दयानंद पांडेय
पेंटिंग : अवधेश मिश्र
पर्वत है , वन है, वन की हरियाली है
और स्त्री फ़ोटो खिंचवा रही है
और वृक्षों के बीच खुद को देखना चाहती है
लगभग ज़िद की हद तक
कि जैसे वृक्ष हरे भरे हैं
उन के बीच वह भी हरी भरी दिखे
वह नहीं जानती कि प्रकृति ने
वृक्षों , वनस्पतियों और नदियों के साथ
स्त्री को भी
हरी भरी होने की शक्ति पहले ही से दे रखी है
तब तक जब तक उसे काट न दिया जाए
वृक्ष हो , वनस्पति हो , नदी हो या स्त्री
लोग उसे काटते और बांटते बहुत हैं
पर इस बात से बाख़बर
वह वृक्षों के बीच खुद को देखना चाहती है
बज़िद
लेकिन कैमरे में उस की यह ज़िद
समा नहीं पा रही
जाने फ़ोटो खींचने वाले की यह मुश्किल है
नासमझी है या
कैमरे की कोई सीमा है
या स्त्री के भीतर की हरियाली कम पड़ रही है
कि वृक्षों की हरियाली फ़ोटो में ज़्यादा दिख रही है
वृक्ष ज़्यादा, स्त्री कम !
जाने यह पहाड़ पर घूमने की उछाह है
व्यस्तता है
या कुछ और
पर स्त्री अस्त व्यस्त भी बहुत दिख रही है
ऐसे जैसे उस के अंग भी
उस के स्त्री चिन्ह भी
उस से बग़ावत कर रहे हैं
अपनी जगह व्यवस्थित नहीं हैं
इधर उधर हो गए लगते हैं
कोई ऊपर , कोई नीचे
उस के वक्ष जैसे हिल से गए हैं
ऐसे जैसे इस हरियाली के बीच
पर्वत डग-मग हो गए हों
जैसे नदी में नाव हिल गई हो
उस के केश भी उस का साथ नहीं दे रहे
बिखर जा रहे हैं
उस के बिखरे जीवन की तरह
पर्वतीय हवाओं के झोंके में
उस के केश भी पत्तों की तरह
हिल डुल रहे हैं , उड़-उड़ जा रहे हैं
स्त्री को इस तरह खुले बाल रखने की आदत नहीं है
लेकिन यहां पर्वतों पर वह विचरने आई है
सो जैसे वह घर से निकल कर खुल गई है
ऐसे जैसे कोई गाय खूंटे से खुल गई है
तो बाल भी खुल गए हैं
वर्जनाएं टूट गई हैं
स्त्री का आंचल भी ढलक गया है
ढलक गया है कि बगावत कर गया है
यह वह क्या कोई भी नहीं जानता
यह पर्वत , यह वन और वृक्ष भी नहीं
तो क्या स्त्री यह फ़ोटो
अपनी बग़ावत की शिनाख्त ख़ातिर
खिंचवा रही है
फ़ोटो के बहाने
वन में बसे वृक्षों से बतिया रही है
अपने साथ ही वह इन हरे भरे वृक्षों को भी
उकसा रही है
कि आओ मेरे साथ तुम भी बग़ावत करो !
लोग तुम्हें काट दें
तुम्हें बेच कर
पैसे बांट लें
इस के पहले ही बग़ावत कर दो
मैं भले घूमने आई हूं पर्वत और वन
पर यह तो बहाना है
मैं तुम्हें बग़ावत के लिए
उकसाने आई हूं
क्यों कि
तुम बचे रहोगे
तो मैं भी बचूंगी
कुछ लोगों के लिए
बग़ावत भी दुकानदारी है
लेकिन मेरी नहीं
मैं संकेत दे रही हूं
क्यों कि
मेरी बग़ावत खुली नहीं हो सकती है
मेरा घर है , बच्चे हैं
कट कर भी उन से
जुड़े रहना मेरी लाचारी है
वैसे भी
कोई स्त्री, नदी , वन या कोई वनस्पति
या प्रकृति
कभी खुल कर बग़ावत करती भी नहीं
वह सहती रहती है
सहती रहती है
और एक दिन अचानक
फूट पड़ती है
ज्वालामुखी बन कर
कोई प्राकृतिक आपदा बन कर
तुम ने कभी बाढ़ नहीं देखी
कि भूकंप नहीं देखा
कभी सुनामी नहीं देखी
या फिर अपने ही जंगल की आग नहीं देखी
स्त्री में भी ऐसे ही बाढ़ आती है
भूकंप , सुनामी भी और आग भी
भीतर-भीतर
जैसे धरती खदबदाती है
और अचानक बदल जाती है
मेरे यह इधर उधर हो गए वक्ष ,
मेरे बल खाते बिखरे यह केश ,
मेरा यह ढलका आंचल
क्या तुम्हें कुछ नहीं बताते
हां, मेरे चेहरे पर बसी बनावटी हंसी
मेरे होठों पर लगी यह शोख़ लिपिस्टिक
तुम्हें विस्मित करती होगी
लेकिन मेरी आंखों में बसा वनवास
और यह वनवासी हंसी भी
तुम से कुछ छल करती है क्या
मैं तो उजाड़ हो गई हूं
तुम से
तुम्हारी हरियाली
पीने आई हूं
अपने भीतर का ख़ालीपन भरने आई हूं
और तुम मुझ से
कुछ भी नहीं चाहते
हे वृक्ष
इतने सहनशील मत बनो
एक स्त्री मत बनो
मेरी तरह यह फ़ोटो मत बनो
[ 18 नवंबर, 2014 ]
कमाल की कविता है सर
ReplyDeletefine poem
ReplyDeleteइतने सहनशील मत बनो
ReplyDeleteएक स्त्री मत बनो
........एक स्त्री की सलाह !!!!
मेरी तरह फोटो न बनो।
ReplyDeleteमैं तुम्हें बगावत के लिए उकसाने आयीं हूँ।
.......
अद्भुत विचार शृंखला।
सच में...स्त्री में सहनशीलता और बगावत दोनों का रूप है...
ReplyDelete''वृक्ष हो , वनस्पति हो , नदी हो या स्त्री
लोग उसे काटते और बांटते बहुत हैं
पर इस बात से बाख़बर
वह वृक्षों के बीच खुद को देखना चाहती है...
स्त्री में भी ऐसे ही बाढ़ आती है
भूकंप , सुनामी भी और आग भी
भीतर-भीतर
जैसे धरती खदबदाती है
और अचानक बदल जाती हैl
वाह! आपकी लेखनी ने इस कविता में जैसे स्त्री के अंतर्मन की तमाम भावनाएं उकेर दीं l
वह सहती रहती है
ReplyDeleteसहती रहती है
और एक दिन अचानक
फूट पड़ती है
ज्वालामुखी बन कर.......स्त्री मन की छ्टपटाहट ....का अद्भुद रेखांकन ..............
साधुवाद सर !
ReplyDeleteGreat kavita Sir
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