Friday 27 January 2012

भोजपुरी गायकी अपनों से ही हार गई

भोजपुरी गायकी अपनों से ही हार गई है : मिठास की जगह अश्‍लीलता ने ले लिया : 'तोहरे बर्फी ले मीठ मोर लबाही मितवा' जयश्री यादव के इस गीत की तरह में ही कहें तो भोजपुरी गीतों में मिठास की यही परंपरा उसे बाकी लोकगीतों से न सिर्फ़ अलग करती है बल्कि यही मिठास उसे अनूठा भी बनाती है.

भिखारी ठाकुर
          भिखारी ठाकुर
पर आज की तारीख में भोजपुरी के मसीहा बने बैठे गायकों और ठेकेदारों ने बाज़ार की भेंट चढ़ा कर भोजपुरी गायकी को न सिर्फ़ बदनाम कर दिया है बल्कि कहूं कि इसे बर्बाद कर दिया है. भोजपुरी का लोक अब बाज़ार के हवाले हो कर अश्लीलता, फूहड़पन और अभद्रता की छौंक में शेखी बघार रहा है. और बाज़ार के रथ पर सवार इस व्यभिचार में कोई एक दो लोग नहीं वरन समूचा गायकों- गायिकाओं का संसार जुटा पड़ा है. इक्का-दुक्का को छोड़ कर. भोजपुरी गानों का चलन हालां कि बहुत पहले से है फिर भी आधारबिंदु घूम फिर कर भिखारी ठाकुर ही बनते हैं. भिखारी ठाकुर और उन की बिदेसिया शैली की गूंज अब इस सदी में भले मद्धिम ही नहीं विलुप्त होने की कगार पर खडी है तो भी भोजपुरी गानों की बात बिना भिखारी ठाकुर के आज भी नहीं हो पाती. 'एक गो चुम्मा देहले जइह हो करेजऊ' , या 'अब त चली छुरी गड़ासा, लोगवा नज़र लड़ावेला' या फिर 'आरा हिले, बलिया हिले छपरा हिलेला, हमरी लचके जब कमरिया सारा ज़िला हिलेला' सरीखे भोजपुरी गानों के लिए भिखारी ठाकुर का लोग आज भी दम भरते हैं. लेकिन भिखारी ठाकुर ने 'अपने लइकवा के भेजें स्कूलवा/हमरे लइकवा से भंइसिया चरवावें' जैसे गाने भी लिखे और गाए भिखारी ठाकुर ने यह कम लोग जानते हैं. ठीक वैसे ही जैसे आरा हिले, बलिया हिले गीत का मर्म बहुत कम लोग जानते हैं. ज़्यादातर लोग इस गीत को भोजपुरी गानों में अश्लीलता की पहली सीढ़ी मान बैठते हैं और मन ही मन मज़ा लेते हैं. ऐसे लोगों को अपनी आखों से मोतियाबिंद को उतार कर बुद्धि को पखार कर जान लेना चाहिए कि भिखारी ठाकुर का यह गीत आरा हिले, बलिया हिले कोई मामूली गीत नहीं है. व्यवस्था को चुनौती देने वाला गीत है. जहां मुंशी, दारोगा, कोतवाल ही नहीं वरन ज़िला भी हिल जाता है एक कमरिया भर हिल जाने से. सोचिए कि एक कमर हिलने भर से समूची व्यवस्था हिल जाती है तो आगे का क्या- क्या होगा? और अब तो हमारे सामने घोटालों का अंबार लगा पडा है. और लोग खामोश हैं. अन्ना हज़ारे की हिलोर के बावजूद. जाने क्यों लोग कुछ गानों की तासीर और उस का अर्थ विन्यास लोप कर दूसरा अर्थ पकड़ लेते हैं. ऐसे ही एक गाना पाकीज़ा फ़िल्म का है, 'इन्हीं लोगों ने ले लीना दुपट्टा मेरा.' इस में क्या सिपहिया, क्या रंगरेजवा सभी दुपट्टा ले लेते हैं. दरअसल यह दुपट्टा उस की इज़्ज़त है जो सभी बारी-बारी तार-तार करते हैं. पर इस गाने का मर्म भी ज़्यादातर लोग भुला बैठते हैं और इस गाने की तासीर डूब जाती है.

वैसे कई गाने हैं. जैसे एक गाना देखिए और याद आ गया. अभी हाल ही मशहूर हुआ था. 'जब से सिपाही से भइलैं हवलदार हो, नथुनिए पे गोली मारें.' यह भी पद के मद का व्यौरा बांचता गाना है. पर अश्लीलता के कुएं में उतरा कर अजब सनसनी फैला गया. यह मूल गाना बालेश्वर का था. बाद में मुन्ना सिंह ने इसे थाम लिया और बाज़ार पर सवार कर दिया. फ़ास्ट म्यूज़िक में गूंथ कर. फिर एक हिंदी फ़िल्म में रही सही कसर उतर गई. गोविंदा रवीना पर फ़िल्माया गया, 'अंखियों से गोली मारे.' कई भोजपुरी निर्गुन के साथ भी यही है.लोग उस की तासीर नहीं समझते, मर्म नहीं समझते और कौव्वा कान ले गया कि तर्ज़ पर गाना ले उड़ते हैं. भोजपुरी को बदनाम, बरबाद जो कहिए, कर बैठते हैं. तो क्या कीजिएगा? 'सुधि बिसरवले बा हमार पिया निर्मोहिया बनि के' जैसा मादक और मीठा गीत गाने वाले मुहम्मद खलील जैसे गायक भी हुए है, आज के दौर में कम लोग जानते हैं. क्यों कि बाज़ार में उन के गानों की सीडी, कैसेट कहीं नहीं हैं. हैं तो सिर्फ़ आकाशवाणी के कुछ केंद्रों के आर्काइब्स में. लेकिन जो टिंच और मिठास भोजपुरी गीतों में मुहम्मद खलील परोस गए है, बो गए हैं, जो रस घोल गए हैं वह अविरल ही नहीं, दुर्लभ भी है. 'अंगुरी में डसले बिया नगिनिया हो, हे ननदो दियना जरा द. दियना जरा द, अपने भैया के जगा द. रसे-रसे चढतिया लहरिया हो, हे ननदो भइया के जगा द.' गीत में जो मादकता, जो मनुहार, जो प्यार वह अपनी गायकी के रस में डुबो कर छलकाते हैं कि मन मुदित हो जाता है. लहक जाता है मन, जब वह इस गीत में एक कंट्रास्ट बोते हुए गाते हैं, ' एक त मरत बानी, नागिन के डसला से, दूसरे सतावति आ सेजरिया हे, हे ननदो भइया के जगा द.' भोजपुरी गीत की यह अदभुत संरचना है. 'छलकल गगरिया मोर निर्मोहिया' मुहम्मद खलील के गाए मशहूर गीतों में से एक है.

और सच यही है कि भोजपुरी की मिसरी जैसी मिठास मुहम्मद खलील की आवाज़ में घुलती हुई उन के गाए गानों में गूंजती है. भोलानाथ गहमरी के लिखे गीत, 'कवने खोंतवा में लुकइलू आहि हो बालम चिरई' में खलील 'टीन-एज़' के विरह को जिस ललक और सुरूर और सुकुमारता से बोते मिलते हैं, जो औचक सौंदर्य वह निर्मित करते हैं, वह एक नए किसिम का नशा घोलता है. 'मन में ढूंढलीं, तन में ढूंढलीं, ढूंढलीं बीच बज़ारे/हिया-हिया में पइठ के ढूंढलीं, ढूंढली विरह के मारे/ कवने सुगना पर लोभइलू, आहिहो बालम चिरई.' गा कर वह गहमरी जी के गीत के बहाने आकुलता का एक नया ही रस परोसते हैं. इस रस को उन के गाए एक दूसरे गीत, 'खेतवा में नाचे अरहरिया संवरिया मोरे हो गइलैं गूलरी के फूल' में भी हेरा जा सकता है. 'बलमा बहुते गवैया मैं का करूं/ झिर-झिर बहै पुरवइया मैं का करूं' या फिर, 'गंवई में लागल बा अगहन क मेला, खेतियै भइल भगवान, हो गोरी झुकि-झुकि काटेलीं धान' जैसे दादरा में भी वह अलग ही ध्वनि बोते हैं. पर लय उन की वही मिठास वाली है. मुहम्मद खलील की खूबी कहिए कि खामी, गायकी को तो उन्हों ने खूब साधा लेकिन बाज़ार को साधना तो दूर उन्हों ने झांका भी नहीं और दुनिया से कूच कर गए. नतीज़ा सामने है. मुहम्मद खलील के गाए गानों को सुनने के लिए तरसना पडता है. भूले भटके, कभी -कभार कोई आकाशवाणी केंद्र उन्हें बजा देता है. पर अब आकाशवाणी भी भला अब कौन सुनता है?

बालेश्‍वर
बालेश्‍वर
सुनते हैं कि बहुत समय पहले नौशाद मुहम्मद खलील को मुंबई ले गए थे, फ़िल्मों मे गवाने के लिए. लेकिन जल्दी ही वह वापस लौट आए. क्यों कि वह फ़िल्मों के लिए अपनी गायकी में बदलाव के लिए तैयार नहीं हुए. बोले कि ऐसे तो भोजपुरी बरबाद हो जाएगी और मेरी गायकी भी. मैं बिला जाऊंगा, पर भोजपुरी को बरबाद नहीं करूंगा. ठीक अपनी गायकी की तरह, 'प्रीत में न धोखा धडी, प्यार में न झांसा, प्रीत करीं ऐसे जैसे कटहर क लासा !' सचमुच अब यह कटहर क लासा जैसा प्रीत करने वाले गायक भोजपुरी के पास नहीं हैं, जैसे कुछ लोग अपनी मां-बहन की कीमत पर भी तरक्की कबूल कर लेते हैं, ठीक वैसे ही हमारे भोजपुरी गायकों ने अपनी मातृभाषा को दांव पर लगा दिया है, बाज़ार के रथ पर सवार होने के लिए. कोई कुछ भी कहे सुने उन्हें उस से कोई सरोकार नहीं. उन का सरोकार सिर्फ़ और सिर्फ़ पैसे से है. अपनी मां बेच कर भी उन्हें सिर्फ़ पैसा और शोहरत चाहिए. चाहे जो-जो करना पडे़. वह तो तैयार हैं. पर मुहम्मद खलील ने ऐसा नहीं किया. हां, अपवाद के तौर पर अभी एक और गायक हैं- भरत शर्मा. एक से एक नायाब गीत उन के खाते में भी दर्ज हैं. हालां कि मुहम्मद खलील की तासीर उन की गायकी में नहीं है पर एक चीज़ तो उन्हों ने मुहम्मद खलील से सीखी ही है कि बाज़ार के रथ पर चढ़ने के लिए अपनी गायकी में समझौता अभी तक तो करते नहीं ही दिखे हैं.

भरत
भरत शर्मा
तारकेश्वर मिश्र का लिखा गीत,'हम के साड़ी चाही में उन की गायकी की गमक में डूबना बहुत आसान है, 'चोरी करिह, पपियो चाहे/ खींच ठेला गाड़ी/ हम के साड़ी चाही' या फिर 'गोरिया चांद के अंजोरिया नियर गोर बाडू हो/ तोहार जोर कौनो नइखै बेजोड़ बाडू हो' में उन की गायकी का अंजोर साफ पढ़ा जा सकता है, निहारा जा सकता है. और फिर जो कोई संदेह हो तो सुनिए, 'धन गइल धनबाद कमाए/ कटलीं बड़ा कलेश/ अंगनवा लागेला परदेस.' बाज़ार के घटाटोप धुंध में भी भरत शर्मा अपनी गायकी को बाज़ारूपन से बचाए बैठे हैं, इस के लिए उन को जितना सलाम किया जाए कम है.

लेकिन बालेश्वर के साथ ऐसा नहीं था. वह जब जीवित थे तब भी और अब भी उन के कैसेटों और सीडी से बाज़ार अटा पड़ा था. बालेश्वर ने गायकी को भी साधा और बाज़ार को भी. भरपूर. आर्केस्ट्रा का भी बाज़ार. कोई डेढ़ सौ कैसेट उन के हैं. वह हमेशा बुक भी रहते थे. वह भोजपुरी की सरहदें लांघ कर कार्यक्रम करने वाले पहले भोजपुरी गायक थे. भोजपुरी गायकी को अंतरराष्‍ट्रीय पहचान और मंच बलेश्वर ने ही पहले-पहल दी. भोजपुरी में गाने वाला स्टार भी हो सकता है यह भी बालेश्वर ने बताया. भोजपुरी गायकी के वह पहले स्टार हैं. गाने भी उन के खाते में एक से एक नायाब हैं. मुहम्मद खलील दूसरों के लिखे गाए गाते थे पर बालेश्वर अपने ही लिखे गाने गाते थे. जब कि वह कुछ खास पढे़-लिखे नहीं थे. बालेश्वर के यहां प्रेम भी है, समाज भी और राजनीति भी. मतलब बाज़ार में रहने के सारे टोटके. और हां, ढेरों समझौते भी.

मनोज तिवारी
मनोज तिवारी
नतीज़तन बालेश्वर तो बहुतों को पीछे छोड़ अपनी सफलता की गाड़ी सरपट दौड़ा ले गए पर भोजपुरी गायकी को समझौता एक्सप्रेस में भी बैठा गए. अब उस की जो फसल सामने आ रही है, भोजपुरी गायकी को लजवा रही है. बहरहाल इस बिना पर बालेश्वर को खारिज तो नहीं किया जा सकता. बालेश्वर की गायकी और उन की आवाज़ का जादू आज भी सिर चढ़ कर बोलता है. बालेश्वर असल में पहले भिखारी ठाकुर और कबीर की राह चले. बिकाई ए बाबू बीए पास घोडा. जैसे गीत इसी की बुनियाद में हैं. दुश्‍मन मिले सवेरे लेकिन मतलबी यार ना मिले/ मूरख मिले बलेस्सर पर पढ़ा-लिखा गद्दार ना मिले.या फिर नाचे न नचावे केहू पैसा नचावेला. जैसे गीत उन की इसी राह को आगे बढ़ाते थे. हां, बालेश्वर के यहां जो प्रेम है उस में मुहम्मद खलील वाला 'डेप्थ' या ' टिंच' नदारद है. वह 'पन' गायब है. बल्कि कई बार वह प्रेम 'श्रृंगार' की आड़ में डबल मीनिंग की डगर थाम लेता है. जैसे उन का एक गाना है, 'लागता जे फाटि जाई जवानी में झूल्ला/ आलू केला खइलीं त एतना मोटइलीं/ दिनवा में खा लेहलीं दू-दू रसगुल्ला!' या फिर ' खिलल कली से तू खेलल त लटकल अनरवा का होई/ कटहर क तू खइलू त हई मोटका मुअवड़वा का होई.'

मुहम्मद खलील के गीतों में विरह भी एक सुख की अनुभूति देता है लेकिन बालेश्वर के यहां यह अनुपस्थित है. उन के यहां प्रेम में अनुभूति की जगह तंज और तकरार ज़्यादा है. जैसे उन के कुछ युगल गीत हैं, 'हम कोइलरी चलि जाइब ए ललमुनिया क माई' या 'अंखिया बता रही है लूटी कहीं गई है' या ' अपने त भइल पुजारी ए राजा, हमार कजरा के निहारी ए राजा.' या फिर आव चलीं ए धनिया ददरी क मेला.' एक समय ददरी के मेला को ले कर 'हमार बलिया बीचे बलमा हेराइल सजनी गा कर बालेश्वर ने उस औरत की व्यथा को बांचा था जो मेले में पति से बिछड़ जाती है. और उस में भी जब वह टेक ले-ले कर गाते, 'धई-धई रोईं चरनियां तो गाने का भाव द्विगणित हो जाता था. और जब जोड़ते थे, 'लिख के कहें बलेस्सर देख नयन भरि आइल सजनी !' तो सचमुच सब के नयन भर जाते थे. एक गाना वह और गाते थे शादी में जयमाल के मौके पर, 'केकरे गले में डारूं हार सिया बऊरहिया बनि के.' कई बार मैं ने देखा दुल्हने सचमुच भ्रम में पड़ जाती थीं. असमंजस में आ जाती थीं. तो यह बालेश्वर की गायकी का प्रताप था. पर जल्दी ही वह 'नीक लागे तिकुलिया गोरखपुर क' पर आ गए. और फिर जब से लइकी लोग साइकिल चलावे लगलीं तब से लइकन क रफ़्तार कम हो गइल' या 'चुनरी में लागता हवा, बलम बेलबाटम सिया द.' जैसे गीत भी उन के खाते में दर्ज हैं. 'फगुनवा में रंग रसे-रसे बरसे' ' सेज लगौला , सेजिया बिछौला हम के तकिया बिना तरसवला, बलमुआ तोंहसे राजी ना/ बाग लगौला, बगैचा लगौला, हम के नेबुआ बिना तरसवला, बलमुआ तोंहसे राजी ना !' जैसे कोमल गीत भी बालेश्वर ने गाए हैं. पर बाद में उन से ऐसे गीत बिसरने लगे और कहरवा जैसी धुन को उन्हों ने पंजाबी गानों की तर्ज़ पर फास्ट म्यूजिक में रंग दिया. बाज़ार उन पर हावी हो गया.

'बाबू क मुंह जैसे फ़ैज़ाबादी बंडा, दहेज में मांगेलें हीरो होंडा' जैसे गीत गाने वाले बालेश्वर मंडल-कमंडल की राजनीति भी गाने लगे. 'मोर पिया एमपी, एमएलए से बड़का/ दिल्ली लखनऊआ में वोही क डंका/ अरे वोट में बदली देला वोटर क बक्सा !' जैसे गाने भी वह ललकार कर गाने लगे. बात यहीं तक नहीं रूकी. वह तो गाने लगे, 'बिगड़ल काम बनि जाई, जोगाड़ चाही.' बालेश्वर कई बार समस्याओं को उठा कर उन पर भिखारी ठाकुर की तर्ज़ पर प्रहार भी करते हैं. लेकिन मनोज तिवारी सम्स्याओं का जो मार्मिक व्यौरा अपने गानों में बुनते हैं वह कई बार दिल दहला देने वाला होता है. अकादमिक पढाई-लिखाई और शास्त्रीय रियाज़ तथा मीठी आवाज़ से लैस मनोज तिवारी भोजपुरी गायकी में दरअसल खुशबू भरा झोंका ले कर आए. भोजपुरी की माटी की सोंधी महक वाला झोंका. जो कि भोजपुरी समाज के बहाने पूरा का पूरा चित्र ले कर आता है.कहूं कि मनोज तिवारी गीत नहीं दृश्य रचते और गाते हैं.तिस पर उन की आवाज़ में मिठास भी है और बोल में पैनापन भी. 'बीए का कै लेहलीं/ समस्या भारी धै लेहलीं/ समस्या भारी धै लेहलीं/कि देहियां तुरे लगलीं हो/ अरे कलेक्टरे से शादी करिहैं उडे़ लगलीं हो.' खुद के लिखे इस गीत में मनोज तिवारी ने कस्बों, गांवों के मध्यवर्गीय परिवारों में लड़की के पढ़-लिख लेने के बाद उपजी शादी की समस्या और दूसरी तरफ़ लड़की के सपनों का इस विकलता से ब्‍यौरा परोसा है कि मन हिल जाता है. लड़की की शादी जाहिर है कलक्टर से नहीं हो पाती. बात डाक्टर, इंजीनियर से होते हुए मास्टर तक जाती है और बात फिर भी नहीं बनती तो, 'कइसे बीती ई उमरिया अंगुरिया पर जोडे़ लगलीं हो.' पर आ जाती है.

इसी तरह, 'असीये से कइ के बीए बचवा हमार कंपटीशन देता' गीत में मनोज तिवारी ने बेरोजगारी की मुश्किल भरी सीवनों को ऐसा जोड़ा है कि वह मील का पथर वाला गाना बन जाता है. बेरोजगारी का ऐसा सजीव खाका कहानियों में तो मिलता है लेकिन किसी भी लोक भाषा के गाने में संभवत: पहली बार मिला है और अपनी पूरी कोमलता और टटकेपन के साथ. इसी तरह मनोज तिवारी ने 'मंगरूआ बेराम बा' में चुटकी ले - ले कर जो दारूण गाथा परोसी है वह गांव से महानगर के बीच पनप रहे संत्रास का संलाप भर नहीं है, यह एक निरंतर दुरूह होते जा रहे समाज की महागाथा भी है. 'चलल कर ए बबुनी ओढ़नी संभाल/ केकर-केकर मुंह रोकबू सैंडिल उतारि के.' जैसे गानों में मनोज छींटाकशी भी छूते हैं और विसंगति भी, यह गीत उन के पुराने गीत, 'हटत नइखे भसुरा, दुअरिये पर ठाड़ बा' की भी याद दिलाता है. 'का मिलबू रहरिया में/ आव ले चलीं तोहके शहरिया में' या फिर, 'जवन बाति बा संवरको में ऊ गोर का करी/ जवन कै दिही अन्हार ऊ अंजोर का करी' और 'नीमक पर मारि हो गइल' या फिर मैटर बदलि गइल' जैसे गाने भी मनोज तिवारी के खाते में हैं. आरोप बालेश्वर की तरह मनोज तिवारी पर भी डबल मीनिंग गानों के गाने का है. और सच यह भी है कि मनोज तिवारी के बाज़ार का रथ बालेश्वर से बड़ा हो गया.

जितना नुकसान भोजपुरी गानों का मनोज तिवारी ने अपने इधर के गाए गानों से किया है उतना शायद किसी और ने नहीं. समझौते बालेश्वर ने भी बाज़ार में जमने के लिए किए थे पर मनोज तिवारी तो जैसे गंगा में नाला और फ़ैक्टरी का कचरा दोनों ही ढकेल दिया. बताइए कि देवी गीत गाने वाले मनोज तिवारी पैरोडी गाने लगे, बात यहीं नहीं रूकी वह तो,'बगल वाली जान मारेली' गाते-गाते 'केहू न केहू से लगवइबू, हम से लगवा ल ना' भी गाने लगे? कौन कहेगा कि बीएचयू के पढे़-लिखे मनोज तिवारी राजन-साजन मिश्र के भी शिष्‍य हैं? और बाद के दिनों में तो पतन की जैसे पराकाष्‍ठा ही हो गई. खास कर भोजपुरी फ़िल्मों में बतौर अभिनेता उन का क्या योगदान है यह तो वह ही जानें पर हम तो यही जानते हैं कि उन की भोजपुरी फ़िल्में भारी बोझ हैं भोजपुरी समाज पर और कि उस में उन के गाए भोजपुरी गाने कोढ़ हैं. पर हां, बाज़ार के तो वह सिरमौर हैं चाहे भोजपुरी की आन- शान बेच कर ही सही. तिस पर उन का दंभ भरा आचरण उन्हें कहां ले जाएगा, कहा नहीं जा सकता. बिग बास में उन का घमंड तो डाली बिंद्रा को झेलने से भी ज़्यादा असहनीय था.पता नहीं उन के इर्द-गिर्द डटे सलाहकार उन्हें क्यों नहीं बताते कि गायकी खास कर भोजपुरी गायकी घर की वह लाज है जो सड़क पर नहीं इतराती फिरती. न ही नेताओं, अधिकारियों के पैर छू कर संभलती-संवरती है. उस का दर्प, उस का गुरूर अपनी मर्यादा, अपनी लाज, अपना संस्कार ही है. और भोजपुरी ही क्यों किसी भी भाषा का यही मिज़ाज़ है.

एक वाकया देखिए याद आ गया. जो कभी सपन जगमोहन सुनाते थे. कि वह लखनऊ में भातखंडे में पढ़ते थे. अचानक एक दिन एक व्यक्ति आया. लगा गाना सीखने. कोई पंद्रह दिन में ही सीख कर वह जाने लगा और आचार्य ने उस की बड़ी तारीफ की और कहा कि बहुत अच्छा सीख लिया. वह चले गए तो हम कुछ विद्यार्थियों ने ऐतराज़ जताया कि, ' वाह साहब हम लोग इतने समय से सीख रहे हैं और नहीं सीख पाए. और यह जनाब पंद्रह दिन मे सीख गए?' आचार्य ने संयम बनाए रखा. नाराज नहीं हुए. सिर्फ़ इतना भर पूछा कि, 'पता है कि वह कौन थे?' सब लोग बोले कि, 'नहीं.' आचार्य ने बताया कि, 'कुंदन लाल सहगल थे.' और जोड़ा,'बाबुल मोरा नइहर छूटो ही जाए में अवधी का टच सीखना था. और रियाज़ करना था.' सब के मुंह सिल गए थे. कि इतना बड़ा कलाकार हम लोगों के बीच रहा और पता भी नहीं चला? पर मनोज तिवारी? जब तक रहे बिग बास में आग मूतते रहे. जाने कैसे वह घर में रहते होंगे. इतना अहंकार? अहंकार तो बडे़-बडे़ लोगों को लील जाता है. क्या वह यह नहीं जानते?

दिनेश_लाल_यादव
दिनेश लाल यादव
खैर बात भोजपुरी गायकी की हो रही थी. माफ़ करें थोड़ा विषयांतर हो गया. जो भी हो भिखारी ठाकुर की गाई गई बहुतेरी धुनों और उन के गानों का इस्तेमाल फ़िल्मों में हुआ है, बालेश्वर के भी कुछ गाने फ़िल्मों में चोरी-चोरी गए. शारदा सिन्‍हा ने भी फ़िल्मों के लिए गाया है. मनोज तिवारी ने भी. पर किसी पर ऐसे आरोप नहीं लगे. मनोज पर ही लगे. किसिम-किसिम के आरोप. यहीं पर मुहम्मद खलील याद आ जाते हैं. याद आती है उन की गायकी, 'कवने अतरे में समइलू आहिहो बालम चिरई!'

दरअसल किसिम-किसिम के दबाव झेलती भोजपुरी गायकी अब जाने किस अतरे में समाती जा रही है, जहां से उसे गहमरी जी की नायिका की तरह खोज पाना दुरूह होता जा रहा है. विंध्यवासिनी देवी के वो गाए गाने, 'हे संवरो बहि गै पीपर तरे नदिया!' या ' चाहे भइया रहैं, चाहे जायं हो, सवनवा में ना जइबों ननदी ' जैसा टटकापन अब भोजपुरी गीतों से बिसरता जा रहा है. यहां तक कि कभी मज़रूह सुलतानपुरी ने एक भोजपुरी फ़िल्मी गाना लिखा था जिसे लता मंगेशकर ने चित्रगुप्त के संगीत निर्देशन में गाया था, 'लाले-लाले ओठवा से बरसे ला ललइया हो कि रस चुवेला, जइसे अमवा के मोजरा से रस चुवेला !' की मिठास आज भी मन लहका देती है. पर अफ़सोस कि यह मिठास भी अब भोजपुरी गानों में नहीं चूती! तो इस नई सदी के डाटकाम युग में भोजपुरी गानों का आगे क्या हाल होगा यह तो समय बताएगा. फ़िलहाल तो मनोज तिवारी की गाई एक भोजपुरी गज़ल यहां मौजू है: अपने से केहू आपन विनाश कै रहल बा पंछी शिकारियन पर विश्वास कै रहल बा.'

सचमुच सोच कर कई बार डर लगता है कि भोजपुरी गानों के साथ कहीं यही तो नहीं हो रहा? बाज़ार के दबाव की आड़ में. मज़रूह के शब्दों में भोजपुरी गानों का दर्द कहूं तो, 'लागे वाली बतिया न बोल मोरे राजा हो करेजा छुएला! 'फेंक देहलैं थरिया, बलम गइलैं झरिया, पहुंचलैं कि ना! उठे मन में लहरिया, पहुंचलें कि ना!' जैसे मार्मिक गाने या फिर 'आधी-आधी रतिया में बोले कोयलिया, चिहुंकि उठे गोरिया सेजरिया पर ठाढी.' जैसे गानों से चर्चा में आए मदन राय भी जल्दी ही बाज़ार के हवाले हो गए. डबल मीनिंग की राह से तो बचे पर मुहम्मद खलील के मशहूर गाने कौने खोंतवा में लुकइलू, आहिहो बालम चिरई को गाया. इस गाने में गायकी का वह रस तो सुखाया ही जो खलील बरसाते हैं, अंतिम अंतरे में गाने के बोल ही बदल कर अर्थ का अनर्थ कर देते हैं. भोलानाथ गहमरी ने जैसा लिखा है, और खलील ने गाया है कि, 'सगरी उमिरिया धकनक जियरा, कबले तोंहके पाईं' पर मदन राय गाते हैं,'सगरी उमिरिया धक्नक जियरा कइसे तोंहके पाईं.' तो कोई क्या कर लेगा? ऐसे ही और गानों में भी सुर का मिठास जिसे कहते हैं, वह नहीं भर पाते.

जैसे कि शंकर यादव हैं. उन के सुर में मिठास जैसे ठाठ मारता है. 'ससुरे से आइल बा सगुनवा हो, ए भौजी गुनवा बता द.' जैसे गाने जब वह चहक कर गाते हैं तो मन लहक जाता है. पर दिक्कत यह है कि बालेश्वर की तरह शंकर भी आरकेस्ट्रा के रंग-ढंग में स्ज-संवर कर अपने को बिलवा देते हैं, अपनी गायकी की भ्रूण हत्या जैसे करने लगते हैं तो तकलीफ होती है. यही हाल सुरेश कुशवाहा का है. वह गाते तो हैं कि, 'आ जइह संवरिया/ बंसवरिया मोकाम बा.' पर वह भी आर्केस्ट्रा के मारे हुए हैं. हालां कि गोपाल राय इन सब चीज़ों से बचते हैं. और अपने गानों में सुकुमार भाव भी भरते हैं, 'चलेलू डहरिया त नदी जी क नैया हिलोर मारे, करिअहियां ए गोरिया हिलोर मारे' जैसे गीतों में वह बहकाते भी हैं और चहकाते भी हैं. तो आनंद द्विगुणित हो जाता है. जैसे कभी बालेश्वर से उन का स्टारडम आहिस्ता-आहिस्ता मनोज तिवारी ने छीन लिया था, वैसे ही मनोज तिवारी का स्टारडम इन दिनों दिनेश लाल यादव निरहुआ लगभग छीन चले हैं. पर उन की डगर की शुरुआत ही डबल मीनिंग गाने से हुई है, 'दुलहिन रहै बीमार निरहुआ सटल रहै/ मंगल हो या इतवार, घर में घुसल रहै.' या फिर मलाई खाए बुढ़वा जैसे गानों से 'शोहरत' कमा कर बाज़ार पर सवार हुए निरहुआ की भी बीमारी पैसा ही है. भोजपुरी की हदें लांघ कर तमिल- तेलुगू तक पहुंच गए हैं, लेकिन स्टारडम में भले आगे हों गायकी की गलाकाट लड़ाई में इस वक्त निरहुआ के भी कान काटने वाले लोग आ गए हैं.

पवन सिंह
पवन सिंह
पवन सिंह गा रहे हैं, 'तू लगावेलू जब लिपिस्टिक/ हिलेला आरा डिस्टिक/ लालीपाप लागेलू/ कमरिया करे लपालप/ज़िला टाप लागेलू' या फिर नाहीं मांगे सोना चांदी/ नाहीं मांगे कंगना/ रहत हमरे आंखि के सोझा परदेसी मोरे सजना.' एक खेसारी लाल यादव हैं. वह भी गा रहे हैं, ' सइयां अरब गइलैं ना/ देवरा चूसत ओठवा क ललिया हमार/ देवरा चूसत बा.' गुड्डू रंगीला को आप सुन ही रहे हैं, 'गोरिया हो रसलीला कर/ तनी सा जींस ढीला कर !'या फिर, 'हाय रे होठलाली, हाय रे कजरा/ जान मारे तोहरी टू पीस घघरा.'मनोज तिवारी की तरह दिवाकर दुबे भी कभी देवी गीत गाते थे. फिर वह मनोज तिवारी की ही तरह पैरोडी पर आ गए. 'बहुत प्यार करते हैं पतोहिया से हम' या मजा मारे बुढ़वा पतोहिया पटा के' और कि, 'उठा ले जाऊंगा रहरिया में/देखती रह जाएंगी अम्मा तुम्हारी.' राधेश्याम रसिया गा रहे हैं, 'बंहियां में कसि के सईयां मारे लैं हचाहच' तो सानिया को सुनिए, 'मुर्गा मोबाइल बोले चोली में कुकुहू कू/ दाना खइबे रे मुर्गवा कुकुहू कू' या फिर, 'चुभुर-चुभुर गडेला ओनचनवा ए भौजी.' कलुआ को सुनिए,' लगाई देईं/ चोलिया में हुक राजा जी/ कई दीं एक गो पीछवा से चूक राजा जी! ' साथ ही सकेत होता राजा जी, दूसर ले आ दीं.' विनोद राठौर तो, ' तोहार लंहंगा उठा देब रीमोट से' तक आ गए हैं. संपत हरामी जैसे लोगों की गायकी तो हम यहां कोट भी नहीं कर सकते.

गरज यह कि भोजपुरी गानों की मान-मर्यादा, मिठास और सांस इस कदर पतित हो गए हैं कि वह समय दूर नहीं जब भोजपुरी गाने भी लांग-लांग एगो की शब्दावली में आ जाएंगे. लोग कहेंगे कि हां, भोजपुरी भी एक भाषा थी जिस में लोग अश्लील गाना गाते थे. सत्तर-अस्सी के दशक में जब बालेश्वर भोजपुरी का बिगुल फूंक रहे थे या मुहम्मद खलील भोजपुरी गीतों में रस भर रहे थे, उन की प्राण-प्रतिष्‍ठा कर रहे थे तब भी अश्लील और बेतुके गीतों का दौर था. पर छुपछुपा के.'तनी धीरे-धीरे धंसाव कि दुखाला रजऊ'या या फिर मोट बाटें सइयां, पतर बाटी खटिया' या फिर तोरे बहिनिया क दुत्तल्ला मकान मोरी भौजी जैसे गाने थे चलन में. जिस के चलते बालेश्वर ने तो सम्झौते किए पर खलील जैसे गायकों ने नहीं. आज भी एक गायक हैं रामचंद्र दुबे. आज की तारीख में भोजपुरी गायकी के सर्वश्रेष्‍ठ गायक. ईश्वर ने उन्हें सुर भी दिया है और गाने भी. और वह जब ललकार कर गाते हैं तो मन मगन हो जाता है. पर जो एक चीज़ है समझौता. वह उन्हों ने नहीं किया अपनी गायकी में. एक समय ईटीवी पर फोक जलवा में बतौर जज जब वह आते थे तब महफ़िल लूट ले जाते थे. अब महुआ पर रामायण बांचते हैं और कि कानपुर में भी प्रवचन से गुज़ारा करते हैं. पर बाज़ार की ताकत देखिए कि रामचंद्र दुबे की एक भी सीडी या कैसेट बाज़ार में नहीं हैं. बताइए मुहम्मसद खलील या रामचंद्र दुबे जैसे श्रेष्‍ठ गायकों की सीडी या कैसेट बाज़ार में नहीं है. पर संपत हरामी या कलुआ या इन-उन जैसे गायकों की सीडी से बाज़ार अटा पड़ा है. हर चीज़ की हद होती है. भोजपुरी गायकी का बाज़ार भी अब अपनी हदें पार कर रहा है. नतीज़ा सामने है. टी सीरिज़ या वेब जैसी कंपनियां जो भोजपुरी गानों का व्यवसाय करती हैं आज बाज़ार में भारी सांसत में हैं. अब की होली में अश्लील गानों की सीडी पिट जाने से भारी नुकसान में आ गई हैं. हालत यह है कि कलाकारों की सीडी जारी करने के लिए यह कंपनियां सीडी और एक लाख रूपए मांग रही हैं, कलाकारों से. और बिलकुल नए कलाकारों को तो फिर भी एंट्री नहीं है.

शारदा
शारदा सिन्‍हा
अब कुछ गायिकाओं का भी ज़िक्र ज़रूरी है. शारदा सिन्‍हा, कल्पना, मालिनी अवस्थी और विजया भारती पहली पंक्ति में हैं. शारदा सिन्‍हा के पास एक से एक बेजोड़ गाने है. एक समय जब पॉप गीतों का दौर आया था तो शारदा सिन्‍हा ने समझौता करने से इनकार करते हुए कहा था, 'ई पाप भोजपुरी में कहां समाई? ई त पाप हो जाई!' दुर्भाग्य से पुरुष गायकों ने इस तथ्य को नज़रअंदाज़ किया, नतीज़ा सामने है.शारदा सिन्‍हा ने अभी भी और जोड़-तोड़ भले किया हो, अपनी गायकी में अपनी गमक बाकी रखी है. अपनी रौनक बचा रखी है.'हम त मंगलीं आजन-बाजन सिंहा काहें लवले रे/ फूंकब तोहार दाढी में बंदूक काहें लवले रे' इस का सब से बड़ा उदाहरण है.

मालिनी अवस्‍थी
मालिनी अवस्‍थी
हर्ष की बात है कि मालिनी अवस्थी और विजया भारती ने भी तमाम दबाव के बावजूद अपनी गायकी में लोच तो बरकरार रखा है पर लोचा नहीं आने दिया है. पर एक बड़ी दिक्कत यह है कि सीडी के बाज़ार में इन दोनों की भी धूम नहीं है. विजया भारती एक अच्छी गायिका तो हैं ही कवयित्री भी हैं और अपने ही गाने गाती हैं. लाख फ़रमाइश हो पर दूसरों के गाए गाने नहीं गाती हैं. पर ले दे कर स्टेज शो और महुआ पर बिहाने-बिहाने और भौजी नंबर एक में ही सिमट कर वह रह गई हैं. यही हाल मालिनी अवस्थी का है. वह भी महोत्सवों और स्टेज शो तक सीमित हैं. मालिनी दूसरों के गाए गाने गाने में गुरेज नहीं करतीं पर अपनी गायकी में मर्यादा की एक बड़ी सी रेखा भी खींचे ज़रूर रहती हैं. हालां कि कई बार वह इला अरूण की तर्ज़ पर स्टेज परफ़ार्मर बनने की दीवानगी तक चली जाती हैं और 'काहे को व्याही विदेश' की आकुलता भी बोती हैं पर 'सैयां मिले लरिकइयां मैं का करूं' के मोह से आगे नहीं निकल पातीं. कभी राहत अली की शिष्‍या रही मालिनी बाद के दिनों में गिरिजा देवी की शिष्‍या हो गईं. राहत अली गज़ल के आदमी थे और गिरिजा देवी शास्त्रीय गायिका. कजरी, ठुमरी, दादरा, चैता गाने वाली. मालिनी खुद भातखंडे की पढ़ी हैं. पर यह सब भूल-भुला कर, मालिनी अपनी लोक गायकी में दोनों गुरूओं की शिक्षा को परे रख शो वुमेन बन चली हैं क्या शो बाज़ी को ही पहला काम बना बैठी हैं. वह भूल गई हैं कि एक किशोरी अमोनकर भी हुई हैं जो प्लेबैक भी फ़िल्मों में इस लिए छोड़ बैठीं कि इस से उन के गुरु को ऐतराज था. हृदयनाथ मंगेशकर कहते हैं कि अगर पिता जी जीवित रहे होते तो मेरे घर में कोई प्लेबैक नहीं गाता. लता मंगेशकर भी नहीं. यह बात मुझ से एक इंटरव्यू में उन्हों ने खुद कही. पर भातखंडे की पढ़ी-लिखी मालिनी इन सब चीज़ों को भूल-भाल कर बाज़ार के साथ समझौता कर बैठी हैं. स्टेज और पब्लिसिटी की जैसे गुलाम हो चली हैं. उन की गायकी और निखरे न निखरे उन की फ़ोटो अखबारों में छपनी ज़रूरी है. महोत्सवों में उन का पहुंचना ज़रूरी है. मालिनी को कोई यह समझाने वाला नहीं है कि उन की पहचान उन की गायकी से याद की जाएगी, सिर्फ़ मंचीय सक्रियता, चैनलों पर बैठने या शो बाज़ी से नहीं. खास कर तब और जब रोटी-दाल का संघर्ष भी उन के साथ नहीं है. वह सब कुछ भूल कर संगीत साधना कर सकती हैं. और कोई बड़ी गायकी का समय रच सकती हैं.

कल्‍पना
कल्‍पना
खैर, कल्पना बेजोड़ गायिका हैं. 'उतरल किरिनीया चांद से नीनिया के धीरे-धीरे हो' या नींदिया डसे रे सेजिया, कवनो करे चैना' या फिर 'जिनगी में सब कुछ करिह/ प्यार केकरो से न करिह.' जैसे अविस्मरणीय गीत कल्‍पना के खाते में दर्ज़ हैं. सीडी के बाज़ार में भी वह भारी हैं. पर शारदा सिन्‍हा, विजया भारती या मालिनी अवस्थी की तरह वह गायकी की मान मर्यादा का गुमान बचा कर नहीं रखतीं. अकसर तोड़ बैठती हैं.' गवनवा ले जा राजा जी!' तक ही बात रहती तो गनीमत रहती पर बात जब,' सुन परदेसी बालम/ हम के नाहीं ढीली/ देवरा तूरी किल्ली/ आ जा घरे छोड़ के तू दिल्ली' या फिर, 'मिसिर जी तू त बाड़ बड़ा ठंडा' या फिर 'जादव जी' जैसे गीत उन्हें बाज़ार में भले टिका देते हों पर उन की बेजोड़ गायकी में पैबंद बन कर उन्हें धूमिल करते हैं. उन की गायकी की जो साधना है, उन की जो यात्रा है वह खंडित ही नहीं, कहीं ध्वस्त होती भी दीखती है. ऐसे में भले थोडे़ ही समय के लिए गायकी में अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराने वाली ऊषा टंडन, पद्मा गिडवानी और आरती पांडेय की भी याद आनी स्वाभाविक है. खास कर उन का गाया, 'का दे के शिव के मनाईं हो शिव मानत नाहीं' या फिर 'भूसा बेंचि मोहिं लाइ देव लटकन' या फिर, 'पिया मेंहदी ले आ द मोती झील से जा के साइकिल से ना!' और कि, मोंहिं सैयां मिले छोटे से' जैसे गानों की याद भी बरबस आ ही जाती है. भले ही इन गायिकाओं का सिक्का बाज़ार में न उछला हो पर गायकी में समझौते नहीं किए इन गायिकाओं ने. एक बात भी यहां याद दिलाना मौजू है कि लता मंगेशकर ने राज कपूर के कहे से संगम में 'मैं का करूं राम मुझे बुड्ढा मिल गया' गा ज़रूर दिया पर उस गाने का मलाल उन्हें आज तलक है कि ऐसा गाना उन्हों ने क्यों गा दिया? ऐसे ही आशा भोंसले को भी मलाल है अपने कुछ गानों को ले कर. खास कर 'मेरी बेरी के बेर मत तोड़ो, नहीं कांटा चुभ जाएगा.' पर आज के गायकों को यह एहसास पता नहीं कब आएगा? अभी महुआ पर सुर-संग्राम के दौरान दिखे-सुने कुछ कलाकारों का ज़िक्र भी ज़रूरी है. भोजपुरी गायकी का यह पड़ाव भी दर्ज़ किए बिना आगे की भोजपुरी गायकी की बात बेमानी लगती है. अभी इस का दूसरा सत्र भी अपने मुकाम पर है. पर पहले सत्र में कुछ बहुत अच्छे गायक- गायिका सामने आए हैं. जो भोजपुरी गायकी के बचे रह जाने का विश्वास भी दिलाते हैं. पहले सत्र में हालां कि विजेता मोहन राठौर और आलोक कुमार घोषित हुए पर इन में सब से सधा स्वर और रियाज़ दिखा आलोक पांडेय का. अदभुत कह सकते हैं. हालां कि गायकी का आकलन एसएमएस से होना भी गायकी की पराजय ही है फिर भी जो हमारे सामने है उस में से छांट-बीन तो कर ही सकते हैं.

विजया भारती
विजया भारती
अनामिका सिंह और प्रियंका सिंह जैसी गायिकाओं भी अगर समय ने इंसाफ किया तो श्रेया घोषाल की तरह आगे बढ़ने से कोई रोक नहीं सकता. अब की के सत्र में रघुवीर शरन श्रीवास्‍तव और ममता राऊत भी हैं ही मैदान में. आगे और भी प्रतिभाएं आएंगी और भोजपुरी गायकी के नए कीर्तिमान रचती हुई भोजपुरी को अश्लीलता और फूहड़ गानों की खोह से बाहर निकालेंगी ऐसी उम्मीद तो है. मुहम्मद खलील एक पचरा गाते थे, 'विनयी ले शरदा भवानी/ सुनी ले तू हऊ बड़ी दानी !' आगे वह जोड़ते थे, 'माई मोरे गीतिया में अस रस भरि द जगवा के झूमे जवानी !' हमारी भी यही कामना है कि भोजपुरी गीतों की लहक और चहक में जगवा की जवानी झूमे और कि यह जो बाज़ार का घटाटोप अंधेरा है वह टूटे. याद दिलाना ज़रूरी है कि भले कुछ फ़िल्मों ही में सही लता मंगेशकर, मुहम्मद रफ़ी, मन्ना डे, मुकेश, तलत महमूद, हेमलता, अलका याग्यनिक और उदित नारायन ने जो भोजपुरी गाने गाए हैं उन में किसी भी तरह का कोई खोट आज तक कोई नहीं ढूंढ पाया है. वह गाने आज भी अपनी मेलोडी में अप्रतिम हैं, बेजोड़ हैं. उन का कोई सानी नहीं है.

लता और तलत का गाया लाले-लाले ओठवा से बरसे ला ललइया हो कि रस चुएला हो या फिर हे गंगा मैया तोंहें पियरी चढइबों हों या मन्ना डे का गाया हंसि-हंसि पनवा खियवले बेइमनवा हो या रफ़ी का चीरई क जीयरा उदास हो, या फिर मुकेश का हिया जरत रहत दिन रैन हो रामा हो, हेमलता का पहुना हो पहुना या फिर अभी अलका याग्यनिक और उदित का गाया सोहर जुग-जुग जीयेसु ललनवा हो. ऐसे बहुतेरे गीत हों इन गीतों में आज भी उन की गायकी का टटकापन किसी महुआ की तरह ही टपकता है, चूता है तो चित्रगुप्त की याद आ जाती है, रवींद्र जैन की याद आ जाती है. इस लिए भी कि आज के भोजपुरी गानों का संगीत भी इस कदर बेसुरा हो चला है कि मत पूछिए. शादी-बारात में पी-पा कर कुछ लड़के उस के शोर में डांस तो कर सकते हैं पर आंख बंद कर सुनने का सुख तो हरगिज़ नहीं ले सकते. बालेश्वर के एक पुराना गाना याद आता है, ' जे केहू से नाईं हारल ते हारि गइल अपने से. सचमुच भोजपुरी गायकी अपनों से ही हार गई है.

7 comments:

  1. रउरा बात त ठीक बा,लेकिन के समझी.

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  2. लाजवाब;भोजपुरी के प्रति यह चिंतन सराहनीय है। आपको इस लेख को शोधपरक ढंग से प्रस्तुत करने के लिए बहुत-बहुत आभार।

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  3. No words....simply excellent....!!

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  4. मर्म को उकेरते जीते _जीते , भोजपुरी संवेदना और उसकी लम्बी यात्रा राम तेरी गंगा मैली हो गई..जीवन_मर्म बाज़ार के भेंट चढ़ गया।
    साधुवाद,इस गहरी और संवेदनशील यात्रा के लिए।

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  5. ओह क्या खूब लिखा है आपने, मैं तो सिर्फ मोजरा का अर्थ जानने के लिए इस लेख को पढ़ने लगा यद्यपि वह नहीं मिला पर इस लेख को पढ़ कर बहुत अच्छा लगा ।

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