या उप संपादक तैयार किए ? जो कभी आप को भी दस या पांच साल बाद इसी मन से याद करें जैसे कि आप ने इन लोगों को याद किया ?
प्रेमचंद के गोदान की पचहत्तरवीं जयंती का समय था । प्रगतिशील लेखक संघ ने आयोजन किया था । हिंदुस्तान की एक रिपोर्टर ने वीरेंद्र यादव को फ़ोन किया और बताया कि संपादक नवीन जोशी जी ने आप का नंबर दिया है और आयोजन कार्ड पर छपे कुछ नाम के बारे में वह जानकारी मांगने लगीं क्रमश: । वीरेंद्र यादव यह सब अप्रिय लगते हुए भी उसे विनम्रतापूर्वक बताते रहे । पर हद तो तब हो गई जब उस रिपोर्टर ने वीरेंद्र यादव से ही जब यह पूछा कि यह वीरेंद्र यादव कौन है ? तो वीरेंद्र यादव जैसे फट पड़े और बोले कि , 'जिस से तुम बात कर रही हो , वही वीरेंद्र यादव है !' फिर भी वह उन से पूछती रही कि 'कुछ बता दीजिए !' अब क्या संपादक नवीन जोशी का यह काम नहीं था कि उस रिपोर्टर को खुद ही सारा कुछ समझा दिए होते तब वीरेंद्र यादव से बात करने को कहते ? ऐसे ही प्रेमचंद जयंती पर एक बार दैनिक जागरण ने वीरेंद्र यादव को राजेंद्र यादव लिखा और तद्भव के संपादक अखिलेश को रंगकर्मी अखिलेश लिखा । यह और ऐसी तमाम घटनाएं हैं । राजनीति, अपराध और साहित्य से जुड़ी खबरों को ले कर । तो स्पष्ट है कि संपादक नाम की चिड़िया उड़ गई है अख़बार से । संपादक नाम की संस्था अब समाप्त हो गई है । संपादक का मतलब है कि प्रबंधन की जी हुजूरी और लायजनिंग। संपादक मतलब अख़बार मालिक और कर्मचारियों के बीच का बिचौलिया ! अखबार मालिकों की गालियां सुनने वाला ! मंत्रियों , अफसरों के तलवे चाटने वाला और सहयोगियों पर कुत्तों की तरह गुर्राने वाला !
अपने रिपोर्टरों, उप संपादकों से तो अब संपादक लोग मिलते भी नहीं। और पेश ऐसे आते हैं गोया सब से बड़े खुदा वही हों । कभी किसी नवोढ़ा पत्रकार से बात कर लीजिए या बेरोजगार पत्रकार से जो नौकरी की आस में किसी संपादक से मिलता है । अव्वल तो यह संपादक नाम का प्राणी ऐसे किसी व्यक्ति से मिलता ही नहीं और जो मिलता भी है गलती से तो वह उस से कैसे पेश आता है ? जान-सुन कर लगता है जैसे वह बिचारा अपने अपमान का कटोरा हमारे सामने खाली कर रहा है । और किसी तरह अपने को समझा रहा है । अपने घाव पर खुद ही मरहम लगा रहा है । भिखारी से बुरी गति उस की हो गई होती है । लगभग सभी सो काल्ड संपादकों का यही हाल है । नवीन जोशी का भी यही हाल रहा है । कई नए लड़के इन से नौकरी मांगने गए हैं और इन से मिलने का हाल बता कर रो पड़े हैं या गुस्से से लाल-पीले हो गए हैं । इन बिचारों का हाल सुन-सुन कर वो फ़िल्मी गाना याद आ जाता रहा है ज़माने ने मारे हैं जवां कैसे-कैसे ! और यह सब तब है जब नवीन जोशी खुद भी बहुत संघर्ष कर के संपादक की कुर्सी तक पहुंचने वालों में से हैं । पहाड़ के तो वह हैं ही लखनऊ में भी प्रारंभिक जीवन उन का बहुत कष्ट और संघर्ष में बीता है । बिलकुल पथरीली राह से गुज़रा है जीवन उन का। तब यह हाल है ।
हरियाणा के एक राज्यपाल थे महावीर प्रसाद । केंद्र में मंत्री भी रहे हैं। और कि एक समय तो बतौर राज्यपाल हरियाणा के साथ ही पंजाब और हिमाचल का भी वह चार्ज पा गए थे । हमारे गोरखपुर के थे । तो जब वह राज्यपाल थे तो लोग गोरखपुर से उन से मिलने जाते थे । ख़ास कर दलित समाज के लोग । महावीर प्रसाद खुद भी दलित थे । पर वह लोग महावीर प्रसाद से मिल नहीं पाते थे । एक बार वह गोरखपुर गए तो कई लोग उन पर बरस पड़े ! ताना और उलाहना दिया कि, ' हे राज्यपाल, कितने दिन रहेंगे आप राज्यपाल वहां ! घूम फिर कर तो यहीं आना है ! फिर बात करेंगे आप से और आप की औकात बताएंगे तब !'
महावीर प्रसाद हैरान और परेशान !
कि आखिर बात क्या हुई जो लोग इस तरह तल्ख भाषा में बात कर रहे हैं ? तो पता किया उन्हों ने । पता चला कि दलित समाज के लोग राजभवन जाते हैं मिलने और उन से उन का स्टाफ मिलने नहीं देता। दुत्कार कर भगा देता था । महावीर प्रसाद लौटे राजभवन और पूछा कि , ' हम से लोग मिलने आते हैं गोरखपुर से । और आप लोग भगा क्यों देते हैं ? मिलने क्यों नहीं देते ?' उन्हें बताया गया कि. ' ज़्यादातर लोग नौकरी मांगने आते हैं, मदद मांगने आते हैं और चूंकि आप के हाथ में यह सब नहीं है तो आप परेशान न हों इस लिए उन्हें मना कर दिया जाता है ।' तो जानते हैं कि महावीर प्रसाद ने क्या जवाब दिया अपने स्टाफ को ? वह बोले, ' ठीक है कि हम लोगों को नौकरी नहीं दे सकते पर उन को सम्मान और जलपान तो दे ही सकते हैं ! बिचारे इतनी दूर से आते हैं आस लिए और आप लोग इतना भी नहीं कर सकते ?' और उन्हों ने निर्देश दिया बाकायदा कि , 'कोई भी आगंतुक आए उसे पूरा सम्मान और जलपान दिया जाए । हो सके तो मुझ से मिलवाया जाए नहीं ससम्मान विदा किया जाए !' लेकिन अखबारों के संपादक तो जैसे अमरफल खा कर आए हैं वह सर्वदा संपादक ही रहेंगे । वह तो जैसे बेरोजगार होंगे ही नहीं । महावीर प्रसाद अपने दलित समाज की पीड़ा समझ सकते हैं पर संपादक लोग अपने समाज की पीड़ा नहीं समझ सकते । क्यों की वह अपनी ज़मीन से कट गए हैं। संपादक तो संपादक अब तो सुनता हूं संपादकों के पी ए भी लोगों से बदतमीजी से पेश आते हैं ।
खैर अपनी इसी अकड़ में बताइए कि हमारे संपादक गण क्या-क्या नहीं कर रहे हैं अपने ही बेरोजगार साथियों के साथ ? अपमानित तो करते ही हैं भरपूर और पूरा एहसास करवा देते हैं कि तुम निकम्मे हो, भिखारी हो और हम सर्वशक्तिमान । और जब अपनी नौकरी पर आती है तो बिलबिला पड़ते हैं । प्रमोद जोशी के साथ यही हुआ था । जब वह जबरिया रिटायर कर दिए गए थे । बहुतों के साथ यही होता है । लेकिन नवीन जोशी, प्रमोद जोशी नहीं थे । जैसे हम या हमारे जैसे लोग नवीन जोशी को लिखने के लिए जानते हैं वैसे ही उन के सहयोगी लोग , प्रबंधन के लोग उन्हें उन की डिप्लोमेसी और आफिस पॉलिटिक्स के लिए जानते हैं । मानो वह चाणक्य के पिता जी हों ! उन के साथ काम किए लोग बताते हैं कि इतना बारीक काटते हैं नवीन जोशी कि लोग समझते-समझते सो जाते हैं और पूरी निश्चिंतता में ही चारो खाने चित्त !
सो मृणाल जी के जाने के बाद भी बड़े-बड़े लोग उखड़ गए शशि शेखर के आने के बाद पर नवीन जोशी बने रहे । पूरी मजबूती से । बल्कि और ताकतवर हो कर उभरे । तो यह अनायास नहीं था । एक समय वह नियमित लिखते थे तमाशा मेरे आगे ! लिखना लगभग बंद कर दिया । खैर, कुछ लिखना न लिखना उन का अपना विवेक था । पर एक बार तो हद हो गई । तब मायावती मुख्य मंत्री थीं । मायावती का एक कसीदा खूब लंबा चौड़ा छपा हिंदुस्तान में नवीन जोशी के नाम से । कोई आधे पेज से भी ज़्यादा । सबने यह सब देख पढ़ कर नाक मुंह सिकोड़ा । दूसरे दिन एक छोटी सी नोटिस छपी कि मायावती वाले लेख पर गलती से नवीन जोशी का नाम छप गया था। और कि यह लेख उन का लिखा हुआ नहीं था । रेस्पांस यानी विज्ञापन विभाग का लिखा हुआ था। अब बताइए कि किसी अखबार में कोई लेख संपादक के नाम से छप जाए और कि वह दूसरे दिन नोटिस छाप कर कहे कि यह लेख उस का लिखा हुआ नहीं है । तो वह संपादक किस बात का है और कि वह संपादन क्या कर रहा है? कुछ और कहने की ज़रूरत नहीं रह जाती । और वह भी जब यह हादसा दावानल के लेखक के साथ घट गया हो ! और कि फिर यहीं प्रमोद जोशी की वह टिप्पणी गौरतलब हो जाती है कि ,
'शुभकामनाएं। नौकरी और पत्रकारिता दो अलग बातें हैं।'
अब तो कमोवेश सभी अखबारों का आलम यह है कि संपादक के नाम पर जो प्राणी अख़बारों में बिठाए गए हैं या फिर बैठे हुए हैं वह किस को काटा जाए , किस को उखाड़ा जाए , किस को कैसे अपमानित किया जाए , किस अयोग्य को कितना और कैसे मौक़ा दे कर सब के ऊपर बिठाया जाए ताकि लोग जानें कि यह संपादक बहुत मजबूत और शक्तिशाली आदमी है और कि किसी की भी कभी भी ऐसी तैसी कर सकता है , क्यों कि वह भाग्य विधाता है ! आदि-आदि इन चीज़ों से ही फुर्सत नहीं पाता । रहा सहा समय वह प्रबंधन की पिट्ठूगीरी और राजनीतिज्ञों और अफसरों के तलवे चाटने में बरबाद कर खुश होता रहता है । इसी सब से उस की नौकरी चलती है और उस का कद और जलवा बनाता है । सो अब कोई भी किसी भी अखबार का संपादक अखबार की भाषा या सहयोगियों को कुछ सिखाने आदि के लिए समय नहीं निकाल पाता । एक दिक्क़त और है कि उसे खुद भी कुछ नहीं आता तो वह किसी और को क्या सिखाएगा भला? जल का पानी और पानी का जल ? एक अखबार के एक समूह संपादक की हालत तो यह है कि वह इतवार को छपने वाला अपना साप्ताहिक लेख भी किसी न किसी से लिखवाता है क्यों कि उस को खुद कुछ लिखने नहीं आता । और अपने फोटो सहित छापता हा । अभी तक यह दूसरों से अपने नाम से लेख लिखवाने की बीमारी मालिकानों में देखी जाती रही है पर अब कुछ सालों से यह बीमारी संपादकों में भी आ गई है और डंके की चोट पर आ गई है । सोचिए कि एक समय ऐसा भी था कि प्रभाष जोशी अपने दिल का आपरेशन करवाने की तैयारी में अस्पताल में भर्ती थे और आपरेशन में जाने के पहले अपना कालम लिखने की बेचैनी में थे और कि लिख कर ही गए । और अब ऐसे-ऐसे संपादक और समूह संपादक हो गए हैं कि अपना लेख दूसरों से लिखवाने के लिए बेचैन रहते है और कि इस में तनिक भी शर्म नहीं खाते ।
हालत यह है कि सवा करोड़ से अधिक की आबादी वाली दिल्ली में किसी हिंदी या अंगरेजी अखबार का सिटी एडीशन पांच लाख तो छोड़िए दो लाख भी नहीं छपता । लखनऊ जैसे शहर की आबादी भले तीस लाख से ऊपर हो गई हो पर यहां एक से एक अखबार हैं कि किसी के सिटी एडीशन की छपाई एक लाख भी नहीं है । कई अखबार तो पांच हज़ार भी नहीं छपते और फिर भी वह राष्ट्रीय अखबार हैं । इन अखबारों की जहालत और बदमाशी देखिए कि उन की हर साल प्रसार संख्या फर्जी एजेंसियां जारी करती हैं । टी आर पी से भी बड़ा गेम है यहां । किसी भी एक अखबार की हैसियत नहीं है कि अपना रोज का असली प्रिंट आर्डर बता सके । इस लिए भी कि यह अखबार अब जनता जनार्दन के लिए नहीं सत्ता और उन के गुर्गों के लिए छपते हैं जो अखबार मालिकान के हित साधते हैं । अखबार का दाम हरदम बढ़ाते रहते हैं लेकिन धनपशुओं को अखबार फ्री भेजते हैं । कुछ राष्ट्रीय अखबार तो बस मंत्रियों, अधिकारियों और जजों के यहां मुफ्त बांटने के लिए ही छापे जाते हैं। यह अनायास नहीं था कि एक समय सुप्रीम कोर्ट लगातार आदेश पर आदेश जारी कर लखनऊ में अंबेडकर पार्क का निर्माण रोकने की बात करता रहा था और कि मायावती सरकार काम रोक देने का हलफनामा सुप्रीम कोर्ट में देती रही और साथ ही साथ अंबेडकर पार्क का काम भी चौबीसो घंटे करवाती रही । पर यहां के अखबारों में इस बाबत खबरें नहीं थीं । सारे अखबार धृतराष्ट्र बन गए थे । मायावती और मुलायम से यहां के अखबार मालिकान और संपादक इतना डरते हैं कि बस मत पूछिए ।
चलिए मान लिया कि अखबार मालिकान के आगे संपादक बिचारा क्या कर सकता है ?
पर क्या सामाजिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक समाचारों पर भी अखबार मालिकानों का पहरा रहता है ? अखबारों से सरोकार की खबरें भी सिरे से गायब हो चली हैं । सांस्कृतिक और साहित्यिक ख़बरों का भी बुरा हाल है । भोजपुरी के एक कवि थे त्रिलोकीनाथ उपाध्याय । वह अपनी एक कविता में एक किसान का ज़िक्र करते थे और बताते थे कि कैसे पढ़ने के लिए शहर गया उस का लड़का निरंतर आंख में धुल झोंकता रहता था। बबुआ दिन -दिन भर खेल ताश कइसे होबा पास ! कहते हुए वह बताते थे कि लड़का नाऊ और बार्बर , धोबी और वाशरमैन चारो के नाम का बिल लेता था और ऐसे ही तमाम सारे अगड़म बगड़म खर्च बता कर बाप को लूटता रहता था तिस पर वह फेल भी हो जाता था । बाप बड़ी मुश्किल से मेहनत कर के उस के लिए पैसे बटोर कर गांव से शहर भेजता था । पर वह बाप की मेहनत नहीं अपने गुलछर्रे उड़ाने पर जोर देता था । और भले हर बार फेल हो जाता था तो क्या किताब भी वह हर साल खरीदता था । पिता जब पूछता तो वह मारे शेखी के बताता कि कोर्स बदल गया है ! बदल जाता है हर साल ! तो पिता उस कविता में एक बार बहुत असहाय हो कर बेटे से पूछता है कि , ' का डिक्शनरियो हर साल बदलि जाले !'
तो हमारे सारे साक्षर संपादक गण अखबार की डिक्शनरी भी पल-पल बदलने में मशगूल हैं । कोई उन को डिस्टर्ब नहीं करे ! खबरदार ! जनता से उन का कोई सरोकार नहीं । वह सत्ता के साथ हैं । डॉग हैं अखबार मालिकों के, सत्ता और सत्ता के दलालों के पर जनता के वाच डॉग नहीं हैं ! और माफ़ कीजिए नवीन जोशी कि दुर्भाग्य से आप भी इन्हीं संपादकों में अब तक शुमार थे ! इन से किसी भी अर्थ में अलग नहीं थे । पढ़-लिख कर भी, दावानल लिख कर भी आप ऐसे कैसे हो गए थे मैं आज तक जान नहीं पाया । नहीं एक समय वह भी आप को अपना याद होगा कि जब आप नवभारत टाइम्स में मुख्य उप संपादक थे और प्रसिद्ध लेखक जैनेंद्र कुमार का देर रात निधन हुआ था। रात्रि शिफ्ट प्रभारी आप ही थे । यह खबर आप से छूट गई थी । दूसरे दिन आप ने इस्तीफा दे दिया था । मंजूर नहीं हुआ यह अलग बात है । पर आप जल्दी ही नवभारत टाइम्स छोड़ कर स्वतंत्र भारत वापस चले गए थे । लेकिन सिर्फ़ इस मलाल में ही नहीं बल्कि इस मलाल में भी कि रामकृपाल सिंह जैसा साक्षर संपादक आप को बराबर तंग भी करता रहता था । आप की रचनात्मकता को वह पहचानना ही नहीं चाहता था । अफ़सोस है कि आप भी अपने कई सहयोगियों के साथ रामकृपाल सिंह कैसे बन गए! संपादक हो गए थे न ! क्या इस लिए ? सच कहिएगा कभी कि आप के संपादक ने क्या अपने जैसा एकाध लिखने-पढ़ने वाला पत्रकार भी अपनी देख-रेख में तैयार किया क्या जो नवीन जोशी जैसा लिख पढ़ सके ? या इस नवीन जोशी के आस-पास खड़ा हो सके? सच यह जान कर मुझे बेहद खुशी होगी । नौकरी में चमचों - चापलूसों की बात तो जाने दीजिए, वह तो एक ढूढो हज़ार मिलते हैं , पर जिस श्रद्धा से आप ने अशोक जी का नाम लिया, राजेंद्र माथुर का नाम लिया , मृणाल जी का नाम लिया उसी श्रद्धा से कोई नवीन जोशी का भी नाम ले बतौर संपादक जिसे नवीन जोशी ने नौकरी दी या आगे बढ़ाया वह नहीं, बल्कि इस सब के साथ ही वह पत्रकारिता या साहित्य में लिखने के लिए भी जाना जाए और कि इसी तरह कहे और पढ़ सुन कर हम और आप या और लोग भी सही पुलकित हो जाएं ! बातें और भी बहुतेरी हैं होती रहेंगी । समय-समय पर । अभी तो यही कहूंगा कि थोड़ा कहना , बहुत समझना, चिट्ठी को तार समझना ! वाली बात है । और कि आप ने नौकरी से अवकाश पाया है, लिखने से नहीं । खूब लिखते रहें, अपने भीतर का दावानल जीवित रखें और हम जैसे अपने प्रशंसकों का यहां तो दिल नहीं तोड़ेंगे यह उम्मीद तो कर ही सकता हूं !
और हां , यह उम्मीद भी बेमानी तो नहीं ही होगी कि इस बतकही को आप किसी अन्यथा अर्थ में नहीं लेंगे, न ही अपने ऊपर व्यक्तिगत अर्थ में लेंगे । और कि इस बतकही में शामिल तकलीफ को साझा तकलीफ ही मानेंगे , व्यापक अर्थ में ही लेंगे , कुछ और नहीं ।
आइना दिखा दिया आपने।
ReplyDeleteअखबार
ReplyDeleteअपराधों के जिला बुलेटिन
हुए सभी अखबार
सत्यकथाएँ पढ़ते-सुनते
देश हुआ बीमार।
पत्रकार की कलमें अब
फौलादी कहाँ रहीं
अलख जगानेवाली आज
मुनादी कहाँ रही?
मात कर रहे टीवी चैनल
अब मछली बाजार।
फिल्मों से,किरकिट से,
नेताओं से हैं आबाद
ताँगेवाले लिख लेते हैं
अब इनके संवाद
सच से क्या ये अंधे
कर पाएँगे आँखें चार?
मिशन नहीं गन्दा पेशा यह
करता मालामाल
झटके से गुजरी लड़की को
फिर-फिर करें हलाल
सौ-सौ अपराधों पर भारी
इनका अत्याचार।
त्याग-तपस्या करने पर
गुमनामी पाओगे
एक करो अपराध
सुर्खियों में छा जाओगे
सूनापन कट जाएगा
बंगला होगा गुलजार।
पैसे की, सत्ता की
जो दीवानी पीढ़ी है
उसे पता है, कहाँ लगी
संसद की सीढ़ी है
और अपाहिज जनता
उसको मान रही अवतार।
parat dar parat khol diya aap ne !
Deleteआप शायद ठीक कह रहे हैं। नवीन जोशी जी हिन्दुस्तान, पटना में भी बतौर संपादक रहे हैं। लेकिन उन्हें उनके स्तंभ 'तमाशा मेरे आगे' के लिए ही स्मरण किया जाता है। जहां तक मेरी जानकारी व समझ है यहां के पत्रकारों की नयी पीढ़ी को तैयार करने में गिरीश मिश्र जी और देशपाल सिंह पंवार जी योगदान अमूल्य है।
ReplyDeleteआप शायद ठीक कह रहे हैं। नवीन जोशी जी हिन्दुस्तान, पटना में भी बतौर संपादक रहे हैं। लेकिन उन्हें उनके स्तंभ 'तमाशा मेरे आगे' के लिए ही स्मरण किया जाता है। जहां तक मेरी जानकारी व समझ है यहां के पत्रकारों की नयी पीढ़ी को तैयार करने में गिरीश मिश्र जी और देशपाल सिंह पंवार जी का योगदान अमूल्य है।
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