गोविंद निहलानी की नई फ़िल्म द्रोहकाल से बड़ी उम्मीदें थीं। पर गोविंद निहलानी द्रोहकाल में भटक कर रह गए हैं। अस्सी के दशक में गोविंद निहलानी की पहली फ़िल्म अर्ध सत्य जब आई थी तो न सिर्फ़ तहलका मचा गई थी, एक नया कीर्तिमान भी गढ़ गई थी। हिंदी फ़िल्मों को एक टटकी भाषा भी परोसी गोविंद निहलानी ने अर्ध सत्य के मार्फ़त। जिस का डंका आज भी बजता है। अर्ध सत्य में बंबई के एक माफ़िया की कहानी थी तो द्रोहकाल में आतंकवादियों की कथा है। लेकिन अर्ध सत्य में निहलानी ने जो कैमरे और कथा का कोलाज रचा था, वह द्रोहकाल से नदारद है। न सिर्फ़ यह बल्कि यह भी कि अर्ध सत्य में निहलानी ने अपनी निर्देशकीय क्षमता का जो परिचय दिया था, जो एक सोच, जो एक तेवर हिंदी सिने दर्शकों के लिए परोसा था, वह आज भी लोग बड़े मन से याद करते हैं। शायद इसी लिए अर्ध सत्य एक मुहावरा बन गया। पर द्रोहकाल में ऐसा कुछ भी नहीं है।
यह ज़रूर है कि द्रोहकाल में गोविंद निहलानी का कैमरा है, कहानी है, उस का ट्रीटमेंट भी निहलानी के ‘टोन’ में है। पर द्रोहकाल की पूरी कहानी ऐसे भहराती है कि निहलानी कहना क्या चाहते हैं यह समझ से परे हो जाता है। जैसे कि अभय सिंह (ओम पुरी) है तो एक पुलिस अफ़सर जो आतंकवादियों को मनोवैज्ञानिक रूप से तोड़ना जानता है, तोड़ता भी है, पर तोड़ते-तोड़ते न सिर्फ़ टूट जाता है बल्कि आतंकवादियों को मनोवैज्ञानिक युद्ध में हथियार भी डाल देता है। बात यहीं तक होती तो ग़नीमत थी। पर निहलानी दो क़दम आगे जा कर अभय सिंह को आतंकवादियों का मुख़बिर भी बना देते हैं। तो यह बात गले से उतरती नहीं है। ख़ास कर तब जब अभय सिंह आतंकवादियों के ठिकाने जान गया है, और अपने दो जासूस भी आतंकवादियों के गिरोह में ‘शिफ़्ट’ कर चुका है। पर इस सब के बावजूद अभय सिंह आतंकवादियों का सफ़ाया करने के बजाय मुख़बिर बन जाता है, अपने घर में दो आतंकवादियों को बतौर मेहमान रख भी लेता है। क्या तो वह अपनी बीवी और बच्चे को ‘बचाना’ चाहता है। तो निहलानी का यह तर्क पल्ले नहीं पड़ता।
सवाल है कि जब अभय सिंह आतंकवादियों के ठिकाने जान गया था, आतंकवादियों के गिरोह में अपने जासूसों को शिफ़्ट कर चुका था, आतंकवादियों और उस के कामंडर की शिनाख्त कर चुका था, तब भला उसे मुखबिर बनने की या आतंकवादियों को घर में ठिकाना देने की क्या ज़रूरत थी? निहलानी चाहते तो ‘अर्ध सत्य’ स्टाइल में आतंकवादियों और उन के ठिकाने को नेस्तनाबूद करवा कसते थे। पर नहीं, वह तो अपने ‘नायक’ को कायरता का बाना पहना कर आतंकवादियों के कमांडर को जेल से बाहर भगाने में ‘लगा’ देते हैं। ज़ाहिर है कि निहलानी का अर्ध सत्य वाला फ़िल्मकार द्रोहकाल में आ कर मर गया है।
अच्छा चलिए, ऐसी स्थितियां पंजाब या कश्मीर जैसी जगहों पर हैं। और आप ‘अर्ध सत्य’ के बजाय ‘पूर्ण सत्य’ ही दिखाना चाहते थे, माना। पर निहलानी ‘पार्टी’ को भी क्यों भूल गए? यह भी अबूझ है। ‘पार्टी’ में गोविंद निहलानी ने नपुंसक बुद्धिजीवियों की पार्टी को तो परोसा ही था, साथ ही नक्सलाइट मूवमेंट को भी बड़ी ख़ूबसूरती और तंज़ के साथ परोस कर ‘पार्टी’ का रंग बदल दिया था। ख़ास कर फ़िल्म का अंतिम फ्रेम जिस में मनोहर सिंह सोए होते हैं और नसीरुद्दीन शाह का ख़ून से लथपथ और विकृत चेहरा उन की ओर दौड़ता आता है और वह इस सपने से हड़बड़ा कर उठ बैठते हैं। तो कम से कम एक संदेश तो निहलानी परोस ही गए। ठीक वैसे ही जैसे कि मुज़़फ़्फ़र अली ‘उमराव जान’ के अंतिम दृश्य में रेखा को वापस पुराने घर में लाते हैं, जो वीरान है। रेखा ऊपर अपने कमरे में पहुंच कर आदमकद आईने के सामने खड़ी होती है और हौले से आईने पर पड़ी धूल को साफ़ कर देती है, तो भी उन का चेहरा नहीं बदलता। हां, समय और उस की सच्चाई भी नहीं बदलती। तो प्रतीकात्मक ही सही, मुज़फ़्फ़र अली बतौर निर्देशक एक संदेश, एक सोच तो रेखा के इस मूवमेंट से रेखांकित कर ही जाते हैं कि समय और लोग चाहे जितना बदल जाएं, तवायफ़ की क़िस्मत नहीं बदलती। वह लाख चाहे तो भी नहीं! तो निहलानी ने ‘पार्टी’ में भी यही किया था। कि ‘नपुंसक’ बुद्धिजीवियों की जमात वाली पार्टी में एक व्यक्ति के मरने पर चिंतित कोई हुआ भी तो वह लेखक ही था। निहलानी पार्टी के मार्फ़त तमाम बातों के अलावा यह संदेश भी छोड़ गए कि देश की स्थितियों और तमाम चिंताओं की चिंता में शरीक़ लेखक ही था। किसी और के सपने में घायल नसीर नहीं आए।
‘अर्ध सत्य’ में भी निहलानी ने व्यवस्था से विवश एक सब इंस्पेक्टर द्वारा माफिया किंग को न सिर्फ़ हिला कर रखवा दिया था, बल्कि उसे मरवा भी डाला था। एक ख़ास ‘ट्रीटमेंट’ देते हुए। तो अर्ध सत्य का और अर्ध सत्य के मार्फ़त गोविंद निहलानी का डंका बज गया था। क्यों कि गोविंद निहलानी ने व्यवस्था की एक दुखती नस को छू लिया था। दूरदर्शन धारावाहिक ‘तमस’ में भी निहलानी ने भीष्म साहनी की कथा को एक सोच में पिरो कर सांप्रादायिक शक्तियों को लथेड़ दिया था। तो एक बार फिर वह चर्चा का शिखर छू गए थे। उम्मीद थी कि द्रोहकाल में भी निहलानी कुछ ऐसा नया गढ़ जाएंगे कि डंका न सही, चर्चा का शिखर न सही, पर अपनी सोच और दृष्टि को वह और पैना बना जाएंगे। पर जाने क्यों वह भटक गए। उन की ‘दृष्टि’ भोंथरी हो गई। ऐसा भी नहीं है कि द्रोहकाल में भटक जाने वाले निहलानी बिलकुल बिखर भी गए हों। दरअसल फ़िल्म में कहीं बिखराव नहीं है सिवाए एक ‘भटकी सोच’ के। और यह बिखराव न होना ही द्रोहकाल की सब से बड़ी ताक़त है। और वह हाल में बिना बोर किए बैठाए रहती है।
हमेशा की तरह गोविंद निहलानी का कैमरा द्रोहकाल में भी कमाल करता है। खास कर जंगल के दृश्यों में। और वह एक दृश्य तो भुलाए नहीं भूलता, जिस में आतंकवादियों के कमांडर से अभय सिंह (ओम पुरी) की बात चीत होती है इस दृश्य के संवाद भी अच्छे हैं। ख़ास कर आतंकवादियों के कमांडर बने मिलिंद गुनाजी के हिस्से के संवाद। इन संवादों में आतंकवादियों की सोच तो उभरती ही है, आतंकवाद क्यों उपजता है इस के भी बड़े स्पष्ट कारण इन संवादों में उपस्थित होते हैं। इसी दृश्य में वह अभय सिंह को मुख़बिर बन जाने के लिए कहता है। और अभय सिंह नहीं मानता। इस दृश्य की महत्ता इस लिए भी बढ़ जाती है कि मनोवैज्ञानिक रूप से आतंकवादियों को तोड़ने वाले पुलिस अफ़सर, के आतंकवादियों द्वारा मनोवैज्ञानिक दबाव में आने की शुरुआत इसी दृश्य से शुरू होती है। और एक बार तो मिलिंद गुनाजी ओम पुरी जैसे अभिनेता को भी बुरी तरह खा जाते हैं। वैसे कुछ और दृश्यों में भी मिलिंद गुनाजी ओम पुरी पर भारी हैं। तो शायद यह उन के ‘चरित्र’ की ज़रूरत भी थी।
द्रोहकाल में नसीरुद्दीन शाह, अमरीश पुरी भी हैं और अपने पूरे वज़न में। अपने-अपने अभिनय की आंच लिए। फ़िल्म में थोड़ा बहुत ‘सस्पेंस’ भी है और सलीक़े से है। रबर की तरह बेवजह फैलाया नहीं गया है। फ़िल्म की नायिका मीता वशिष्ठ के बेडरूम वाले दृश्यों की चर्चा अगर न की जाए तो शायद बात अधूरी रह जाएगी। मीता वशिष्ठ ने जिस दिलेरी से ओम पुरी को चुंबन परोसे हैं, जिस गरमाई से चिपक कर उन के बालों को सहलाया है, ताज्जुब नहीं कि इन दृश्यों को देखने लोग बार-बार जाएं अन्नू कपूर के साथ बलात्कार वाले दृश्य में भी जिस सहजता से उन्होंने ब्लाउज़ और पेटी कोट को फट जाने दिया है, बेडरूम में चलने को कहा है, अपने ऊपर लेट जाने दिया है, उस में मीता की देह उतनी नहीं छलकती, जितना उन का अभिनय। और ‘मेरे साथ जो करना है कर लो’ बार-बार वह बुदबुदाती है तो एक मनोवैज्ञानिक अभिनय की रेखा भी वह खींचती हैं। पर जिस फुर्ती से वह पलट कर अन्नू कपूर को गोली मार देती है, यह स्टेप उन्हें और गोविंद निहलानी को भी बंबईया फ्रेम में ढकेल देता है। और फ़िल्म में एक पैबंद लग जाता है। पूछा जा सकता है कि गोविंद निहलानी यहां भी ‘पूर्ण सत्य’ क्यों नहीं दिखलाते?
[1995 में लिखी गई समीक्षा]
यह ज़रूर है कि द्रोहकाल में गोविंद निहलानी का कैमरा है, कहानी है, उस का ट्रीटमेंट भी निहलानी के ‘टोन’ में है। पर द्रोहकाल की पूरी कहानी ऐसे भहराती है कि निहलानी कहना क्या चाहते हैं यह समझ से परे हो जाता है। जैसे कि अभय सिंह (ओम पुरी) है तो एक पुलिस अफ़सर जो आतंकवादियों को मनोवैज्ञानिक रूप से तोड़ना जानता है, तोड़ता भी है, पर तोड़ते-तोड़ते न सिर्फ़ टूट जाता है बल्कि आतंकवादियों को मनोवैज्ञानिक युद्ध में हथियार भी डाल देता है। बात यहीं तक होती तो ग़नीमत थी। पर निहलानी दो क़दम आगे जा कर अभय सिंह को आतंकवादियों का मुख़बिर भी बना देते हैं। तो यह बात गले से उतरती नहीं है। ख़ास कर तब जब अभय सिंह आतंकवादियों के ठिकाने जान गया है, और अपने दो जासूस भी आतंकवादियों के गिरोह में ‘शिफ़्ट’ कर चुका है। पर इस सब के बावजूद अभय सिंह आतंकवादियों का सफ़ाया करने के बजाय मुख़बिर बन जाता है, अपने घर में दो आतंकवादियों को बतौर मेहमान रख भी लेता है। क्या तो वह अपनी बीवी और बच्चे को ‘बचाना’ चाहता है। तो निहलानी का यह तर्क पल्ले नहीं पड़ता।
सवाल है कि जब अभय सिंह आतंकवादियों के ठिकाने जान गया था, आतंकवादियों के गिरोह में अपने जासूसों को शिफ़्ट कर चुका था, आतंकवादियों और उस के कामंडर की शिनाख्त कर चुका था, तब भला उसे मुखबिर बनने की या आतंकवादियों को घर में ठिकाना देने की क्या ज़रूरत थी? निहलानी चाहते तो ‘अर्ध सत्य’ स्टाइल में आतंकवादियों और उन के ठिकाने को नेस्तनाबूद करवा कसते थे। पर नहीं, वह तो अपने ‘नायक’ को कायरता का बाना पहना कर आतंकवादियों के कमांडर को जेल से बाहर भगाने में ‘लगा’ देते हैं। ज़ाहिर है कि निहलानी का अर्ध सत्य वाला फ़िल्मकार द्रोहकाल में आ कर मर गया है।
अच्छा चलिए, ऐसी स्थितियां पंजाब या कश्मीर जैसी जगहों पर हैं। और आप ‘अर्ध सत्य’ के बजाय ‘पूर्ण सत्य’ ही दिखाना चाहते थे, माना। पर निहलानी ‘पार्टी’ को भी क्यों भूल गए? यह भी अबूझ है। ‘पार्टी’ में गोविंद निहलानी ने नपुंसक बुद्धिजीवियों की पार्टी को तो परोसा ही था, साथ ही नक्सलाइट मूवमेंट को भी बड़ी ख़ूबसूरती और तंज़ के साथ परोस कर ‘पार्टी’ का रंग बदल दिया था। ख़ास कर फ़िल्म का अंतिम फ्रेम जिस में मनोहर सिंह सोए होते हैं और नसीरुद्दीन शाह का ख़ून से लथपथ और विकृत चेहरा उन की ओर दौड़ता आता है और वह इस सपने से हड़बड़ा कर उठ बैठते हैं। तो कम से कम एक संदेश तो निहलानी परोस ही गए। ठीक वैसे ही जैसे कि मुज़़फ़्फ़र अली ‘उमराव जान’ के अंतिम दृश्य में रेखा को वापस पुराने घर में लाते हैं, जो वीरान है। रेखा ऊपर अपने कमरे में पहुंच कर आदमकद आईने के सामने खड़ी होती है और हौले से आईने पर पड़ी धूल को साफ़ कर देती है, तो भी उन का चेहरा नहीं बदलता। हां, समय और उस की सच्चाई भी नहीं बदलती। तो प्रतीकात्मक ही सही, मुज़फ़्फ़र अली बतौर निर्देशक एक संदेश, एक सोच तो रेखा के इस मूवमेंट से रेखांकित कर ही जाते हैं कि समय और लोग चाहे जितना बदल जाएं, तवायफ़ की क़िस्मत नहीं बदलती। वह लाख चाहे तो भी नहीं! तो निहलानी ने ‘पार्टी’ में भी यही किया था। कि ‘नपुंसक’ बुद्धिजीवियों की जमात वाली पार्टी में एक व्यक्ति के मरने पर चिंतित कोई हुआ भी तो वह लेखक ही था। निहलानी पार्टी के मार्फ़त तमाम बातों के अलावा यह संदेश भी छोड़ गए कि देश की स्थितियों और तमाम चिंताओं की चिंता में शरीक़ लेखक ही था। किसी और के सपने में घायल नसीर नहीं आए।
‘अर्ध सत्य’ में भी निहलानी ने व्यवस्था से विवश एक सब इंस्पेक्टर द्वारा माफिया किंग को न सिर्फ़ हिला कर रखवा दिया था, बल्कि उसे मरवा भी डाला था। एक ख़ास ‘ट्रीटमेंट’ देते हुए। तो अर्ध सत्य का और अर्ध सत्य के मार्फ़त गोविंद निहलानी का डंका बज गया था। क्यों कि गोविंद निहलानी ने व्यवस्था की एक दुखती नस को छू लिया था। दूरदर्शन धारावाहिक ‘तमस’ में भी निहलानी ने भीष्म साहनी की कथा को एक सोच में पिरो कर सांप्रादायिक शक्तियों को लथेड़ दिया था। तो एक बार फिर वह चर्चा का शिखर छू गए थे। उम्मीद थी कि द्रोहकाल में भी निहलानी कुछ ऐसा नया गढ़ जाएंगे कि डंका न सही, चर्चा का शिखर न सही, पर अपनी सोच और दृष्टि को वह और पैना बना जाएंगे। पर जाने क्यों वह भटक गए। उन की ‘दृष्टि’ भोंथरी हो गई। ऐसा भी नहीं है कि द्रोहकाल में भटक जाने वाले निहलानी बिलकुल बिखर भी गए हों। दरअसल फ़िल्म में कहीं बिखराव नहीं है सिवाए एक ‘भटकी सोच’ के। और यह बिखराव न होना ही द्रोहकाल की सब से बड़ी ताक़त है। और वह हाल में बिना बोर किए बैठाए रहती है।
हमेशा की तरह गोविंद निहलानी का कैमरा द्रोहकाल में भी कमाल करता है। खास कर जंगल के दृश्यों में। और वह एक दृश्य तो भुलाए नहीं भूलता, जिस में आतंकवादियों के कमांडर से अभय सिंह (ओम पुरी) की बात चीत होती है इस दृश्य के संवाद भी अच्छे हैं। ख़ास कर आतंकवादियों के कमांडर बने मिलिंद गुनाजी के हिस्से के संवाद। इन संवादों में आतंकवादियों की सोच तो उभरती ही है, आतंकवाद क्यों उपजता है इस के भी बड़े स्पष्ट कारण इन संवादों में उपस्थित होते हैं। इसी दृश्य में वह अभय सिंह को मुख़बिर बन जाने के लिए कहता है। और अभय सिंह नहीं मानता। इस दृश्य की महत्ता इस लिए भी बढ़ जाती है कि मनोवैज्ञानिक रूप से आतंकवादियों को तोड़ने वाले पुलिस अफ़सर, के आतंकवादियों द्वारा मनोवैज्ञानिक दबाव में आने की शुरुआत इसी दृश्य से शुरू होती है। और एक बार तो मिलिंद गुनाजी ओम पुरी जैसे अभिनेता को भी बुरी तरह खा जाते हैं। वैसे कुछ और दृश्यों में भी मिलिंद गुनाजी ओम पुरी पर भारी हैं। तो शायद यह उन के ‘चरित्र’ की ज़रूरत भी थी।
द्रोहकाल में नसीरुद्दीन शाह, अमरीश पुरी भी हैं और अपने पूरे वज़न में। अपने-अपने अभिनय की आंच लिए। फ़िल्म में थोड़ा बहुत ‘सस्पेंस’ भी है और सलीक़े से है। रबर की तरह बेवजह फैलाया नहीं गया है। फ़िल्म की नायिका मीता वशिष्ठ के बेडरूम वाले दृश्यों की चर्चा अगर न की जाए तो शायद बात अधूरी रह जाएगी। मीता वशिष्ठ ने जिस दिलेरी से ओम पुरी को चुंबन परोसे हैं, जिस गरमाई से चिपक कर उन के बालों को सहलाया है, ताज्जुब नहीं कि इन दृश्यों को देखने लोग बार-बार जाएं अन्नू कपूर के साथ बलात्कार वाले दृश्य में भी जिस सहजता से उन्होंने ब्लाउज़ और पेटी कोट को फट जाने दिया है, बेडरूम में चलने को कहा है, अपने ऊपर लेट जाने दिया है, उस में मीता की देह उतनी नहीं छलकती, जितना उन का अभिनय। और ‘मेरे साथ जो करना है कर लो’ बार-बार वह बुदबुदाती है तो एक मनोवैज्ञानिक अभिनय की रेखा भी वह खींचती हैं। पर जिस फुर्ती से वह पलट कर अन्नू कपूर को गोली मार देती है, यह स्टेप उन्हें और गोविंद निहलानी को भी बंबईया फ्रेम में ढकेल देता है। और फ़िल्म में एक पैबंद लग जाता है। पूछा जा सकता है कि गोविंद निहलानी यहां भी ‘पूर्ण सत्य’ क्यों नहीं दिखलाते?
[1995 में लिखी गई समीक्षा]
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