दयानंद पांडेय
सुचित्रा सेन के सौंदर्य, सादगी और अभिनय की महक में नहाने के बाद उन के जादू से मुक्त होना बहुत मुश्किल है। और जो एक बार आप नहा लें तो उन के सदके में उतरना लाजिमी है। अब देखिए न कि वह अब स्मृति-शेष हैं फिर भी हमारी यादों में वैसे ही महक रही हैं, जैसे ममता में मां-बेटी के रोल में वह महकी-चहकी थीं, उन के अभिनय की वह तपिश वैसी ही बनी हुई है जैसे देवदास की पारो। पारो के रूप में उन के अभिनय की तपिश में तप रहा हूं। गोया उसी तपिश भरे अभिनय की आंच मुझे उन के अभिनय की आंधी में बहाए ले जा रही है और बंबई का बाबू में जैसे देवानंद बन मुकेश की आवाज़ में मैं ही गा रहा हूं, चल री सजनी, अब क्या सोचे, कजरा न बह जाए रोते-रोते! लेकिन क्या करें सुचित्रा सेन, कजरा तो बह गया है। बहता ही जा रहा है! कैसे रोकूं भला इसे?
तो भी रहें न रहें हम, महका करेंगे बन के कली, बन के सबा, बागे वफ़ा में। मज़रुह सुलतानपुरी के लिखे इस गीत को रोशन के संगीत में लता ने गाया ज़रूर है लेकिन मुकम्मल यह होता है सुचित्रा सेन के अभिनय में ही। और यह सदा सुचित्रा के अभिनय की सदा बन जाती है। जैसे सुचित्रा के अभिनय का दर्पण हो यह गाना। वह सचमुच ऐसे ही महकती रहेंगी। मौसम कोई हो इस चमन में, रंग बन के रहेंगी इस फ़िज़ा में वह। उन की चाहत की खुशबू यों ही उन की ज़ुल्फ़ों से उड़ती रहेगी। उन के अभिनय की आग और आह दोनों ही उन के सौंदर्य की आंच और सादगी का जब साथ पाते हैं तो जो किरदार वह जी रही होती हैं परदे पर वह बेमिसाल बन जाता है। अनुपम और अलौकिक हो जाता है। और फिर बात वही हो जाती है कि छुपा लो यूं दिल में प्यार मेरा कि जैसे मंदिर में लौ दिये की। सुचित्रा सेन का अभिनय अनुपम और अलौकिक है ही इसी लिए कि वह अपने किरदार को जैसे जीने लगती हैं, अभिनय तो बस बहाना होता है। सुचित्रा बंगला फ़िल्मों की हीरोइन थीं, हिंदी फ़िल्में गिनती की कुल सात ही हैं उन के खाते में। लेकिन यह सात फ़िल्में भी जैसे सात जन्मों तक उन्हें याद करने के लिए बहुत ज़्यादा लगती हैं।
पारो के रूप में जब विमल राय की देवदास में उन्हें देखा था तब ही से मैं उन का दीवाना हो गया था। पारो और चंद्रमुखी का जो संघर्ष है देवदास के जीवन में, कहीं उस से ज़्यादा जटिल संघर्ष है पारो के जीवन में। एक तरफ देवदास से प्रेम की अकुलाहट है, तड़प है तो दूसरी तरफ पिता की उम्र के शख़्स से ब्याह दी गई पार्वती की पारिवारिक पवित्रता और मर्यादा की सीमा रेखा है। पारो का यह दोनों से निर्वाह और उस का अंतर्द्वंद्व जीते हुए सुचित्रा के अभिनय में देखना अविरल अभिनय की आंच में तिरना है। एक तरफ ख़ामोश दीवानगी है दूसरी तरफ त्याग और अपनी ही उम्र के बच्चों की मां होने का संताप। दोनों का निर्वाह जिस ख़ामोशी और शालीनता से सुचित्रा जिस तरह करती हैं अपने अदभुत अभिनय के बूते लगता है जैसे वह कोई फटा हुआ, गला हुआ वस्त्र रफ़ू कर रही हों। कि किधर से सूत खींचें और किधर से उसे सिल दें। तिस पर उन के ख़ामोश सौंदर्य की वह आग तो जैसे कहर बरपा देती है। और वह जो अमिट घाव है उन के माथे पर जिसे उन के देवा ने दे दिया है बचपन में गुस्से में आ कर किस तरह उन के प्रेम की अमिट निशानी बन कर उन्हें झुलसाता और तड़पाता रहता है, उस घाव को रह-रह कर जवानी में सहलाना और उस अबोध प्रेम को तड़प की आंच में घुट-घुट कर बांचना सुचित्रा के अभिनय की दाहकता को भी बांचना हो जाता है। उन का वह लपलपाता सौंदर्य जैसे देवदास को बार-बार लौटाने के लिए ही विमल राय ने चुना है। कि चंद्रमुखी का ऐश्वर्य और उस का प्रेमपाश, समर्पण सब कुछ बिसार कर देवदास लौट-लौट आता है। कि मन में तो पारो ही पारो बसी है। क्यों कि मन नाहीं दस-बीस! और चंद्रमुखी गाती रह जाती है कि वो अदा कहां से लाऊं जो मुझे कुबूल कर ले या फिर वो न आएंगे पलट कर उन्हें लाख हम बुलाएं! वो तो जब चंद्रमुखी के शहर में भी है तो पारो को ही गुहराता, उसी की याद में गाता बहकता फिरता है, मितवा लागी यह कैसी! और अंत समय भी वह चुन्नू बाबू का संग-साथ छोड़-छाड़ कर खूब नशे में होने के बावजूद पारो के गांव जाने वाला स्टेशन पहचान कर उतर लेता है। रात है पर उसे पारो के गांव पहुंचना है। बैलगाड़ी लेता है और पूछता रहता है नीम बेहोशी में, गाड़ीवान अभी कितना दूर है! गाड़ीवान उसे उम्मीद दिलाता रहता है, पारो के गांव पहुंचाता भी है। और देवदास पारो के घर के सामने ही पारो की याद में उस को हिचकियां दिलाता हुआ, उस को पुकारता हुआ ही कूच कर जाता है इस दुनिया से। रह जाती है बेसुध पारो देवा-देवा! पुकारती हुई परिवारीजनों द्वारा घेर ली जाती है। फाटक बंद हो जाता है। सेल्यूलाइड पर रचे गए शरतचंद्र के लिखित इस पात्र पार्वती यानी पारो को बहुत सारी अभिनेत्रियों ने बहुत सारी भाषाओं में जिया है पर जैसा और जिस तरह, जिस शिद्दत और शऊर से सुचित्रा सेन ने जिया है विमल राय के निर्देशन में दिलीप कुमार के साथ किसी और ने इस नायाब तरीक़े से नहीं जिया।
लेकिन जब ममता में पन्ना बाई के रूप में सुचित्रा सेन को देखा तो मन में देवदास की उस दीवानगी के साथ-साथ एक पाकीज़गी भी उन के लिए मन में समा गई। ममत्व की पाकीज़गी। सिनेमा के परदे पर और जीवन में भी मां के तमाम रूप और रंग देखे हैं। लेकिन असित सेन के निर्देशन में ममता की जो छांव, जो छवि सुचित्रा सेन ने ममता में परोसी है वह ममत्व की पराकाष्ठा है। कि कैसे तो हालात की मारी एक तवायफ़ अपनी जान लड़ा देती है बस इतनी सी बात के लिए कि उस के तवायफ़ होने का साया उस की बेटी पर तनिक भी न पड़े। वह उस से बिछोह सहती है। किसी तपस्विनी की तरह। खुद को उस की ज़िंदगी से पूरी तरह काट लेती है। लेकिन उस की परवरिश और उस की पढ़ाई-लिखाई में कोई कोर-कसर नहीं रहने देती। लेकिन उस की हमशक्ल बेटी पर जब उस के भड़ुआ पति की नज़र फिर भी पड़ जाती है, वह उसे भी तवायफ़ बना देने की धमकी देते हुए उसे ब्लैकमेल कर पैसा उगाहने लगता है, बेटी की पहचान उजागर करने की धमकी देता है तो पन्ना बाई कैसे तो उस की भी सिर्फ़ इस लिए हत्या कर देती है कि वह अपनी पहचान बेटी पर नहीं पड़ने देना चाहती है।
बात पुलिस और अदालत तक पहुंचती है। पन्ना बाई को सज़ा से बचाने की धुन में वकील बने अशोक कुमार जो पन्ना के प्रेमी भी हैं, दिन रात एक किए रहते हैं, जिन्हों ने पन्ना बाई की इस बेटी को बड़े प्यार और दुलार से पढ़ाया-लिखाया और पाला-पोसा है, वही बेटी बड़ी हो कर उन के साथ वकील बन कर उन की जूनियर बन जाती है। अशोक कुमार बड़े वकील हैं लेकिन जब उन्हें इस एक केस में ही लगातार उलझते और दिन रात एक किए देखती है यह बेटी तो अशोक कुमार पर बरस पड़ती है और पूछ बैठती है कि यह दो कौड़ी की पतुरिया आप की लगती क्या है? कौन है यह? अशोक कुमार निरुत्तर हैं। पर जब वह इस पतुरिया पन्ना बाई की पूरी कहानी बताते हैं तो ममता की कहानी में एक नया मोड़ आ जाता है। अब यही बेटी अदालत में खड़ी है अपनी मां को बेकसूर ठहराने के लिए। और मां है कि बेचैन है। बेचैन है, छटपटा रही है, छुप रही है निरंतर कि बेटी कहीं जान न जाए कि वह उस की मां है। इस छटपटाहट और बेचैनी को जिस ममत्व और बेकली से जिया है सुचित्रा सेन ने कि उन का यह अभिनय छटपटाहट और बेकली की एक नदी बन जाता है। उन के अभिनय की यह नदी दर्शकों को भी उसी छटपटाहट और बेकली में डुबो लेती है। और यह देखिए कि बेटी अपनी बहस में, अपनी जिरह में अपना सारा बेस्ट उड़ेल कर रख देती है। पन्ना बाई की यातना को, उस की यातना के बारीक ब्यौरे में जाती हुई तरह-तरह के तर्क रखती जाती है। दूसरी तरफ अदालत के कटघरे में दुबकी बैठी, बेटी से अपने को छुपाती-बचाती पन्ना बाई सकपका जाती है। सुधि-बुधि खो कर कातर नयनों से कभी प्रेमी अशोक कुमार को तो कभी वकील बेटी को देखती है। निरंतर अपने को छुपाने के प्रयास में है। और जब बेटी अचानक अदालत को बताती है कि यह पतुरिया मेरी मां है तो समूची अदालत दहल जाती है। सन्नाटा सा छा जाता है। और मां पन्ना बाई यह सुनते ही अदालती कटघरे में बेसुध, बेहोश हो कर भहरा जाती है। बेटी यह देखते ही अशोक कुमार को काकू! संबोधित करते हुए अदालती कटघरे की तरफ लपकती है, अशोक कुमार भी लपकते हैं पर पन्ना बाई ने प्राण त्याग दिए हैं बेटी की बाहों में। इस पूरे दृश्य को सुचित्रा सेन ने मां-बेटी की अपनी दोनों भूमिकाओं में इस सरलता और संजीदगी से जिया है कि लगता ही नहीं है कि यह सब सेल्यूलाइड के परदे पर घटित हो रहा है। लगता है जैसे सब कुछ, सब के सामने कोई सच्चा दृश्य हो। अभिनय नहीं। यही हाल फ़िल्म के बाक़ी दृश्यों में भी आप हेर सकते हैं।
‘रहते थे कभी जिन के दिल में, हम जान से भी प्यारों की तरह, बैठे हैं उन्हीं के कूचे में, हम आज गुनहगारों की तरह!’ गज़ल में भी जब तवायफ़ पन्ना बाई अशोक कुमार पर लगभग तंज करती हुई गाती हैं उन्हीं के घर में और आह भरती हुई जब उच्चारती हैं, ‘ठोकर न लगाना हम खुद हैं गिरती हुई दीवारों की तरह!’ तो सचमुच छुप-छुप कर सिगरेट पीते हुए उन्हें परदे की ओट से निहारते अशोक कुमार जैसे भहरा जाते हैं। और इस गाने में तो उन का पाकीज़ा अभिनय जैसे कई रंग भरता है ऐसे जैसे कोई चित्राकार अपने किसी चित्रा में मनचाहा रंग भर रहा हो:
छुपा लो यूं दिल में प्यार मेरा
कि जैसे मंदिर में लौ दिये की
तुम अपने चरणों में रख लो मुझ को
तुम्हारे चरणों का फूल हूं मैं
मैं सर झुकाए खड़ी हूं प्रियतम, मैं सर झुकाए खड़ी हूं प्रियतम
कि जैसे मंदिर में लौ दिये की
इस गीत में सिगरेट, पाइप और कि सिगार पीते अशोक कुमार भी क्या खूब तनाव की इबारत गढ़ते और बांचते हैं पर इस गीत की पाकीज़गी तो सुचित्रा के सुंदर चेहरे पर ही विराजती है। यही हाल इस गीत में भी है:
मौसम कोई हो इस चमन में रंग बन के रहेंगे हम खिरामां,
चाहत की खुशबू यूं ही जुल्फ़ों से उड़ेगी, खिजां हो या बहारां,
यूं ही झूमते और खिलते रहेंगे,
बन के कली, बन के सबा, बाग-ए-वफ़ा में
है ख़ूबसूरत ये नज़ारे, ये बहारें हमारे दम-क़दम से,
ज़िंदा हुई है फिर जहां में, आज इश्क़-ओ-वफ़ा की रस्म हम से,
यूं ही इस चमन, यूं ही इस चमन की ज़ीनत रहेंगे,
बन के कली बन के सबा बाग़-ए-वफ़ा में
धर्मेंद्र के साथ भी सुचित्रा किसी गौरैया की मानिंद फुदकती-इठलाती प्रेम के नए रंग रंगती फिरती हैं तो प्रेम का एक नया ही बिरवा हमारे सामने न सिर्फ़ उपस्थित होता है बल्कि पीढ़ियों के प्यार का फ़र्क और वह अंदाज़ भी बोलता है। यूं अकेले तो कभी बाग़ में जाया न करो, बाग में कलियां भी बड़ी शोख हुआ करती हैं! जैसे गीत में यह छटा देखी जा सकती है।
आंधी भी सुचित्रा सेन की फ़िल्मोग्राफ़ी में एक महत्वपूर्ण फ़िल्म है। अब अलग बात है कि इस फ़िल्म के निर्देशक गुलज़ार और उन की तब की नई-नवेली पत्नी राखी के जीवन में भी यह फ़िल्म आंधी ही साबित हुई। राखी और गुलज़ार की शादी के कुल एक ही बरस हुए थे कि आंधी ने उन के दांपत्य की चूलें हिला दीं। राखी चाहती थीं कि आंधी में आरती की भूमिका वह खुद करें लेकिन गुलज़ार ने राखी की एक न सुनी और सुचित्रा सेन को ले कर ही यह फ़िल्म पूरी की। सुचित्रा ने भी गुलज़ार द्वारा अपने चयन को ले कर कोई सवाल नहीं खड़ा होने दिया। आरती को जो जीवन दिया उन्हों ने आंधी में वह अविस्मरणीय है। एक सफल महिला राजनीतिज्ञ कैसे तो अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के फेर में अपने दांपत्य को सूली चढ़ा देती है, इस सूत्र को खोजती यह फ़िल्म सुचित्रा के अभिनय की आंच पा कर और उस में भी संजीव कुमार जैसे बेजोड़ अभिनेता का साथ पा कर कितनी तो बड़ी फ़िल्म बन जाती है। गोया एक-एक दृश्य मोती की तरह पिरोया गया हो। कमलेश्वर के उपन्यास काली आंधी पर बनी यह फ़िल्म गुलज़ार के निर्देशन और उन के ही लिखे गीतों के दम पर सत्ता की चूलें तब हिला गई थी यह आंधी फ़िल्म। फ़िल्म को बैन तक होना पड़ा था। गुजरात में तत्कालीन मुख्य मंत्री चिमन भाई पटेल ने इस फ़िल्म को सिनेमाघरों से उतरवा दिया था तब। संजय गांधी भी बहुत खफ़ा थे इस फ़िल्म को ले कर। और तत्कालीन सूचना प्रसारण मंत्री विद्या चरण शुक्ल ने कहते हैं कि इस फ़िल्म के प्रिंट को जलवा दिया था तब। क्या तो आंधी की आरती में इन लोगों को इंदिरा गांधी दिख गई थीं। उन का बिखरा दांपत्य दिख गया था। इमरजेंसी के दिन थे, कुछ भी हो-हवा सकता था। लेकिन लोग तो गाने सुन रहे थे इस फ़िल्म के। और इस के संवाद भी लोगों को झकझोर रहे थे। ये जो चांद है न, इसे पूर्णमासी की रात में देखना। ये दिन में नहीं निकलता। जैसे सरल संवाद इस फ़िल्म की ताकत बन गए थे। और जब पलट कर सुचित्रा कहती हैं संजीव से कि कहां आ पाऊंगी पूर्णमासी की रात में। और सचमुच इस कहे के बावजूद एक रात जब वह आती हैं तो इन दोनों की फ़ोटो खिंच जाती है। किसी स्कूप की तरह अखबार में छप जाती है। चुनावी बिसात उन के खि़लाफ़ हो जाती है। तो एक जनसभा में सुचित्रा अपने भावुक भाषण में बहुत विनय से, बहुत आजिजी से अपने पति का जब परिचय जनता से करवाती हैं तो बाज़ी फिर से उन के हाथ आ जाती है। तमाम राजनीतिक उठा-पटक और तनाव के बावजूद गुलज़ार ने आंधी में कुछ सुंदर गीत और दृश्य इस खूबसूरती से रचे हैं कि सुचित्रा के अभिनय में वह और चटक हो जाते हैं। जैसे कि यह गीत ही देखें:
इस मोड़ से जाते हैं
कुछ सुस्त क़दम रस्ते कुछ तेज़ क़दम राहें
पत्थर की हवेली को शीशे के घरौदों में
तिनकों के नशेमन तक इस मोड़ से जाते हैं
इस मोड़ से जाते हैं
आंधी की तरह उड़ कर इक राह गुज़रती है
शरमाती हुई कोई क़दमों से उतरती है
इन रेशमी राहों में इक राह तो वो होगी
तुम तक जो पहुंचती है इस मोड़ से जाती है
इस मोड़ से जाते हैं
इक दूर से आती है पास आ के पलटती है
इक राह अकेली सी रुकती है न चलती है
ये सोच के बैठी हूं इक राह तो वो होगी
तुम तक जो पहुंचती है इस मोड़ से जाती है
इस मोड़ से जाते हैं
कुछ सुस्त क़दम रस्ते कुछ तेज़ क़दम राहें
पत्थर की हवेली को शीशे के घरौदों में
तिनकों के नशेमन तक इस मोड़ से जाते हैं
इस मोड़ से जाते हैं
हालां कि इस फ़िल्म में सुचित्रा के अभिनय के भी कई मोड़ हैं और कहानी में भी जैसा कि इस गीत पंक्ति की तरह आंधी की तरह उड़ कर इक राह गुज़रती है - सी लगती है। और कि शरमाती हुई कोई क़दमों से उतरती है और इन रेशमी राहों से गुज़रती हुई तुम तक जो पहुंचती है वाली बात भी पूरी लय में पहुंचती मिलती है। तुम आ गए हो नूर आ गया है! गीत में भी सुचित्रा के अभिनय का सुरूर पूरे रौ में मिलता है।
दिन डूबा नहीं रात डूबी नहीं जाने कैसा है सफ़र
ख़्वाबों के दिये आंखों में लिए वही आ रहे थे
जहां से तुम्हारी सदा आ रही थी।
लेकिन जिस तरह वह अपने टूटते दांपत्य में अकेली हुईं, जिस यातना को उन्हों ने जीवन में बांचा, उसे अभिनय में भी बार-बार दुहराना उन के लिए कितना त्रासद रहा होगा यह तो वह ही जानती रही होंगी। पर जो अचानक उन्हों ने अपने लिए निर्वासन का जीवन चुना वह तो उन के लिए त्रासद रहा ही होगा, उन के हम जैसे प्रशंसकों के लिए भी कम त्रासद नहीं रहा है। बताइए कि फ़िल्म तो फ़िल्म सार्वजनिक रूप से तैतीस साल तक विलग रहना, अपने बच्चों के सिवाय किसी और से भी न मिलना कितना कठिन रहा होगा सुचित्रा सेन के लिए। तो क्या वह अपने जीवन में भी जीते जी अभिनय में कूद गई थीं? एक अभिनय भरा जीवन जी रही थीं? हालां कि यह आत्म-निर्वासन सुचित्रा के साथ एक अकेले का नहीं है। दुनिया में ऐसा तीन बड़ी अभिनेत्रियों के साथ सुनने-देखने में आता है। अमेरिकी अभिनेत्री ग्रेटा गार्बो 35 की उम्र के बाद कभी नज़र नहीं आईं। इसी तरह ‘टोकियो स्टोरी’ जैसी महान जापानी फ़िल्म की तारिका सेत्सुको हारा 42 की उम्र से आज 93 की उम्र में भी कभी नज़र नहीं आतीं। और यह तीसरी अभिनेत्री हमारी सुचित्रा सेन हैं। सुचित्रा सेन भी, 47 की उम्र के बाद से लोगों की नज़रों से दूर होती गईं। कहा जाता है कि सन् 2005 में उन्होंने दादा साहब फाल्के सम्मान का प्रस्ताव सिर्फ़ इस लिए ठुकरा दिया कि वह पुरस्कार लेने दिल्ली नहीं आना चाहती थीं। ज़िक्र ज़रूरी है कि 1963 में मोरक्को फ़िल्म फ़ेस्टिवल में उन्हें बंगला फ़िल्म सप्तपदी के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का सम्मान मिल चुका था। कहते हैं कि अपर्णा सेन उन के जीवन को ले कर एक फ़िल्म बनाना चाहती थीं। पर सुचित्रा सेन ने इस प्रस्ताव को भी मंज़ूर नहीं किया। तो क्या उन की प्रसिद्धी उन के लिए इतनी दम घुटा देने वाली हो गई थी? या कि उन्हें अपनी निजता इतनी ज़रूरी, इतनी दुर्लभ, इतनी प्यारी हो गई कि प्रशंसनीय उपलब्धियों के बाद यह बातें उन के लिए बेमानी हो गईं? जो भी हो इन तैंतीस बरसों में लोगों ने सुचित्रा सेन को सिर्फ़ तीन मौकों पर जाना-सुना या देखा। एक जब 24 जुलाई, 1980 में उत्तम कुमार का निधन हुआ तब। वह उन के घर गईं। अपनी कार से उतर कर वे सीधे उत्तम कुमार के शव के नज़दीक पहुंचीं। मौन खड़ी रहीं और फूलों की एक माला शव पर रख कर चुपचाप अपनी कार में आ कर बैठ गईं। दूसरी बार 1982 में कोलकाता में चल रहे फ़िल्म फ़ेस्टिवल में एक फ़िल्म देखने आई थीं। सनग्लास पहने हुई। तीसरी बार पश्चिम बंगाल की मुख्य मंत्री ममता बनर्जी से वह अस्पताल में मिलीं। बस। जो भी हो जैसा भी हो प्रेम का यह और ऐसा निर्वाह या प्रायश्चित दुर्लभ है। कहते हैं कि उत्तम कुमार से उन के प्रेम प्रसंगों की ख़बर जब अख़बारों में छपी एक बार तब से ही सुचित्रा सेन ने आत्म निर्वासन का यह जीवन कुबूल कर लिया। घर की चारदीवारी और ऊंची करवा दी। घर में कोई बच्चों से मिलने भी आता तो वह अपने को अपने कमरे में क़ैद कर लेतीं। अब तो वह अपना आत्म-निर्वासन भुगत कर चली गई हैं पर अपना अभिनय, अपना सौंदर्य और अपनी सादगी की नदी, यह धरोहर हम सब के लिए छोड़ गई हैं। बिलकुल अपने उस गाने की तरह इठलाती हुई:
देखने में भोला है दिल का सलोना
बंबई से आया है बाबू चिन्नन्ना
गली-गली गांव की रे जागी है सोते-सोते
फिर से लागे है ऐसा हुए हम छोटे-छोटे
संग लेके आया है मेरा बचपना
निकी मुन्नी नूर बेग़म उसे न बनाना जी
हसीनों का शहज़ादा है हंसी ना उड़ना जी
दिल उड़ ले जाएगा छोड़ो बचपना
सुनो मगर शहज़ादे जी कहीं भूल मत जाना
बुरी हैं यह नैनों वाले बनाते हैं दीवाना
गांव है यह परियों का दिल को बचाना
उन की वही अल्हड़ता और उन का वही इठलाता, मादक सौंदर्य दिल-दिमाग़ में बस गया है उतरता ही नहीं। शायद उतरेगा भी नहीं।
तो भी रहें न रहें हम, महका करेंगे बन के कली, बन के सबा, बागे वफ़ा में। मज़रुह सुलतानपुरी के लिखे इस गीत को रोशन के संगीत में लता ने गाया ज़रूर है लेकिन मुकम्मल यह होता है सुचित्रा सेन के अभिनय में ही। और यह सदा सुचित्रा के अभिनय की सदा बन जाती है। जैसे सुचित्रा के अभिनय का दर्पण हो यह गाना। वह सचमुच ऐसे ही महकती रहेंगी। मौसम कोई हो इस चमन में, रंग बन के रहेंगी इस फ़िज़ा में वह। उन की चाहत की खुशबू यों ही उन की ज़ुल्फ़ों से उड़ती रहेगी। उन के अभिनय की आग और आह दोनों ही उन के सौंदर्य की आंच और सादगी का जब साथ पाते हैं तो जो किरदार वह जी रही होती हैं परदे पर वह बेमिसाल बन जाता है। अनुपम और अलौकिक हो जाता है। और फिर बात वही हो जाती है कि छुपा लो यूं दिल में प्यार मेरा कि जैसे मंदिर में लौ दिये की। सुचित्रा सेन का अभिनय अनुपम और अलौकिक है ही इसी लिए कि वह अपने किरदार को जैसे जीने लगती हैं, अभिनय तो बस बहाना होता है। सुचित्रा बंगला फ़िल्मों की हीरोइन थीं, हिंदी फ़िल्में गिनती की कुल सात ही हैं उन के खाते में। लेकिन यह सात फ़िल्में भी जैसे सात जन्मों तक उन्हें याद करने के लिए बहुत ज़्यादा लगती हैं।
पारो के रूप में जब विमल राय की देवदास में उन्हें देखा था तब ही से मैं उन का दीवाना हो गया था। पारो और चंद्रमुखी का जो संघर्ष है देवदास के जीवन में, कहीं उस से ज़्यादा जटिल संघर्ष है पारो के जीवन में। एक तरफ देवदास से प्रेम की अकुलाहट है, तड़प है तो दूसरी तरफ पिता की उम्र के शख़्स से ब्याह दी गई पार्वती की पारिवारिक पवित्रता और मर्यादा की सीमा रेखा है। पारो का यह दोनों से निर्वाह और उस का अंतर्द्वंद्व जीते हुए सुचित्रा के अभिनय में देखना अविरल अभिनय की आंच में तिरना है। एक तरफ ख़ामोश दीवानगी है दूसरी तरफ त्याग और अपनी ही उम्र के बच्चों की मां होने का संताप। दोनों का निर्वाह जिस ख़ामोशी और शालीनता से सुचित्रा जिस तरह करती हैं अपने अदभुत अभिनय के बूते लगता है जैसे वह कोई फटा हुआ, गला हुआ वस्त्र रफ़ू कर रही हों। कि किधर से सूत खींचें और किधर से उसे सिल दें। तिस पर उन के ख़ामोश सौंदर्य की वह आग तो जैसे कहर बरपा देती है। और वह जो अमिट घाव है उन के माथे पर जिसे उन के देवा ने दे दिया है बचपन में गुस्से में आ कर किस तरह उन के प्रेम की अमिट निशानी बन कर उन्हें झुलसाता और तड़पाता रहता है, उस घाव को रह-रह कर जवानी में सहलाना और उस अबोध प्रेम को तड़प की आंच में घुट-घुट कर बांचना सुचित्रा के अभिनय की दाहकता को भी बांचना हो जाता है। उन का वह लपलपाता सौंदर्य जैसे देवदास को बार-बार लौटाने के लिए ही विमल राय ने चुना है। कि चंद्रमुखी का ऐश्वर्य और उस का प्रेमपाश, समर्पण सब कुछ बिसार कर देवदास लौट-लौट आता है। कि मन में तो पारो ही पारो बसी है। क्यों कि मन नाहीं दस-बीस! और चंद्रमुखी गाती रह जाती है कि वो अदा कहां से लाऊं जो मुझे कुबूल कर ले या फिर वो न आएंगे पलट कर उन्हें लाख हम बुलाएं! वो तो जब चंद्रमुखी के शहर में भी है तो पारो को ही गुहराता, उसी की याद में गाता बहकता फिरता है, मितवा लागी यह कैसी! और अंत समय भी वह चुन्नू बाबू का संग-साथ छोड़-छाड़ कर खूब नशे में होने के बावजूद पारो के गांव जाने वाला स्टेशन पहचान कर उतर लेता है। रात है पर उसे पारो के गांव पहुंचना है। बैलगाड़ी लेता है और पूछता रहता है नीम बेहोशी में, गाड़ीवान अभी कितना दूर है! गाड़ीवान उसे उम्मीद दिलाता रहता है, पारो के गांव पहुंचाता भी है। और देवदास पारो के घर के सामने ही पारो की याद में उस को हिचकियां दिलाता हुआ, उस को पुकारता हुआ ही कूच कर जाता है इस दुनिया से। रह जाती है बेसुध पारो देवा-देवा! पुकारती हुई परिवारीजनों द्वारा घेर ली जाती है। फाटक बंद हो जाता है। सेल्यूलाइड पर रचे गए शरतचंद्र के लिखित इस पात्र पार्वती यानी पारो को बहुत सारी अभिनेत्रियों ने बहुत सारी भाषाओं में जिया है पर जैसा और जिस तरह, जिस शिद्दत और शऊर से सुचित्रा सेन ने जिया है विमल राय के निर्देशन में दिलीप कुमार के साथ किसी और ने इस नायाब तरीक़े से नहीं जिया।
लेकिन जब ममता में पन्ना बाई के रूप में सुचित्रा सेन को देखा तो मन में देवदास की उस दीवानगी के साथ-साथ एक पाकीज़गी भी उन के लिए मन में समा गई। ममत्व की पाकीज़गी। सिनेमा के परदे पर और जीवन में भी मां के तमाम रूप और रंग देखे हैं। लेकिन असित सेन के निर्देशन में ममता की जो छांव, जो छवि सुचित्रा सेन ने ममता में परोसी है वह ममत्व की पराकाष्ठा है। कि कैसे तो हालात की मारी एक तवायफ़ अपनी जान लड़ा देती है बस इतनी सी बात के लिए कि उस के तवायफ़ होने का साया उस की बेटी पर तनिक भी न पड़े। वह उस से बिछोह सहती है। किसी तपस्विनी की तरह। खुद को उस की ज़िंदगी से पूरी तरह काट लेती है। लेकिन उस की परवरिश और उस की पढ़ाई-लिखाई में कोई कोर-कसर नहीं रहने देती। लेकिन उस की हमशक्ल बेटी पर जब उस के भड़ुआ पति की नज़र फिर भी पड़ जाती है, वह उसे भी तवायफ़ बना देने की धमकी देते हुए उसे ब्लैकमेल कर पैसा उगाहने लगता है, बेटी की पहचान उजागर करने की धमकी देता है तो पन्ना बाई कैसे तो उस की भी सिर्फ़ इस लिए हत्या कर देती है कि वह अपनी पहचान बेटी पर नहीं पड़ने देना चाहती है।
बात पुलिस और अदालत तक पहुंचती है। पन्ना बाई को सज़ा से बचाने की धुन में वकील बने अशोक कुमार जो पन्ना के प्रेमी भी हैं, दिन रात एक किए रहते हैं, जिन्हों ने पन्ना बाई की इस बेटी को बड़े प्यार और दुलार से पढ़ाया-लिखाया और पाला-पोसा है, वही बेटी बड़ी हो कर उन के साथ वकील बन कर उन की जूनियर बन जाती है। अशोक कुमार बड़े वकील हैं लेकिन जब उन्हें इस एक केस में ही लगातार उलझते और दिन रात एक किए देखती है यह बेटी तो अशोक कुमार पर बरस पड़ती है और पूछ बैठती है कि यह दो कौड़ी की पतुरिया आप की लगती क्या है? कौन है यह? अशोक कुमार निरुत्तर हैं। पर जब वह इस पतुरिया पन्ना बाई की पूरी कहानी बताते हैं तो ममता की कहानी में एक नया मोड़ आ जाता है। अब यही बेटी अदालत में खड़ी है अपनी मां को बेकसूर ठहराने के लिए। और मां है कि बेचैन है। बेचैन है, छटपटा रही है, छुप रही है निरंतर कि बेटी कहीं जान न जाए कि वह उस की मां है। इस छटपटाहट और बेचैनी को जिस ममत्व और बेकली से जिया है सुचित्रा सेन ने कि उन का यह अभिनय छटपटाहट और बेकली की एक नदी बन जाता है। उन के अभिनय की यह नदी दर्शकों को भी उसी छटपटाहट और बेकली में डुबो लेती है। और यह देखिए कि बेटी अपनी बहस में, अपनी जिरह में अपना सारा बेस्ट उड़ेल कर रख देती है। पन्ना बाई की यातना को, उस की यातना के बारीक ब्यौरे में जाती हुई तरह-तरह के तर्क रखती जाती है। दूसरी तरफ अदालत के कटघरे में दुबकी बैठी, बेटी से अपने को छुपाती-बचाती पन्ना बाई सकपका जाती है। सुधि-बुधि खो कर कातर नयनों से कभी प्रेमी अशोक कुमार को तो कभी वकील बेटी को देखती है। निरंतर अपने को छुपाने के प्रयास में है। और जब बेटी अचानक अदालत को बताती है कि यह पतुरिया मेरी मां है तो समूची अदालत दहल जाती है। सन्नाटा सा छा जाता है। और मां पन्ना बाई यह सुनते ही अदालती कटघरे में बेसुध, बेहोश हो कर भहरा जाती है। बेटी यह देखते ही अशोक कुमार को काकू! संबोधित करते हुए अदालती कटघरे की तरफ लपकती है, अशोक कुमार भी लपकते हैं पर पन्ना बाई ने प्राण त्याग दिए हैं बेटी की बाहों में। इस पूरे दृश्य को सुचित्रा सेन ने मां-बेटी की अपनी दोनों भूमिकाओं में इस सरलता और संजीदगी से जिया है कि लगता ही नहीं है कि यह सब सेल्यूलाइड के परदे पर घटित हो रहा है। लगता है जैसे सब कुछ, सब के सामने कोई सच्चा दृश्य हो। अभिनय नहीं। यही हाल फ़िल्म के बाक़ी दृश्यों में भी आप हेर सकते हैं।
‘रहते थे कभी जिन के दिल में, हम जान से भी प्यारों की तरह, बैठे हैं उन्हीं के कूचे में, हम आज गुनहगारों की तरह!’ गज़ल में भी जब तवायफ़ पन्ना बाई अशोक कुमार पर लगभग तंज करती हुई गाती हैं उन्हीं के घर में और आह भरती हुई जब उच्चारती हैं, ‘ठोकर न लगाना हम खुद हैं गिरती हुई दीवारों की तरह!’ तो सचमुच छुप-छुप कर सिगरेट पीते हुए उन्हें परदे की ओट से निहारते अशोक कुमार जैसे भहरा जाते हैं। और इस गाने में तो उन का पाकीज़ा अभिनय जैसे कई रंग भरता है ऐसे जैसे कोई चित्राकार अपने किसी चित्रा में मनचाहा रंग भर रहा हो:
छुपा लो यूं दिल में प्यार मेरा
कि जैसे मंदिर में लौ दिये की
तुम अपने चरणों में रख लो मुझ को
तुम्हारे चरणों का फूल हूं मैं
मैं सर झुकाए खड़ी हूं प्रियतम, मैं सर झुकाए खड़ी हूं प्रियतम
कि जैसे मंदिर में लौ दिये की
इस गीत में सिगरेट, पाइप और कि सिगार पीते अशोक कुमार भी क्या खूब तनाव की इबारत गढ़ते और बांचते हैं पर इस गीत की पाकीज़गी तो सुचित्रा के सुंदर चेहरे पर ही विराजती है। यही हाल इस गीत में भी है:
मौसम कोई हो इस चमन में रंग बन के रहेंगे हम खिरामां,
चाहत की खुशबू यूं ही जुल्फ़ों से उड़ेगी, खिजां हो या बहारां,
यूं ही झूमते और खिलते रहेंगे,
बन के कली, बन के सबा, बाग-ए-वफ़ा में
है ख़ूबसूरत ये नज़ारे, ये बहारें हमारे दम-क़दम से,
ज़िंदा हुई है फिर जहां में, आज इश्क़-ओ-वफ़ा की रस्म हम से,
यूं ही इस चमन, यूं ही इस चमन की ज़ीनत रहेंगे,
बन के कली बन के सबा बाग़-ए-वफ़ा में
धर्मेंद्र के साथ भी सुचित्रा किसी गौरैया की मानिंद फुदकती-इठलाती प्रेम के नए रंग रंगती फिरती हैं तो प्रेम का एक नया ही बिरवा हमारे सामने न सिर्फ़ उपस्थित होता है बल्कि पीढ़ियों के प्यार का फ़र्क और वह अंदाज़ भी बोलता है। यूं अकेले तो कभी बाग़ में जाया न करो, बाग में कलियां भी बड़ी शोख हुआ करती हैं! जैसे गीत में यह छटा देखी जा सकती है।
आंधी भी सुचित्रा सेन की फ़िल्मोग्राफ़ी में एक महत्वपूर्ण फ़िल्म है। अब अलग बात है कि इस फ़िल्म के निर्देशक गुलज़ार और उन की तब की नई-नवेली पत्नी राखी के जीवन में भी यह फ़िल्म आंधी ही साबित हुई। राखी और गुलज़ार की शादी के कुल एक ही बरस हुए थे कि आंधी ने उन के दांपत्य की चूलें हिला दीं। राखी चाहती थीं कि आंधी में आरती की भूमिका वह खुद करें लेकिन गुलज़ार ने राखी की एक न सुनी और सुचित्रा सेन को ले कर ही यह फ़िल्म पूरी की। सुचित्रा ने भी गुलज़ार द्वारा अपने चयन को ले कर कोई सवाल नहीं खड़ा होने दिया। आरती को जो जीवन दिया उन्हों ने आंधी में वह अविस्मरणीय है। एक सफल महिला राजनीतिज्ञ कैसे तो अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के फेर में अपने दांपत्य को सूली चढ़ा देती है, इस सूत्र को खोजती यह फ़िल्म सुचित्रा के अभिनय की आंच पा कर और उस में भी संजीव कुमार जैसे बेजोड़ अभिनेता का साथ पा कर कितनी तो बड़ी फ़िल्म बन जाती है। गोया एक-एक दृश्य मोती की तरह पिरोया गया हो। कमलेश्वर के उपन्यास काली आंधी पर बनी यह फ़िल्म गुलज़ार के निर्देशन और उन के ही लिखे गीतों के दम पर सत्ता की चूलें तब हिला गई थी यह आंधी फ़िल्म। फ़िल्म को बैन तक होना पड़ा था। गुजरात में तत्कालीन मुख्य मंत्री चिमन भाई पटेल ने इस फ़िल्म को सिनेमाघरों से उतरवा दिया था तब। संजय गांधी भी बहुत खफ़ा थे इस फ़िल्म को ले कर। और तत्कालीन सूचना प्रसारण मंत्री विद्या चरण शुक्ल ने कहते हैं कि इस फ़िल्म के प्रिंट को जलवा दिया था तब। क्या तो आंधी की आरती में इन लोगों को इंदिरा गांधी दिख गई थीं। उन का बिखरा दांपत्य दिख गया था। इमरजेंसी के दिन थे, कुछ भी हो-हवा सकता था। लेकिन लोग तो गाने सुन रहे थे इस फ़िल्म के। और इस के संवाद भी लोगों को झकझोर रहे थे। ये जो चांद है न, इसे पूर्णमासी की रात में देखना। ये दिन में नहीं निकलता। जैसे सरल संवाद इस फ़िल्म की ताकत बन गए थे। और जब पलट कर सुचित्रा कहती हैं संजीव से कि कहां आ पाऊंगी पूर्णमासी की रात में। और सचमुच इस कहे के बावजूद एक रात जब वह आती हैं तो इन दोनों की फ़ोटो खिंच जाती है। किसी स्कूप की तरह अखबार में छप जाती है। चुनावी बिसात उन के खि़लाफ़ हो जाती है। तो एक जनसभा में सुचित्रा अपने भावुक भाषण में बहुत विनय से, बहुत आजिजी से अपने पति का जब परिचय जनता से करवाती हैं तो बाज़ी फिर से उन के हाथ आ जाती है। तमाम राजनीतिक उठा-पटक और तनाव के बावजूद गुलज़ार ने आंधी में कुछ सुंदर गीत और दृश्य इस खूबसूरती से रचे हैं कि सुचित्रा के अभिनय में वह और चटक हो जाते हैं। जैसे कि यह गीत ही देखें:
इस मोड़ से जाते हैं
कुछ सुस्त क़दम रस्ते कुछ तेज़ क़दम राहें
पत्थर की हवेली को शीशे के घरौदों में
तिनकों के नशेमन तक इस मोड़ से जाते हैं
इस मोड़ से जाते हैं
आंधी की तरह उड़ कर इक राह गुज़रती है
शरमाती हुई कोई क़दमों से उतरती है
इन रेशमी राहों में इक राह तो वो होगी
तुम तक जो पहुंचती है इस मोड़ से जाती है
इस मोड़ से जाते हैं
इक दूर से आती है पास आ के पलटती है
इक राह अकेली सी रुकती है न चलती है
ये सोच के बैठी हूं इक राह तो वो होगी
तुम तक जो पहुंचती है इस मोड़ से जाती है
इस मोड़ से जाते हैं
कुछ सुस्त क़दम रस्ते कुछ तेज़ क़दम राहें
पत्थर की हवेली को शीशे के घरौदों में
तिनकों के नशेमन तक इस मोड़ से जाते हैं
इस मोड़ से जाते हैं
हालां कि इस फ़िल्म में सुचित्रा के अभिनय के भी कई मोड़ हैं और कहानी में भी जैसा कि इस गीत पंक्ति की तरह आंधी की तरह उड़ कर इक राह गुज़रती है - सी लगती है। और कि शरमाती हुई कोई क़दमों से उतरती है और इन रेशमी राहों से गुज़रती हुई तुम तक जो पहुंचती है वाली बात भी पूरी लय में पहुंचती मिलती है। तुम आ गए हो नूर आ गया है! गीत में भी सुचित्रा के अभिनय का सुरूर पूरे रौ में मिलता है।
दिन डूबा नहीं रात डूबी नहीं जाने कैसा है सफ़र
ख़्वाबों के दिये आंखों में लिए वही आ रहे थे
जहां से तुम्हारी सदा आ रही थी।
इस में सुचित्रा के साथ संजीव कुमार की भी सदा अपना रंग लिए हुए है। इस फ़िल्म में संजीव कुमार का होना भी बड़ा मानीखेज है। अगर इस फ़िल्म में संजीव कुमार नहीं होते तो सोचिए कि क्या होता? नहीं तो चिरागों से लौ जा रही थी के अंदाज़ में ही जो पूछें तो क्या लौ चली नहीं गई होती? जे.के. के चरित्र
में संजीव कुमार ने भी गज़ब का सादगी भरा अभिनय परोसा है। जे.के. का चरित्र कई सारी पुरुष मानसिकताओं से गुज़रता है। ‘पत्नी हो पत्नी की तरह रहो, मेरा पति बनने की चेष्टा न करो।’ जैसे संवाद सुचित्रा के चरित्रा को और निखारते ही हैं। ख़ास कर जब जे.के. कहता है, ‘मुझे तुम्हारा रोज़-रोज़ का नाटक पसंद नहीं सीधी तरह घर पर बैठो और बच्चे को संभालो!’ और अंततः बात इस गाने की ध्वनि में बदल जाती है, तेरे बिना ज़िंदगी से कोई शिकवा तो नहीं! लेकिन शिकवा तो बढ़ता ही जाता है। इस फ़िल्म में सुचित्रा की संजीव कुमार के साथ जो ट्यूनिंग है वह तो है ही, ओमप्रकाश जैसे सधे अभिनेता के साथ भी उन की ट्यून कहीं उन्नीस नहीं होती। बल्कि कहूं कि आंधी में अभिनय का त्रिकोण है। सुचित्रा सेन, संजीव कुमार और ओमप्रकाश का। हालां कि एक और त्रिकोण है इस फ़िल्म में गुलज़ार, कमलेश्वर और आर.डी. वर्मन का। तो भी फ़िल्म सुचित्रा के खाते में ही दर्ज है।
जाने यह सायास है कि अनायास कि सुचित्रा सेन की यह तीनों फ़िल्में उन के चरित्र में, उन के अभिनय में दांपत्य के दरकने की कथा गूंथती हैं। वह चाहे देवदास हो, ममता या फिर आंधी। मुसाफ़िर में भी यही दांपत्य की चुभन और टीस उपस्थित है। तो क्या परदे पर भी सुचित्रा सेन अपने अभिनय में भी अपने जीवन को ही दुहरा रही होती हैं? क्या पता?लेकिन जिस तरह वह अपने टूटते दांपत्य में अकेली हुईं, जिस यातना को उन्हों ने जीवन में बांचा, उसे अभिनय में भी बार-बार दुहराना उन के लिए कितना त्रासद रहा होगा यह तो वह ही जानती रही होंगी। पर जो अचानक उन्हों ने अपने लिए निर्वासन का जीवन चुना वह तो उन के लिए त्रासद रहा ही होगा, उन के हम जैसे प्रशंसकों के लिए भी कम त्रासद नहीं रहा है। बताइए कि फ़िल्म तो फ़िल्म सार्वजनिक रूप से तैतीस साल तक विलग रहना, अपने बच्चों के सिवाय किसी और से भी न मिलना कितना कठिन रहा होगा सुचित्रा सेन के लिए। तो क्या वह अपने जीवन में भी जीते जी अभिनय में कूद गई थीं? एक अभिनय भरा जीवन जी रही थीं? हालां कि यह आत्म-निर्वासन सुचित्रा के साथ एक अकेले का नहीं है। दुनिया में ऐसा तीन बड़ी अभिनेत्रियों के साथ सुनने-देखने में आता है। अमेरिकी अभिनेत्री ग्रेटा गार्बो 35 की उम्र के बाद कभी नज़र नहीं आईं। इसी तरह ‘टोकियो स्टोरी’ जैसी महान जापानी फ़िल्म की तारिका सेत्सुको हारा 42 की उम्र से आज 93 की उम्र में भी कभी नज़र नहीं आतीं। और यह तीसरी अभिनेत्री हमारी सुचित्रा सेन हैं। सुचित्रा सेन भी, 47 की उम्र के बाद से लोगों की नज़रों से दूर होती गईं। कहा जाता है कि सन् 2005 में उन्होंने दादा साहब फाल्के सम्मान का प्रस्ताव सिर्फ़ इस लिए ठुकरा दिया कि वह पुरस्कार लेने दिल्ली नहीं आना चाहती थीं। ज़िक्र ज़रूरी है कि 1963 में मोरक्को फ़िल्म फ़ेस्टिवल में उन्हें बंगला फ़िल्म सप्तपदी के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का सम्मान मिल चुका था। कहते हैं कि अपर्णा सेन उन के जीवन को ले कर एक फ़िल्म बनाना चाहती थीं। पर सुचित्रा सेन ने इस प्रस्ताव को भी मंज़ूर नहीं किया। तो क्या उन की प्रसिद्धी उन के लिए इतनी दम घुटा देने वाली हो गई थी? या कि उन्हें अपनी निजता इतनी ज़रूरी, इतनी दुर्लभ, इतनी प्यारी हो गई कि प्रशंसनीय उपलब्धियों के बाद यह बातें उन के लिए बेमानी हो गईं? जो भी हो इन तैंतीस बरसों में लोगों ने सुचित्रा सेन को सिर्फ़ तीन मौकों पर जाना-सुना या देखा। एक जब 24 जुलाई, 1980 में उत्तम कुमार का निधन हुआ तब। वह उन के घर गईं। अपनी कार से उतर कर वे सीधे उत्तम कुमार के शव के नज़दीक पहुंचीं। मौन खड़ी रहीं और फूलों की एक माला शव पर रख कर चुपचाप अपनी कार में आ कर बैठ गईं। दूसरी बार 1982 में कोलकाता में चल रहे फ़िल्म फ़ेस्टिवल में एक फ़िल्म देखने आई थीं। सनग्लास पहने हुई। तीसरी बार पश्चिम बंगाल की मुख्य मंत्री ममता बनर्जी से वह अस्पताल में मिलीं। बस। जो भी हो जैसा भी हो प्रेम का यह और ऐसा निर्वाह या प्रायश्चित दुर्लभ है। कहते हैं कि उत्तम कुमार से उन के प्रेम प्रसंगों की ख़बर जब अख़बारों में छपी एक बार तब से ही सुचित्रा सेन ने आत्म निर्वासन का यह जीवन कुबूल कर लिया। घर की चारदीवारी और ऊंची करवा दी। घर में कोई बच्चों से मिलने भी आता तो वह अपने को अपने कमरे में क़ैद कर लेतीं। अब तो वह अपना आत्म-निर्वासन भुगत कर चली गई हैं पर अपना अभिनय, अपना सौंदर्य और अपनी सादगी की नदी, यह धरोहर हम सब के लिए छोड़ गई हैं। बिलकुल अपने उस गाने की तरह इठलाती हुई:
देखने में भोला है दिल का सलोना
बंबई से आया है बाबू चिन्नन्ना
गली-गली गांव की रे जागी है सोते-सोते
फिर से लागे है ऐसा हुए हम छोटे-छोटे
संग लेके आया है मेरा बचपना
निकी मुन्नी नूर बेग़म उसे न बनाना जी
हसीनों का शहज़ादा है हंसी ना उड़ना जी
दिल उड़ ले जाएगा छोड़ो बचपना
सुनो मगर शहज़ादे जी कहीं भूल मत जाना
बुरी हैं यह नैनों वाले बनाते हैं दीवाना
गांव है यह परियों का दिल को बचाना
उन की वही अल्हड़ता और उन का वही इठलाता, मादक सौंदर्य दिल-दिमाग़ में बस गया है उतरता ही नहीं। शायद उतरेगा भी नहीं।
बेशक़
ReplyDeleteसच में चली गई सौंदर्य और सादगी की नदी।
ReplyDeleteसौंदर्य की प्रतिकृति थीं पारो यानि( सुचित्रा सेन) । सुन्दर आलेख के लिए साधुवाद।
ReplyDeleteप्रिय दयानंद भाई,
ReplyDeleteसुचित्रा सेन दूसरी नहीं हो सकती । ख़ास मिट्टी की बनी थी, जिसमें सौंदर्य का रंग और अभिनय की सुरभि दोनों अप्रतिम थी । 1984 से 1998 तक मैं लगातार बालीगंज के उसी रास्ते से सुबह-शाम गुजरता था, जिसपर वह रानीकोठी थी, जिसमें सुचित्रा सेन ने अपने को कैद कर रखा था । बताते हैं कि वह त्रिपुरा रियासत की कोठी थी । जानता था कि वे किसीसे नहीं मिलतीं,इसलिए कभी किसी बहाने उनकी एक झलक पाने का प्रयत्न भी नहीं किया । बंगला फ़िल्म जगत की यह उत्तम-सुचित्रा जोड़ी रोमांटिक दुनिया की बेजोड़ दास्तान है । सुचित्रा को सहज रूप में देखने के लिए आपको उनकी बंगला फ़िल्में देखनी होंगी ।
पूरा लेख पढ़ा आपने बहुत ही अच्छा और मार्मिक चरित्र चित्रण किया सुचित्रा जी का आपको स हिर्दय धन्यबाद ।
ReplyDeleteलकिन "पथ्थर की हवेली को शीशे के घरौंदे ....इसको विस्तार से समझते तो अच्छा रहता ।