कभी राजेंद्र यादव-ज्योति कुमारी , कभी नीलाभ अश्क-भूमिका द्विवेदी।
यह हिंदी वाले अंगरेजी वालों से रचना के स्तर पर प्रेरणा बहुत लेते हैं , जीवन के स्तर पर भी क्यों नहीं लेते? यह वी एस नायपाल , यह सलमान रुश्दी वगैरह तो यह सब करते हुए भी अभी जीवित हैं। और बिना किसी थुक्का-फज़ीहत के । यह नारायण दत्त तिवारी बनने की फज़ीहत ज़रुरी है ? और फिर नीलाभ अश्क तो लंदन वगैरह भी रह चुके हैं और एक शानदार लेखक भी हैं। एक बड़े लेखक उपेन्द्र नाथ अश्क के पुत्र हैं। पिता की चार पत्नियां देख जान चुके हैं । उन पर लिख चुके हैं । अश्क जी पर लिखे संस्मरण के बहाने । बहुत ही दिलचस्प संस्मरण । हालां कि लखनऊ से लगायत इलाहाबाद , बनारस और दिल्ली आदि तक हिंदी में भी कई चैंपियन हैं जो यह सब कुछ बड़ी शालीनता से कई-कई जगह निभा रहे हैं। क्रीज़ पर डटे हुए हैं बाक़ायदा बैटिंग करते हुए , बाऊंसर झेलते हुए। असल में यह शौक पालने से पहले महिलाओं के बाऊंसर झेलने की क्षमता जो नहीं रखेगा , ऐसे ही शर्मसार होता रहेगा ।
लेखकों , कवियों में यह शगल या यह रवायत, यह जीवन कोई नई बात नहीं है। संस्कृत , अंगरेजी , हिंदी , उर्दू, तमिल पंजाबी आदि तमाम भाषाओं में लेखकों की ऐसी गाथाएं भरी पड़ी हैं । कालिदास , तुलसीदास से लगायत आज तक । यह मेला लगता ही रहेगा और चलता ही रहेगा । कभी रुकेगा नहीं , रुकना भी नहीं चाहिए। और लखकों में ही क्यों समाज के और हलके इस रंगीनी और इस जिंदगी से बचे हुए हैं क्या ? क्या राजनीति, क्या सिनेमा , क्या खेल , क्या विज्ञान, क्या अंतर्ध्यान , क्या यह , क्या वह ! तो साहित्य भी इसी समाज में जीता और सांस लेता है । वैसे भी यह सब समाज और जीवन का सहज और अनिवार्य तत्व है ।
रवींद्र नाथ टैगोर , शरत चंद्र , प्रेमचंद आदि सभी के जीवन में यह सब बार-बार घटित है । पर एक निश्चित परदेदारी के साथ । शरत चंद्र के यहां तो यह सब पूरी तरह पारदर्शी है । कोई परदेदारी भी नहीं । कुछ भी छुपना या छुपाना नहीं है । टैगोर के स्त्री प्रसंग भी कुछ बहुत ढके-छुपे नहीं हैं । शिवरानी देवी की किताब प्रेमचंद घर में पढ़िए । संकेत में ही सही सब कुछ लिख दिया है प्रेमचंद के बाबत शिवरानी देवी ने । शैलेश जैदी ने तो अपनी किताब में प्रेमचंद को सीधे-सीध फ्रेम कर दिया है । यहां तक कि प्रेमचंद की निर्मला में भी निर्मला के बेमेल विवाह के बीच ही वह प्रेमचंद को भी खोज लेते हैं । न सिर्फ़ खोज लेते हैं , स्पष्ट लिख भी देते हैं ।
जैनेंद्र कुमार तो एक समय यह स्थापना ही दे बैठे थे कि लेखक के लिए पत्नी के अलावा एक प्रेयसी भी ज़रूरी है। यह वही समय था जब मृदुला गर्ग का उपन्यास चितकोबरा छपा था । जैनेंद्र जी ने तब चितकोबरा की प्रशंसा की भी झड़ी लगा दी थी । तब जब कि चितकोबरा में चार-छ पन्ने छोड़ दीजिए तो कुछ भी नहीं था । बहुत पठनीय भी नहीं था । और वह चार , छ पन्ना भी तब पठनीय और आकर्षण का केंद्र था , जब भारतीय जगत ख़ास कर हिंदी की दुनिया ब्लू फिल्मों के चमत्कार और व्यवहार से परिचित नहीं थी । परिचित होती तो चितकोबरा पर किस का ध्यान उस तरह जाता भला ? और अगर यही चितकोबरा अपने समय से पांच-दस साल बाद छप कर आई होती तो शायद कोई नोटिस भी नहीं लेता । लेकिन तब तो चल गया था कि काश कि उस के तीन यह होते , चार वह होते ! आदि-आदि । और तब के दिनों भी हम लोलिता , लेडीज चैटरलीज लवर आदि या कमला दास की माई स्टोरी , अमृता प्रीतम का रसीदी टिकट तो पढ़ ही चुके थे । लेकिन चितकोबरा का वह वर्णन वहां अनुपस्थित था । और अब तो आज की तारीख़ में मृदुला गर्ग से भी बहुत आगे , बहुत बेहतर , बहुत कलात्मक, बहुत स्पष्ट और बहुत उत्तेजक , और ऐसे तमाम देह और संसर्ग वर्णन मनीषा कुलश्रेष्ठ और गीताश्री आदि के यहां उपस्थित है । यहां तक कि मैत्रेयी पुष्पा भी अब बहुत पीछे छूट गई हैं , अपने चौंकाऊ लेखन के तमाम चमत्कार के बावजूद ।
आप अजीत कौर की आत्मकथा ख़ानाबदोश पढ़िए , प्रभा खेतान की अन्या से अनन्या पढ़िए । रमणिका गुप्त की आत्मकथा पढ़िए , कृष्णा अग्निहोत्री की पढ़िए । भूल जाएंगे ज्योति कुमारी , भूल जाएंगे भूमिका द्विवेदी को । अपनी यातना , अपनी अभिलाषा और उत्कंठा के जो चित्र उपस्थित किए हैं इन लेखिकाओं ने कलेजा कांप जाता है । प्रभा खेतान अपने से आधे से भी अधिक उम्र से अधिक के डाक्टर सर्राफ के साथ जीवन जी रही होती हैं , बिना विवाह के । अपना तन-मन-धन समर्पित किए हुए , उन के विवाहित परिवार के साथ रहते हुए , उन का परिवार संभालते हुए । ख़ुद कमाते हुए । तमाम यातना और उपेक्षा जीते हुए । परेशान करने के लिए बहुत सारी घटनाएं , वर्णन हैं अन्या से अनन्या में । पर आखिर के दो दृश्यों की याद कीजिए । डाक्टर सर्राफ का बाई पास होना है । वह पहले पत्नी को मिलने को बुलाते हैं फिर प्रभा खेतान को । प्रभा से वह कहते हैं कि , मेरे बाद अब सब कुछ तुम्हें ही देखना है । मेरा परिवार भी । वह बाहर निकलती हैं कमरे से और डाक्टर सर्राफ की पत्नी भी उन की तरफ बड़ी उम्मीद से देखती हुई कहती हैं , अब सब कुछ आप को ही देखना है । ख़ैर तब तो डाक्टर सर्राफ का बाईपास सफल हो जाता है और वह बच जाते हैं । लेकिन बाद के दिनों में जब उन का निधन हो जाता है तो पद्मश्री डाक्टर सर्राफ के लिए एक श्रद्धांजलि सभा आयोजित है । सब लोग डाक्टर सर्राफ के गुणगान में , उन के परिवार के ज़िक्र में व्यस्त हैं । लेकिन प्रभा खेतान लिखती हैं , ' लेकिन इस सब में प्रभा खेतान नाम की औरत का कोई ज़िक्र नहीं था । ' उन की आत्म कथा की यही आख़िरी लाइन है । लेकिन लगता है प्रभा खेतान जैसे यह आख़िरी पंक्ति लिख कर डाक्टर सर्राफ और समाज के मुह पर एक ज़ोरदार जूता मार रही हों ।
अज्ञेय के दो कि तीन विवाह के बावजूद उन के और इला डालमिया के भी शालीन सह जीवन को हिंदी जगत कैसे भला भूल सकता है ? तब जब कि अज्ञेय और इला जी की उम्र में भी लंबा फ़र्क़ था । कितने लोग जानते हैं कि अज्ञेय की एक पत्नी ने अज्ञेय से तलाक लेने के लिए मेरठ की एक अदालत में उन्हें नपुंसक करार दिया था और अज्ञेय ने इस आरोप को सहर्ष स्वीकार कर तलाक के काग़ज़ पर दस्तख़त कर दिए थे । बात सड़क पर नहीं आई थी । अज्ञेय जी की एक पत्नी कपिला वात्स्यायन आई ए एस अफ़सर रही हैं । विदुषी हैं और अब अवकाश प्राप्त कर चुकी हैं । कपिला जी के व्याख्यान मैं ने सुने हैं । अद्भुत वक्ता हैं । लेकिन इला जी को ले कर उन दोनों के बीच कोई खटास सार्वजनिक हुई हो मुझे क्या किसी भी को नहीं मालूम होगा । अज्ञेय जी ने अपने जीवन का लंबा समय इला जी के साथ , इला जी के बड़े से बंगले में ही गुज़ारा । लेकिन उन के निधन पर उन के शव के पास कपिला जी ही बैठी मिलीं तब के फोटुओं में ।
मोहन राकेश की चौथी पत्नी अनीता राकेश ने चंद सतरें और संस्मरण में मोहन राकेश को जिस तरह , जिस आदर से उपस्थित किया है , वह अद्भुत है । तब जब कि अनीता राकेश ने इस संस्मरण में ठीक-ठाक संकेत में लिखा ही है कि उन की मां भी मोहन राकेश पर आसक्त थीं । और कि इस आसक्ति में ही वह उन्हें खूब पीटा भी करती थीं । लेकिन यह सब कहने में भी शालीनता और संकोच की परदेदारी नहीं छोड़ी है । कमलेश्वर के महिला प्रसंगों से हिंदी जगत के कई पन्ने यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं । निर्मल वर्मा के भी कई विवाह हैं और उन की आख़िरी पत्नी गगन गिल से उन की उम्र में एक लंबा फ़ासला था । पर तमाम इधर-उधर के बावजूद कभी उन दोनों की कोई बात उन के कमरे से बाहर निकली हो , यह कोई नहीं जानता । कोई जानता हो तो बताए भला । बल्कि गगन गिल निर्मल जी को आज भी संत जैसे मेरे पति निर्मल जी , कह कर ही संबोधित करती हैं । फणीश्वर नाथ रेणु के भी स्त्री और विवाह के गरिमामय प्रसंग किसी से छुपे नहीं हैं ।
एक जंगल है तेरी आंखों में,मै जहां राह भूल जाता हूं ,
तू किसी रेल सी गुज़रती है मै किसी पुल सा थरथराता हूं ।
जैसे शेर लिखने वाले गज़लों के बादशाह दुष्यंत कुमार निजी जीवन में भी जंगल जैसी आँखें आई हैं । वह भी थरथराए हैं । दुष्यंत के एक मुस्लिम महिला कथाकार के साथ के प्रसंग जब-तब सुलगते ही रहे । रघुवीर सहाय तो एक समय दिल्ली में दोस्तों का ख़ाली कमरा खोजने के लिए चर्चा का सबब बने रहे । राजेंद्र अवस्थी भी एक कवियत्री के साथ और अपने तमाम महिला प्रसंग के लिए मजाक का विषय बने रहते थे । कन्हैयालाल नंदन भी इस बाबत चर्चा में पीछे नहीं थे । क़िस्से उन के भी बहुत थे दिल्ली में ।
मनोहर श्याम जोशी बहुत बदनाम तो नहीं थे लेकिन उन के नाम पर सेंचुरी कंप्लीट हो जाने का लतीफ़ा भी कॉफी हाऊस में ख़ूब चला एक समय । सर्वेश्वर दयाल सक्सेना भी इस प्रसंग से वंचित नहीं थे । डाक्टर नागेंद्र , नामवर सिंह जैसे लोग भी इस आंच से नहीं बचे हैं और खूब झुलसे हैं । बार-बार । एक समय दिल्ली विश्वविद्यालय की एक प्राध्यापिका के ही यहां डाक्टर नागेंद्र अकसर पाए जाते थे । सर्वेश्वर जी भी वहां पार्ट टाइम करते थे , ऐसा क़िस्सा भी खूब चला था एक समय । एक विधुर कवि जो कभी जे एन यू में पढ़ाते भी रहे की उन की आधी उम्र से भी कम उम्र की एक खूबसूरत कवियत्री के साथ के क़िस्से दो दशक भी अधिक समय से दिल्ली की हवाओं में उपस्थित है । आलोक धन्वा और असीमा भट्ट का क़िस्सा लोग नहीं भूले हैं । असीमा भट्ट ने जो आलोक धन्वा को ले कर लिखा है , जिस तरह लिखा है , हिला देता है । ज्ञानेंद्रपति और पुष्पिता का सहजीवन भी एक समय चर्चा और रश्क का सबब रहा है , बनारस जैसे शहर में । पर जब दोनों विलग हुए तो किसी को पता भी नहीं चला । बस दीवार दरक गई थी लेकिन छत सही सलामत रही है । पुष्पिता ने तो देश छोड़ दिया , विवाह कर लिया, नौकरी कर ली पर ज्ञानेंद्रपति तो अभी भी अकेले हैं । चेतना पारीक का हालचाल पूछते हुए, कविता लिखते हुए । कानपुर के एक बैचलर लेखक की एक मशहूर विवाहित लेखिका से यारी और फिर अलग हो जाने की कहानी भी कौन नहीं जानता ? जो बाद में इस लेखक से बग़ावत कर एक प्रकाशक की गोद में समा गईं । हालां कि इन दिनों दिल्ली के एक मशहूर आलोचक कवि की उन पर भरपूर दृष्टि दिखती है । और कि जिस एक ट्रस्ट के वह कर्ता-धर्ता हैं वह उन पर ख़ासा मेहरबान है । रांची की एक लेखिका के जुगाड़ , वैभव और फ़ज़ीहत के क़िस्से किसे नहीं पता ? कोलकाता में तो ऐसे कई क़िस्से हैं । गोरखपुर में तो एक लेखक सिर्फ़ महिलाओं के स्पर्श और संगत के लिए ही अपने को बार-बार कुर्बान किए जाते थे । महिलाओं की किताब आने के पहले ही समीक्षा लिख देने के लिए मशहूर हो गए थे । और अब तो तमाम लेखिकाएं भी स्त्री शक्ति के इस हुनर का खूब लाभ ले रही हैं , चर्चित भी हो रही हैं और जब-तब आंखें भी दिखा दे रही हैं । यह मनबढ़ लेखिकाएं कब किस को कहां डपट दें , किस को बेइज़्ज़त कर दें कोई नहीं जानता । सो लोग चुप ही रहते हैं । यह तब है जब इन महिलाओं का जुगाड़ और भाव सब लोग जानते हैं । विभूति नारायन राय ने रवींद्र कालिया के संपादन में नया ज्ञानोदय में अपने इंटरव्यू में जो छिनार उवाच चलाया था , वह देखने में एक बार अशोभनीय ज़रूर था पर हवा हवाई आरोप था , यह कहना भी उस वक्त जल्दबाज़ी थी । आज भी है । विभूति ने ज़मीनी सच कहा था । लेकिन वाइस चांसलरी बचाने के चक्कर में विभूति और अपनी संपादकी बचाने के चक्कर में कालिया ने बेवज़ह माफीनामा पेश कर दिया । स्टैंड नहीं ले पाए । नौकरी दोनों की बच गई थी तब लेकिन उन के कहे का सच तो आज भी बचा हुआ है । इस सच को किस मखमल से धक कर कोई छुपा लेगा ? नीलाभ के उसी इलाहबाद शहर में लोगों के कम क़िस्से हैं क्या ? कि यह क़िस्से अभी जारी नहीं हैं ? फणीश्वर नाथ रेणु की आदत थी कि लेखकों को महिलाओं के नाम से चिट्ठी लिख कर तारीफ़ करते थे और उन्हें अपनी तरफ आकर्षित करते थे । एक बार मार्कण्डेय की एक कहानी पढ़ कर पटना के किसी पते से रेणु ने मार्कण्डेय को चिट्ठी लिख दी । और यह लीजिए मार्कण्डेय इलाहबाद से चल कर पटना पहुंच गए । उस पते पर , उक्त महिला से मिलने । पिटते-पिटते बचे बमुश्किल । ऐसी अनंत कहानियां हैं लेखकों के फिसल गए तो हर गंगे की । इसी इलाहबाद में धर्मवीर भारती की प्रेम कथाएं क्या अभी भी नहीं गूंजतीं ? कि गुनाहों का देवता अब वहां कहीं नहीं रहता ? कि कांता भारती की रेत की मछली नहीं रहती ? कि सूरज का सातवां घोड़ा रुक गया ? नरेश मेहता की नायिकाएं नहीं रहतीं कि अपने रवींद्र कालिया , ज्ञानरंजन और दूधनाथ की प्रेम कहानियों के अवशेष बिला गए हैं ? अज्ञेय का चिट्ठी लिख कर वह संगम की रेती पर किसी का इंतज़ार क्या थम गया है ? यह सब थम जाने वाली बातें हैं भी नहीं , थमेंगी भी नहीं । साहित्य अकादमी के अध्यक्ष रहे बंगला लेखक सुनील गंगोपाध्याय पर तस्लीमा नसरीन ने क्या- आरोप नहीं लगाए थे उन के निधन के कुछ समय पहले ही। दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाले आलोचक अजय तिवारी पर तो दिल्ली में उन की एक छात्रा ने ही उन को थाना , कचहरी करवा दिया ।
एक समय तो हम राजेंद्र यादव -मन्नू भंडारी और रवींद्र कालिया -ममता अग्रवाल को उन की रचनाओं के कारण नहीं , उन की प्रेम कथाओं के नाते ही जानते थे। प्रेम उन दिनों हिंदी में एक दुर्लभ अनुभव था । लेकिन अब यह प्रेम एक सुविधा है । हमारे लखनऊ में भी एक से बढ़ कर एक हज यात्री हैं । चूहा खा-खा कर हज यात्रा करने वालों की एक पूरी फेहरिस्त है । फिर एक से एक सती सावित्री भी उपस्थित हैं । कोर्ट मार्शल के लेखक स्वदेश दीपक तो स्त्री प्रसंगों में इस कदर विक्षिप्त हुए कि लंबे समय तक उन का इलाज हुआ । वह स्वस्थ हो कर लौटे पर फिर कोई सात-आठ साल से लापता हैं । रवींद्र कालिया ने उन के लापता होने की सूचना परोसी । अब कालिया जी अंदाज़ा लगाते हैं कि कहीं हिमालय में हैं । एक से एक धुर वामपंथी लेखक लेखिकाएं भी इस परकीया सुख सागर में उपस्थित हैं । मीर का एक शेर यहां गौर तलब है :
हम हुए तुम हुए कि मीर हुए
सब इसी ज़ुल्फ़ के असीर हुए ।
एक जंगल है तेरी आंखों में,मै जहां राह भूल जाता हूं ,
तू किसी रेल सी गुज़रती है मै किसी पुल सा थरथराता हूं ।
जैसे शेर लिखने वाले गज़लों के बादशाह दुष्यंत कुमार निजी जीवन में भी जंगल जैसी आँखें आई हैं । वह भी थरथराए हैं । दुष्यंत के एक मुस्लिम महिला कथाकार के साथ के प्रसंग जब-तब सुलगते ही रहे । रघुवीर सहाय तो एक समय दिल्ली में दोस्तों का ख़ाली कमरा खोजने के लिए चर्चा का सबब बने रहे । राजेंद्र अवस्थी भी एक कवियत्री के साथ और अपने तमाम महिला प्रसंग के लिए मजाक का विषय बने रहते थे । कन्हैयालाल नंदन भी इस बाबत चर्चा में पीछे नहीं थे । क़िस्से उन के भी बहुत थे दिल्ली में ।
मनोहर श्याम जोशी बहुत बदनाम तो नहीं थे लेकिन उन के नाम पर सेंचुरी कंप्लीट हो जाने का लतीफ़ा भी कॉफी हाऊस में ख़ूब चला एक समय । सर्वेश्वर दयाल सक्सेना भी इस प्रसंग से वंचित नहीं थे । डाक्टर नागेंद्र , नामवर सिंह जैसे लोग भी इस आंच से नहीं बचे हैं और खूब झुलसे हैं । बार-बार । एक समय दिल्ली विश्वविद्यालय की एक प्राध्यापिका के ही यहां डाक्टर नागेंद्र अकसर पाए जाते थे । सर्वेश्वर जी भी वहां पार्ट टाइम करते थे , ऐसा क़िस्सा भी खूब चला था एक समय । एक विधुर कवि जो कभी जे एन यू में पढ़ाते भी रहे की उन की आधी उम्र से भी कम उम्र की एक खूबसूरत कवियत्री के साथ के क़िस्से दो दशक भी अधिक समय से दिल्ली की हवाओं में उपस्थित है । आलोक धन्वा और असीमा भट्ट का क़िस्सा लोग नहीं भूले हैं । असीमा भट्ट ने जो आलोक धन्वा को ले कर लिखा है , जिस तरह लिखा है , हिला देता है । ज्ञानेंद्रपति और पुष्पिता का सहजीवन भी एक समय चर्चा और रश्क का सबब रहा है , बनारस जैसे शहर में । पर जब दोनों विलग हुए तो किसी को पता भी नहीं चला । बस दीवार दरक गई थी लेकिन छत सही सलामत रही है । पुष्पिता ने तो देश छोड़ दिया , विवाह कर लिया, नौकरी कर ली पर ज्ञानेंद्रपति तो अभी भी अकेले हैं । चेतना पारीक का हालचाल पूछते हुए, कविता लिखते हुए । कानपुर के एक बैचलर लेखक की एक मशहूर विवाहित लेखिका से यारी और फिर अलग हो जाने की कहानी भी कौन नहीं जानता ? जो बाद में इस लेखक से बग़ावत कर एक प्रकाशक की गोद में समा गईं । हालां कि इन दिनों दिल्ली के एक मशहूर आलोचक कवि की उन पर भरपूर दृष्टि दिखती है । और कि जिस एक ट्रस्ट के वह कर्ता-धर्ता हैं वह उन पर ख़ासा मेहरबान है । रांची की एक लेखिका के जुगाड़ , वैभव और फ़ज़ीहत के क़िस्से किसे नहीं पता ? कोलकाता में तो ऐसे कई क़िस्से हैं । गोरखपुर में तो एक लेखक सिर्फ़ महिलाओं के स्पर्श और संगत के लिए ही अपने को बार-बार कुर्बान किए जाते थे । महिलाओं की किताब आने के पहले ही समीक्षा लिख देने के लिए मशहूर हो गए थे । और अब तो तमाम लेखिकाएं भी स्त्री शक्ति के इस हुनर का खूब लाभ ले रही हैं , चर्चित भी हो रही हैं और जब-तब आंखें भी दिखा दे रही हैं । यह मनबढ़ लेखिकाएं कब किस को कहां डपट दें , किस को बेइज़्ज़त कर दें कोई नहीं जानता । सो लोग चुप ही रहते हैं । यह तब है जब इन महिलाओं का जुगाड़ और भाव सब लोग जानते हैं । विभूति नारायन राय ने रवींद्र कालिया के संपादन में नया ज्ञानोदय में अपने इंटरव्यू में जो छिनार उवाच चलाया था , वह देखने में एक बार अशोभनीय ज़रूर था पर हवा हवाई आरोप था , यह कहना भी उस वक्त जल्दबाज़ी थी । आज भी है । विभूति ने ज़मीनी सच कहा था । लेकिन वाइस चांसलरी बचाने के चक्कर में विभूति और अपनी संपादकी बचाने के चक्कर में कालिया ने बेवज़ह माफीनामा पेश कर दिया । स्टैंड नहीं ले पाए । नौकरी दोनों की बच गई थी तब लेकिन उन के कहे का सच तो आज भी बचा हुआ है । इस सच को किस मखमल से धक कर कोई छुपा लेगा ? नीलाभ के उसी इलाहबाद शहर में लोगों के कम क़िस्से हैं क्या ? कि यह क़िस्से अभी जारी नहीं हैं ? फणीश्वर नाथ रेणु की आदत थी कि लेखकों को महिलाओं के नाम से चिट्ठी लिख कर तारीफ़ करते थे और उन्हें अपनी तरफ आकर्षित करते थे । एक बार मार्कण्डेय की एक कहानी पढ़ कर पटना के किसी पते से रेणु ने मार्कण्डेय को चिट्ठी लिख दी । और यह लीजिए मार्कण्डेय इलाहबाद से चल कर पटना पहुंच गए । उस पते पर , उक्त महिला से मिलने । पिटते-पिटते बचे बमुश्किल । ऐसी अनंत कहानियां हैं लेखकों के फिसल गए तो हर गंगे की । इसी इलाहबाद में धर्मवीर भारती की प्रेम कथाएं क्या अभी भी नहीं गूंजतीं ? कि गुनाहों का देवता अब वहां कहीं नहीं रहता ? कि कांता भारती की रेत की मछली नहीं रहती ? कि सूरज का सातवां घोड़ा रुक गया ? नरेश मेहता की नायिकाएं नहीं रहतीं कि अपने रवींद्र कालिया , ज्ञानरंजन और दूधनाथ की प्रेम कहानियों के अवशेष बिला गए हैं ? अज्ञेय का चिट्ठी लिख कर वह संगम की रेती पर किसी का इंतज़ार क्या थम गया है ? यह सब थम जाने वाली बातें हैं भी नहीं , थमेंगी भी नहीं । साहित्य अकादमी के अध्यक्ष रहे बंगला लेखक सुनील गंगोपाध्याय पर तस्लीमा नसरीन ने क्या- आरोप नहीं लगाए थे उन के निधन के कुछ समय पहले ही। दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाले आलोचक अजय तिवारी पर तो दिल्ली में उन की एक छात्रा ने ही उन को थाना , कचहरी करवा दिया ।
एक समय तो हम राजेंद्र यादव -मन्नू भंडारी और रवींद्र कालिया -ममता अग्रवाल को उन की रचनाओं के कारण नहीं , उन की प्रेम कथाओं के नाते ही जानते थे। प्रेम उन दिनों हिंदी में एक दुर्लभ अनुभव था । लेकिन अब यह प्रेम एक सुविधा है । हमारे लखनऊ में भी एक से बढ़ कर एक हज यात्री हैं । चूहा खा-खा कर हज यात्रा करने वालों की एक पूरी फेहरिस्त है । फिर एक से एक सती सावित्री भी उपस्थित हैं । कोर्ट मार्शल के लेखक स्वदेश दीपक तो स्त्री प्रसंगों में इस कदर विक्षिप्त हुए कि लंबे समय तक उन का इलाज हुआ । वह स्वस्थ हो कर लौटे पर फिर कोई सात-आठ साल से लापता हैं । रवींद्र कालिया ने उन के लापता होने की सूचना परोसी । अब कालिया जी अंदाज़ा लगाते हैं कि कहीं हिमालय में हैं । एक से एक धुर वामपंथी लेखक लेखिकाएं भी इस परकीया सुख सागर में उपस्थित हैं । मीर का एक शेर यहां गौर तलब है :
हम हुए तुम हुए कि मीर हुए
सब इसी ज़ुल्फ़ के असीर हुए ।
हिंदी में हंस निकालने वाले राजेंद्र यादव भी इसी ज़ुल्फ़ के असीर थे । वह तो औरतें ऐसे बदलते रहे जैसे पाईप की तंबाकू बदल रहे हों । ताश की कोई गड्डी फेंट रहे हों । और औरतें भी एक से बढ़ कर एक । उन्हें हमेशा अपने आकर्षण में बांध लेने की प्रतियोगिता में न्यस्त होते तमाम स्त्रियों को इस हिंदी जगत ने बार-बार देखा है । यहां अब किस-किस स्त्री का नाम लूं , किस-किस का नाम न लूं ? क्यों कि इस खेल में माहिर सभी स्त्रियां सती सावित्री भी तो हैं ? और जो कोई इस बात से भी नाराज हो गई कि मेरा नाम क्यों नहीं लिया ? तो मैं यह प्रहार भी , यह शिकायत भी कैसे झेलूंगा भला ? मुझे भी इन्हीं के बीच तो जीना है ! विदा लेने की बेला मेरी अभी नहीं आई है क्या करूं ? कमलेश्वर के लिए भी यही कहा जाता रहा । फिर कमलेश्वर को दूरदर्शन और फ़िल्मी दुनिया भी नसीब थी तो गुंजाइश भी बहुत मिली उन्हें । लेकिन जैसे भी हो गायत्री जी ने कमलेश्वर के साथ अपना दांपत्य जैसे-तैसे सही बचाए रखा अंत तक । कमलेश्वर के कई-कई समानांतर दाम्पत्य के बावजूद । मन्नू भंडारी ने विस्तार से कमलेश्वर प्रसंग पर लिखा ही है । लेकिन राजेंद्र यादव की लम्पटई से ही आजिज आ कर मन्नू भंडारी राजेंद्र यादव से बिना तलाक लिए अलग रहने लगीं । निजी जीवन तोड़ लिया पर पारिवारिक जीवन शेष रखा । बेटी दोनों के बीच सेतु बनी रही । बावजूद इस सब के ज्योति कुमारी राजेंद्र यादव के लिए एक बड़ी मुश्किल , एक बड़ी चुनौती बन कर उपस्थित हो गईं । तमाम अवांतर कथाओं और क्षेपक कथाओं से होते हुए बात घर से निकल कर पुलिस, कचहरी और जेल की राह तक चली गई । तमाम लोगों को हंसते - हंसते झटका दे देने वाले राजेंद्र यादव ज्योति कुमारी और उन के शुभचिंतकों के दांव में फंस गए और यह झटका न सह सके। ज्योति कुमारी उन के जीवन का कृष्ण पक्ष बन गईं । अच्छा ही हुआ जो राजेंद्र यादव प्रकारांतर से ही सही एक स्वाभाविक मृत्यु को प्राप्त हो गए नहीं , उन की फ़ज़ीहत की एक लंबी पटकथा तो लिख दी गई थी । ऐसे क़िस्से और प्रसंग सहेजे , ऐसा शौक़ रखने वाले लेखक बहुतेरे और भी हैं । अभी भी । एक से एक शहंशाह हैं । एक से एक शाहजादियां हैं । यह जीवन का ऐसा प्रसंग है जो कभी ख़त्म नहीं होने वाला लेखकों के जीवन से। फ़िराक़ गोरखपुरी कह ही गए हैं :
किसी का यूं तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी
ये हुस्न-ओ-इश्क़ तो धोका है सब, मगर फिर भी
किसी का यूं तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी
ये हुस्न-ओ-इश्क़ तो धोका है सब, मगर फिर भी
और अब तो फेसबुक एक ऐसा अस्त्र मिल गया है , ऐसा माध्यम मिल गया है कि पूछिए मत ! युवा तो युवा एक से एक वृद्ध लेखक और लेखिकाओं के इनबॉक्स प्रेम प्रस्ताव आए दिन चर्चा का विषय बने हुए हैं । कई लेखकों को फर्जी आई डी के मार्फ़त लोगों ने खूब चूरन बांटे हैं प्रेम बूटी के । और अपने प्रेम जाल में समेट कर ख़ूब मजे लिए हैं , इनबॉक्स । वाट्सअप और मोबाईल ने लोगों को और सक्रिय कर दिया है । लेखक तो लेखक अब तो कुछ प्रकाशक भी इस प्रसंग में मशहूर हो चले हैं । कुछ प्रकाशकों की स्थिति तो इतनी मज़बूत है इस मामले में कि शहर दर शहर उन की लेखिका माशूकाएं उन का इंतज़ार करती हैं । पर इन सब की चर्चा फिर कभी।
नीलाभ अश्क |
अभी और अभी तो नीलाभ अश्क, भूमिका द्विवेदी के बहाने इस किस्से के नए सितारे हैं । फ़िलहाल तो दोनों ने फेसबुक की अपनी-अपनी दीवार से एक दूसरे की फ़ोटो , एक साथ की फ़ोटो भी हटा दी है । गोया हिंदुस्तान-पाकिस्तान हो गए हों । लेकिन फेसबुकीय साक्षरता की भेड़चाल के मारे लोग भूमिका द्विवेदी को तरह-तरह से ललकार रहे हैं । उन की रखवाली कर रहे हैं । उन के पक्ष में सराबोर हैं । भूमिका द्विवेदी का स्त्री होना , उन के पक्ष में लोगों को खींचता है , संभव है पुलिस भी उन के पक्ष में ही हो जैसे कि राजेंद्र यादव के समय लोग ज्योति कुमारी के पक्ष में खड़े कर दिए गए थे । स्त्री होने का यह एक तात्कालिक लाभ तो होता ही है । लेकिन आज की तारीख़ में ज्योति कुमारी कहां हैं? एक समय ज्योति कुमारी को बेस्ट सेलर का तमगा पहनाने वाले लोग बताएंगे? उन की वह बेस्ट सेलर किताब कहां है ? बल्कि यह भी बताएं कि राजेंद्र यादव के निधन के बाद ही वह कहां अंतर्ध्यान हो गईं आखिर ? वह भी एक समय राजेंद्र यादव के अक्षर प्रकाशन , ट्रस्ट , हंस को हड़प लेने और दस लाख रुपए नकद लेने की गणित में युद्धरत थीं । राजेंद्र यादव की बेटी ने ज्योति के इस युद्ध को अंतत: विफल कर दिया ।
भूमिका द्विवेदी |
तो क्या नीलाभ की बेटी भी भूमिका द्विवेदी के इस शर्मनाक युद्ध को विफल करने के लिए नीलाभ का साथ देगी ? और भूमिका द्विवेदी के इस युद्ध को विफल कर पिता नीलाभ को बचा लेगी ? मैं नहीं जानता । इस लिए भी कि नीलाभ तो अभी बता ही रहे हैं कि मकान आदि वह भूमिका के नाम लिख चुके हैं । यह भी बता रहे हैं कि भूमिका दो साल पहले अपनी मां के साथ बहुत नियोजित ढंग से उन्हें अपने जाल में फांसने आई थीं , प्यार करने नहीं । तमाम और विवरण के साथ अबार्शन आदि के भी व्यौरे वह परोस रहे हैं । साथ ही अपने पिता , मां , पुरानी पत्नी और बच्चों की फ़ोटो लगातार अपनी दीवार पर चिपका रहे हैं । माहेश्वर तिवारी का वह गीत है न: ' धूप में जब भी जले हैं पांव / घर की याद आई ।' तो नीलाभ को घर याद आ गया है । कुछ कविताएं भी इस श्रृंखला में उन्हों ने पोस्ट की हैं । आरोप-प्रत्यारोप के साथ ही फ़ेसबुक की दीवार पर दोनों तरफ से कविता युद्ध भी चल ही रहा है , मार पीट के आरोप भी दोनों ही लगा रहे हैं । भूमिका तो खैर क्या पिटेंगी, पिटे तो नीलाभ ही होंगे उम्र के फेर में । जैसा कि भूमिका उन्हें पितामह की उम्र का बता भी रही हैं । भूमिका अपनी एक टिप्पणी में नीलाभ के घर से चले जाने पर पीड़ित नहीं दिखतीं । बल्कि उन की असल पीड़ा यह है कि नीलाभ घर से नकदी, जेवर , ए टी एम कार्ड , लैपटॉप आदि ले कर चले गए हैं । खैर , दोनों एक दूसरे के राज़ खोल रहे हैं । एक दूसरे के झूठ भी बता रहे हैं । बिलकुल दुश्मन की तरह । लगता ही नहीं कि दोनों ने कभी प्रेम भी कोई एक क्षण जिया होगा! हां , भूमिका अब नीलाभ के नपुंसक होने , व्यभिचारी होने की , उन के वृद्ध होने के साथ ही शौक़ीन होने की लाचारी में वियाग्रा , यूनानी दवा और पांचवी की तलाश आदि के विवरण में डूबी कविता भी लिख कर उन का सार्वजनिक और निजी जीवन भी ज़रूर डुबो रही हैं । तो क्या नीलाभ डूब जाएंगे भूमिका के इस भंवर में ? नीलाभ जैसे शानदार लेखक से मुझे यह उम्मीद हरगिज़ नहीं है ! पर नीलाभ जैसे बड़े और शानदार लेखक, जीवन की इस नदी के ऐसे घाट पर भी आ कर खड़े हो जाएंगे , जहां कोई नाव नहीं बांधता , वह अपनी नाव बांधेंगे , यह उम्मीद भी तो कम से कम मुझे नहीं थी । निराला याद आते हैं :
बांधो न नाव इस ठांव , बंधु!
पूछेगा सारा गांव , बंधु!
यह घाट वही जिस पर हंस कर,
वह कभी नहाती थी धंस कर,
आंखें रह जाती थीं फंस कर,
कंपते थे दोनों पांव बंधु!
वह हंसी बहुत कुछ कहती थी,
फिर भी अपने में रहती थी,
सबकी सुनती थी, सहती थी,
देती थी सबके दांव, बंधु!
पूछेगा सारा गांव , बंधु!
यह घाट वही जिस पर हंस कर,
वह कभी नहाती थी धंस कर,
आंखें रह जाती थीं फंस कर,
कंपते थे दोनों पांव बंधु!
वह हंसी बहुत कुछ कहती थी,
फिर भी अपने में रहती थी,
सबकी सुनती थी, सहती थी,
देती थी सबके दांव, बंधु!
नीलाभ अश्क आप ने पंत की नौका विहार तो पढ़ी थी । नौका विहार पर अद्भुत संस्मरण भी लिखा है । निराला के इस गीत को भी क्यों नहीं पढ़ा ? अगर पढ़ा भी तो कभी भूल कर भी क्यों नहीं गौर किया इस पर समय रहते? इस का मर्म भी क्यों नहीं समझा उम्र की इस दहलीज़ पर ? अपने पिता का उपन्यास गिरती दीवारें भी नहीं पढ़ा? तो क्यों नहीं पढ़ा नीलाभ अश्क !
नीलाभ के बेटे अदम्य और सुकान्त की मां सुलक्षणा. |
eh ke reprint kren jaat hai
ReplyDeletejitendra
लेख से यह ध्वनि आ रही है कि यदि लेखक या लेखिका है तो उसके सम्बन्ध कइयों से होंगे ही .ऐसे में क्या यह प्रश्न नहीं उठता कि श्री दयानंद जी लम्बे समय से लेखन की दुनिया में हैं कहीं उनका भी कइयों के साथ कुछ कुछ तो नहीं चल रहा है .अच्छा होता यदि इस पर भी लेख में कुछ होता .पांडे जी का साहस देख कर उम्मीद की जा सकती कि ईमानदारीपूर्वक बात साफ़ करेंगे .
ReplyDeleteलेख से यह ध्वनि आ रही है कि यदि लेखक या लेखिका है तो उसके सम्बन्ध कइयों से होंगे ही .ऐसे में क्या यह प्रश्न नहीं उठता कि श्री दयानंद जी लम्बे समय से लेखन की दुनिया में हैं कहीं उनका भी कइयों के साथ कुछ कुछ तो नहीं चल रहा है .अच्छा होता यदि इस पर भी लेख में कुछ होता .पांडे जी का साहस देख कर उम्मीद की जा सकती कि ईमानदारीपूर्वक बात साफ़ करेंगे .
ReplyDeleteadbhut alekh
ReplyDeleteचिराग तले अंधेरा , गज़ब का सच , सचमुच विस्मित , लंगोट के ढीले , वाकई बहुत खूब ।
ReplyDeleteकोई न बचा। सब कवर हो गये हैं। एकाध पद्मश्री और होंगे। खूब लिखा है।
ReplyDeleteनीलाभ ने क्या नहीं पढ़ा और क्यों नहीं पढ़ा, पता नहीं, बस इतना पता है "विनाश काले विपरीत बुद्धि "।
ReplyDeleteनीलाभ ने क्या नहीं पढ़ा और क्यों नहीं पढ़ा, पता नहीं, बस इतना पता है "विनाश काले विपरीत बुद्धि "।
ReplyDeleteबेहतरीन
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