दयानंद पांडेय
पेंटिंग : अवधेश मिश्र
स्त्रियां जन्मजात बागी होती हैं
अपनी मां से वह इसे विरासत में पा लेती हैं
चुपचाप
पिता , भाई , प्रेमी , पति और पुत्र
निरंतर उस के बागी होने को
खाद देते ही रहते हैं
यह समूचा पुरुष समाज देता रहता है खाद
स्त्री की बगावत का पौधा बढ़ता रहता है
यह पौधा कब वृक्ष बन जाता है
और यह वृक्ष बढ़ते-बढ़ते कब वन बन जाता है
स्त्री जान नहीं पाती
और जब इस वन में बगावत की आग सुलगती है
तो यह सारे पुरुष
पिता , भाई , प्रेमी , पति और पुत्र
उस के बागी होने की आग को
घी देते हैं निरंतर
और जब इस वन में
आग लगती है
बगावत की इबारत और तल्ख, और तेज़ होती है
तो पुरुष सत्ता और उस की तानाशाही की एक दमकल
आ खड़ी होती है
स्त्री के इस वन के बगावत की आग को
बुझाने के लिए
आग बुझ जाती है
लेकिन
स्त्री की बगावत का एक दिया जलता रहता है
चुपचाप
स्त्री के बागी होने के सारे इंतज़ाम
सदियों से पैबस्त हैं
पर यह बगावत
इक्का दुक्का ही सही
कभी - कभी शोला बन जाती है
याद रहे
स्त्री जब फूलन बन जाती है
तो पुरुषों की सारी ठकुराई भुलवा देती है
लेकिन सभी स्त्रियां फूलन नहीं बन पातीं
सो स्त्रियों की यह बगावत
प्राय: शोला नहीं बन पाती
क्यों कि यह स्त्री
एक मां है
स्त्री का यह मां होना
उसे ताकत भी देता है
और कमज़ोर भी
बना देता है
स्त्री का यह मां होना
उसे फुल टाइमर बागी होने से
रोक लेता है
सोचिए कि कहीं फूलन भी अगर मां होती
तो क्या समय की दीवार पर
उस की बगावत के यही सुर
और यही इबारत दर्ज हुई होती भला
मज़ाक में ही सही
एक मुहावरा चलता है कि
शादी की शुरुआत में स्त्री चंद्रमुखी होती है
फिर सूर्यमुखी होती है
और अंतत: ज्वालामुखी !
यह मज़ाक नहीं है
सच है
स्त्री की बगावत की शिनाख्त है
यह मज़ाक भरा मुहावरा
सवाल यह है कि
यह चंद्रमुखी
सूर्यमुखी या
ज्वालामुखी में
स्त्री तब्दील होती कैसे है
करता कौन है
मैं ने पाया है
कि प्रेमिकाएं भी बागी हुआ करती हैं
और पत्नी तो पैदाइशी
लेकिन चुपचाप
आप देखिए कि
ज़्यादातर घरों में
साठ सत्तर पार की स्त्रियां
कभी-कभी हिटलर को भी मात करती
कैसे तो घर भर पर हुकुम चलाती मिलती हैं
और पति को ज़ुबानी हंटर मारती मिलती हैं निरंतर
वह ऐसे उछलती और बिछलती मिलती हैं
गोया किसी सोफे का स्प्रिंग सदियों से दबा पड़ा रहा हो
और अब वह मुक्त हो कर उछाल पा गया हो
आकाश भर उछल जाना चाहती हैं यह स्त्रियां
आप गौर से देखिए
इस परिघटना को
यह भी स्त्री की बगावत की एक इबारत है
पुरानी इबारत
स्त्रियों का पिटना आम बात है
लेकिन आप ने कभी किसी सत्तर - अस्सी पार की
स्त्री को भी पति से पिटते देखा है
ज़रूर देखा होगा
विद्या सिनहा को जानते हैं आप
हिंदी फिल्मों की एक समय की मशहूर अभिनेत्री
सत्तर के दशक में
जिन पर एक पीढ़ी फ़िदा थी
कई बार यूं ही देखा है
ये जो मन की सीमा रेखा है
रजनीगंधा फिल्म के इस गीत को जो अर्थ उन्हों ने दिया
आप भूले नहीं होंगे
लेकिन देखिए कि
आप यह बिलकुल भूल गए हैं कि
यही विद्या सिनहा कुछ समय पहले
मुंबई के एक थाने में अपने सत्तर वर्षीय पति के खिलाफ
अपनी पिटाई की रिपोर्ट लिखवा आई थीं
त्याग पत्र फिल्म की विपदा जैसे
उन के जीवन में उत्तर आई थी
अब उन के जीवन में बस गई है फिर-फिर
और यह विपदा किस-किस स्त्री के जीवन की विपदा नहीं है
राजेश खन्ना के खिलाफ
डिंपल कपाड़िया का विद्रोह और उन की लड़ाई
बहुत पुरानी नहीं है
और अभी-अभी
एक प्रेमिका
प्रीती जिंटा
जो लड़ी नेस वाडिया से
कि उन का सारा कारपोरेट भहरा गया
ज़मीन पर आ गई
सारी कारपोरेटी अकड़
उत्तर गई सारी लीपा-पोती
स्त्रियां इसी लिए पैदाइशी बागी होती हैं
कभी बुरका ओढ़े फोटो खिंचवाती स्त्रियों को देखा है
इस बुरके के भीतर से टुकुर-टुकुर झांकती आंखों को देखा है
उन की इस यातंना को बांचा है
मुंह ढक कर भी फोटो खिंचवाया जाता है भला
इस नेट और जेट के युग में भी
बुरका पहन कर भी कैसे स्कूटर या कार चला लेती हैं यह लोग
अब ऐसे में भी स्त्री बागी नहीं होगी
तो क्या होगी
बागी तो हमारे मंदिरों की देवियां भी होती हैं
दुर्गा को देखिए
शक्ति का स्वरूप क्या मुफ्त में बन गईं
काली को देखिए
दुष्टों के दमन में , पुरुषों के खिलाफ विद्रोह में
वह देवाधिदेव कैलाशपति शंकर को भी नहीं बख्शतीं
जीभ भले बाहर निकाल दें
पर शिव शंभू को भी अपने पांव तले कुचल देती हैं
शंकर पर ही चढ़ जाती हैं
पार्वती का सती होना
पिता से अपमानित हो कर
पिता के खिलाफ बगावत नहीं थी
तो क्या थी
अच्छा लव कुश ने
पिता राम के
अश्वमेध के घोड़े
क्या बिना मां सीता की मर्जी के रोक लिए थे
खेल-खेल में
क्या यह सीता की बगावत नहीं थी
राम के खिलाफ
बिन बोले
स्त्रियों की बगावत
कई बार ऐसे ही होती है
बिन बोले
चुपचाप
और वह कैकेयी
क्या वह बारंबार दशरथ से
विद्रोह नहीं करती थी
तो करती क्या थी
दुलरुवा बेटे को वनवास दिलवा देना भी
विद्रोह ही था
बगावत ही थी
धृतराष्ट्र से विवाह के बाद
गांधारी का अपनी आंख पर
पट्टी बांध लेना भी क्या विद्रोह नहीं था
खामोश विद्रोह
और पैदा होते ही
कुंती द्वारा कर्ण का त्याग
क्या सिर्फ़ लोक लाज का भय भर था
सूर्य से विद्रोह नहीं
कि जाओ
मैं अगर मां नहीं
तो तुम भी पिता नहीं
लेकिन क्या माता - पिता भी
छुप पाते हैं
जानते-जानते
सब जान जाते हैं
होने को तो
कुंती का कोई भी पुत्र
जायज नहीं था
लेकिन तजा
उस ने सिर्फ़
कर्ण को ही क्यों
और वह पांचाली
स्त्री विद्रोह की उस से बड़ी मिसाल भी
कोई और है क्या
एक समूचे राजवंश और राज्य का नाश
किसी और के खाते में है क्या
किस्से बहुतेरे हैं
पौराणिक भी , ऐतिहासिक भी और आज के भी
पद्मावती , लक्ष्मीबाई से लगायत इंदिरा गांधी तक के
सिलसिला निरंतर जारी है
तालिबानों से निहत्थी लड़ने वाली
यह मलाला यूसुफ़ जई क्या है
यह मेधा पाटेकर , यह तस्लीमा नसरीन , यह अरुंधती रॉय क्या हैं
यह विद्रोही और बगावती औरतें ही हैं
यह अनायास नहीं है कि
आज के युवा पुरुष
विवाह के लिए
भरपूर दहेज, अच्छे कैरियर वाली लड़की आदि के साथ ही
मोम की गुड़िया खोजते हैं
सब को ऐश्वर्या राय चाहिए होती है
लेकिन वह यह नहीं जानते कि
ऐश्वर्या राय भी कभी विद्या सिनहा में तब्दील हो सकती है
डिंपल कपाड़िया भी हो सकती है
और प्रीती जिंटा भी
यह दहेज आदि का सबब भी क्या कम होता है
किसी स्त्री को बागी बनाने के लिए
बस इस दबे हुए स्प्रिंग को
बस खुले होने और खुल जाने का समय चाहिए
वह मलाला बन जाएगी
जो उसे ऐसे ही दबाते रहे लोग
आज़ादी में इतनी ताकत होती है कि
उसे गोलियों का डर नहीं होता
यह अनायास नहीं है कि
तमाम पुरुषों को अपरिचित स्त्री
सुंदर दिखती है
सौंदर्य की साम्राज्ञी
भले ही क्यों न कुरूप भी हो
सुंदर दिखेगी
लेकिन परिचित औरत
ज़रा सा भी अनबन
हो जाने पर
जहरीली लगती है
लाख सुंदर हो
पर सर्पिणी से भी ज़्यादा विषैली दिखती है
तो क्या कुछ पुरुष भी बगावत पर आमादा हैं
ताकि स्त्रियों की बगावत पर लगाम लगा सकें
प्रति बगावत क्या इसी को कहते हैं
पर अब सभ्य लोग
स्त्री के साथ खड़े हैं
लोग जान गए हैं
कि स्त्री की अस्मिता के साथ
खड़ा होना ही
सभ्य होना है
आइए
इस कतार में
आप भी
अपने को खड़ा कीजिए
चुपचाप
स्त्रियों को बगावत के लिए
मत उकसाइए
मत दीजिए उन के बगावती पौधे को खाद
न ही उन के बगावती आग में घी डालिए
नहीं अभी स्त्री सिर्फ़ बोल रही है
कुछ दिन बाद
यह स्त्री का बोलना
बारूद बन जाएगा
बचिए इस बारूद से
स्त्री
और उस की अस्मिता के साथ
खड़े हो जाइए
चुपचाप
यह गीली लकड़ी
बहुत सुलग चुकी है
उस में दियासलाई मत लगाइए
उसे अब
और बागी मत बनाइए
अपने घर और समाज को सुंदर और स्वस्थ बनाइए
[ 21 नवंबर , 2014 ]
"स्त्री की अस्मिता के साथ
ReplyDeleteखड़ा होना ही
सभ्य होना है "
ये हुई न बात।
सुधर रही मानुष जात।।
सच में..
ReplyDelete''पिता, भाई, प्रेमी , पति और पुत्र
निरंतर उस के बागी होने को
खाद देते ही रहते हैं
यह समूचा पुरुष समाज देता रहता है खाद
स्त्री की बगावत का पौधा बढ़ता रहता है
यह पौधा कब वृक्ष बन जाता है
और यह वृक्ष बढ़ते-बढ़ते कब वन बन जाता है
स्त्री जान नहीं पाती''
और अंत में अच्छा संदेश भी है इस कविता में...
''यह गीली लकड़ी
बहुत सुलग चुकी है
उस में दियासलाई मत लगाइए
उसे अब
और बागी मत बनाइए
अपने घर और समाज को सुंदर और स्वस्थ बनाइए''
बचिए इस बारूद से
ReplyDeleteस्त्री
और उस की अस्मिता के साथ
खड़े हो जाइए
चुपचाप
यह गीली लकड़ी
बहुत सुलग चुकी है
उस में दियासलाई मत लगाइए
नमस्कार! प्रतिरोध का इतिहास अच्छा लगा. आभार.
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